उपनिषद--कठोपनिषद--ओशो (चौदहवां--प्रवचन) परमात्‍मा : परम तटस्‍थता—चौदहवां प्रवचन

परमात्‍मा : परम तटस्‍थताचौदहवां प्रवचन




यथाssदर्शे तथाssत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके।
यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके।।5।।

इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत्।
पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति।।6।।

इन्द्रियेथ्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्तमम्।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोsव्यक्तमुत्तमम्।।7।।

अव्यक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च।
यं ज्ञात्वा मुच्‍यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति।।8।।



जैसे दर्पण में (सामने आई हुई वस्तु दिखती है)वैसे ही शुद्ध अंतःकरण में ( ब्रह्म के दर्शन होते हैं) जैसे स्वप्न में (वस्तुएं स्पष्ट दिखलाई देती हैं)उसी प्रकार पितृलोक में ( परमेश्वर दिखता है)। जैसे जल में ( वस्तु के रूप की झलक पड़ती है)उसी प्रकार गंधर्वलोक में परमात्मा की झलक— सी पड़ती है। (और) ब्रह्मलोक में ( तो ) छाया और धूप की भांति (आत्मा और परमात्मा दोनों का स्वरूप पृथक— पृथक स्पष्ट दिखलाई देता है)।।5।।

(अपने—अपने कारण से) भिन्न—भिन्न रूपों में उत्पन्न हुई इंद्रियों की जो पृथक—पृथक सत्ता है और जो उनका उदय और लय हो जानारूप स्वभाव है उसे जानकर (आत्मा का स्वरूप उनसे विलक्षण समझने वाला) धीर पुरुष शोक नहीं करता।।6।।


इंद्रियों से (तो) मन श्रेष्‍ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ट है, बुद्धि से उसका स्वामी जीवात्मा श्रेष्ठ है, (और) जीवात्मा से अव्यक्त शक्ति श्रेष्ठ है।।7।।

परंतु अव्यक्त से ( भी वह) व्यापक और सर्वथा आकाररहित परमपुरुष श्रेष्ठ है जिसको जानकर जीवात्मा मुक्त हो जाता है और अमृतस्वरूप आनंदमय ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।।8।।

परमात्मा : परम तटस्थता


थोड़ी सी बातें कल के सूत्र के संबंध में और।
जर्मनी के एक बहुत बड़े विचारक रुडोल्फ ओटो ने एक बड़ी महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक लिखी है—दि आइडिया आफ होली: उस परम पवित्र का प्रत्‍यय। उसमें एक शब्‍द का रूडोल्‍फ ओटो ने बार-बार प्रयोग किया है—ट्रिमेंडम। वह परमात्‍मा अत्‍यंत भयंकर है। यम ने भी नचिकेता को परमात्मा भयस्वरूप हैऐसी दृष्टि दी। यह दृष्टि थोड़ी और गहराई से समझ लेने जैसी हैक्योंकि भांति हो जाने की संभावना है।
पहली तो बात यह कि परमात्मा का भयस्वरूप होनावस्तुत: परमात्मा का स्वरूप नहीं हैवरन हमारा ही भय है। हम भयभीत होते हैं। परमात्मा भयानक हैऐसा कहने की बजायहम भयभीत होते हैंऐसा कहना ज्यादा उचित है। और हमारे भयभीत होने का कारण समझ लेना चाहिए। जैसे बूंद सागर में गिरने के पहले डरेगीक्योंकि सागर में गिरने का अर्थ मिटना हैसमाप्त होना है। बूंद का भयभीत होना स्वाभाविक है।
