उपनिषद--कठोपनिषद--ओशो (आठवां--प्रवचन) धर्म का आधार—सूत्र : मौन—आठवां प्रवचन

धर्म का आधारसूत्र : मौनआठवां प्रवचन



एषु सर्वेषु भतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्धया सूक्ष्यया सूक्ष्मदर्शिभि:।। 12।।

यच्छेद्वामनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेचान आत्मनि।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छान्त आत्मनि।। 13।।

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गें पथस्तत्कवयो वदन्ति।। 14।।

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्तं महत: परं ध्रुव निचाटय तत्रत्युमुखात् प्रमुच्यते।।15।।

नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तं सनातनम्।
उक्ला श्रत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते।। 16।।

य इमं परमं गुह्य श्रावयेद् ब्रह्मसंसदि।
प्रयत: श्राद्धकाले वा तदानज्याय कल्पते।
तदानज्याय कल्पते इति।। ।।




यह सबका आत्मरूप परमपुरुष समस्त प्राणियों में रहता हुआ भी माया के परदे में छिपा रहने के कारण सबके प्रत्यक्ष नहीं होता। केवल सूक्ष्मतत्वों को समझने वाले पुरुषों द्वारा ही अति सूक्ष्म तीक्ष्ण बुद्धि से देखा जा सकता है।। 12।।

बुद्धिमान साधक को चाहिए कि ( पहले) वाक् आदि ( समस्त इंद्रियों) को मन में निरुद्ध करे उस मन को ज्ञानस्वरूप बुद्धि में विलीन करेज्ञानस्वरूप बुद्धि को महान आत्मा में विलीन करे (और) उसको शांतस्वरूप परमपुरुष परमात्मा में विलीन करे।। 13।।


हे मनुष्यो! ) उठो जागो (और ) श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उनके पास जाकर (उनके द्वारा) उस परब्रह्म परमेश्वर को जान लो ( क्योकि ) ज्ञानीजन उस तत्वज्ञान के मार्ग को छुरे की तीक्ष्ण की हुई दुस्तर धार के सदृश दुर्गम बतलाते हैं।। 14।।

जो शब्दरहित स्पर्शरहित रूपरहित रसरहित और बिना गंध वाला है तथा ( जो) अविनाशी नित्य अनादि अनंत (असीम )महान आत्मा से श्रेष्ठ (एवं) सर्वथा सत्य तत्व है उस परमात्मा को जानकर (मनुष्य) मृत्यु के मुख से सदा के लिए छूट जाता है।। 15।।

मेधावी मनुष्य यमराज के द्वारा कहे हुए नचिकेता के ( इस) सनातन उपाख्यान का वर्णन करके और श्रवण करके ब्रह्मलोक में महिमा को उपलब्ध होते हैं (प्रतिष्ठित होते हैं)।। 16।।

जो मनुष्य सर्वथा शुद्ध होकर इस परम गुह्य रहस्यमय प्रसंग को ब्राह्मणों की सभा में सुनाता है अथवा श्राद्धकाल में (भोजन करने वालों को ) सुनाता है (उसका ) वह कर्म अनंत होने में अर्थात अविनाशी फल देने में समर्थ होता है और वह अनंत होने की शक्ति प्राप्त करता है।। 17।।



