चौथा प्रश्न :
आप मोरारजी देसाई की आलोचना क्यों करते? क्या राजनीति अध्यात्म के विपरीत है?
कौन मोरारजी देसाई? कभी नाम सुना नहीं! आपका मतलब मगरूरजी भाई देसाई से तो नहीं है? या एक नाम और मैं सुना है—मॉरल जी भाई देसाई। 'एम ओ आर ए एल, मॉरल—
आलोचना मैंने उनकी कभी की नहीं, आलोचना करने योग्य उनमें कुछ है नहीं। आलोचना करने योग्य कुछ होना तो चाहिए। राजनीतिज्ञों में क्या हो सकता है आलोचना करने योग्य? उनके वक्तव्यों का मूल्य क्या है? दो कौड़ी मूल्य नहीं है। आलोचना मैंने उनकी कभी नहीं की। हां, कभी—कभी मजाक करता हूं। उससे ज्यादा मूल्य नहीं मानता। कभी—कभी तुम्हें हंसाने को! तो जब भी मैं उनकी मजाक करूं, भूल कर भी आलोचना मत समझना। और जब भी उनकी मजाक तुम सुनो, या पढ़ो, कोष्ठक में जोड़ लेना, अपनी तरफ से— 'होली है, बुरा न मानो!'
लेकिन तुम्हें आलोचना लगती होगी। क्योंकि तुम आदमी नहीं हो। तुम तो जिनके पास राजसत्ता है, उनकी प्रशंसा सुनने के ही आदी हो। प्रशंसा करके के आदी हो और प्रशंसा सुनने के आदी हो। तुम राजसत्ता से ऐसे मोहित हो गये हो कि जिन व्यक्तियों का कोई भी मूल्य नहीं है, वह पद पर बैठने से ही एकदम महामूल्य के हो जाते हैं। और मजा यह है कि पद से उतरते ही फिर निमूल्य हो जाते हैं। फिर कोई नहीं पूछता उन्हें। पद पर होते हैं तो एकदम आकाश में उठ जाते हैं। और पद गया कि फिर कोई नहीं पूछता उन्हें। फूलमालाएं तो दूर लोग जूते इत्यादि भी नहीं फेंकते। बिलकुल ही भूला देते हैं।
तुम्हें आदत नहीं है। शायद इसीलिए मैं बार—बार मजाक में उनके नाम ले लेता हूं जो सत्ता में हैं। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि सत्ता एक मखौल है। एक झूठ है। जिससे आदमियत मुक्त हो जाए तो अच्छा। राजनेताओं से आदमी मुक्त हो जाए तो अच्छा। राजनीति का इतना प्रभाव नहीं होना चाहिए। ठीक है, उसकी उपयोगिता है। मगर उसकी उपयोगिता इतनी नहीं है कि सारे अखबार उसी से भरे रहें। और सारे देश में उसीकी चर्चा चलती रहे। जिंदगी में और भी काम की बातें हैं। जिंदगी में और भी बहुमूल्य कुछ है। राजनीति यानी महत्वाकांक्षा। पदलोलुपता। लेकिन तुम्हारे मन पदलोलुप हैं। इसलिए जो पद पर पहुंच जाते हैं, उनके प्रति तुम्हारे मन में बड़ी प्रशंसा होती है। ध्यान रखना, क्यों होती है? तुम भी पदलोलुप हो। तुम भी चाहते थे। कि पहुंच जाते, लेकिन नहीं पहुंच पाए, दूसरा पहुंच गया,तुम सम्मान में सिर झुकाते हो। तुम कहते हो, हम तो हार गये, लेकिन आप पहुंच गये। कोशिश हम अभी जारी रखेंगे,कि किसी दिन हम भी पहुंच जाएं।
तुम खयाल रखना, तुम उसीका सम्मान करते हो जो तुम होना चाहते हो। तुम्हारे सम्मान में कसौटी है। वे दिन अदभुत दिन रहे होंगे, जब लोगों ने बुद्ध का सम्मान किया, और राजाओं की फिकिर न की।