सागर से मिलने का अर्थ मृत्यु है। मृत्यु भय देती है। लेकिन अगर बूंद जान पाए कि सागर में मिटने का एक दूसरा पहलू भी है—बूंद की तरह तो बूंद मिट जाएगीलेकिन सागर की तरह हो जाएगीक्षुद्र की भांति तो खो जाएगी,लेकिन विराट की भाति हो जाएगी। काशबूंद को यह दिखाई पड़ सके कि उसकी मृत्यु विराट से मिलन भी हैतो बूंद का भय खो जाए। और अगर बूंद को यह दिख सके कि मेरी मृत्यु परम जीवन का द्वार हैतो बूंद परमात्मा को प्रेमस्वरूप अनुभव कर सके।
परमात्मा भयस्वरूप है या प्रेमस्वरूपयह हमारी दृष्टि पर निर्भर है। आदमी भी जब परमसत्ता की खोज में जाता हैतो मिटने की घड़ी आती है। वह क्षण आता हैजब स्वयं को खोना पड़ेगा। और जहा भी स्वयं को खोने की बात उठती हैवहां हृदय भय से कंपित हो जाएस्वाभाविक है।
हम मृत्यु से किस लिए डरते हैंहम मृत्यु से इसीलिए डरते हैं कि वह हमें मिटा देगी। लेकिन मृत्यु भी इस भांति नहीं मिटा पातीजिस भांति परमात्मा मिटाता है। क्योंकि मृत्यु के बाद भी हम बचेंगेनई देह लेंगेनई योनियों में यात्रा करेंगे। हमारी देह ही छूटेगी मृत्यु मेंहमारा होना नहीं छूटेगा। लेकिन परमात्मा हमारे होने को भी पोंछ डालेगा। हमारी सब आकृति खो जाएगी उस निराकृति मेंउस निराकार मेंहमारा सब रूप खो जाएगा। मृत्यु शायद हमारी देह को ही छीनती हैपरमात्मा हमारी अस्मिता कोहमारे अहंकार को भी छीन लेगा। वह बड़ी मौत हैवह महामृत्यु है।
तो जब हम मृत्यु से डरते हैंतो स्वाभाविक है कि हम परमात्मा से भी डरें। वह डर परमात्मा का स्वभाव नहीं हैहमारे अहंकार का भय है। लेकिन जो मिटने को राजी हैपरमात्मा उसके लिए भयस्वरूप नहीं है। जो मिटने को राजी हैपरमात्मा उसके लिए प्रेमस्वरूप है।
इसे हम इस भांति भी समझें। भय के कारण ही लोग प्रेम करने में समर्थ नहीं हो पाते। क्योंकि प्रेम भी मिटाता हैप्रेमी को पोंछ डालता है। उसकी सारी अस्मिता डूब जाती है। और जो प्रेमी अपने प्रेम में अपने को खोने को राजी नहीं हैवह प्रेम को कभी उपलब्ध नहीं हो पाता।
प्रेम का अर्थ ही है विसर्जनअपने को डुबाने की तैयारीमिटाने की तैयारी। प्रेम भी थोड़े अर्थों में अहंकार का विनाश है। भयभीत व्यक्ति प्रेम भी नहीं कर पाता। और जो अपने को खोने को राजी हैउसके जीवन में महाप्रेम का उदय होता है और आनंद की बड़ी वर्षा हो जाती है। तो भय और प्रेम इस बात पर निर्भर हैं कि हम मिटने को राजी हैं या नहीं।
ध्यान में जो लोग गहरे जाते हैंवे एक न एक दिन मेरे पास आकर निश्चित ही कहते हैं कि एक ऐसी घड़ी आ गई थी कि जहां हमें डर लगने लगा कि हम मिट तो न जाएंगे। फिर हम भयभीत होकर वापस लौट आए। वही घड़ी थीजहां से परमात्मा निकट था। और अनेक ध्यान करने वाले लोग आखिरी क्षण में वापस लौट जाते हैं। छलांग के ठीक पहलेबूंद गिरती सागर में कि वापस हो जाती है। तट से ही वापस हो जाती है। लेकिन सभी को ऐसा होना स्वाभाविक है।
ध्यान भी मृत्यु हैक्योंकि ध्यान छलांग है विराट में। जब आपको घबड़ाहट पकड़ ले तब आप समझना कि ठीक क्षण आयाउससे लौटना मत। उस समय ही जो साहस रख पाता हैवही साधक है। उस समय जो डरामन में वापस लौट आयाअपने को सम्हाल लिया वापस अपनी स्थिति में. वह एक बड़ा अवसर चूक गया। फिर न मालूम वह अवसर कितने दिनों बाद आए! अगर आप ऐसा कोई अवसर चूक गए होंतो दुबारा जब अवसर आए तो उसे चूके नहीं। उसकी ही तो तलाश हैउस मिटने की ही हम खोज कर रहे हैं।
