जाति-स्‍मरण: गुप्त सूत्रों का रहस्‍य (1 )

जाति-स्‍मरण अर्थात पिछले जन्‍मों की स्‍मृतियों में प्रवेश की विधि पर आपके द्वारा शिविर में चर्चा की है। आपने कहा है कि चित को भविष्‍य की दिशा से पूर्णत: तोड़ कर ध्‍यान की शक्‍ति को अतीत की और फोकस करके बहाना चाहिए। प्रक्रिया का क्रम आपने बताया। पहले पाँच वर्ष की स्‍मृति में,फिर तीन वर्ष की स्‍मृति में, फिर जन्‍म की स्‍मृति में, फिर गर्भाधान की स्‍मृति में लौटना, फिर पिछले जन्‍म की स्‍थिति में प्रवेश होता है। पूरे सूत्र क्‍या हैआगे के सुत्र का कुछ स्‍पष्‍टीकरण करने की कृपा कीजिएगा?
          पिछले जन्‍म की स्मृतियाँ प्रकृति की और से रोकी गई है। प्रयोजन है उनके रोकने का जीवन की व्‍यवस्‍था में जिसे हम रोज-रोज जानते है, जीते है, उसका भी अधिकतम हिस्‍सा भूल जाए, यह जरूरी है। इसलिए आप इस जीवन की भी जितनी स्मृतियाँ बनाते है। उतनी स्मृतियाँ याद नहीं रखते। जो आपको याद नहीं है, वह भी आपकी स्‍मृति से मिट नहीं  जाती। सिर्फ आपकी चेतना और उस स्‍मृति का संबंध छूट जाता है।
      जैसे अगर कोई व्‍यक्‍ति पचास साल का है—पचास साल में अरबों-खरबों स्‍मृतियां बनती है। यदि वे सभी याद रखनी पड़ें, तो विक्षिप्‍त हो जाने के सिवाय कोई और रास्‍ता न रहे—जो बहुत सारभूत है, वह याद रह जाता है। जो असार, वह धीरे-धीरे विस्‍मरण हो जाता है। लेकिन विस्‍मरण से आप यह मत अर्थ लेना कि वह आपके भीतर से मिट जाता है। सिर्फ आपकी चेतना के बिंदु से सरक कर आपके मन के लिए कोने में संग्रहीत हो जाता है।
      बुद्ध ने उस संग्रहीत स्‍थान के लिए बहुत कीमती नाम दिया है। ‘’आलय-विज्ञान’’ द स्‍टोर हाउस आफ कांशसनेस। जैसे हमारे घर में सब घरों में, कबाड़ खाने के लिए फिजूल की चीजों को इक्ट्ठा करने का कमरा होता है। जहां जो बेकार हो जाता है। हम इक्ट्ठा करते जाते है। वह हमारी नजर से हट जाता है। लेकिन घर में मौजूद रहता है। ऐसे ही हमारी स्‍मृतियां, हमारी नजर से हट जाती है। और हमारे मन के कोने में इकट्ठी रह जाती है। अगर इस जीवन की सारी स्‍मृतियां याद रहें, तो आपका जीना कठिन हो जाएगा। आग के लिए चेतना मुक्‍त होनी चाहिए। इसके लिए पीछे को भूलना पड़ता है।
      आप कल को भूल जाते है। इस लिए आने वाले कल में जीने के लिए समर्थ हो जाते है। फिर मन खाली हो जाता है। और आगे देखने लगता है। आगे देखने के लिए जरूरी है कि पीछे का भूल जाए। अगर पीछे का न भूले तो आगे देखने की क्षमता न बचेगी। और रोज आपके मन का एक हिस्‍सा खाली हो जाना चाहिए। जिसमें नए संस्‍कार, नए इंप्रेसंस ग्रहण किए जा सकें। अन्‍यथा ग्रहण कौन करेगा। तो अतीत रोज मिटता है। भविष्‍य रोज आता है। और जैसे ही भविष्‍य अतीत बना, वह भी मिट जाता  है ताकि हम आग के लिए फिर मुक्‍त हो जाएं। ऐसी मन की व्यवस्था है।
