तीसरा प्रश्न :
जब कुंड़लिनी या सक्रिय ध्यान में ऊर्जा जाग्रत होती है, तो उसे नाचकर क्यों खत्म कर दिया जाता है?
अरे कंजूस! तुम भारत के सच्चे प्रतिनिधि मालूम होते हो! यह भारतीय बुद्धि का इतिहास है। कुछ खर्च न हो जाए! बस खर्च न हो, बचा—बचाकर मर जाओ!
हर चीज में यह दृष्टि है, तुम इसे थोड़ा समझने की कोशिश करना।
यह भारत के बुनियादी रोगों में से एक है—कंजूसी, कृपणता। कहीं खर्च न हो जाए। और मर जाओगे! तब यह कुंड़लिनी और यह ऊर्जा और यह सब पड़ा रह जाएगा। इस देश में अधिक लोग कब्जियत से परेशान हैं। डाक्टरों से पूछो, वे भी यही कहते हैं। भारत जितना कब्जियत से परेशान है, दुनिया का कोई देश इतना कब्जियत से परेशान नहीं है। यह कब्जियत आध्यात्मिक है।
इसमें मनोविज्ञान है। हर चीज को पकड़ लो! मल—मूत्र को भी पकड़ लो! और अगर ज्यादा आगे बढ़ जाओ, तो मोरारजी जैसा पी जाओ उसे वापिस। वह भी कंजूसी का हिस्सा है। कहीं निकल न जाए! कोई सारतत्व खो न जाए! 'रि—साइक्लिंग'। फिर डाल दो भीतर फिर—फिर डालते रहो। उसको बिलकुल चूस लो। कुछ निकल न जाए! इसलिए तुम मल तक को पकड़ लेते हो भीतर उसको छोड़ते ही नहीं कुछ खर्चा हुआ जा रहा है। सड़ गये हो इसी में। इसलिए जीवन यहां फैल नहीं सका, सिकुड़ गया। हर बात में एक कृपणता छा गयी।
तुम जिसको ब्रह्मचर्य कहते हो, मेरे देखे, तुम्हारे सौ ब्रह्मचारियों में निन्यानबे सिर्फ कृपणता की वजह से ब्रह्मचर्य को स्वीकार कर लिये। कहीं वीर्य ऊर्जा खर्च न हो जाए! कंजूस हैं। एक ब्रह्मचर्य है जो आनंद से फलित होता है, ब्रह्म के शान से फलित होता है, वह तो बात अलग। मगर जिनको तुम आमतौर से ब्रह्मचारी कहते हो, ये ब्रह्मचारी सिर्फ कृपण हैं, कंजूस हैं। इनका सिर्फ भाव इतना ही है कि कहीं कुछ खर्च न हो जाए। ये मरे जा रहे हैं, हर चीज को रोक लो—और सब पड़ा रह जाएगा! तुम्हारा वीर्य, तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारी कुंड़लिनी सब पड़ी रह जाएगी! सब मरघट पर जलेगी। और मजा यह है कि जो जितना रोकेगा उतना ही कम उसके पास ऊर्जा होगी, इस विज्ञान को ठीक से खयाल में ले लेना, क्योंकि कुछ चीजें हैं जो बांटने से बढ़ती हैं और रोकने से घटती हैं।
परमात्मा तुम्हारे साधारण अर्थशास्त्र को नहीं मानता। ऐसा समझो कि एक कुआ है, उसमें तुम रोज पानी भर लेते हो ताजा—ताजा, तो नया ताजा पानी आ जाता है, झरनों से नया पानी आ रहा है। तुम अगर कुएं से पानी न भरोगे, तो तुम यह मत समझना कि कुएं में पानी के झरने बहते रहेंगे और कुआ भरता जाएगा भरता जाएगा और एक दिन पूरा भर जाएगा। कुएं में उतना ही पानी रहेगा। फर्क इतना ही रहेगा अगर तुम भरते रहे तो ताजा पानी आता रहेगा, कुएं का पानी जीवंत रहेगा। और अगर तुमने न भरा, तो कुएं का पानी सड़ जाएगा, मर जाएगा, जहरीला हो जाएगा। और जो झरने कुएं को पानी दे सकते थे, तुमने भरा ही नहीं, उन झरनों की कोई जरूरत नहीं रही, वे झरने भी धीरे— धीरे अवरुद्ध हो जाएंगे। उन पर पत्थर जम जाएंगे, कीच जम जाएगी, मिट्ठी जम जाएगी; उनका बहाव बंद हो जाएगा। तुमने हत्या कर दी कुएं की।