लेकिन अहंकार आखिरी समय तक पकड़ता है। और डरभय मन में पैदा हो जाता है कि मैं मिट तो न जाऊंगा,मै मर तो न जाऊंगा। उस भय की झंकार में हम वापस अपने शरीर में खड़े हो जाते हैंफिर से पकड़ लेते हैं किनारे को जोर से कि नदी खो न जाए।
परमात्मा भयस्वरूप हैक्योंकि परमात्मा महामृत्यु है। लेकिन जितनी बड़ी मृत्युउतने बड़े जीवन का उससे जन्म होता है। छोटी मृत्यु से छोटा जीवन पैदा होता है।
जिस मृत्यु को हम जानते हैंवह छोटी मृत्यु हैकेवल शरीर मरता है। और तो मन भी बचता हैअहंकार भी बचता हैसब बचता है। और बड़ी मृत्यु होतो और बड़े जीवन का जन्म है। जितनी मिटने की तैयारीउतनी ही मात्रा में पुनर्जीवन उपलब्ध होता है। जो पूरी तरह मिटने को राजी हैउसे परिपूर्ण जीवन उपलब्ध हो जाता है।
जीसस ने कहा हैजब तक तुम अपने को खोओगे नहींतब तक तुम उसे नहीं पा सकते हो। और जो अपने को बचाने की कोशिश करेगावह खो जाएगा। और जो अपने को खो देगावही केवल बच रहता है। जीसस ने बार—बार बीज का उदाहरण लिया है और कहा हैबीज जैसे मिट्टी में खो जाता है तो अंकुरित होता हैऐसे ही तुम जिस दिन विराट में खो जाओगेमहाजीवन तुम्हारे भीतर जन्मेगा।
उस जीवन का फिर कोई अंत नहीं है। जिसका अंत हो सकता थाउसे तो तुमने खो ही दिया। जो मिट सकता थाउमे तुमने खुद ही छोड़ दिया। सिर्फ वही बच रहा है अबजो मिट नहीं सकता है। सिर्फ वही बच रहा हैजिसे खोने का कोई उपाय ही नहीं है।
इसीलिए परमात्मा भयस्वरूप मालूम पड़ता है। लेकिन वह भय हमारा प्रोजेक्यान है। और चूंकि ये वचन मृत्यु के देवता ने कहे हैंइसलिए ये वचन अधूरे होंगे ही। अगर कोई जन्म का देवता हो तो वह कहेगापरमात्मा प्रेमस्वरूप है।
इसे भी थोड़ा समझ लें।
अगर कोई जन्म का देवता हो तो वह कहेगापरमात्मा प्रेमस्वरूप है। क्योंकि जन्म की प्रक्रिया प्रेम से हैजन्म का अकुरण प्रेम से है। जीवन की शुरुआत प्रेम से है। जीवन की पहली पुलकपहली स्फुरणा प्रेम से है। अगर कोई प्रेम का देवता हो तो वह आधी ही बात जानेगा। वह कहेगापरमात्मा प्रेमस्वरूप है। अगर नचिकेता ने यम से न पूछकर ब्रह्मा से पूछा होताजो कि जन्म का देवता हैसृष्टि का देवता हैतो परमात्मा भयस्वरूप हैऐसा वचन नहीं आता;तो परमात्मा होता प्रेमस्वरूप। लेकिन वह भी आधी ही बात होती।
मृत्यु के देवता को सिर्फ मृत्यु का ही अनुभव है। जीवन की पहली झलक का नहींआखिरी बुझते हुए दीए का ही अनुभव है। और मृत्यु के देवता ने जब भी किसी को बुझते देखा हैतो उसे भय से कंपते देखा होगास्वभावत:। अरबों—खरबों लोग मरे हैंमृत्यु का देवता उन सबका गवाह है। जिसको भी मिटते देखा हैउसको भय से कंपते देखा है। तो मृत्यु के देवता की यह गवाही अर्थपूर्ण हैलेकिन अधूरी।