धर्म का आधार—सूत्र, : मौन


अंग्रेज विचारक ब्रैडले की एक प्रसिद्ध कृति है : एपियरैंस एंड रिएलिटी—आभास और सत्यया कहें माया और ब्रह्म। जो दिखाई पड़ता हैवह केवल आभास है। जो दिखाई पड़ने के भीतर छिपा है। और दिखाई नहीं पड़ता, वहीं सत्‍य है। तो यथार्थ के दो रूप है। एक तो जैसा दिखाई पड़ता है—ऊपर-ऊपर; और एकजैसा है— भीतर।
मैं आपको देखता हूं, तो रूप दिखाई पड़ता हैआकार दिखाई पड़ता हैशरीर दिखाई पड़ता हैलेकिन आप दिखाई नहीं पड़ते। इस सबके भीतर छिपे हैं आप। यह सब जो रूप हैयह सब जो दृश्य हो रहा हैयह सिर्फ बाहर की परिधि हैयह भीतर का केंद्र नहीं है। इसलिए अगर कोई मान ले कि आपको देखकर उसने आपको जान लियातो भूल हो जाएगी। जो उसने देखावह केवल परिधि थी।
जैसे कोई किसी के घर के बाहर की दीवालों को देखकर लौट आए। ऐसे ही आपके शरीर कोआप में जो दृश्य है उसे देखकर जो समझ ले कि आपसे परिचित हो गयावह भ्रांति में पड़ गया। आप तो भीतर गहरे में छिपे हैंजो आंख की पकड़ में नहीं आताहाथ के स्पर्श में नहीं आताकान जिसे सुन नहीं सकते। इसलिए गहन प्रेम के क्षण में ही आपको जाना जा सकता है। क्योंकि प्रेम ही वहां तक पहुंच पाएगाजहां तक इंद्रियां नहीं पहुंच पातीं।
यह पूरा जगत ही ऐसा है। और स्वाभाविक है कि ऐसा होक्योंकि किसी भी वस्तु की परिधि होगी और केंद्र होगासरकमफ्रेंस होगी और सेंटर होगा। जो बाहर से देखा जा सकता हैवह एक। और जो भीतर से ही गहन हृदय में प्रवेश करके जाना जा सकेगावह दो। वही सत्य हैजो केंद्र पर है। परिधि तो रोज बदलती रहती है।
आप मां के पेट में थे तो एक छोटे से अणु थे। अगर वह अणु आज आपके सामने रख दिया जाए तो आप पहचान भी न सकेंगे कि कभी मैं यह था। लेकिन भीतर के केंद्र पर उस क्षण भी आप यही थे जो आज हैं। परिधि बदल गई। आप बच्चे थे कभी, 'कभी जवान थेकभी के हुए—परिधि बदलती चली गई। अगर आप अपने ही चित्रों को बचपन से लेकर बुढ़ापे तक देखेंतो आप पहचान न पाएंगे कि ये एक ही आदमी के चित्र हैं। सब बदलता चला गया है।
शरीर शास्त्री कहते हैंशरीर प्रतिपल बदल रहा है और सात वर्ष में पूरा शरीर बदल जाता है। अगर आप सत्तर साल जीएंगेतो दस बार आपको नया शरीर मिल चुका होगा।
प्रतिपल शरीर में कुछ मर रहा है। भोजन से आप नया शरीर अपने में निर्मित करते जा रहे हैं। मल सेमूत्र से,पसीने सेबाल सेनाखून सेमरे हुए हिस्से बाहर निकलते जा रहे हैं। इसलिए तो बाल काटने से पीड़ा नहीं होतीवह शरीर का मरा हुआ हिस्सा है। शरीर उसे बाहर फेंक रहा है। नाखून काटने से पीड़ा नहीं होतीवह मरा हुआ हिस्सा है।
आप जानकर चकित होंगे कि मुर्दे के भी बाल और नाखून बढ़ते हैं। मुर्दा भी रखा रहेतो उसके बाल और नाखून बढ़ते रहते हैंक्योंकि बाल और नाखून से जीवन का कोई संबंध नहीं है। वह शरीर का मरा हुआ हिस्सा है। मुर्दे का शरीर भी उस मरे हुए हिस्से को फेंकता रहता है।
सात वर्ष में आपके शरीर के सारे कोष्ठ बदल जाते हैंनए हो जाते हैं। यह परिधि है आपकी। जो नदी की धार की तरह बहती चली जाती है। किसी दिन यह जन्मी थी और किसी दिन यह समाप्त भी हो जाएगी। लेकिन भीतर जो केंद्र हैवह जब आप एक छोटे से अणु थेजो खाली आंख से देखा भी नहीं जा सकताजिसे देखने के लिए खुर्दबीन चाहिए...। फिर कभी आप बच्चे थेफिर जवान थेकभी के थे और कभी फिर मिट्टी में गिर गए। वह सब शरीर के तल पर हो रहा हैकेंद्र अछूता है। वह केंद्र ही सत्य हैयह परिधि आभास है। आभास इसे इसलिए कहते हैं कि इसको ही बहुत—से लोग सत्य मान लेते हैं। सत्य होने का भ्रम इससे पैदा होता है।
और ऐसा व्यक्ति के संबंध में ही नहींजीवन के समस्त रूपों के संबंध में सत्य है। ये जो वृक्ष खड़े हैंइनको आप देखते हैं। इनके पत्ते हैंइनकी शाखाएं है—ये वृक्ष का मूल नहीं हैं और न इस वृक्ष का केंद्र हैंन ये इसकी आत्मा हैं। ये भी इसकी देह हैं। इस देह के भीतर छिपी है वैसी ही आत्माजैसी आपके भीतर छिपी है।
और भारत के मनीषी कहते रहे हैं कि कभी आप भी वृक्ष थे। आज आप मनुष्य हैंवह परिधि का परिवर्तन है। आज जो वृक्ष हैकभी वह भी मनुष्य हो जाएगा। और यहां इतने वृक्ष खड़े हैंये भी सब एक जैसे नहीं हैं। इनके भी व्यक्तित्वों में भेद है। इनमें भी मूढ़ वृक्ष हैंइनमें भी बुद्धिमान वृक्ष हैं। इनमें जो बुद्धिमान वृक्ष हैंवे तीव्रता से गति कर रहे हैंवृक्ष की परिधि को पार करके जीवन के और ऊंचे आयाम में प्रवेश करने के लिए। मनुष्यों में भी सभी मनुष्य एक जैसे नहीं हैं। मूढ़ हैंजो जहां हैं वहीं ठहरे हुए हैं। जिन्होंने परिधि को पकड़ लिया है और उसी को सत्य मान लिया है। उनमें ज्ञानीजन हैंजो उस परिधि को छोड्कर और श्रेष्ठतर जीवन के आयाम में प्रवेश का प्रयत्न कर रहे हैं।
रूपों के संबंध में ही नहींपूरे अस्तित्व को इकट्ठा भी लेंतो परमात्मा की जो परिधि हैउसका नाम माया है—आभासएपियरेंस। संसार उसी परिधि का नाम है। और इस संसार के गहन गुह्य में छिपा हुआ जो केंद्र हैवही ब्रह्म है।
हम सभी रूप सेआकार से मोहितसम्मोहित दौड़ते चले जाते हैं। जो व्यक्ति भी इस आकार के भीतर छिपे हुए निराकार की खोज में लग जाता हैउसे ही उपनिषद ब्राह्मण कहते हैं। ब्राह्मण कोई जन्म से नहीं होता। जन्म से कोई ब्राह्मण होकर समझ ले कि ब्राह्मण हो गया तो पागल है।
ब्राह्मण होना तो सतत साधना की उपलब्धि है। जन्म से तो सभी शूद्र पैदा होते हैंसभी। इन शूद्रों में से कुछ ब्राह्मण हो जाते हैंशेष शूद्र ही रह जाते हैं।
ब्राह्मण वही हो जाता हैजो परिधि को छोड्कर केंद्र की तलाश में लग जाता हैजो माया के आवृत को तोड़कर और ब्रह्म की खोज में लग जाता है। आंखे जिसे देख पाती हैंउसमें उसकी उत्सुकता नहीं। जो अदृश्य हैजिसे आंखे नहीं देख पातींजिसे केवल विवेक की आंख देख पाती हैजिसे केवल अंतःप्रशा देख पाती हैउसकी खोज में जो लग जाता हैवह ब्राह्मण है। ये सूत्र कई अर्थों में कीमती हैं। इनमें हम प्रवेश करें—।
यह सबका आत्मरूप परमपुरुष समस्त प्राणियों में रहता हुआ भी माया के परदे में छिपा रहने के कारण सबके प्रत्यक्ष नहीं होता। केवल सूक्ष्मतत्वों को समझने वाले पुरुषों द्वारा ही अति सूक्ष्म तीक्षा बुद्धि से देखा जा सकता है।
लेकिन सूक्ष्म और तीक्ष्या बुद्धि से आप कहीं गलत न समझ लें। सूक्ष्म और तीक्ष्या बुद्धि से उपनिषदों का अर्थजिसे हम सामान्यत: सूक्ष्म और तीक्ष्या बुद्धि कहते हैंउससे नहीं है। हम तो उस बुद्धि को सूक्ष्म और तीशा कहते हैंजो गणित और तर्क में कुशल हैजो विवाद में कुशल हैजो किसी भी बात को खंड—खंड तोड़ने में कुशल है।
लेकिन उपनिषद उस बुद्धि को सूक्ष्म कहते हैं जो पवित्र हैजो शुद्ध हैजो शांत है। ये दोनों बिलकुल अलग धारणाएं हैं। उपनिषद उसे सूक्ष्म बुद्धि कहते हैं जो इतनी शुद्ध है कि जिसमें कोई विकार नहीं रह गया। क्योंकि विकार स्थूल कर देते हैं। निर्विकार बुद्धि का नाम सूक्ष्म बुद्धि है। एक भोले— भाले आदमी के पास हो सकती है सूक्ष्म बुद्धि। जरूरी नहीं है कि एक बड़े गणितज्ञ और एक तर्कशास्त्री के पास हो।
गणितज्ञ और तर्कशास्त्री के पास जो बुद्धि हैवह सूक्ष्म नहीं है। अगर ठीक से समझेंतो उसे कहना चाहिए,वह कुशल है। विचार करने की क्षमता उसके पास हैलेकिन निर्विचार की शुद्धि उसके पास नहीं है। दार्शनिक और संत में यही भेद है।
दार्शनिक किसी भी चीज को तोड़कर उसके भीतर प्रवेश करने की कोशिश करता है। संत अपने को शुद्ध करके—किसी को तोड़कर नहीं—अपनी शुद्धता के माध्यम से किसी में प्रवेश की कोशिश करता है। इसलिए बहुत बार ऐसा हो जाता है कि अपढ़ भी संत हो जाते हैं। और बहुत पढ़े —लिखे लोग भी संत नहीं हो पाते।
जीसस बढ़ई का बेटा है। कुछ भी शिक्षित नहीं है। तर्क में जीसस को कोई भी पराजित कर सकता है। रामकृष्ण दूसरी कक्षा तक पढ़े हैं। तर्क में कोई भी रामकृष्ण को पराजित कर सकता है। जिस अर्थ में हम बुद्धि को सूक्ष्म कहते हैंऔर जिस अर्थ में पश्चिम के मनोवैज्ञानिक बुद्धि—अंक नापते हैंआई क्यू. नापते हैं—उसमें रामकृष्ण कहीं टिकेंगे नहीं।
लेकिन रामकृष्ण के पास या कबीर के पास या नानक के पास या जीसस के पास एक और तरह की सूक्ष्मता है,जो शुद्धि की हैपवित्रता है। जैसे सुबह का नया खिला हुआ फूल हो। काटे की तरह तीक्ष्या नहीं है वहकिसी को चुभेगी भी नहीं। लेकिन एक फूल की पवित्रता हैएक निर्दोषता है। उस निर्दोषता की एक सूक्ष्मता है। वह सूक्ष्मता ही परम तत्व में प्रवेश कर पाती है।