बुद्ध एक गांव में आए। उस गांव के वजीर ने अपने राजा से कहा कि बुद्ध का आगमन हो रहा है—वजीर बूढ़ा था, सत्तर साल की उस का था; राजा अभी जवान था, अपनी अकड़ में था, अभी— अभी उसने कुछ जीत भी की थी और राज्य को बढ़ा लिया था—वजीर ने कहा कि बुद्ध आ रहे हैं, आप स्वागत को चलें। उस राजा ने कहा—मैं क्यों जाऊं स्वागत को? आखिर बुद्ध एक भिखारी ही हैं न! एक संन्यासी ही हैं न! आना होगा मिलने तो मुझसे मिलने आ जाएंगे,मैं क्यों जाऊं मिलने को? उस वजीर ने यह सुना, इस्तीफा लिखने लगा। राजा ने पूछा, क्या लिख रहे हो? उसने कहा—यह मेरा इस्तीफा है। अब तुम्हारे पास बैठना उचित नहीं। अब मैं इस महल में नहीं रुक सकता। क्यों, राजा ने पूछा। उस वजीर ने कहा—जिस राजा को यह खयाल आ जाए कि वह बुद्धों को भिखारी कह सके, उसकी छाया में भी बैठना पाप है, गुनाह है। क्षमा करें मुझे। मुझे मुक्ति चाहिए।
राजा को बोध आया, बात तो ठीक थी। उसने पूछा—लेकिन तुम मुझे समझाओ तो। उस वजीर ने कहा—समझाना क्या है? बुद्ध भी राजा थे, तुमसे बड़ी उनकी हैसियत थी, तुमसे बड़ा उनका राज्य था, और चाहते बढ़ाना तो बहुत बढ़ा सकते थे। उस सबको छोड़ दिया, लात मार दी। तुम अभी पदलोलुप हो, तुम अभी धन के पीछे पागल हो, यह आदमी उस पागलपन के बाहर हो गया, यह तुमसे बहुत आगे है। इसका सम्मान तुम्हें करना ही चाहिए।
ऐसे दिन थे! राजा फकीरों का सम्मान करते थे।
मुहम्मद ने तो कुरान में कहा है; कोई फकीर कभी किसी राजा के घर न जाए। जब भी आना हो, राजा फकीर के घर आए।
तब ऋषियों का एक सम्मान था। क्योंकि लोग ऋषि ही होना चाहते थे। ध्यान रखना, तुम जो होना चाहते हो,उसी का सम्मान तुम्हारे मनन में होता है। तब संन्यासियों का सम्मान था। अब नेताओं का और अभिनेताओं का सम्मान है। या तो नेता आए तो भीड़ इकट्ठी होती है, या अभिनेता आए तो भीड़ इकट्ठी होती है। बुद्ध आए तो और अगर तुम उस रास्ते जाते होते हो तो दूसरे रास्ते निकल जाते हो। कौन झंझट में पड़े? वहां क्या जाना? अभी तो जिंदगी बहुत पड़ी है। अभी प्रार्थना नहीं करनी है, अभी ध्यान नहीं करना है। अभी ये और ऊंची बातें हमें सुननी नहीं हैं। अभी तो नीची बातों का पूरा भोग कर लेना है। अभी तुम बुद्ध के पास नहीं जाते। अभी तुम नेता, राजनेता के पास जाते हो।
यह मनुष्य की बड़ी विकृत स्थिति हुई।
क्यों जाते हो तुम अभिनेता के पास? तुम फर्क देख लेना। अभिनेता के पास तुम्हें युवक और युवतियों की भीड़ मिलेगी। क्यों? क्योंकि वे सब अभिनेता होना चाहते हैं। और राजनेताओं के पास तुम्हें उन लप्तेगें की भीड़ मिलेगी जो राजनेता होना चाहते हैं। छोटे—मोटे सही! सरपंच हो जाएं! कि मेयर बन जाएं। कि मिनिस्टर हो जाएं। कि कुछ भी हो जाएं। चार आदमियों की गर्दन पर हाथ आ जाए अपना। कब्जे में आ जाएं।
किसी ने आज मुझे अखबार की एक 'कटिंग' भेज दी है, कि गणेशपूरी के मुक्तानंद मोरारजी देसाई का दर्शन करने पहुंचे हैं। अब मुक्तानंद को मोरारजी देसाई के दर्शन करने जाने की क्या जरूरत है? और फिर जो बातचीत हुई है,वह और भी बड़ी महत्वपूर्ण है। मुक्तानंद ने कहा कि यह देश साधुओं का देश। साधुओं के कारण ही यहां की सब उन्नति होती रही है। और हम बड़े सौभाग्यशाली हैं कि एक साधु ही आपके रूप में हमारा प्रधानमंत्री है। इस तरह के'खुशामदानद' इस देश को विकृत करते रहे हैं।