और मृत्यु का देवता जानता है कि परमात्मा तो महामृत्यु है। जब मेरी मौजूदगी में लोग कंपते हैं और भयभीत होते हैंऔर मरना नहीं चाहते और मिटना नहीं चाहतेऔर हर कोशिश करते हैं बचे रहने की। सब खो जाएकिसी तरह बचे रहें। अंधा हो आदमीलंगड़ा होलूला होकोढ़ी होका होबीमार होसड़क पर पड़ा होखाने को न होकुछ भी न होलेकिन तो भी आदमी बचना चाहता है। मरने के लिए कोई भी राजी नहीं होना चाहता। सब खो जाएसिर्फ श्वास ही चलती रहे। और महानर्क होदुख होपीड़ा होतो भी कोई मरने को राजी नहीं है।
मृत्यु के देवता का यह अनुभव स्वभावत: उसे यह निष्कर्ष देता है कि परमात्मा तो और भी भयस्वरूप होगा। क्योंकि वहां तो सभी कुछ मिट जाता है। वहा तो शून्य ही रह जाता है। जहां आप थेवहां सिर्फ एक रिक्तता रह जाती है। वह आपको पूरी तरह बहाकर ले जाता है।
मृत्यु के देवता का वचन हैइसलिए अधूरा है। जन्म का देवता कहेगातो भी अधूरा। लेकिन जिन्होंने जन्म और मृत्यु दोनों को जाना है—बुद्धपुरुषों ने—जिन्होंने जन्म और मृत्यु दोनों को जाना हैवे दो बातें कहेंगे। या तो वे कहेंगे कि परमात्मा दोनों है—प्रेमस्वरूप और भयस्वरूप। या वे कहेंगे कि परमात्मा दोनों नहीं हैहमारी दृष्टि के अनुसार हमें प्रतीत होता हैया तो प्रेमस्वरूपया भयस्वरूप।
दूसरी बात सत्य के निकटतम है। परमात्मा तटस्थ है। हम उसमें वही देख लेते हैंजो हमारी मनोदशा होती है। हमारा ही मनहमारी ही वृत्तियांहमारे ही विचारहमारी ही समझ उसको रंग देती है। परमात्मा रंगहीन हैआकारहीन है। न तो भयस्वरूप है और न प्रेमस्वरूप हैतटस्थ है। अगर हम डरते हैं मिटने सेतो भयस्वरूप मालूम होगा। अगर हम तैयार हैं मिटने कोतो प्रेमस्वरूप मालूम होगा।
जीसस को परमात्मा प्रेमस्वरूप मालूम पड़ा। और जीसस ने परमात्मा की परिभाषा में कहा कि वह प्रेम है,क्योंकि जीसस मिटने को तैयार थे। सूली 'पर हमने अनुभव कर लिया कि जीसस मिटने से जरा भी भयभीत नहीं थे। वे सूली पर मिटने को इतनी आसानी से तैयार थे कि क्रास उनका प्रतीक हो गया। सूली उनकी प्रतीक हो गई। मरने की ऐसी तैयारी थी कि जीसस का प्रतीक सूली हो गई। मृत्यु जैसे स्वीकृत थीसहज थी। इसलिए जीसस को अगर परमात्मा प्रेमस्वरूप मालूम पड़ातो बिलकुल स्वाभाविक है।
आपका परमात्मा आपके मन का प्रतिबिंब होगा। आपका परमात्मा आपकी ही निर्मिति है। उसका प्रत्ययउसकी धारणा आप ही करेंगे।
मेरे देखे परमात्मा दोनों नहीं है। परमात्मा तो एक विराटनिराकारशून्य जैसा अस्तित्व है। उसमें हम अपने को देख लेते हैं। इसलिए जैसे —जैसे आदमी विकसित होता हैउसका परमात्मा विकसित होता चला जाता है।
परमात्मा विकसित नहीं होतापरमात्मा तो जैसा हैहै। लेकिन आदमी विकसित होता हैतो परमात्मा विकसित होता चला जाता है—उसकी धारणाहमारा प्रत्ययहमारा कनसेप्ट विकसित होता चला जाता है। अलग—अलग जातियां परमात्मा की अलग—अलग धारणा करती हैं। अलग— अलग युग परमात्मा की अलग— अलग धारणा करते हैं। अलग—अलग व्यक्ति परमात्मा की अलग—अलग प्रतीतिप्रतिमा निर्मित करते हैं।
परमात्मा एक हैलेकिन सभी उसे अलग— अलग अर्थों में देखेंगे। और जब तक आपको परमात्मा में कोई भी अर्थ दिखाई पड़ता रहेतब तक आप समझना कि अभी परमात्मा नहीं देखाअभी आप अपने को ही परमात्मा में झांक रहे हैं।