तीक्ष्या बुद्धि जिसको हम कहते हैंवैसा तीक्ष्या—बुद्धि व्यक्ति वैज्ञानिक हो जाएगा। वह पदार्थ को तोड़कर उसके रहस्यों को खोज लेगालेकिन आत्मा के जानने से वंचित रहेगा। जिसको उपनिषद सूक्ष्म बुद्धि कहते हैंवैसा व्यक्ति तोडेगा नहींबिना तोड़े प्रवेश कर जाएगा। और निश्चित ही जब तोड़कर प्रवेश करना पड़ेतो बुद्धि आपकी बहुत सूक्ष्म नहीं है। क्योंकि जगह बनानी पडती है तब आप प्रवेश कर पाते हैं। बिना तोड़े जो प्रविष्ट हो जाएउसकी सूक्ष्मता आत्यंतिक है।
यह भेद साफ समझ लेना चाहिए। क्योंकि इस भेद को साफ न समझने के कारण बड़ी अड़चन हुई है। कबीर को काशी के पंडित पूछते हैं कि तुम जब शास्त्र जानते नहींसंस्कृत पढ़े नहींसिद्धातो का तुम्हें कुछ पता नहींतो तुम आत्मज्ञानी कैसे हो गए?
निश्चित ही काशी का कोई भी पंडितसाधारण से साधारण पंडित भीकबीर से ज्यादा जानता थाशास्त्र की भाषा में। लेकिन कबीर के मुकाबले वे सब बुझे हुए दीए थे। वे कितना ही जानते हों और कबीर बिलकुल भी न जानता हो तो भी कबीर का होना सघन था। अस्तित्व सघन था। उनके पास होगी स्मृति, कबीर के पास थी आत्मा।
वह ज्योति जो कबीर के पास हैउसको सूक्ष्म बुद्धि उपनिषद कहते हैं। छोटे बच्चों के पास होती हैसंतो के पास होती है। सरल—चित्त लोगों के पास होती है। इस सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा ही माया के पर्दे को कोई पार कर पाता है।
अगर कुशल बुद्धि हो तो माया के पर्दे को ही काटने में और समझने में उलझ जाता है। वह जो एपियरेंस है जो दिखाई पड़ रहा हैउसी के साथ उलझ जाती है साधारण बुद्धि। जो दिखाई पड़ रहा है उसको छोड्करजो नहीं दिखाई पड़ रहा है उस तक पहुंचने की क्षमतामैंने कहाप्रेम में है या प्रार्थना में है।
जब कोई व्यक्ति सच में ही प्रेम करेया प्रेम में हो जाएतो शरीर भूल जाता है। शरीर के पार सीधी छलांग लग जाती है। ऐसा ही प्रेम जब कोई सारे अस्तित्व से करता है तो उसका नाम प्रार्थना है।
ध्यान बुद्धि को सूक्ष्म करने की प्रक्रिया है। जैसे—जैसे आप ध्यान करते हैंबुद्धि के विकार गिरते चले जाते हैं। एक घड़ी आती है जब बुद्धि परिशुद्ध हो जाती है। उसमें कुछ भी विकारकोई भी फारेन एलिमेंटकोई भी विजातीय तत्व नहीं रह जाता। विचार तक नहीं रह जाता। बुद्धि इतनी निर्मल हो जाती है कि विचार भी नहीं करती। सिर्फ होती है। सिर्फ एक ज्योति होती है। उस ज्योति में जरा भी धुआ नहीं होता। शुद्ध प्रकाश रह जाता है आलोक। उस शुद्ध आलोक से ही व्यक्ति माया के पर्दे में छिपे हुए ब्रह्म को जानने में समर्थ हो पाता है।
बुद्धिमान साधक को चाहिए कि पहले वाक् आदि समस्त इंद्रियों को मन में निरुद्ध करे उस मन को ज्ञानस्वरूप बुद्धि में विलीन करे ज्ञानस्वरूप बुद्धि को महान आत्मा में विलीन करे और उसको शांतस्वरूप परमपुरुष परमात्मा में विलीन करे।
यह प्रक्रिया है बुद्धि के सूक्ष्म और शुद्ध होने की। शुरू करना है वाक् सेवाणी सेविचार सेशब्द से। हमारी बुद्धि विकृत हैक्योंकि इतने विचारों का बोझ है! विचार ही विचार हैं। जैसे आकाश में बादल ही बादल छाए हों,आकाश खो जाएदिखाई भी न पड़ेसूर्य का कोई दर्शन न होऐसी हमारी बुद्धि है। विचार ही विचार छाए हैं। उसमें वह जो बुद्धि की प्रतिभा हैजो आलोक हैवह खो गयाछिप गया।
एक बादल हट जाए तो आकाश का टुकड़ा दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। छिद्र हो जाएं बादलों में तो प्रकाश की रोशनी आनी शुरू हो जाती हैसूरज के दर्शन होने लगते हैं। ठीक ऐसे ही बुद्धि जब तक विचार से बहुत ज्यादा आवृत है.. और एक पर्त नहीं है विचार कीहजारों पर्तें हैं। जैसे कोई प्याज को छीलता चला जाए तो पर्त के भीतर पर्तपर्त के भीतर पर्त। ठीक ऐसे विचार प्याज की तरह हैं। एक विचार की पर्त को हटाएं दूसरी पर्त सामने आ जाती है। दूसरे को हटाएंतीसरी आ जाती है। एक विचार को हटाएं दूसरा विचार मौजूद हैदूसरे को हटाएं तीसरा मौजूद है।
यह पर्त दर पर्त विचार है। यह हमने जन्मों में इकट्ठे किए हैंजन्मों—जन्मों में। यह धूल है जो हमारी लंबी यात्रा में हमारे मन पर इकट्ठी हो गई है। जैसे कोई यात्री रास्ते पर चले तो धूल इकट्ठी होती चली जाए। और उसने कभी स्नान न किया हो और यात्रा करता ही रहा होतो बहुत धूल इकट्ठी हो जाएयात्री का पता ही न चले कि वह कहौ खो गया।
ध्यान स्नान है बुद्धि का। और जो ध्यान नहीं सम्हाल पा रहा हैउसकी बुद्धि कचरे से लद जाएगी,स्वाभाविक। प्रतिपल संस्कार पड़ रहे हैंहर घड़ी। पूरे दिन मेंवैज्ञानिक कहते हैंकोई दस लाख संस्कार बुद्धि पर पड़ते हैं। आप सोच भी नहीं सकते कि दस लाख कहां से पड़ते होंगे। हर चीज का संस्कार पड़ रहा है। अभी मैं बोल रहा हूं यह संस्कार पड़ रहा है। पक्षी आवाज कर रहा हैवह संस्कार पड़ रहा है। एक कार का हार्न बजावह संस्कार पड़ा। वृक्ष में हवा दौड़ीवह संस्कार पड़ा। पैर में एक चींटी ने काटावह संस्कार पड़ा। सिर में थोड़ी पीड़ा हुईवह संस्कार पड़ा। पड़ रहे हैं दस लाख संस्कार दिनभर मेंचौबीस घंटे में। और ये सब इकट्ठे होते जा रहे हैं।
यह संस्कार धूल है। और यह हम जन्मों से इकट्ठे कर रहे हैं। इसलिए बहुत पर्तें इकट्ठी हो गई हैं। जब आप सोए हैंतब भी संस्कार पड़ रहे हैं। नींद लगी है आपकीलेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि बुद्धि पूरे वक्त काम कर रही है। बाहर कोई आवाज होगीनींद में भी संस्कार पड़ रहा है। गर्मी पड़ेगीसंस्कार पड़ रहा है। मच्छड़ आवाज कर रहे हैंसंस्कार पड़ रहा है। करवट बदलीसंस्कार पड़ रहा है। गर्मी हैसर्दी हैपूरे समय बुद्धि इकट्ठा कर रही हैहर चोट। बुद्धि की क्षमता बहुत ज्यादा है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि अनंत संस्कार बुद्धि इकट्ठा कर सकती है। आपके इस छोटे—से सिर के भीतर कोई सात करोड़ सेल हैं। और एक—एक सेल अरबों संस्कार इकट्ठा कर सकता है। इसलिए कोई अंत नहीं है। सारी दुनिया का जितना ज्ञान हैवह—एक आदमी की बुद्धि में समाया जा सकता है।
ये जो इकट्ठी होती पर्तें हैंइनके कारण आप आच्छादित हैं। इस आच्छादन को तोडना पड़ेगा। इस तोड़ने का प्रारंभ—बुद्धिमान साधक को चाहिएपहले वाक् आदि समस्त इंद्रियों को मन में निरुद्ध करे।
इसलिए मौन का इतना मूल्य है। मौन का अर्थ हैआप बाहर और भीतर बोलना बंद कर रहे हैं। क्योंकि बोलना बुद्धि की बड़ी गहरी प्रक्रिया है। बोलने के द्वारा बुद्धि बहुत कुछ इकट्ठा करती रहती है। और जो भी आप बोलते हैं,वह आप सिर्फ बोलते नहीं हैंबोला हुआ आप सुनते भी हैंउसके संस्कार और सघन हो जाते हैं।
जब आप एक ही बात बार—बार बोलते रहते हैंतो आपको पता नहीं कि आप बार—बार सुन भी रहे हैं। संस्कार गहरे होते जा रहे हैं। और आप कचरा बोलते रहते हैं। सुबह अखबार पढ़ लियाफिर दिनभर उसी को लोगों को बोले चले जा रहे हैं। कोई व्यर्थ की बातजिसका कोई भी मूल्य नहींजिससे किसी को कोई लाभ नहीं होगाउसको आप बोले चले जा रहे हैं। अगर आप अपने चौबीस घंटे का विश्लेषण करेंतो आप पाएंगे कि निन्यानबे प्रतिशत तो कचरा थाजो आप न बोलते तो किसी का कोई हर्ज न था।
ध्यान रहेजिसे बोलने से किसी को कोई लाभ नहीं हुआ हैउसे बोलने से हानि निश्चित हुई है। क्योंकि न केवल आपने दूसरे के मन में कचरा डाला है—जो कि हिंसा हैजिसका कोई मूल्य नहीं है वह आप बोलकर दूसरे के मन में डाल दिए हैं—जब आप बोल रहे थे तो आपने फिर से सुन लिया है। वह आपके भीतर दुबारा गहरा हो गया। उसके फिर से संस्कार पड़ गएफिर कंडीशनिंग हो गई।
अगर आप एक असत्य को भी बार—बार बोलते रहेंतो आप खुद ही भूल जाएंगे कि वह असत्य है। इतने संस्कार भीतर पड़ जाएंगे कि वह लगने लगेगा कि सत्य है। एडोल्फ हिटलर ने कहा है कि कोई भी असत्य को सत्य करना हो तो एक ही तरकीब हैउसे बोले चले जाओ। दूसरे ही मान लेंगे ऐसा नहीं हैआप खुद भी मान लेंगे।
आप अपनी जिंदगी में देखेंकई असत्य आपको सत्य मालूम पड़ने लगे हैंक्योंकि आप इतने दिनों से बोल रहे हैं कि अब आपको भी स्मरण नहीं रहा कि पहले दिन यह बात असत्य थी। बहुत बार संस्कार पड़ जाने से गहरे हो जाते हैंलीक बन जाती है। 
पहला काम है साधक के लिए कि वह वाणी को संयत कर ले। वही बोले जो बिलकुल अनिवार्य होअपरिहार्य हो,जिसके बिना चल ही न सकेगा।
यह दुनिया बड़ी शांत हो जाएअगर लोग अपरिहार्य को बोलेंव्यर्थ को न बोलें। और व्यर्थ को बोलकर बड़ी झंझट में पड़ते हैं। क्योंकि बोलकर आप ही थोड़े ही बोलते हैंदूसरा जवाब भी देगा।