लेकिन तुम भी इस तरह कि बातें सुनने के आदी हो गये हो, इसलिए जब मैं कभी किसी राजनेता की मजाक में कुछ कह देता हूं तुम्हें भी बड़ी हैरानी होती है! तुम सोचते हो आलोचना कर रहा हूं। आलोचना नहीं कर रहा हूं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि ये बातें मजाक से ज्यादा मूल्य नहीं रखतीं। उपेक्षा चाहिए। जीवन किसी और बड़े सत्य की खोज के लिए हैं।
मगर यह चलता है। तुम्हारे साधु— संन्यासी सब दिल्ली की तरफ जाते हैं। राजनेताओं से मिलने पहुंचते हैं। राजनेता उनसे मिलने नहीं आते। राजनेताओं का दर्शन करने जाते हैं। किस तरह के साधु—संन्यासी है? क्या प्रयोजन तुम्हें? लेकिन साधु—संन्यासी नहीं हैं, साधु—संन्यासी के रूप में छिपे हुए राजनीतिज्ञ हैं। इसलिए तो राजनीतिज्ञ को भी साधु कह पाते हैं। बात बिलकुल ठीक कही मुक्तानंद ने। मुक्तानंद में कहीं राजनीति होगी। उसी राजनीति के कारण गये होंगे। नहीं तो जाने की कोई जरूरत न थी। मुक्तानंद ऊपर से साधु हैं, भीतर कहीं राजनीति पड़ी है। कहीं कुछ लाभ की दृष्टि होगी, खुशामद से कुछ पा लेने का इरादा होगा। और राजनेता को साधु कहना! तो फिर असाधु कौन होगा? फिर तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर असाधु कोई हो ही नहीं सकता। राजनेता तो आखिरी दर्जे का असाधु है।
एक सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं शराब पीता हूं, मांसाहार भी करता हूं कभी दीवाली इत्यादि को जुआ भी खेल लेता हूं। और आप कहते हैं आप सबमें परमात्मा देखते हैं, क्या आप मुझमें भी परमात्मा देखते हैं? मैंने कहा—मैं मोरारजी देसाई तक में परमात्मा देखता हूं! तुम्हारी तो हैसियत ही क्या है? तुम तो हो किस गिनती में! राजनेता तो आखिरी है। उसके कारण तो मनुष्यजाति बड़े कष्टों में पड़ी है। सारे युद्ध, सारी हिसाएं, सारी जालसाजियां,सारी चालबाजियां। पद का आंकाक्षी और साधु? लेकिन खुशामद करनी है।
मैं किसी की स्तुति नहीं कर रहा हूं। आलोचना भी नहीं कर रहा हूं। मैं तो जैसा है वैसा कह रहा हूं। मैं सिर्फ इसलिए यह कभी—कभी मजाक कर देता हूं ताकि तुम्हें खयाल रहे कि राजनीति का मूल्य इससे ज्यादा नहीं है। लेकिन आलोचना करने योग्य मैं कुछ नहीं पाता हूं उनमें। साधारण मनोदशा है। वक्तव्य साधारण है। होंगे ही साधारण। पदलोलुप असाधारण कभी होता ही नहीं। पदलोलुपता साधारण रोग है। इस दुनिया में हर आदमी पद पर होना चाहता है। यह बड़ा साधारण रोग है। इसमें कुछ विशेषता नहीं है। विशेषता तो तब है जब कोई आदमी पद पर नहीं होना चाहता। तब कुछ असाधारणता घटती है।
और राजनीति, अध्यात्म बिलकुल विपरीत हैं। राजनीति का अर्थ है, दूसरों पर कैसे मेरा कब्जा हो जाए? मैं दूसरों का मालिक कैसे हो जाऊं? अध्यात्म का अर्थ है, अपना मालिक कैसे हो जाऊं? ये बड़ी विपरीत बातें हैं। इसलिए तो हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। स्वामी का मतलब, अपना मालिक। स्वयं का मालिक। ये दो अलग यात्राएं हैं। राजनीति बहिर्यात्रा है। दूसरों का मालिक कैसे हो जाऊं? कितने बड़े समूह का मालिक हो जाऊं? अध्यात्म का अर्थ होता है, अपने जीवन में मेरी मालकियत कैसे हो जाए? मैं मन का गुलाम न रह जाऊं। मैं मन का मालिक हो जाऊं। मेरे भीतर अंतर्साम्राज्य पैदा हो।