जिस दिन आपको परमात्मा में कोई भी अर्थ न दिखाई पड़ेजिस दिन परमात्मा में कोई प्रतिबिंब न बनेदर्पण बिलकुल कोरा रह जाएकोई भी दिखाई न पड़े वहांपरम शून्य रह जाए—उस दिन आप जानना कि जो आपने जाना वह अब सत्य है। वह मन का आरोपण नहीं है।
इसलिए बुद्ध उस परम सत्य को शून्य कहते हैं। और जब तक वह परम सत्य शून्य की तरह प्रगट न हो जाए,तब तक हम अपने को उस पर आरोपित करते चले जाते हैं। यह स्वाभाविक है मनुष्य के लिए। यम के लिए भी स्वाभाविक है।
परमात्मा तटस्थ ऊर्जा हैकिसी तरफ झुकी हुई नहीं। परमात्मा का होना कोई भी चुनाव से भरा हुआ नहीं है,चुनावरहित है। कोई पक्ष नहीं है उसका। उस अवस्था में किसी तरह का रंग—रूप नहीं है। इसलिए जो भी हम उसमें देखेंइसे स्मरण रखना कि वह देखना हम पर निर्भर है।
जिस दिन हमें वहां कुछ भी न दिखाई पड़ेएक विराट कोरापन रह जाए—न कृष्ण बनें वहांन राम बनें वहान बुद्ध की प्रतिमा उभरेन जीसस वहा दिखाई पड़ेन वहा भयन वहां प्रेमवहा कुछ भी न दिखाई पड़े। यह उसी दिन होगा जिस दिन आपका मन इतना निर्विकार हो जाएगा कि उस मन से कोई भी विकार परमात्मा पर प्रतिफलित न हो। जिस दिन आप भीतर शून्य हो जाएंगेउस दिन परमात्मा शून्य हो जाएगा। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जैसे आप हैंवैसा ही आपका परमात्मा होगा। यह यम का वक्तव्य हैअधूरा है। ब्रह्मा का वक्तव्य होगावह भी अधूरा होगा। दोनों एक—एक छोर से परिचित हैं। एक जन्म के छोर सेएक मृत्यु के छोर से।
लेकिन अगर आपजो कि दोनों हैंजन्म भी और मृत्यु भीजन्मे भी हैं और मरेंगे भीजो दोनों छोर को छू रहे हैंस्पर्श कर रहे हैंअगर आप सजग हो जाएंतो आप पाएंगे कि परमात्मा तटस्थ है। वह न प्रेमस्वरूप है और न भयस्वरूप है।
अब हम सूत्र में प्रवेश करें।
जैसे दर्पण में सामने आई हुई वस्तु दिखती है वैसे ही शुद्ध अंतःकरण में ब्रह्म के दर्शन होते हैं।
शुद्ध अंतःकरण में ब्रह्म के दर्शन होते हैं। जितना शुद्ध होगा अंतःकरणउतना ही ब्रह्म का दर्शन भी शुद्ध होगा। परम शुद्ध होगा अंतःकरणतो परम शुद्ध दर्शन होगा। दर्पण विकृत होगातो उतने ही विकार प्रतिबिंब में भी हो जाएंगे। दर्पण टूटा—फूटा होगातो उतनी ही टूट—फूट प्रतिबिंब में भी हो जाएगी। दर्पण आड़ा—तिरछा होगातो वही प्रतिबिंब में भी प्रवेश कर जाएगा।
दर्पण का परम शुद्ध होनाअंतःकरण का परम शुद्ध होनाब्रह्म के शुद्ध दर्शन के लिए अनिवार्य है। लेकिन ब्रह्म के दर्शन बहुत तरह से हो सकते हैं। क्योंकि दर्पण बहुत स्थितियों में हो सकता है। ये दर्पण की स्थितियां हैं।
जैसे स्वप्न में वस्तुएं स्पष्ट दिखलाई देती हैं उसी प्रकार पितृलोक में परमेश्वर दिखता है।
ये लोक प्रतीक हैं अलग—अलग स्थितियों के। पहली तो बातअगर शुद्ध अंतःकरण हो तो यहीं पृथ्वीलोक पर परमात्मा के सीधे दर्शन हो जाते हैं। अगर अंतःकरण बहुत शुद्ध न होतो शरीर के छूटने पर जो लोक हैपितृलोक,जहा देहरहित आत्माओं का वास हैवहां भी परमात्मा के दर्शन होते हैं। शरीर के छूट जाने सेशरीर के कारण जो विकृतियां आती हैं मन परवे वहां नहीं होतीं। वहां जो परमात्मा के दर्शन होते हैंवे इतने स्पष्ट होते हैंजैसे स्वप्न स्पष्ट होता है।