थोड़ा आप सोचें कि अगर आप संयत रहे होतेमौन रहे होतेतो कितने उपद्रव आपके जीवन से बच गए होते! बोलकर आप न मालूम कितने उपद्रवों में पड़ रहे हैं। फिर उनको बचाने के लिए और बोलना पड़ता है। फिर यह सिलसिला बढ़ता चला जाता है। एक विसियस सर्किल हैएक दुष्टचक्र हैजिसका फिर कोई अंत नहीं है।
इसलिए साधु चुप हो जाता है। उतना ही बोलता हैजितना अनिवार्य है। और उतना ही बोलता हैंजिससे किसी का हित हो सके। अन्यथा मौन रह जाता है।
वाणी को जब आप बाहर से रोकेंगेतो भी जरूरी नहीं कि भीतर रुक जाएक्योंकि आप दूसरे से न बोलें तो खुद से बोलते रहते हैं! बैठे हैं और खुद ही से बात चल रही है। यह खुद ही से चलने वाली बात भी संस्कार निर्मित करती है। क्योंकि जब आप अपने से बोल रहे हैं तब भी मन सुन रहा है। और जो भी आप बोल रहे हैंउसकी आप लकीर जोर से खोद रहे हैं अपने भीतर। खुद से भी बोलना बंद करें।
वाणी बड़ा उपद्रव है। जरूरी नहीं है कि उपद्रव ही होहमने उपद्रव बना लिया है। भीतर भी धीरे— धीरे बोलना बंद करें। चुप्पी साधेंमौन को फैलने दें। जितना—जितना मौन फैलेगाउतना—उतना मन विसर्जित होता चला जाएगा। जैसे—जैसे मौन घना होगावैसे—वैसे बादल तिरोहित होने लगेंगे। जगह—जगह से छिद्र टूटने लगेंगे और रोशनी भीतर की आने लगेगी।
धर्म कासारे धर्मों का आधार मौन है। महावीर बारह वर्ष मौन रहे। बुद्ध ने अनेक—अनेक दिन मौन में बिताए। जीसस बोलने के पहले मौन में चले गए। मुहम्मद को कुरान का अवतरण हुआजब वे परम मौन की अवस्था में थे। इस जगत में जो भी सत्य का अवतरण हुआ हैवह तब हुआ है जब भीतर चुप्पी हैसब शांत है।
उस शांत क्षण में ही हमारा तालमेल हमारी टधूनिंग ब्रह्म से जुड़ जाती है। वह मौन का कांटा ही हमें आभास से भीतर ले जाता है और सत्य से जोड़ देता है। इसलिए हमने साधु को मुनि कहा है। मुनि का अर्थ है. जो मौन हो गया है। जो भीतर चुप हो गया है।
असल में वही बोलने का अधिकारी हैजो भीतर चुप हो गया हो। क्योंकि उसके बोलने का कुछ मूल्य होगा। क्योंकि बोलने का अर्थ होगा। उसने कुछ जाना हैजिसे वह दे रहा है। जो चुप नहीं हैवह बोलने का अधिकारी नहीं है। जो भीतर बोले चला जाता हैउसका बोलना एक बीमारी है।
आप जब दूसरों से बात करते हैंतो आप सच में उनसे बात नहीं कर रहे हैंआप अपने को उलीचना चाहते हैं। इसलिए कोई न मिले आपको सुनने कोतो बेचैनी शुरू हो जाती है। बातचीतबकवास के लिए कोई चाहिए। लेकिन दूसरा भी आपकी बकवास इसीलिए सुन रहा है कि जब तुम चुप होओगेतो वह भी शुरू करेगा। और कोई प्रयोजन सुनने का नहीं है।
मैंने सुना है कि एक सभा में एक नेता व्याख्यान कर रहा थालेकिन धीरे— धीरे लोग उठकर जाते गए। व्याख्यान पूरा होते—होते एक ही आदमी बचा। उस नेता ने कहाधन्यवाद तुम्हारा। इस गांव में लोग बिलकुल नासमझ मालूम पड़ते हैं। एक तुम ही बुद्धिमान हो उसने कहाऐसा कुछ भी गी। असल में आपके बाद मेरे बोलने की बारी है। आपको सुनने को नहीं रुका हूं। मेरा भी व्याख्यान होने वाला हैइसी सभा में।
कोई किसी को सुन नहीं रहा है। किसी को किसी से सुनने का प्रयोजन नहीं है। सुनना पड़ता हैक्योंकि बोलना है। सुनना रिश्वत है। जब आप किसी की बात सुन रहे हैंतब अपने भीतर देखना—आप प्रतीक्षा कर रहे हैंकब ये सज्जन चुप हौं। और अगर कोई सज्जन चुप ही न होंतो आप कहते हैंबिलकुल बोर है। बोर का मतलबआपको बोर करने का उसने बिलकुल मौका नहीं दिया! अपनी ही बोले चला जा रहा है। आप अपनी बोलना चाहते थेउसने आपको मौका ही नहीं दिया। जौ सुसंस्कृत लोग हैंवे आपको बोर भी करते हैं और आपको भी बोर करने का मौका देते हैं। थोड़ा बोलते हैंथोड़ा आपको बुलवाते हैं। इससे सत्संग बना रहता है। इससे आप घबड़ाते भी नहीं। यह लेन—देन है। लेकिन यह बीमारी है।
अगर बोलना आपकी मजबूरी हो और आपको बोलने में राहत मिलती होकि आप हल्के होते हैंतो समझना कि आप जो बोल रहे हैंवह कचरा है। इससे किसी का कोई लाभ होने वाला नहीं है।
हम अपना कचरा दूसरे में डालते हैंदूसरे अपना कचरा हममें डालते हैं। दोनों के पास कचरा बढ़ जाता है! कचरा घटना चाहिए। इसलिए अगर साधक को बहुत बार जंगल में भाग जाना पड़ा हैतो वह आपसे कम भागा हैआप जो कचरा उसके ऊपर उंडेलते हैंउससे ज्यादा भागा है। जंगल में मौन होने को उसे सुविधा मिल गई।
लेकिन जंगल भागने की जरूरत नहीं है। अगर समझ हो तो आप यहीं धीरे— धीरे मौन होते जा सकते हैं। एक बात भर स्मरण रखेंव्यर्थ न बोलें।
जब तक पक्का न हो जाए कि इससे किसी का लाभ होगातब तक न बोलें। जब तक ऐसा न लगे कि यह बोलना बिलकुल ही अनिवार्य हैतब तक न बोलें। और भीतर भी धीरे— धीरे बोलने की प्रक्रिया को शांत करें। जब मन बोलने लगेतो आप उसको कोआपरेट न करेंसहयोग न दें। आप दूर खड़े हो जाएंऔर कहें कि बोलोलेकिन मैं कोई साथ न दूंगा। मैं साक्षी रहूंगा। मैं देखता रहूंगा कि तुम बोल रहे होलेकिन तुम्हारा कोई रस नहीं लूंगा। तटस्थ हो जाएं। एक उपेक्षा भीतर बना लें।
बुद्ध ने कहा है कि साधु के लिए भीतरी उपेक्षा बड़ी जरूरी है। उपेक्षा का मतलब है इनडिफरेंस। उसका मतलब है कि चल रहा है मनठीक हैचलने दोलेकिन हमें कोई प्रयोजन नहीं है। हम इसमें बीच में उतरकर रस न लेंगे।
ध्यान रहेमन तभी तक चलता हैजब तक आप उसमें रस लेते हैं। रस दो तरह के हैंया तो पक्ष में होंया विपक्ष में हों। दोनों रस हैं।
आपके मन में कोई विचार चल रहा हैआप उसके पक्ष में हैंतो आप उसमें जुड़ जाते हैं। आप विचार के साथ बहने लगते हैं। आप विचार को प्राण दे रहे हैंक्योंकि विचार अपने आप में निर्जीव हैआपका साथ हो तो सजीव हो जाता है। या आप उसके दुश्मन हो जाएं। जब आप दुश्मन हो जाते हैंतब भी आप प्राण देते हैं। यह जरा कठिन समझ में आएगा। क्योंकि जब आप किसी विचार के दुश्मन हो जाते हैंतब आपने लड़ना शुरू कर दिया। आपने संघर्ष शुरू कर दिया। संघर्ष का मतलब है कि आप विचार में रस ले रहे हैं। दुश्मन का रसलेकिन रस ले रहे हैं।
न मित्रन शत्रु—उपेक्षा। कि ठीक हैचलो। न तुम्हारे चलने में मेरी उत्सुकता हैन तुम्हारे न—चलने में मेरी उत्सुकता है। तुम चलो तो ठीकतुम न चलो तो ठीकमैं दूर खड़ा हूं। ऐसे तटस्थ— भाव को जो साधता हैउसे भीतर मौन उपलब्ध हो जाता है।
वाक् आदि इंद्रियों को मन में निरुद्ध करके...।
तब वाणी मन में खो जाती है। तब शब्द निर्मित नहीं होते हैं। मन शून्य हो जाता है। लेकिन वाक् ही अकेला नहीं है। वाक् आदि इंद्रियों में वाक् प्रमुख है। लेकिन और इंद्रियां भी यही काम कर रही हैं।
आप जबान से नहीं बोलतेआंख से भी बोलते हैं। आंख से इशारा करते हैंआंख से वासना पता चल जाती है। आंख से उपेक्षा पता चल जाती हैमित्रता पता चल जाती हैशत्रुता पता चल जाती है। आंख से भी मत बोलें।
और आप कान से ही नहीं सुनतेआंख से भी बहुत—सी बातें सुनते हैं। आंख से भी पकड़ते हैं संस्कार। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी उठतेचलते हर वक्त बोलता हैन बोल रहा हो तो भी। शरीर से भी बोलता है। उसके उठनेबैठनेचलने के ढंग से भी प्रगट करता है।
पश्चिम में बड़ी खोज चल रही है बॉडी लैंग्वेज परशरीर की भाषा पर। अगर आप किसी के प्रति प्रेम से भरे हैं,तो आप उसके पास झुककर खड़े होते हैं। अगर एक स्त्री आपसे बचना चाहती हैतो वह पीछे की तरफ झुककर खड़ी होगी जब आपसे बात करेगीअगर आपसे नहीं बचना चाहतीतो आगे की तरफ झुककर खड़ी होगी। वह बोल रही है।
अगर आप जरा शरीर की भाषा समझेंतो आप समझ सकते हैं कि यह स्त्री आपके प्रेम में पड़ना चाहती है कि आपसे बचना चाहती है। कुछ बिना कहेसिर्फ उसका शरीर बता देगा। अगर कोई स्त्री आपके प्रेम में पड़ना चाहती है,तो दोनों पैर अलग रखकर बैठेगी। अगर वह आपसे बचना चाहती हैतो वह एक—दूसरे पैर के ऊपर पैर रखकर बैठेगी। वह खबर दे रही है कि मेरे द्वार बंद हैं।
आप ट्रेन में चल रहे हैंआसपास लोगों को बैठे हुए देखें। आप हैरान होंगे। सबके शरीर कुछ खबर दे रहे हैं। प्रतिपल इशारा कर रहे हैं। आप वाणी से ही नहीं बोलतेकान से ही नहीं सुनतेपूरे शरीर से भी सुनते हैंपूरे शरीर से भी बोलते हैं। आप थोड़ा—सा अपने पर ध्यान देंगे तो आपको ख्याल में आना शुरू हो जाएगा कि आपका शरीर भी इशारा करता है।
इसलिए बुद्ध ने मुद्राओं पर बड़ा जोर दिया है। यह बॉडी लैंग्वेजशरीर की भाषा का सवाल है। बुद्ध को आप बैठे देखते हैं। वे जिस ढंग से बैठे हैंउस बैठने पर आपने शायद कभी विचार न किया हो। वह बैठना बता रहा हैवे इस ढंग से बैठे हैंजैसे अपने में पूरे हैं। जैसे अपने से बाहर जाने की कोई इच्छा नहीं है। अपने से बाहर जिसे कोई उत्सुकता नहीं है। अपने में घिरेएक वर्तुल के भीतरशांत। उनके बैठने का जो ढंग हैवह बता रहा है कि उनकी दूसरे में कोई इच्छाकोई उत्सुकताकोई वासना नहीं है।