मनुष्य एक कुआ है। जैसे हर कुआ सागर से जुड़ा है, नीचे झरनों से, दूर विराट सागर से जुड़ा है, जहां से सब झर—झर कर आ रहा है, ऐसे ही मनुष्य भी कुआ है और परमात्मा के सागर से जुड़ा है। कंजूसी की यहां जरूरत ही नहीं है। लेकिन प्रेम में आदमी ड़रता है कि कहीं खर्चा न हो जाए। छोटे—मोटे आदमियों की तो बात छोड़ दो, सिग्मंड़ फ्राँयड़ जैसा आदमी भी यह लिखता है कि बहुत लप्तेगें को प्रेम मत करना नहीं तो प्रेम की गहराई कम हो जाएगी। जैसे एक को प्रेम किया तो ठीक; फिर दो को किया तो आधा— आधा बंट गया, फिर तीन को किया तो एक बटा तीन मिला एक—एक को। ऐसे पचास— सौ आदमियों के प्रेम में पड़ गये कि बस फैल गया सब। बहुत पतला हो जाएगा, गहराई न रह जाएगी।
फ्राँयड़ बिलकुल नासमझी की बात कह रहा है।
फ्राँयड़ यहूदी था। वह यहूदी कंजूसी उसके दिमाग में सवार है! तुम जितना प्रेम करोगे, उतना ज्यादा तुम प्रेम पाओगे। उतना प्रेम करने की क्षमता बढेगी। उतनी प्रेम की कुशलता बढ़ेगी। और जितना तुम प्रेम लुटाते रहोगे, उतना तुम पाओगे परमात्मा से नये— नये झरने फूट रहे हैं और प्रेम आता जाता है। दो और तुम्हारे पास ज्यादा होगा। रोको और तुम कृपण हो जाओगे और कंजूस हो जाओगे और सब मर जाएगा, सब सड़ जाएगा। और ध्यान रखना, जो चीज बड़ी आनंदपर्णू है बांटने में, अगर रुक जाए, सड़ जाए, तो वही तुम्हारे लिए रोग का कारण बन जाती है। जिन लोगों ने प्रेम को रोक लिया है, उनका प्रेम ही रोग बन जाता है, कैंसर बन जाता है।
अब तुम आ गये हो यहां— भूल से आ गये। तुम गलत जगह आ गये। यहां मैं उलीचना सिखाता हूं। यहां मैं बांटना सिखाता हूं। यहां मैं खर्च करने का आनंद तुम्हें सिखाना चाहता हूं। और तुम पूछते हो, जब कुंड़लिनी या सक्रिय ध्यान में ऊर्जा जाग्रत होती है तो उसे नाचकर क्यों खत्म कर दिया जाता है? नाचने से ऊर्जा खत्म नहीं होती है। नाचने से ऊर्जा निखरती है। नाचने से ऊर्जा बंटती है। और जितनी बंटती है, उतनी तुम्हारे भीतर पैदा होती है। जितना सृजनात्मक व्यक्ति होता है उतना शक्तिशाली व्यक्ति होता है। तुमने अगर एक गीत गाया तो तुम दूसरा गीत गाने में समर्थ हो जाओगे। और दूसरा गीत पहले से ज्यादा गहरा होगा। फिर तुम तीसरा गीत गाने में समर्थ हो जाओगे, वह उससे भी ज्यादा गहरा होगा। जैसे— जैसे गीत गाते जाओगे वैसे तुम पाओगे—नयी तले उघड़ने लगी, नयी गहराइयां प्रकट होने लगीं, तुम्हारे भीतर नये आयाम छूने लगे।
लेकिन तुम डर से पहला ही गीत रोके बैठे हो कि कहीं गाया और कहीं गान की ऊर्जा खत्म हो गयी, और कुंड़लिनी फिर सो गयी, तो मारे गये। तो तुमको सिखाया गया है कि शक्ति जगाकर और बस पकड़े रहना भीतर उसको! पकड़े रख सकते हो, मगर वहीं अटके रह जाओगे। ये पकड़ने का भाव भी तो यही कह रहा है कि मैं संसार से अलग, मैं अस्तित्व से अलग, मुझे अपनी फिक्र करनी है। अलग हम हैं नहीं। 'त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये।‘उसीसे मिलता है, उसी को लौटा देते हैं। अब तुम ऐसा समझो कि गंगा अपने पानी को रोक ले, कि ऐसे सागर में गिर जाऊंगी तो मारी गयी! सब पानी खत्म हो जाएगा, ऐसे रोज—रोज गिरती रही सतर में। ये जो करोड़ों—करोड़ों गैलन पानी रोज सतर में डाल रही हूं, खत्म हो जाएगा तो बस सूख जाऊंगी। बिलकुल रोक ले अपने पानी को। तो क्या परिणाम होगा? सड़ जाएगी।