      एक जन्‍म की भी पूरी स्‍मृति हमें नहीं होती। अगर मैं आपसे पुछूं कि उन्‍नीस सौ साठ में एक जनवरी को आपने क्‍या किया, तो आप कुछ भी न बता सकेंगे। यद्यपि एक जनवरी उन्‍नीस सौ साठ में आप थे और एक जनवरी उन्‍नीस सौ साठ को सुबह से ले कर रात तक कुछ न कुछ तो किया ही होगा। लेकिन आपको कोई स्‍मरण नहीं है। लेकिन सम्‍मोहन की छोटी सी प्रक्रिया उन्‍नीस सो साठ की एक जनवरी को पुनरुज्जीवित कर देगी। अगर आपको सम्‍मोहित किया जाए और आपकी चेतना का जो हिस्‍सा जागा हुआ है। वह सुला दिया जाए; और फिर आपसे कहा जाए कि एक जनवरी उन्‍नीस सौ साठ को आपने क्‍या किया? तो आप सुबह से लेकर सांझ तक सब बता देंगे।
      एक युवक पर मैं बहुत दिनों से प्रयोग करता था। लेकिन यह बड़ी मुश्‍किल बात थी कि मैं कैसे पक्‍का करूं कि वह जो कह रहा है, वह सच है। एक जनवरी उन्‍नीस सौ साठ को हुआ होगा। सम्‍मोहित अवस्‍था में वह सब बोल देता था कि मैंने यह-यह किया। जागने पर तो वह सब भूला हुआ होता था। अब मेरे लिए बड़ी कठिनाई थी कि यह कैसे तय किया जाए कि उसने सच में ही एक जनवरी उन्‍नीस सौ साठ में सुबह नौ बजे स्‍नान किया था।
      तब फिर एक ही रास्‍ता था कि मैंने एक दिन सुबह से सांझ तक उसने जो भी किय,वह सब लिख कर रख लिया। तीन चार महीने बीत जानें के बाद उससे पूछा। उसने कहा, मुझे कुछ याद नहीं। फिर उसे सम्मोहित किया ओर जब वह गहरी सम्‍मोहन की अवस्‍था में चला गया, तब उससे पूछा कि फलां तारीख को तुमने क्‍या किया। तो जो मैंने नोट किया था वह तो उसने बताया ही, बहुत कुछ जो मैंने नोट नहीं किया था वह भी बता दिया। पर जो मैंने नोट किया था उस में से एक भी बात नहीं छूटी थी। और उसने सैंकड़ों बातें बताई। स्‍वभावत: मैं पूरी बातें नोट नहीं कर सकता था। जो मेरे ख्‍याल में थी और दिखाई दि वहीं मैं नोट कर सका था।
      सम्‍मोहन की अवस्‍था में कितने ही गहरे में व्‍यक्‍ति को उतारा जा सकता है। सम्‍मोहन की अवस्‍था में लेकिन दूसरा उतारेगा और आप बेहोश होंगे। आपको खुद कुछ पता नहीं चलेगा। सम्‍मोहन की अवस्‍था में पिछले जन्‍मों में भी ले जाया जा सकता है। लेकिन वह आपको मूर्च्‍छा की ही हालत होगी। जाति-स्‍मरण और सम्‍मोहन की प्रक्रिया में इतना ही फर्क है। कि जाति-स्‍मरण में आप होश पूर्वक अपने पिछले जन्‍म में जाते हो। लेकिन इन दोनों प्रकियाओ का अगर प्रयोग किया जाए, तो वैलिडिटी बहुत बढ़ जाती है। एक व्यक्ति को हम बेहोश करके सम्‍मोहन की अवस्‍था में उससे पूँछें उसके पिछले जन्‍मों के संबंध में और उसे लिख डालें। होश पूर्वक उसे ध्‍यान में ले जाएं और अगर वही वह ध्‍यान में भी कह सके,तो हमारे पास ज्‍यादा प्रमाण हो जाता है इक्ट्ठा।
      दो मार्गों से एक ही स्‍मृति को उठाया जा सकता है। उठाने की जो प्रकिया है, ऐसे सरल है लेकिन उसके अपने खतरे है। इसलिए पूरे सूत्र मैंने नहीं कहे थे। पूरे सूत्र नहीं कहें जा सकते है। कोई अगर प्रयोग करना चाहता है तो उससे कहे जा सकते है। लेकिन फिर भी पूरी प्रक्रिया कही जा सकती है, एक सूत्र बचाकर। तो उसको किया नहीं जा सकता।   