जैसे जल में वस्तु के रूप की झलक पड़ती है उसी तरह गंधर्वलोक में परमात्मा की झलक सी पड़ती है लेकिन स्वर्ग मेंगंधर्वों के लोक मेंजैसे जल में झलक पड़ती है किसी वस्तु कीहल्की सी झलकएक आभासऐसा स्वर्गलोक में भी आभास भर मालूम होता है।
स्वर्गलोक सुख की उत्तेजना से भरा हुआ लोक है। दुख एक उत्तेजना हैयह हम जानते हैंसुख भी एक उत्तेजना हैयह हम नहीं जानते हैं। दुख में भी मन विचलित होकर कंपित हो जाता हैसुख में भी मन विचलित होकर कंपित हो जाता है। इसलिए जो लोग आनंद की तलाश में हैंवे उत्तेजना से मुक्त होना चाहते हैं—वह चाहे दुख की हो और चाहे सुख की हो।
आपको खयाल है कि सुख में भी आप कैप जाते हैंयह बड़े आश्चर्य की बात है। मेडिकल साइंस का कथन है कि दुख में हृदय का दौरा कम पड़ता हैसुख में ज्यादा पड़ता है। और हार्टफेल केहृदय—अवरुद्ध हो जाने की घटनाएं दुख में नहीं घटतींसुख में घटती हैं। होना नहीं चाहिए ऐसा। उलटा है यह। होना तो यह चाहिए कि दुखी आदमी मर जाए एकदम घबड़ाकरलेकिन दुखी आदमी नहीं मरता। सुखी आदमी सुख की चोट में मर जाता है।
इसलिए जितना मुल्क सुखी होता जाता हैउतना हृदय—रोग बढ़ता चला जाता है। गरीब और दुखी मुल्कों में हृदय—रहो नहीं होता। आदिवासियों को हृदय—रोग का पता ही नहीं है। दुख बहुत हैलेकिन हृदय—रोग का पता नहीं है। हृदय—रोग के लिए संपन्न होना जरूरी हैसुखी होना जरूरी है।
चिकित्साशास्त्र का कहना है कि यह बड़ी अनूठी बात है कि सुख में आदमी का हृदय इतना कैप जाता है कि टूट जातो है। दुख में इतना नहीं कंपता। दुख को सहना आसान हैसुख को सहना बहुत मुश्किल है। दुख से तो बहुत लोग बचकर निकल आते हैं। सुख से बचकर निकलने में बड़ी कुशलता चाहिएनहीं तो आदमी टूट जाता है।
आपको भी खयाल होगा कि अगर सुख की कोई अचानक घटना घट जाएतो कैसा आघात पहुंचता है। अभी कोई खबर आकर दे दे कि पांच लाख की लाटरी मिल गई। डर यह है कि लाटरी लेने तक आप पहुंच नहीं पाएंगे। एकदम कैप जाएंगेइतना ज्यादा हो जाएगा। लेकिन पांच लाख रुपये आपके खो जाएंतो भी आप कपेंगेलेकिन इतने नहीं। पांच लाख मिलने से जितना हृदय को धक्का पहुंचने वाला हैउतना पांच लाख खोने से नहीं पहुंचता।
सुख एक तरह की तीव्र उत्तेजना है। गंधर्वलोकजहां सुख की वर्षा हो रही है.। सिर्फ प्रतीक हैं ये लोक। हममें से कई लोग गंधर्वलोक में हैंयहीं। कई लोग पितृलोक में हैंयहीं। कई लोग नर्कलोक में हैंयहीं। कई लोग ब्रह्मलोक में हैंयहीं। ये लोक भौगोलिक स्थितियां कममनोवैज्ञानिक अवस्थाएं ज्यादा हैं।
जहां सुख बहुत हैवहां परमात्मा की कभी—कभी आभास की स्थिति भर हो सकती है। क्योंकि दर्पण हमेशा कंपता रहेगाउत्तेजित रहेगा। इसे आप ऐसा भी समझें : इसीलिए सुखी लोग परमात्मा को भूल जाते हैं। जब आप सुख में होते हैंतब प्रार्थनापूजामंदिरसब विस्मृत हो जाते हैं। दुख मैं होते हैंतब शायद याद भी आ जाएसुख में याद भी नहीं आती। दुख से आदमी छूटना चाहता हैतो परमात्मा की तलाश करता है। सुख से छूटना ही नहीं चाहतातो परमात्मा की तलाश का सवाल क्या है?