सागर में देने से सड़ती नहीं। सागर में पानी उतर जाता है, फिर मेघ बन जाते हैं। फिर हिमालय पर बरस जाते हैं, फिर गंगोत्री में बह आते हैं, एक वर्तुल है। गंगा सागर को देती है, सागर गंगा को दे देता है। यहां तुम जितना दोगे उतना पाओगे। यहां देना पाने की कला है। नाचो, गाओ, सृजनात्मक होओ।
इस पीड़ा से भारत बहुत ज्यादा परेशान रहा है। यहां के तथाकथित योगी भी दुकानदार की भाषा बोलते हैं। खर्चा न हो जाए! अपनी ऊर्जा, सम्हाल कर रखो। नाचना तो दूर, तुम्हें सिखाया जाता है कि जब ध्यान करने बैठो तो शरीर हिले भी नहीं। क्योंकि जरा ही हिले और छलक गयी ऊर्जा, फिर! हिलना ही मत, पत्थर की तरह बैठ जाना। मैं तुमसे कहता हूं—नाचो। मैं कहता हूं—तुम बांटो। उंडेला दो सागर में ऊर्जा को। जिसने दी है, वह और देगा। इतनी घबड़ाहट क्या? इतना भी भरोसा नहीं है परमात्मा पर कि जिसने अब तक दिया है वह आगे भी देगा! तुम इतने डरे हुए आदमी मालूम होते हो कि तुम अगर सांस भीतर ले लोगे तो बाहर न निकालोगे। क्योंकि अगर बाहर निकाल दी, फिर न आयी तो! फिर न लौटी, फिर क्या करेंगे? शक्ति खत्म हो गयी। अपने हाथ से चली गयी। ले लो सांस और सम्हाल कर बैठ जाओ भीतर, बस मर जाओगे उसी सांस के साथ!
तुम देते रहो, जिसने दी है, वह देगा। इतने दिन तक दिया, अब तक दिया, सब रूप में दिया, इतने तुम घबड़ाते क्यों हो? यह आस्था की कमी है। यह श्रद्धा की कमी है। श्रद्धालु तो कहेगा कि ले लो मेरा जो काम लेना हो। जितना लेना हो!
और तुमने एक मजे की बात देखी? जितना सक्रिय आदमी होता है, उसके पास उतना ही समय होता है। और जितने काहिल और सुस्त होते हैं, उनके पास बिलकुल समय नहीं होता है। सुस्त और आलसी से पूछो, वह कहता है,भई, समय नहीं है। और सक्रिय आदमी को पूछो, जो बहुत कामों में लगा है, वह हमेशा समय निकाल लेता है।
पश्चिम के एक बड़े विचारक श्वीत्जर ने लिखा है कि मेरे जीवन का अनुभव यह है कि जितने रचनात्मक,सृजनात्मक, सक्रिय लोग होते हैं, जितना ज्यादा करने वाले लोग होते हैं, उनके पास उतना ही ज्यादा समय होता है। और अगर कोई काम करवाना हो तो ऐसे आदमी से कहना जो बहुत काम कर रहा हो। वह समय निकाल लेगा। सुस्त और काहिल, जो बिस्तरों में पड़े रहते है, उनसे अगर तुम कहो कि भई, जरा कर देना यह काम, वे कहेंगे भाई, समय कहां है? वह अपनी शक्ति बचाए पड़े हैं बिस्तर में। अपनी रजाई ओढ़े। कि कहीं शक्ति खर्च न हो जाए! वहीं रजाई में मर जाओगे।
यह कंजूसी छोड़ो। इस कंजूसी से मेरी जरा भी सहमति नहीं है। मैं तुमसे कहता हूं—जीवन की उत्कुल्लता से जीओ। और यह अनेक अर्थों में समझ लेने की बात है। ब्रह्मचर्य आना चाहिए, थोपा नहीं जाना चाहिए। कंजूसी के कारण नहीं थोपा जाना चाहिए। ब्रह्मचर्य आना चाहिए प्रेम की विराटता से। तुम्हारा प्रेम इतना फैले, इतना फैले, इतना गहरा हो जाए कि उसमें से कामवासना समाप्त हो जाए—गहराई के कारण। तुम इतना प्रेम दो कि उसमें कामवासना शून्य हो जाए। इतने शुद्ध प्रेम की धाराएं बहने लगें कि उसमें कामवासना न रह जाए। तब एक ब्रह्मचर्य आता है। वही ब्रह्मचर्य है। वही ब्रह्मचर्य शब्द का ठीक—ठीक द्योतक है।
ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है। ईश्वर जैसी चर्या। ईश्वर कंजूस है? तुम देखते ईश्वर की कंजूसी कहीं भी इस प्रकृति में? एक बीज से करोड़ों बीज पैदा होते हैं। एक—एक वृक्ष में करोड़ों बीज पैदा होते हैं। उन करोड़ों बीज में से दस— पांच बीज शायद वृक्ष बन पाएंगे। जब जरा सोचो तुम, परमात्मा कितना फिजूलखर्च है! दस—पांच वृक्ष बन पाएंगे और करोड़ों बीज पैदा कर रहे हो? वैज्ञानिक कहते हैं, एक आदमी—सिर्फ एक आदमी, एक पुरुष—के वीर्य में इतने जीवाणु होते हैं कि वह सारे पृथ्वी को भर सकता है आबादी से। एक पुरुष में। एक संभोग में कम से कम एक करोड़ जीवाणु तुम्हारे भीतर से विदा हो जाते हैं। बच्चे तो तुम्हारे कितने होंगे? इंदिरा का वक्त होता तो थोड़े कम, अभी मोरारजी का है, थोड़े ज्यादा हो सकते हैं, बाकी कितने दर्जन, दो दर्जन, कितने? इस समय पृथ्वी की जितनी आबादी है, उतने जीवाणु एक पुरुष में होते हैं। उतने बच्चे पैदा हो सकते हैं। और फिजूलखर्ची देखोगे भगवान की? दस—पांच बच्चों के लिए इतना, इतने जीवाणु पैदा करना!
यह मामला क्या है?
भगवान कंजूस नहीं है। फिजूलखर्च है। आनंद है उसका, उल्लास है उसका। हिसाब—किताब से नहीं चलता, मस्ती से चलता है। अब ये सज्जन अगर कुंड़लिनी जग रही होगी तो यह बड़े घबड़ाते होंगे कि अब थोड़ी—सी ऊर्जा आ रही है,अब जल्दी से मार कर कब्जा इस पर बैठ जाओ; कहीं खर्चा न हो जाए। बस तुम्हारे कब्जा मार कर बैठने में ही मर जाएगी। होने दो प्रकट। यह जो उठ रहा है फन तुम्हारी कुंड़लिनी का, इसे फैलने दो। इसे बंटने दो। ये जाएगी कहां?कहीं कुछ जाता नहीं है, सब यहीं है, क्योंकि हम सब एक हैं। हम सब संयुक्त हैं। कुछ खोता नहीं है। कुछ मरता नहीं है। सब शाश्वत रूप से यहीं है। लेकिन जब तुम देने में कुशल होते हो, जब तुम्हारे भीतर बहाव होता है, तब तुम्हारे भीतर जीवन अपने परम रूप में प्रकट होता है। तुम्हारे भीतर ब्रह्मचर्य फलेगा। लेकिन ब्रह्मचर्य कंजूसी से नहीं फलेगा। ब्रह्मचर्य दान से फलेगा। प्रेम से फलेगा। और तुम्हारे भीतर विराट ऊर्जा आएगी। लेकिन वह तभी आएगी जब तुम उलीचते रहोगे, उलीचते रहोगे, उलीचते रहोगे। कबीर ने कहा है— 'दोनों हाथ उलीचिए यही सज्जन को काम'। उलीचते रहो। रुकना ही मत उलीचने से।
तुम मेरा प्रयोग करके देख लो! कंजूस की तरह तुमने रहकर जी लिया है, अब तुम उलीचकर भी देख लो तुम। और तुम चकित हो जाओगे, इतना आता है! मगर देनेवाले के पास ही आता है। धन्य हैं वे, जो बांटने में शर्तें नहीं लगाते। जो दिये चले जाते हैं।
ओशो
अथातो भक्ति जिज्ञासा--भाग-2
प्रवचन--तेहरवां, 24 मार्च, 1978
श्री रजनीश आश्रम पूना।
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