      हमारी चेतना,जैसे मैंने कहा, हमारे संकल्‍प से गति मान होती है। जब आप ध्‍यान में बैठे और जब गहरे ध्‍यान में जाने लगें। तब एक संकल्‍प करके बैठ जाएं कि मैं ध्‍यान की अवस्‍था में पाँच साल का हो जाऊँ और वह जान सकूँ जो पाँच साल में हुआ था। तो आप पायेंगे की गहरे ध्‍यान में आपकी उम्र पाँच साल की हो गई। और पाँच साल कि उम्र में जो हुआ था उसे आप जान रहे हे। अभी आप पहले ही जन्‍म के प्रयोग को आप करें। जैसे-जैसे यह प्रयोग साफ और गहरा होने लगे। और पीछे लोटना संभव होता चला जाए जो कि कठिन नहीं है। तो मां के गर्भ की स्‍मृतियां भी जगाई जा सकती है। अगर आप मां के गर्भ में थे और मां गिर पड़ी थी, तो उसके चोट की स्‍मृति भी आपकी स्‍मृति बन गई है। क्‍योंकि मां के गर्भ में आपकी और मां की दो स्थितियाँ नहीं है। संयुक्‍त स्थितियाँ है। तो जो मां को अनुभव हुआ है गहरे में, वह आपका भी अनुभव बन गया है। वह आपको भी ट्रांसफ़र हो जाता है।
      इसलिए मां के चित की दशा नौ महीने के गर्भकाल में बच्‍चे को निर्माण करने में बड़ा भारी काम करती है। और ठीक अर्थों में मां वह नहीं है जिसने सिर्फ बच्‍चे को पेट में रखा हे, मां वह भी है जिसने उसे चेतना की भी विशेष दिशा दि है। सिर्फ पेट में रखना तो जानवर की मां को भी संभव हो जाता है। वह तो पशु भी कर लेते है। और आज नहीं कल मशीन भी कर लेगी। कोई बहुत  कठिन बात नहीं है। कि बच्‍चे मशीन में बड़े हो सकें। आर्टिफीशियल-वूंब बनाया ही  जा सकता है। क्‍योंकि मां के पेट में जो इंतजाम है वह एक बिजली के यंत्र में भी दिया जा सकता है। उतनी गर्मी,उतना पानी, वह सब दिया जा सकता है। आज नहीं कल, बच्‍चे मां के पेट से हटा कर मशीन के पेट में रखे जा सकते है। लेकिन इससे मां होने का काम पूरा नहीं होता।
      शायद मां होने का काम पृथ्‍वी पर बहुत कम माताओं न किया है। मां होने का काम बहुत बड़ा काम है।  वह है नौ महीने तक उस बच्‍चे की चेतना को एक विशेष दिशा देना। अगर मां क्रोधित है उन नौ महीनों में और फिर कल बच्‍चा जब क्रोधी पैदा हो,तो दिन रात उसको डाँटती है। और कहेगी की किस ने तुझे बिगाड़ दिया है। पता नहीं किस कुसंग में पड़ गया। मेरे पास कितनी ही माताएं आती है। सबकी शिकायत है। किसी को बेटा कुसंग में पड़ गया हो और किसी की बेटी कुसंग में पड़ गई है। और सारे बीज उन्‍होंने ही बोए थे। उनकी सारी चेतना की व्‍यवस्‍था उन्‍होंने की है। बच्‍चे तो सिर्फ उनको प्रगट कर रहे है। हां, प्रगट करने में और बोने में फर्क है। इसलिए हमें पता नहीं चलता, बीच का अंतराल काफी बड़ा है।
      इमायल कुवे ने एक छोटा सा संस्‍मरण लिखा है। उसने लिखा है कि एक मिलिट्री का मेजर जो उसका परिचित है वह कुछ सम्‍मोहन पर किताबें पढ़ रहा था। और जो किताब पढ़ रहा था उसमें लिखा हुआ था कि मां के मन में जो सुझाव हों, वे बच्‍चे तक संप्रेषित हो जाते है। जब वह पेट में होता है। उसकी पत्‍नी को बच्‍चा था पेट में। उसने अपनी पत्‍नी को कहा कि मैं इस किताब को पढ़ रहा हूं और इस किताब के लिखने वाले का कहना है कि मां जो सोचती है,जो जीती है, जो भाव करती है। वह बच्‍चे तक संप्रेषित हो जाता है। दोनों ने हंसकर ही बात ली। कोई उसको गंभीरता से ख्‍याल नहीं किया।