आप बैठे होंखड़े होंसोए होंहर हालत में आप खबर दे रहे हैं। भीतर का मन इंगित कर रहा हैइशारे कर रहा है। आप किसी आदमी का हाथ हाथ में लेते हैंआपका हाथआपके हाथ की गर्मीआपके हाथ से दौड़ती हुई जीवन की धाराकई खबरें देती है।
जब आप किसी का हाथ प्रेम से हाथ में लेते हैंतब आपके हाथ की गर्मी और होती है। तब आपके हाथ से जीवन—ऊर्जा उस दूसरे हाथ में दौड़ती हुई होती हैस्वागत करती हुई होती है।
जब आप बेमन से किसी का हाथ हाथ में लेते हैंतो आपके हाथ में कोई गर्मी नहीं होती। ऊर्जा जाती हुई नहीं होतीभीतर की तरफ खिंची हुईलौटती हुई होती है। हाथ ठंडा होता है। उसमें कोई स्वागतकोई स्वीकार नहीं होता। 
प्रतिपल सारी इंद्रियों से हम बोलते हैं और सारी इंद्रियों से सुनते हैं।
अहंकारी आदमी की नाक बता देगी कि कितना अहंकार भीतर है। आंख बता देगी कि वह आपको तुच्छ समझता हैदो कौड़ी का समझता है। उसके खड़े होनेउठने का ढंग बता देगा कि तुम कुछ भी नहीं हो। आपने कभी खयाल कियाजब आप अपने घर में अपने नौकर के पास से गुजरते हैंतो आपके गुजरने का ढंग दूसरा होता है। जब आप अपने मालिक के पास से गुजरते हैंतो गुजरने का ढंग दूसरा होता है। शरीर की भाषा बदल जाती है।
नौकर के पास से आप ऐसे गुजरते हैंजैसे वह है ही नहींना—कुछ। उसकी मौजूदगी कोई अर्थ नहीं रखती। वह कोई आदमी नहीं हैकोई यंत्र है। जब आप मालिक के पास से गुजरते हैंतो आप ऐसे गुजरते हैं जैसे मैं बिलकुल नहीं हूं र तुम ही हो! यह सब कहा नहीं जातालेकिन यह सब समझा जाता है। इसको कहने की कोई भी जरूरत नहीं है।
पति घर में प्रवेश करता है और वह जानता है कि आज पत्नी कलह करेगी कि नहीं। प्रवेश करते ही! उसके खड़े होने काबैठने काउसके चेहरे काउसकी आंख का ढंगउसका जोर से बर्तन रखना कि आहिस्ता बर्तन रखनासब बता देता है।
मनसविद कहते हैं कि घर में जिस दिन पत्नी पीड़ित हैदुखी हैपरेशान हैउस दिन छह गुनी ज्यादा आवाजें होती हैं। बर्तन गिरते हैंचीजें जोर से रखी जाती हैं। कुछ उसे पता नहींलेकिन भाषा हैवह प्रगट कर रही है अपनी भाषा से।
वह कह रही है कि आज सब अस्तव्यस्त हैसब अराजक है। जब पत्नी प्रेम में होती है तो घर में आवाजें बिलकुल नहीं होतीं। चीजें आहिस्ता से रखी जाती हैंप्रीति से रखी जाती हैं। वह जो पति पर प्रेम हैया घृणा हैवह चीजों पर भी प्रगट होती है। उसके सारे व्यक्तित्व का जो तरंगायित रूप हैजो वायब्रेशस हैंवे सब बदल जाते हैं। पति घर में प्रवेश करते ही जान लेता है कि हवा कुछ और है। तापमान ठीक नहीं! इसके लिए न कहना पड़ता हैन बताना पड़ता है।
ऋषि कह रहा है इस उपनिषद में यम के द्वारा कि पहले वाक् आदि समस्त इंद्रियों को मन में निरुद्ध करके..। सारी इंद्रियों को उनकी भाषा से मुक्त करके। कोई इंद्रिय कुछ भी न कहे। किसी इंद्रिय से कुछ भी प्रगट न होकिसी इंद्रिय में कोई गति न होकोई हलन—चलन न हो। सारी इंद्रियां मन में लीन हो जाएं। फिर उस मन कोज्ञानस्वरूप बुद्धि में विलीन करके..। फिर यह जो मन शेष रह जाएगा मौनइस मौन मन को और भीतर ले जाना है।
जैसे इंद्रियों के पीछे मन हैऐसे मन के पीछे बुद्धि हैविवेक है। सिर्फ मौन रहना काफी नहीं है। इस मौन में जागना भी जरूरी है। वह जागना बुद्धि में ले जाएगा। तो पहले मौन हो जाना जरूरी हैताकि ऊर्जा व्यर्थ न होभटके न बाहरअपव्यय न हो। और जब ऊर्जा संगृहीत होने लगेतो इस ऊर्जा को सजग करना जरूरी हैहोशपूर्वक। भीतर एक होश जगाना जरूरी है कि कुछ भी होमैं जागा हुआ देखूं। मैं एक शिकार न रहूं र बल्कि एक द्रष्टा हो जाऊं। क्रोध आए तो मैं देखूं कि क्रोध आयाउठाछा गयाफिर विलीन होने लगा। क्योंकि कोई चीज स्थिर तो नहीं है।
बुद्ध ने कहा हैचीजें आती हैंरुकती हैंचली जाती हैं। तुम जरा जल्दी करके उलझ जाते हो। थोड़ा रुको और थोड़ा देखते रहो। क्रोध उठाकोई क्रोध शाश्वत तो है नहींसदा रहेगा नहीं। थोड़ा धैर्य रखोउठने दो। बुद्ध कहते हैं,आंख बंद कर लोदेखो कि क्रोध पूरे शरीर पर धुएं की तरह फैल गयारोआ—रोआ उत्तप्त हो गया। देखोजल्दी मत करो। थोड़ी देर में पाओगे कि जो धुएं की तरह उठा थावह धुएं की तरह ही लीन भी होने लगाखोने भी लगा। शरीर का उत्ताप वापस लौट आया अपनी जगह पर। हृदय की धड़कन अपनी जगह आ गई। अब बादल विसर्जित हो गए। तुम जरा रुकोऔर देखते रहो। क्रोध आएगा और चला जाएगाऔर तुम अछूते रह जाओगे।
और एक बार भी कोई व्यक्ति किसी एक वासना को देखने में समर्थ हो जाएतो समस्त वासनाओं से मुक्त हो जाता है। क्योंकि कुंजी उसके हाथ में आ गई। अधैर्य के कारण हम उलझ जाते हैंबड़ी जल्दी कर  लेते हैं।
गुरजिएफ का बाप मरा तो उसने गुरजिएफ को कहा कि तू एक वचन दे देकि जब भी तुझे क्रोध आएतो तू चौबीस घंटे बाद उसका जवाब देना। कोई गाली देतो तू चौबीस घंटे बाद जाकर जवाब देना। गुरजिएफ ने कहायह भी बड़ी अजीब बात है! लेकिन आप कहते हैं..। मरते हुए पिता—तो उसने स्वीकार कर लिया।
फिर बाद में गुरजिएफ ने कहा कि मेरी पूरी जिंदगी बदल दी मेरे मरते बाप ने। क्योंकि चौबीस घंटे बाद कोई मतलब ही नहीं रह जाता। किसी ने गाली दीअब उससे उसको कहकर आना पड़ता है कि ठहरिएमैं जरा पिता को वचन दे दिया हूं र चौबीस घंटे बाद आकर जवाब दूंगा। पर चौबीस घंटे में बात इतनी राख हो जाती कि कई बार तो ऐसा लगने लगता कि उसकी गाली बिलकुल सही थीजाकर धन्यवाद दे आएंआदमी मैं ऐसा ही हूं। कई बार ऐसा लगता है कि उसने गाली दीयह उसके भीतर का रोग हैइससे मेरा क्या प्रयोजनमैं तो सिर्फ निमित्त था।
लेकिन गुरजिएफ ने कहाऐसा मौका कभी नहीं आया कि मैं चौबीस घंटे बाद जाकर गाली का उत्तर दिया हूं। चौबीस घंटा बहुत वक्त हैचौबीस क्षण भी अगर आप रुक जाएंजिंदगी दूसरी होने लगेगी। मौन को जागरण बनाना हैऔर मन को बुद्धि मेंविवेक में विसर्जित कर देना है।
फिर ज्ञानस्वरूप बुद्धि को महान आत्मा में विलीन करे।
फिर यह जो जागरण हैफिर यह जो विवेक हैयह जो अवेयरनेस हैयह भी अंत नहीं है। क्योंकि इस जागरण के लिए भी चेष्टा करनी पड़ती है। और जो भी चेष्टित हैवह स्वभाव नहीं बन पाता। जिसमें भी प्रयास करना पड़ता हैवह ऊपर—ऊपर ही रह जाता है। इसकी भी कोशिश करनी पड़ती है। भीतर साधना साधना पड़ता है। जागे रहोहोश रखोयह भी द्वंद्व है। एक तरह का संघर्ष है।
उपनिषद कह रहा है कि फिर इस संघर्ष को भीइस चेष्टा कोआत्मा में लीन करना। आत्मा का अर्थ है. बीइंगऔर चेष्टा का अर्थ होता है : डूइंगजो भी हम करते हैंवह। और आत्मा का अर्थ होता हैजो हैजिसको करना नहीं पड़ताजिसमें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। इस जागरूकता को आत्मा में लीन करने का अर्थ हैयह स्वभाव बन जाए। इसकी कोई चेष्टा न करनी पड़े। यह रहेइसको साधना न पड़े। जिसको भी साधना पड़ता हैवह कृत्रिम हैवह ऊपर—ऊपर है। जरा ही छोड़ देंगेखो जाएगा।
एक सूफी फकीर को मेरे पास लाया गया। उस सूफी फकीर को सभी जगह परमात्मा के दर्शन होते थे कोई तीस वर्ष से निरंतर। उसके भक्त थे। और भक्तों ने कहा कि आदमी अनूठा है। वृक्ष होकि पत्थर होकि पहाड़ होसब जगह इसे परमात्मा के दर्शन होते हैं। मैंने उस सूफी को कहा कि तुम अभी भी इसकी चेष्टा तो नहीं करते होउसने कहाक्या मतलबयह परमात्मा को देखने की चेष्टा तो नहीं करते होमैंने कहातीन दिन तक तुम चेष्टा छोड़ दो,और फिर भी अगर परमात्मा दिखाई पड़ता रहेतो समझना कि कुछ हुआ। अन्यथा चेष्टा से अगर दिखाई पड़ता रहे तो अभी कुछ भी नहीं हुआ।
तीन दिन बाद वह फकीर मुझ पर बहुत नाराज हो गया। उसने कहा कि मेरी तीस साल की साधना खराब कर दी। मुझे वृक्ष में फिर वृक्ष दिखाई पड़ने लगा! मैंने कहाकुछ खराब नहीं हुआजो था ही नहीं वही खोता है। तुम चेष्टा कर—करके देख रहे थेतीस साल में आदत हो गई थी। वह आदत थीअनुभव नहीं था। आदत और अनुभव में बड़ा फर्क है। आदत ऊपर से थोपी गई व्यवस्था हैअनुभव भीतर से आया हुआ प्रवाह है।
इसलिए चेष्टा से जो जागरूकता सधती हैवह अंतिम नहीं है। प्रारंभ में तो चेष्टा करनी पड़ेगीलेकिन जल्दी ही उसे निश्चेष्ट आत्मा में लीन कर देना है। उसे भी भूल जाना है। उसकी भी याद नहीं रखनी है। वह रहे सहज। इसका ही स्मरण रखना है कि बिना चेष्टा के सहज रहे। यहंहो जाता है।