जुन्नैद एक सूफी फकीर हुआ। कभी कोई बीमारीकभी कोई और बीमारीकभी फिर कोई और बीमारी उसे पकड़े रहती थी। उसके शिष्यों ने कहाजुन्नैदतुम और बीमार रहो! तुम तो परमात्मा को इशारा भी कर दो कि मैं बीमार नहीं होना चाहतातो बात खतम हो गई। जुन्नैद ने कहा कि मैं उससे यह प्रार्थना ही करता रहता हूं कि तू मुझे एकाध न एकाध बीमारी चलाए रख। तो शिष्यों ने कहातुम पागल तो नहीं हो गए होयह भी कोई बात हुई!
जुन्नैद ने कहाबीमारी रहती है तो मैं उसका स्मरण कर पाता हूं। बीमारी दुख बनी रहती हैउस दुख में मैं उसकी प्रार्थना कर पाता हूं। एक बार ऐसा हुआ था कि बहुत दिन तक मैं बीमार नहीं रहा थातो मैं उसे भूल गया था। तब से मेरी यही प्रार्थना है कि तू मुझे दुख देते रहना।
दुख में तो उसकी स्मृति भी आ जाती हैसुख में उसकी स्मृति खो जाती है। सुख में कभी—कभी उसका कोई आभास मिल जाए तो मिल जाएजैसे जल में पड़ी हुई कोई झलक।
लेकिन अगर कोई व्यक्ति विदेह हो जाएजिसको पितृलोक कह रहा है यम...। विदेह का मतलब जरूरी नहीं है कि आपकी देह छूट ही जाएजरूरी इतना है कि आपको देह का स्मरण न रहे। इसलिए हमने जनक को विदेह कहा है,जीते—जी। देह का कोई स्मरण नहीं हैदेह की कोई प्रतीति नहीं है। जैसे देह है या नहीं हैकोई फर्क नहीं हैदेह भूल गई है।
तो ऐसी विदेह अवस्था में उसकी झलक इतनी साफ होती हैजैसे स्वप्न में चीजें साफ होती हैं। लेकिन स्वप्न मेंआंख बंद करके उसके विजन हैंउसकी प्रतीतिया होती हैं। लेकिन आंख खोलते ही उसकी प्रतीतिया खो जाती हैं। स्वभ जैसी।
और ब्रह्मलोक में तो छाया और धूप की भांति आत्मा और परमात्मा दोनों का स्वरूप पृथक— पृथक स्पष्ट दिखाईदेता है
तो एक विदेह अवस्था हैजहां स्वप्न जैसी स्पष्ट प्रतीति होती है। पर बसस्वप्न जैसीआंख खोलते ही खो जाती है। संसार के दिखाई पड़ते ही धूमिल हो जाती है।
एक दूसरी अवस्था हैजहां सुख की उत्तेजनाओं से भरा हुआ चित्त हैवहां सिर्फ कभी उसकी आभासभनकदूर से आती हुई ध्वनि की तरह सुनाई पड़ती है। या पानी में पड़े हुए प्रतिबिंब की तरह। और पानी तो प्रतिपल कंप रहा है। प्रतिबिंब कभी भी थिर नहीं हो पाता।
तीसरी ब्रह्मलोक की अवस्था है। उस अवस्था का नाम ब्रह्मलोक हैजब आप सब भांति शुद्ध हैं अंतःकरण पूरी तरह शुद्ध हैब्रह्म जैसे हो गए हैं। कोई विकार नहीं हैवहां चीजें बिलकुल दो और दो की तरह साफ हो जाती हैं। वहां स्वप्न की तरह साफ नहीं होतींवहां जागृति की तरह साफ हो जाती हैंजैसे जागने में सब साफ दिखाई पड़ रहा हो। यह जो अवस्था है ब्रह्मलोक कीअंतःकरण की शुद्धता की आखिरी ऊंचाई है। 