      उसी सांझ को वे एक पार्टी में गए। और वह मेजर की पत्‍नी, जिस जनरल के सम्‍मान में पार्टी दी जा रही थी। उसके बगल में ही बैठी। उस जनरल का अंगूठा युद्ध में बिलकुल पिचल गया था। उसके अंगूठे को बार-बार देखकर उसे ख्‍याल आया कि मैं इस अंगूठे को न देखू। कहीं मेरे बच्‍चे का अंगूठा खराब न हो जाए। दोपहर में उसने बात पढ़ी थी। इस लिए उसने अंगूठे से बचने की पार्टी में भरसक कोशिश की। पर वह उतना ही अधिक बार-बार दिखाई पड़े। उसको जरनल भी भूल गया, उसको पार्टी भी भूल गई, बस वह अंगूठा ही रह गया। अब जनरल खाना खाये तो अंगूठा ही दिखेगा। किसी से हाथ मिलाये तो अंगूठा ही दिखाई दे। और वह पड़ोस में ही बैठी है। उसने अपनी आंखें बंद कर ली। लेकिन जितनी आंखे बंद करे उतना ही अंगूठा साफ दिखाई पड़ने लगें। आंखें बंद करके कोई चीज साफ देखनी हो तो बड़ी सुविधा है। वह बहुत घबड़ा गई, बेचैन हो गई। उस पार्टी में दो तीन घंटे अंगूठा ही उसका सत्‍संग रहा।
      रात में वह दो-चार दफे चौंक कर उठी। और सुबह उसने अपने पति को कहा कि तुमने वह किताब कहां से पढ़ी,में बड़ी मुसीबत में पड़ गई हूं। मुझे यह भय सवार हो गया है। कि कहीं  मेरे बच्‍चे का अंगूठा वैसा न हो जाए। उसके पति ने कहा, पागल हो गई हो। इन किताबों में क्‍या रखा हुआ है। ऐसा किसी ने लिख दिया, तो हो जाएगा? छोड़ो इस बात को। पर वह पत्‍नी नहीं छोड़ पाई।
      असल में जिस चीज को भी हमें छोड़ने के लिए कहा जाएं। उसको छोड़ना मुश्‍किल हो जाता है। पति ने जितना उसको कहा कि छोड़ो इस बात को, भूलों इस बात को.......। जानते हो आप, जिसको भूलना हो, उसे कभी नहीं भूल सकते। असल में भूलने की कोशिश में भी तो बार-बार याद करना पड़ता है। भूलने के लिए। वह याद होता चला जाता है। अगर किसी को भूलना है तो कम से याद तो करना ही पड़ेगा भूलने के लिए। और जितनी बार भूलने के लिए याद करना पड़ेगा, उतना ही मजबूत होता चला जाएगा।
      जैसे-जैसे दिन उसके बढ़ने लगे और बच्‍चे का जन्‍म करीब आने लगा। अंगूठा भारी पड़ने लगा। वह उसे भूलने की कोशिश में लग गई, लेकिन भूलना मुश्‍किल हो गया। जब  उसे प्रसव पीडा हो रही थी। और बच्‍चे का जनम हो रहा था। तब बच्‍चा उसके ख्‍याल में नहीं था। अंगूठा ही था। और इतनी अदभुत घटना घटी कि बच्‍चा ठीक पिचले अंगूठे का ही पैदा हुआ। और जब बच्‍चे के और जनरल के अंगूठे के फोटो मिलाए गए, तो वे एक दूसरे की कापी थे।
      यह मां ने इस बच्‍चे को अंगूठा दे दिया। सब माताएं अपने बच्‍चों को अंगूठा दे रही है। सबके पास अलग-अलग ढंग के अंगूठे हैं, वह उनको मिल जाते है।( क्रमश......अगल अंक में)
ओशो
मैं मृत्‍यु सिखाता हूं,

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