अगर मन की सारी ऊर्जा इकट्ठी हो जाएतो वह ऊर्जा विवेक बन जाती है। विवेक जब पूरी तरह जगने लगता हैतो उसे सहज कर लेना कठिन नहीं है। ऐसे ही जैसे कि आप तैरना सीखते हैं। जब पहले सीखते हैंतो वह चेष्टा होती है। जब सीख जाते हैंतो फिर स्वभाव—आदत नहीं। यही फर्क है। क्योंकि अगर तैरना आदत होतो आप तीस वर्ष के बाद फिर दुबारा तैरें तो आपको फिर सीखना पड़ेगा। तीस साल में आदत टूट जाएगी। लेकिन आप तीन सौ जन्मों के बाद भोअगर आपको होश हो कि आप एक दफा तेरे हैंतो फिर कोई सीखने की जरूरत नहीं। आप पानी में गए कि आप तैरने लगौ।
तैरना कोई कभी भूल नहीं सकता। एक दफा जान लियास्वभाव बन जाता है। उसको मूलने का कोई उपाय नहीं। दुबारा सीखने की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ती। आदत तो छूट जाती है। आप किसी चीज की आदत बना लें,फिर कुछ दिन अभ्यास न करेंछूट जाएगी। लेकिन स्वभाव नहीं छूटता।
विवेक जब पूरी तरह जगता हैतो धीरे— धीरे उसकी चेष्टा छोड़ते जाना हैऔर निश्चेष्ट विवेक को साधना है। विवेक बना रहेयह देखना है। कोशिश न करनी पड़े। कोशिश हटा देनी है। कोशिश के हट जाने पर एफर्टलेस अवेयरनेसतब प्रयत्नरहित विवेक सधता है। वह आत्मा में लीन हो जाना है। लेकिन आत्मा भी अंत नहीं है।
उसको भी शांतस्वरूप परमपुरुष परमात्मा में विलीन करे
अब क्या बचा विलीन करने कोपहले वाणी थीशब्द थेइंद्रियां थींउन्हें लीन किया। मन बचा—मौन मन बचाफिर उस मौन मन को लीन कियाविवेक बचा। फिर उस विवेक को लीन कियाशुद्ध अस्तित्व—आत्मा बची। अब इसको किसमें लीन करेऔर अब बचा क्या?
आत्मा के बचने का अर्थ हैअभी भी मुझे खयाल है कि मैं हूं — अस्मिता। एक सूक्ष्मशुद्ध अहंकार अभी भी बचा—कि मैं हूं। इसको भी लीन कर दें—मैं नहीं हूं। इसका नाम है परमात्मा में लीन करना। इतना भी खयाल न रह जाए कि मैं हूं। होना तो बचेगालेकिन मेरा होना नहीं बचेगा। उस शुद्ध होने का नामजहां मैं का कोई भाव नहीं उठतापरमात्मा है। वह आपके भीतर है केंद्र। वहा कोई मैं का भाव नहींकोई इगोकोई अस्मिता नहीं है। यह परम उपलब्धि है।
और यम कह रहा है— हे मनुष्यो। उठो जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उनके पास जाकर उनके द्वारा उस परब्रह्म परमेश्वर को जान लो क्योकि ज्ञानीजन उस तत्वशान के मार्ग को छुरे की तीक्षा की हुई दुस्तर धार के सदृश दुर्गम बतलाते हैं।
निश्चित ही जैसे —जैसे हम भीतर प्रवेश करते हैंवैसे —वैसे मार्ग दुर्गम होता जाता हैसूक्ष्म होता जाता है—नाजुक। जरा—सी भूल और आप भटक जाएंगे। जैसे —जैसे मार्ग भीतर जाता हैवैसे—वैसे रहस्यपूर्ण होता जाता है। और जैसे—जैसे मार्ग भीतर जाता हैवैसे—वैसे आप अकेले होते जाते हैं।
इस भीतर के रास्ते पर भी किसी का साथ मिल जाए...। वह साथ किसका हो सकता हैवह उसका हो सकता हैजो भीतर ठीक अपने केंद्र पर स्थापित हो गया होजो पूरी तरह अपने केंद्र को पा लिया होजो इस मार्ग से गुजर चुका होजो इस मार्ग की कठिनाइयांभटकनउलझाव जानता होजो इस मार्ग के पास से गुजरने वाले दूसरे मार्ग जानता होजिन पर भटक जाने की बहुत संभावना है।
जैसे आप एक पहाड़ी यात्रा पर जाते हैं। तो दो तरह के उपाय हो सकते हैं। या तो आप एक नक्यग़ ले लें। पहाड के सारे मार्गों कासारे मोड़ों काभटकाव काखाई—खड्ड काउलझन कासारा नक्यग़ ले लें। और नक्यग़ लेकर पहाड़ पर चल पड़े। शास्त्रों के अनुसार जो लोग चलते हैं ?वे नक्यग़ लेकर चलते हैं। लेकिन ध्यान रहे,नक्यग़ मुर्दा है। और नक्यग़ कभी भी गाइड का काम पूरा नहीं कर सकता।
एक पहाड़ी आदमीजो पढ़ा—लिखा भी न होजिसको नक्यग़ देखना भी न आता होजिसे शास्त्र का कोई पता भी न होअगर पहाड़ का रहने वाला निवासी आपको गाइड की तरह मिल जाए तो हजार नक्ययें से बेहतर है। क्योंकि सारी भूमि उससे परिचित है। उसे कोई हिसाब लगाने की जरूरत नहीं। वह उस भूमि में बड़ा हुआ हैपला है। वह उस भूमि के रत्ती—रत्ती से वाकिफ है। वह पर्वतवह पहाड़ उसके लिए मित्र है। मूलने— भटकने का कोई सवाल नहीं है।
वेद भी उतना काम न देंगेकबीर जैसा बेपढा—लिखा गाइड भी काफी हैवह उस भूमि के चप्पे—चप्पे से परिचित है। वह वहां हुआ हैवहां बढ़ावहां प्रवेश पाया है। वह उस आखिरी मंजिल तक हो आया हैजहां तक रास्ते ले जा सकते हैं।
जीवित गुरु मिल सकेतो मुर्दा शास्त्रों की कोई भी कीमत नहीं है।
शास्त्रों के साथ एक और बड़ी कठिनाई है। और वह कठिनाईयह है कि शास्त्रों का अर्थ आप लगाएंगे। नक्यग़ भी आपके हाथ में होतो भी नक्यो की व्याख्या तो आप ही करेंगे। और आप क्या व्याख्या करेंगेआप वही अर्थ निकाल लेंगे जो आप निकाल सकते हैं। आपका अर्थ आपसे बड़ा तो नहीं हो सकता।
इसलिए जितने लोग गीता पढ़ते हैंउतने ही अर्थ होते हैं। जिस भांति का आदमी गीता पड़ेगाउसी भांति का अर्थ निकाल लेगा। वह अर्थ कृष्ण का कभी भी नहीं हो सकता। वह अर्थ आपका ही होगा। तो गीता से आप कहां जाएंगेक्योंकि अर्थ आप अपना निकाल लेंगे। वह अर्थ कृष्ण का होता तो शायद आप कहीं जा भी सकते थे।
इसलिए शास्त्र सार्थक नहीं हो पाते। शास्त्र तो बहुत हैं। नक्यो कितने हैं! कोई तीन सौ धर्म हैं जमीन परतो तीन सौ नक्यो हैं परमात्मा तक जाने के। लेकिन कोई नक्यग़ काम नहीं आ रहा है। सबके पास नक्यो हैंसब अपना—अपना नक्यग़ लेकर बैठे हुए हैं! लेकिन नक्यो का अर्थ वह खुद ही निकालना पड़ता है। नक्यो की भाषा...।
नक्या। तो प्रतीक है। नक्यग़ कोई असली चीज तो नहीं है। नक्यो के हाथ में होने से कुछ भी नहीं होता। कई बार तो यह भी हो सकता है कि नक्यग़ ही भटकाने का कारण हो जाए। बिना नक्यो के शायद आप पहुंच भी जाते। र्क्योंकि अपनी बुद्धि से थोड़ा खोजबीन करते। नक्यो पर आंख गड़ाए बैठे हैंभूमि को तो देखते ही नहीं कि कहां जा रहे हैं?
फिर ये नक्यो भी हजारों साल से चल रहे हैं। हजारों लोगों ने उनमें चीजें जोड़ दी हैंघटा दी हैं। मौलिक नक्यो कहीं भी बचे नहीं हैं। बच नहीं सकतेक्योंकि आदमी के हाथ में जो भी नक्यग़ रहेगावह उसमें कुछ जोड़ेगाघटाएगा,कुछ अपनी तरफ से बनाएगाकुछ रंग भर देगाखूबसूरत कर लेगा। पूजा के योग्य बना लेगालेकिन चलने के योग्य नहीं रह जाएगा।
सभी शास्त्र पूजा के योग्य हो गए हैं। उनको मंदिर में रखकर हम पूजा कर सकते हैंउतना काफी है। लेकिन उनको लेकर चल नहीं सकते।
शास्त्र से भरा हुआ मन कई बार तो सीधे तथ्य भी नहीं देख पाताक्योंकि शास्त्र बीच में आ जाते हैं। इसलिए यम कह रहा हैऔर समस्त सदगुरुओं ने कहा हैकिसी ऐसे व्यक्ति को खोज लेना जो जीवित शास्त्र हो। उसके भरोसे यात्रा आसानी से हो सकती है। क्योंकि आपको व्याख्या नहीं करनी पड़ेगी। और आप पूछ भी सकते हैं। और धीरे—धीरे वह आपको अपनी तरफ उठाने लगेगा।
बुद्ध या महावीर या कृष्ण या क्राइस्ट जीवित शास्त्र हैं। लेकिन बाद में उनके वचन भी मुर्दा शास्त्र हो जाते हैं। फिर लोग उन मुर्दा वचनों को खोजकर ढोते रहते हैं।
समझदार साधक पहले तो यही कोशिश करेगा कि कोई जीवित व्यक्ति मिल जाएजो गाइड हो सके। और ऐसा कभी भी नहीं होता पृथ्वी पर कि ऐसे जीवित व्यक्ति न हों—ऐसा कभी होता ही नही—जो आपको मार्ग न दे सकें।
यम कह रहा—हे मनुष्यो! उठो जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उनके पास जाकर उनके द्वारा उस परब्रह्म परमेश्वर को जान लो। क्योकि ज्ञानीजन उस तत्वज्ञान के मार्ग को छुरे की तीक्षा की हुई दुस्तर धार के सदृश दुर्गम बतलाते हैं।
अकेले में उपद्रव भी हो सकता है। अकेले में तय करना बहुत मुश्किल है कि कहौ जा रहे हैंक्या कर रहे हैं?जो हो रहा हैवह ठीक हो रहा हैया नहीं हो रहाऔर भीतर की शक्ति से खेलना उपद्रव है। क्योंकि बड़े जाल हैं भीतर भी। और भीतर की ऊर्जा जग जाए और ठीक मार्ग न पकड़ेतो विक्षिप्त आप हो सकते हैं। न मालूम कितने साधक विक्षिप्त हो जाते हैं। और विक्षिप्त होने का कुल कारण इतना होता है कि कोई वहा मौजूद नहींजो उनको भीतर व्यवस्था दे सकेजो भीतर उन्हें अनुशासन दे सके। भीतर बड़ा जटिल जाल है।
एक युवक को मेरे पास लाया गया। वह अकेले ही शार्षासन कर रहा है। व्याख्या खुद ही करनी पड़ेगी। और जब शीर्षासन से उसको लगा कि आनंद आता हैस्वास्थ्य मालूम पड़ाएक तरह का वेल—बीइंग चौबीस घंटे रहने लगातो वह बढ़ाता चला गया समय। एक सीमा के बाद स्वास्थ्य भी खो गयावह जो सुख मालूम होता था वह भी खो गया,और सिर सदा भारी रहने लगा और पत्थर की तरह बोझिल हो गया। तब वह घबड़ाया।
अब भीतर सब सूक्ष्म है व्यवस्था। मस्तिष्क में एक सीमित मात्रा में ही खून की धारा बढ़ाई जा सकती हैउससे ज्यादा बढ़ाने पर मस्तिष्क के सूक्ष्म तंतु टूट जाते हैं। टूट जाने पर भारी नुकसान है। असल में आदमी इतना मस्तिष्क को विकसित कर सका इसीलिए कि उसने चार हाथ—पैर से चलना छोड्कर दो पैर पर वह खड़ा हुआ। जानवरों का मस्तिष्क विकसित नहीं हो सकताक्योंकि खून की इतनी धारा तेजी से मस्तिष्क में बह रही है कि सूक्ष्म तंतु टूट जाते हैं। जैसे जोर से नदी की धार आ जाएतो सूक्ष्म चीजें नष्ट हो जाएंगी।