ये बड़ी भिन्न बातें हो गयी।
राजनीति ले जाएगी भीड़ में अध्यात्म ले जाएगा एकांत में। राजनीति उलझाएगी दूसरों से, अध्यात्म सुलझाएगा दूसरों से। अध्यात्म है— आत्मसाक्षात्कार। राजनीति में तो सब उपद्रव करने ही पड़ेंगे। राजनीतिज्ञ तभी तक साधु मालूम पड़ते हैं जब तक सत्ता में होते हैं। सत्ता गयी कि उनकी सब साधुता खुल जाती है। सत्ता चाहिए तो साधुता बनी रहती है क्योंकि सब अखबार उनके हाथ में, ताकत उनके हाथ में, पुलिस उनके हाथ में, व्यवस्था उनके हाथ में, कौन पता लगाए कि वे क्या कर रहे हैं?
अब जुल्फिकार भुट्टो जब तक सत्ता में, तब तक साधु। अब पाया गया है कि वे हत्यारे हैं। मगर मजा बड़ा जटिल है। अब कोई नहीं कह सकता कि वे सच में हत्यारे हैं या नहीं? क्योंकि अब जो सत्ता में हैं वे चाहते हैं कि उनको हत्यारा सिद्ध करें। आज जो सत्ता में हैं। पाकिस्तान, कल अगर वे सत्ता से नीचे उतर गये, तो हो सकता है कोई अदालत फैसला दे कि उन्होंने भुट्टो की हत्या करवा दी।
अभी इंदिरा मुजरिम मालूम पड़ती है, क्योंकि सत्ता नहीं है। सत्ता में थी तो मुजरिम मालूम नहीं पड़ती थी। लेकिन कोई नहीं कह सकता कि जो उसे मुजरिम सिद्ध करने की कोशिश कर रहें हैं, वे सत्ता में से उतर जाने के बाद सही साबित होंगे। वे खुद भी मुजरिम पाए जा सकते हैं। यहां सब चचेरे भाई—बहन हैं। मोरारजी भाई, कि इंदिरा बहन! सब चचेरे भाई—बहन हैं। कुछ भेद नहीं है। राजनीतिज्ञ भिन्न हो ही नहीं सकते।
इसलिए तो तुम देखते हो, इतनी पार्टी अदल—बदल होती रहती है। क्योंकि राजनीतिज्ञ भिन्न होते ही नहीं। इस पार्टी या उस पार्टी में फर्क कुछ नहीं पड़ता; राजनीतिज्ञ को एक ही आकांक्षा है—पद पर कैसे हो? पार्टी कौन हो, इससे क्या लेना? झंडा कौन हो, इससे क्या लेना? डंडा अपना होना चाहिए। झंडा कोई भी लगा लेंगे। बस डंडा अपने हाथ में होना चाहिए।
तो राजनीतिज्ञ तो अवसरवादी होगा ही। उसको तो एक ही जोड़—तोड़ बिठानी है। और जोड़—तोड़ में वह अकेला नहीं है, बड़ी प्रतिस्पर्धा है। इसलिए बेईमानी भी होगी, धोखाधड़ी भी होगी, लप्तेगें के पैर भी काटे जाएंगे, लोगों को गिराया भी जाएगा, लोगों को हटाया भी जाएगा, यह सब होगा।
और इस सबके लिए तुम जिम्मेवार हो, ध्यान रखना! क्योंकि तुम इस तरह के लोगों को मूल्य देते हो। इस मूल्य के कारण ये लोग पागल की तरह उस तरफ दौड़ते हैं। अब तुम यह मत सोचना कि अगर कोई आदमी प्रधानमंत्री होकर दूसरों को परेशान कर डालता है, रिश्वत ले लेता है, लोगों की टांगे तोड़ देता है, लोगों की गर्दनें गिरवा देता हैं,लोगों को जेलों में डाल देता है, वह जिम्मेवार है। तुम भी जिम्मेवार हो। तुम्हीं असली जिम्मेवार हो, तुम इतना मूल्य देते हो पद को कि एक आदमी को लगता है कि इस पद को पाने के लिए कुछ भी करना योग्य है।
पद को मूल्य देना कम करो! ताकि लोगों को ऐसा साफ होने लगे कि इस सड़े पद के लिए जिस पर लते सिर्फ हंसते हैं, मजाक करते हैं, इसके लिए इतना पाप करना उचित भी है?