जब आप सिर के बल खड़े होते हैंतो खून की धारा नीचे की तरफ बहनी शुरू हो जाती हैक्योंकि जमीन में कशिश है। जब आप ऊपर की तरफ खड़े हैंतो सबसे कम खून मस्तिष्क में पहुंचता है। इसलिए तो मस्तिष्क इतना विकसित हो पायाउसमें सूक्ष्म तंतु टिक पाए।
जानवर जमीन के साथचारों हाथ—पैर जमीन पर रखकर चल रहे हैं। उनके सिर पर कशिश उतनी ही पड़ रही है जमीन कीजितनी उनके पूरे शरीर पर पड़ रही है। इसलिए आप खड़े—खड़े सोने में बड़ा मुश्किल अनुभव करेंगे। लेटकर सोना आसान होता हैक्योंकि आप फिर जानवर की स्थिति में आ गए। सोने के लिए लेट जाना जरूरी है। आराम के लिए लेट जाना जरूरी है।
असल में कोई भी पशु की अवस्था में जाने में आराम मिलेगा। क्योंकि मनुष्य की जो तकलीफ हैतनाव है वह छूट जाता है।
उस युवक के सूक्ष्म तंतु टूट गए। और मस्तिष्क एक विक्षिप्तता की हालत में है।
शीर्षासन लाभ कर सकता हैलेकिन व्यक्ति और जीवित गुरु के करीब। क्योंकि वह तय करेगा कि कितनी देर,कितना समयकितना और कबक्योंवि सभी समय भी नहीं हो सकता। अगर आप रात शीर्षासन कर रहे हैंतो अलग परिणाम होंगे। सुबह कर रहे हैंतो अलग परिणाम होंगे। सूरज के उगने के साथ शीर्षासन के अलग परिणाम होंगे,सूरज के डूबने के साथ अलग परिणाम होंगे। चांद किस अवस्था में हैउसके अनुसार अलग परिणाम होंगे। पूर्णिमा की रात अलग परिणाम होंगेअमावस की रात अलग परिणाम होंगे। क्योंकि जीवन कोई छोटी घटना नहीं हैबड़ा विराट जाल है।
आपको पता हैपूर्णिमा की रात दुनिया में सर्वाधिक लोग पागल होते हैं। पूर्णिमा की रात दुनिया में सबसे ज्यादा पाप होते हैं। पूर्णिमा की रात दुनिया में सबसे ज्यादा हत्याएं होती हैंआत्महत्याएं होती हैं। क्योंकि पूरा चांद आदमी के मन को उसी तरह खींचता हैजैसे सागर में लहरों को। इसलिए पुराना शब्द है पागल के लिए—चादमारा। अंग्रेजी में शब्द है लूनाटिक। लूनाटिक कार से बना हैचांद से।
चांद किमी तरह आदमी को पागल कर रहा है। और इसलिए प्रेमी पूर्णिमा के दिन बड़े प्रसन्न होते हैंक्योंकि पागलपन की सुविधा हो जाती है। कवि पूर्णिमा के गीत लिखते हैंक्योंकि कवियों में थोड़ा तो पागलपन होता ही है। पूर्णिमा ज्यादा खींचती है। पूर्णिमा को जैसी कविता उतरती हैवैसी अमावस को नहीं उतर सकती। अमावस बड़ी शांत रात्रि है। जमीन पर सबसे कम अपराध अमावस की रात होते हैं। यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ेगी। हमको लगता है कि अंधेरी रात में ज्यादा होने चाहिए। लेकिन लोग सोते हैंक्योंकि चांद खींचता नहीं। लोग आराम में होते हैंझगड़े—कलह कम होती है।
चांद का भारी प्रभाव है। आपके रोएं—रोएं पर प्रभाव है। आपके शरीर में पचहत्तर प्रतिशत पानी है। और उस पानी का वही गुणधर्म हैजो सागर के पानी का है। तो चांद आपको आपके पचहत्तर प्रतिशत छाक्तित्व को खींचता है और आदोलित करता है।
पृर्णिमा की रात शीर्षासन बड़ा खतरनाक हो सकता है। अमावस की रात उतना खतरनाक नहीं होगा। लेकिन यह कोई जीवित गाइड के पास...। किसी शास्त्र में यह लिखा हुआ नहीं है। और बहुत—सी सूक्ष्मताएं है जो लिखी नहीं जा सकतीं। क्योंकि एक—एक व्यक्ति में भेद पड़ेगा। अगर बहुत बुद्धिमान आदमी हैतो बहुत थोड़े शीर्षासन से फायदा होगा। अगर मूढ़ हैतो लंबे शीर्षासन से फायदा होगा। इस बात पर निर्भर करेगा कि मस्तिष्क के तंतु कितने मोटे और कितने सूक्ष्म हैं। मोटे तंतु ज्यादा देर तक शीर्षासन करेंतो हर्जा नहीं होगा।
और बात आप जानकर चकित होंगेकि शीर्षासन करने वाले किसी आदमी ने अब तक नोबल  प्राइज न ही पाई है। और शीर्षासन करने वालों ने कोई बहुत बडी बुद्धिमत्ता का प्रमाण नहीं दिया है। कुछ मामला हैकुछ कारण है। शीर्षासन जटिल प्रयोग है। और जब तक जीवित व्यक्ति के करीब न किया जाएफायदे की जगह नुकसान ज्यादा संभव है।
यह ऐसा ही है जैसे कि आप एक ऐलोपैथी के दवाखाने में घुस जाएंजहा कि सब पायजन हैं और अपने ही दिल से मिक्सचर तैयार करके पीने लगें। और डाक्टर से कहें कि तुम क्या जानोगे! मैं बीमार हूं। मैं अपनी बीमारी को ज्यादा जानता हूं कि तुम मेरी बीमारी को ज्यादा जानते होया एक मेडिकल की किताब उठा लें और पढ़—पढ़कर दवाइयों का प्रयोग करें। आपकी बीमारी तो न जाएगीबीमार चला जाएगा।
लेकिन शरीर के साथ आप इतना उपद्रव नहीं करते। म्रप मजे से डाक्टर के पास चले जाते हैं और वह जो प्रिस्काइब करता हैवह जो लिख देता हैउसको आप वेदवाक्य मानकर उसका अनुसरण करते हैं। मन शरीर से बहुत सूक्ष्म है। इसके लिए किसी महापुरुष के पास ही जाकर प्रिस्किपान खोजना चाहिए। उसके प्रिस्किपान आप खुद ही लिख लेते हैं।
अनेक लोग कुछ न कुछ करते रहते हैं! कोई किसी तरह का ध्यान करता रहता हैकोई किसी तरह का आसन करता रहता है। कोई कुछकोई कुछ। लोग अपना—अपना खोजकर बनाते रहते हैं। आपके बनाए हुए नक्यो और आपकी व्याख्याएं खतरनाक हैं। आप अपने से थोड़े सावधान रहें।
लेकिन क्यों ऐसा होता हैएक महापुरुष के पास जाने में क्या अड़चन है?
अहंकार को अड़चन होती है। किसी महापुरुष के पास जाने में अहंकार को बड़ी पीडा होती है। वह पीड़ा वैसी ही है जैसे ऊंट को पहाड़ के पास जाने में होती है। क्योंकि वहां उसको पहली दफा पता चलता है कि हम कुछ भी नहीं।
तो ऊंट पहाड़ से बचता है। आदमी भी महापुरुष के पास जाने से बचते हैं। और पहुंच भी जाएंतो भी ऐसा इंतजाम करते हैं सुरक्षा का कि महापुरुष कुछ कर न पाए। कहीं कोई बदलाहट न कर दे। कहीं कोई जीवन की धारा न बदल दे। हम इतने भयभीत हैं! भयभीत का कारण हमारा अहंकार है।
महापुरुषों के पास तो केवल वे ही जा सकते हैंजो अपने को मिटाने कोखोने कोछोड़ने को राजी हैं। जो शब्दरहित स्पर्शरहित रूपरहित रसरहित और बिना गंध वाला है तथा जो अविनाशी नित्य अनादि अनंत असीम महान आत्मा से श्रेष्ठ एवं सर्वथा सत्य तत्व है उस परमात्मा को जानकर मनुष्य मृत्यु के मुख से सदा के लिए छूट जाता है।
मेधावी मनुष्य यमराज के द्वारा कहे हुए नचिकेता के इस सनातन उपाख्यान का वर्णन करके और श्रवण करके ब्रह्मलोक में महिमा को उपलब्ध होते हैं प्रतिष्ठित होते हैं।
जो मनुष्य सर्वथा शुद्ध होकर इस परम गुह्य रहस्यमय प्रसंग को ब्राह्मणों की सभा में सुनाता है अथवा श्राद्धकाल में भोजन करने वालों को सुनाता है उसका वह कर्म अनंत होने में अर्थात अविनाशी फल देने में समर्थ होता है और वह अनंत होने की शक्ति प्राप्त करता है।
इस अंतिम बात को बहुत गौर से समझ लेना चाहिए। क्योंकि इसकी बड़ी भ्रात व्याख्याएं हो गई हैं। पहली तो बातब्राह्मणों की सभा का अर्थ ब्राह्मणों की सभा नहीं है। ब्रह्म—संसद। ब्रह्म की खोज करने वालों की सभा।
ये वचन ऐसे नहीं हैं कि सभी को सुनाए जाएं। क्योंकि जिनके भीतर कोई प्यास नहीं हैउनके लिए ये वचन व्यर्थ मालूम पड़ेंगे। जिनके भीतर कोई 'प्यास नहीं हैउनके लिए इन वचनों का कहना नासमझी है। बीमार को औषधि की जरूरत है। प्यासे को इन वचनों कीप्रवचनों की जरूरत है। प्यास बिलकुल जरूरी है। सभी के लिए यह नहीं है। और अध्यात्म कभी भी सभी के लिए नहीं हो सकता है।
एक विशिष्ट विकास की अवस्था में ही अध्यात्म सार्थक है। उसके पहले आप सुन भी लेंगेतो भी लगेगा व्यर्थ हैबेकार है। जैसे एक छोटे से बच्चे कोसात साल के बच्चे कोकोई वात्सायन का कामसूत्र पढ़कर सुनाने लगे। बिलकुल व्यर्थ है। वह बच्चा कहेगाकहां की बकवास है। अभी परियों की कथाएंभूत—प्रेतटारजनअभी ये सार्थक हैं। अभी वात्सायन के कामसूत्र का क्या अर्थ हैअभी कामवासना जगी नहीं। तो उस बच्चे को बड़ी हैरानी होगी कि क्या बातें आप कर रहे हैं! क्यों कर रहे हैंनिरर्थक है।
लेकिन यही बच्चा चौदह साल का होगाकामवासना जगनी शुरू होगी। और आप कितना ही बचाएंयह वात्सायन का कामसूत्र खोज लेगा। गीता में छिपाकर रखकर पड़ेगा। अब सार्थक होना शुरू हुआ। वासना की प्यास जगी तो वात्मायन का कामसूत्र सार्थक होता है।
ठीक अध्यात्म की प्यास..। लेकिन कामवासना तो प्रकृति के हाथ में है। चौदह साल में वह सभी को कामवासना से भर देती है। अध्यात्म की प्यास प्रकृति के हाथ में नहीं है। कभी—कभी जन्म—जन्म लग जाते हैंतभी आप उस प्यास को उपलब्ध होते हैं। यह आपके हाथ में है।
अध्यात्म चुनाव हैऔर इसलिए स्वतंत्रता है। कामवासना परतंत्रता हैवह आपके हाथ में नहीं है। प्रकृति आपको कर ही देगी प्रौढ़क्योंकि प्रकृति का कुछ प्रयोजन है। कामवासना से प्रयोजन हैआपसे कोई प्रयोजन नहीं है। आप मिट जाएंलेकिन संतति जारी रहेजीवन चलता रहे। तो प्रकृति सब उपाय करती है कि जीवन अवरुद्ध न हो जाए। थोड़ी देर को सोचेंचौबीस घंटे के लिए जगत से कामवासना तिरोहित हो जाए—चौबीस घंटे में जगत नष्ट हो जाएगा।
तो प्रकृति बड़े प्रबल वेग से कामवासना को पैदा करती है। और आप कितना ही लड़ेकितना ही संघर्ष करें,कामवासना आपको पकड़ेगी ही। वह आपकी ग्रंथियों मेंआपके हारमोन्स मेंआपके शरीर के रोएं—रोएं में छिपी है। वह एक घड़ी पर आपको जकड़ लेगी।
लेकिन अध्यात्म प्राकृतिक घटना नहीं है। अध्यात्म प्रकृति के पार जाने की कला है। और अपने अनुभवविचार,चिंतनमननअपनी ही खोज से आप एक दिन पकेने। और उसके पहले कोई उपयोग नहीं है।
इसलिए यम कहता है कि ब्राह्मणों की सभा में—वे जो ब्रह्म के तलाशी हैंवे जो ब्रह्म के प्रार्थी हैंवे जो ब्रह्म के कामी हैंवे जो ब्रह्म को ही चाहते हैंअब जो परम सत्य की खोज के लिए उत्सुक हैं—सर्वथा शुद्ध होकर इस परम गुह्य रहस्यमय प्रसंग को जो ब्राह्मणों की सभा में सुनता हैवह अनंत शक्ति प्राप्त करता है। अथवा श्राद्धकाल में भोजन करने वालों को सुनाता हैउसका वह कर्म अनंत होने में और अविनाशी फल देने में समर्थ होता है।
दूसरी बात भी समझ लेनी जरूरी है। श्राद्ध एक परंपरा बन गई है। उसमें लोग कुछ धर्म—वचनउपनिषद या कठोपनिषद सुनाते हैं। परंपराएं जड़ हो जाती हैं। यह उनका स्वभाव है। बहुत बार पुनरुक्त करने से उनके अर्थ खो जाते हैं। लेकिन अर्थ फिर—फिर खोजे जा सकते हैं।
यम कह रहा हैश्राद्ध के क्षणों में....। असल में यह पूरा उपनिषद मृत्यु और मृत्यु के पार कैसे जाएंइससे संबंधित है। एक भी व्यक्ति जब मर जाता हैप्रियजनपरिजनआपके निकट कातो मृत्यु आपके लिए पहली दफा महत्वपूर्ण हो उठती है। जब भी कोई मरता है आपके निकट कातो आपके भीतर भी कुछ मरता है। आपका भी एक अंश टूट जाता हैखंडित हो जाता है।
एक स्त्री को आप प्रेम करते हैंआपकी पत्नी है—या आपका बेटा हैया आपका पति हैया आपकी मां है—जिस दिन आपकी पत्नी मरेगीउस दिन पत्नी ने जो—जो आपके भीतर भर दिया थाऔर आपके व्यक्तित्व में जो—जो जगह घेर ली थीऔर आपके हृदय के जिन—जिन कोनों में वह प्रवेश कर गई थीवह सब एकदम टूट जाएंगे। पत्नी ही नहीं मरतीपति भी उसी दिन मरेगाआधा तो मरेगा ही। घाव छूट जाएगा। मौत बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी।
और सच तो यह है कि आपकी मौत के समय तो आप होश में नहीं रहेंगेइसलिए उस वक्त कठोपनिषद सुनाना बहुत सार्थक नहीं होगा। सुनने वाला बेहोश होगा। लेकिन जब प्रियजन मरता हैतब आप आधे मरते हैं और होश भी रहता हैउस वक्त कठोपनिषद सार्थक हो सकता है। वह क्षण संवेदनशील है। उस क्षण आप ग्राहक हैं। उस क्षण आप समझना चाहते हैं—क्या है मृत्युऔर उस क्षण आप यह भी जानना चाहते हैं—क्या मृत्यु के पार कुछ बचता हैआपकी प्रेयसीआपका प्रियआपका बेटाआपकी मांआपका पिताआपका मित्रक्या सच में ही बिलकुल मिट गयाया कुछ बच रहता है। उस क्षण आपकी पूरी चेतना मृत्यु के इर्द—गिर्द घूमती है।
श्राद्ध के क्षणों में ये विचार सार्थक हो सकते हैंउपयोगी हो सकते हैं। क्योंकि मौत के प्रति जब आप संवेदनशील हैंतभी अमृत की तलाश शुरू हो सकती है।
कुछ क्षण जीवन में बड़े महत्वपूर्ण हैं। एक तो जीवन में वह क्षण महत्वपूर्ण हैजिस दिन आप पैदा होते हैंमां के गर्भ से छूटते हैं। अति महत्वपूर्ण क्षण है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उससे महत्वपूर्ण क्षण फिर दूसरा खोजना मुश्किल है। क्योंकि पहली बार आप स्वतंत्र होकर श्वास लेते हैं। एक परिधि थी मां कीउससे आप झटके से बाहर आ जाते हैं। जगत में आपका प्रवेश होता है। वह क्षण ट्रामैटिक है।
विल्हेम रेकएक बहुत बड़े मनोवैशानिक का तो कहना हैकि जब तक हम उस क्षण को न बदलेंतब तक आदमियत को बदला नहीं जा सकता। उस क्षण में आदमी दुख से भर जाता है। इसलिए सभी बच्चे रोते—चीखते पैदा होते हैं। वह बड़े गहन दुख का क्षण है। क्योंकि सारा सुख जो गर्भ का थाछिन गया। सारी शाति गर्भ की छिन गई। वह जो गर्भ में एक सहज आनंद का क्षण थावह नष्ट हो गया। चिंताउपद्रव का जगत शुरू हो गया। बच्चे के कान में पहली दफे शोरगुल सुनाई पड़ता है। वह नौ महीने तक परम शून्य में था। साउडलेसनेस थीकोई ध्वनि न थी। नौ महीने तक कोई चिंता न थीकोई दायित्व न था। न भोजन की तलाश करनी थीन नौकरी करनी थीन श्वास लेनी थी। कुछ भी नहीं करना था। वह सिर्फ था। और होना पर्याप्त थापूर्ण था। उस पूर्णता के सुख के क्षण से अचानक जगत में आना कष्टपूर्ण है।
ओटो रैंक कहता हैजब तक हम जन्म के क्षण को आनंद का क्षण न बना सकेंआदमी दुखी रहेगा। उसकी बात में सचाई है।
फिर दूसरा एक क्षण हैजब आप प्रेम में पड़ते हैं। वह भी बहुत महत्वपूर्ण हैजैसे गर्भ का क्षण महत्वपूर्ण है,क्योंकि आप किसी व्यक्ति से मुक्त होते हैंवैसे प्रेम का क्षण महत्वपूर्ण हैक्योंकि आप फिर से किसी व्यक्ति से बंधते हैं। फिर आप अपने हृदय कोअपने कोकिसी से जोड़ते हैं। वह एक नया जन्म है। उस क्षण में आप पूरे खुले होते हैं।
और तीसरा क्षण हैजब आपका प्रियजन मरता है। तब फिर आप टूटते हैं। और चौथा क्षण हैजब आप मरेंगे। ये चार क्षण अति बहुमूल्य हैं। और इन चार क्षणों को ठोक से सम्हाल लेना जीवन की कला का हिस्सा है। लेकिन ये चारों क्षण ही हमे करीब—करीब गंवा देते हैं।
बच्चा जिस क्षण पैदा होता है...। अभी कुछ जीवशास्त्री एक सिद्धात विकसित किए हैं। उनका सिद्धात यह है कि बच्चा जैसे ही पैदा होता हैउस क्षण उसके आस—पास जो भी वातावरण होता हैजो भी घटना घट रही होती है,वह बच्चे पर सदा के लिए संस्कारित हो जाती है। उस क्षण का इंपैक्ट बहुत गहन है। फिर उससे छुटकारा बहुत मुश्किल है।
एक वैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था मुर्गियों के ऊपर। तो जैसे ही मुर्गी का बच्चा अंडे से निकलता हैउसको पहला दर्शन अपनी मां का होता है। वह अंडे को सम्हालकर बैठी हैउसको से रही है। बस वह मां के पीछे भागने लगता है। एक वैज्ञानिक प्रयोग कर रहा थाउसने मां की जगह एक रबर का गुब्बारा अंडे के ऊपर रखा हुआ था। और जैसे ही अंडे से द्या निकलाउसने मां को तो नहीं देखारबर के गुब्बारे को देखा। बस रबर का गुब्बारा उसकी मा हो गया! रबर का गुब्बारा जहां भी ले जाओवह उसके पीछे भागता हुआ चला जाता। मां की उसे कोई चिंता ही नहीं। मां पास भी आए तो वह फिकर न करे। और यह फिर उस चूजे के लिए जिंदगीभर के लिए उपद्रव हो गया। वह चूजा फिर किसी मुर्गी को प्रेम नहीं कर सका। रबर का गुब्बारा ही उसका प्रेम हो गया।
इस तरह के बहुत प्रयोग हुए हैं अभीऔर उनसे यह पता चलता है कि वह जो जन्म का क्षण हैवह बड़ा कीमती है। अगर उस क्षण में जो भी प्रभाव हम पर पड़ते हैंवे जीवनभर हमारे साथ रहते हैं।
इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हर बेटा उस स्त्री की तलाश में हैजो उसकी मां जैसी होगी। चाहे उसे पता होचाहे न हो। और कोई भी स्त्री मां जैसी तो खोजना मुश्किल है। इसलिए सभी स्त्रियों से दुख मिलेगा। अड़चन होगी। क्योंकि आकांक्षा  जिसकी तलाश की हैवह तो मिलने वाला नहीं।
और कोई स्त्री आपको बेटा बनाने के लिए आपसे विवाह कर भी नहीं रही है। वह अपने पिता को खोज रही है;आप अपनी मां को खोज रहे हैं। यह एक उपद्रव का धंधा है। इसमें कहीं भी शाति होने वाली नहीं है। इसलिए विवाह नर्क है। उसमें अचेतन प्रभाव काम कर रहे हैं और संघर्ष खड़ा कर रहे हैं।
इस पहले क्षण में जो भी प्रभाव पड़ेंगेवे जीवनभर साथ रगै प्रेम के क्षण में जो प्रभाव पडेंगेवे भी जीवनभर साथ रहेंगे। प्रियजन की मृत्यु के क्षण में जो प्रभाव पड़ेंगेवे भी जीवनभर साथ रहेंगे। और आपकी मृत्यु के क्षण में जो प्रभाव पड़ेंगेवे अगले जन्म में साथ रहेंगे।
यह उपनिषद मृत्यु से संबंधित है। इसलिए श्राद्ध के क्षणों में पढ़ने जैसा हैश्राद्ध के क्षणों में समझने जैसा है। जब मृत्यु आप पर प्रभावी होऔर चारों तरफ मौत की छाया ने आपको घेर लिया होऔर जीवन व्यर्थ मालूम पड़ता होउन क्षणों में अगर इस उपनिषद को कोई जानने वाला पुरुष इसके रहस्य को आप में खोल देतो वह संस्कार गहन हो जाएगावह आपके पूरे जीवन को बदलने की कीमिया सिद्ध हो सकता है।
अब ध्यान के लिए तैयार हों।

ध्‍यान योग शिविर,
माउंट आबु राजस्‍थान।

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