मेरी बात समझ में आ रही है तुम्हें?
राजनीति से मूल्य को खींच लो। राजनीति को मूल्यहीन कर दो। मूल्यहीन हो जाए राजनीति, तो इतना उपद्रव नहीं होगा। कौन फिक्र करेगा फिर? अगर रोज अखबार में प्रधानमंत्री की तस्वीर न छपती हो और रोज व्याख्यान न छपता हो, सारा अखबार उन्हीं से न भरा रहता हो, तो आदमी सोचेगा की सार क्या है? इतने से पद के लिए इतनी मेहनत, इतनी परेशानी, और लोग कोई मूल्य नहीं देते! रास्ते से निकल जाते हैं और लोग नमस्कार भी नहीं करते। सार क्या है? राजनीति को अतिमूल्य दोगे तो फिर सभी चीज सार्थक हो जाती है—एकाध की हत्या भी करनी पड़े तो चलता है। करने योग्य मालूम होता है और फिर पद पर पहुंच गये तो सब छिप जाएगा।
इसलिए जो पद पर पहुंच जाता है, फिर पद नहीं छोड़ना चाहता। क्योंकि छोड़ते से ही फिर सारा पाखंड़ खुलेगा,सारी धोखाधड़ी खुलेगी। पद जब तक है तब तक सुरक्षा है। एक दफा जो पद पर पहुंच गया वह फिर ऐसा जोर से पकड़ता है कि वह चाहता है पद पर रहते हुए ही मर जाऊं, तो ही बचाव है। नहीं तो पद पर सब उपद्रव वही के वही होते हैं। वही का वही खेल, जरा भी फर्क नहीं पड़ता। इंदिरा चली जाती है, उनके साथ ही संजय गांधी चले जाते हैं। मोरारजी आ गये, उनके पीछे ही काति देसाई आ गये। कुछ फर्क नहीं पड़ता। सब वही खेल हैं। सिक्के बदल जाते हैं,रंग बदल जाता है, मगर भीतर की असलियत वही की वही। वही जाल चलता रहता है।
मैं आलोचना करने योग्य नहीं मानता राजनीतिज्ञों को, सिर्फ मजाक करने योग्य मानता हूं। जब कभी मुझे तुम्हें हंसाना होता है, तो मैं उनका नाम ले लेता हूं। जब मैं देखता हूं तुम सोने गले, या नींद आने लगी, या देखता हूं कोई जम्हाई ले रहा है, तब मैं सोचता हूं कि अब सिवाय मोरारजी देसाई के इन सज्जन की जम्हाई नहीं रुकनेवाली! तो उनके खुले मुंह में मोरारजी देसाई को डाल देता हूं। उससे वह चौंक कर बैठ जाते हैं। सोचने लगते हैं—मोरारजी देसाई की बात आयी, कुछ मतलब की बात आयी होगी। जैसे ही वे जाग जाते हैं।, मैं मोरारजी को भूल जाता हूं फिर अपनी बात पर आ जाता हूं।
इससे ज्यादा मूल्य नहीं है।
ओशो
प्रवचन तेहरवां,
24 मार्च 1978;
श्री रजनीश आश्रम पूना।
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