यह अंतःकरण क्या हैइसे हम थोड़ा समझ लें। क्योंकि जिसे हम अंतःकरण समझते हैंवह अंतःकरण है ही नहीं। अंतःकरण के साथ बड़ी भूल—चूक जुड़ी हुई है। अंग्रेजी में शब्द है कान्यायिन्ससंस्कृत का शब्द है अंतःकरण।
आप चोरी करने जाते हैं। भीतर से कोई आवाज आती हैचोरी बुरी हैमत करो। इसे हम अंतःकरण कहते हैं। यह अंतःकरण नहीं हैयह स्थूडो कान्यायिन्स हैयह मिथ्या अंतःकरण है। यह समाज के द्वारा सिखाया हुआ हैयह आपका नहीं है। क्योंकि ऐसी जातियां हैंजो चोरी को पाप नहीं मानतीं। बल्कि ऐसी जातियां हैंराजस्थान में भी जाटों का समूह हैजो सैकड़ों वर्षों से चोरी को पाप नहीं मानता रहा है। बल्कि पुराने दिनों में जाट युवक की शादी ही नहीं हो सकती थीजब तक वह दो—चार चोरी नहीं कर ले और सफल न हो जाए। युवक की शादी करते वक्त पूछते थे कि वह कितनी चोरियों में सफल हो चुका! वह उसकी कुशलता का प्रमाण था।
चोरी कुशलता तो है ही। हर कोई नहीं कर सकता। थोड़ी बुद्धि चाहिए। बुद्ध के बस का काम नहीं है। और बुद्धि प्रखर चाहिए। फिर साहस भी चाहिएभीरु का धंधा नहीं है वह। कमजोर की वहां गति नहीं है। कमजोर तो अपनी ही संपत्ति हाथ में लेते कंपता है। दूसरे की संपत्ति को अपनी की तरह मान लेने के लिए बड़ा कड़ा हृदय चाहिए। अपने ही घर में अंधेरे में चलना मुश्किल हो जाता हैदूसरे के घर में अंधेरे में चलने के लिए कदमों में आंखे चाहिए। और बड़ा निष्कंप हृदय चाहिए कि कंपे नहीं। एक तरह की एकाग्रता भी चाहिए।
चोर बड़ा एकाग्र होता है। उसका मस्तिष्क एक ही बिंदु पर टिका रहता है। अगर चोर का मन बहुत ज्यादा यहां—वहां भटकेतो मुसीबत में पड़ जाएगा। एक लक्ष्य और सारी प्राण—ऊर्जा उसी तरफ बहती है। तो चोरी सभी समाजों में बुरी नहीं रही है। तो जिस समाज में चोरी बुरी नहीं हैउस समाज में चोरी करते वक्त कभी भी यह खयाल पैदा नहीं होगाकोई अंतःकरण नहीं कहेगा कि रुको।
हिंदू है। एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह करे तो भीतर से अंतःकरण कहता है कि पाप कर रहे होबुरा कर रहे हो। मुसलमान चार को करेकोई दिक्कत नहीं मालूम होती। कुरान आशा देती है : चार विवाह कर सकते हो। मुहम्मद ने खुद नौ विवाह किए। जरा भी चिंता नहीं होती। पर इससे आप ऐसा मत सोचना कि मुहम्मद ने बहुत बुरा किया।
अपने कृष्ण की कथा आप स्मरण रखना। मुहम्मद तो कुछ भी नहीं हैँउस हिसाब में। लेकिन क्या की हमने कभी निंदा नहीं की है। सोलह हजार रानियों की कथा है। यह हमें कहानी मालूम पड़ सकती है कि सोलह हजार! एक स्त्री इतना उपद्रव खड़ा कर सकती है! कृष्ण बड़ी हिम्मत के आदमी रहे होंगे! लेकिन उस समाज में कोई अस्वीकृति नहीं थी। सम्राट सैकड़ों विवाह करते ही थे।
अभी निजाम हैदराबाद की पांच सौ पत्नियां थीं। जिस दिन भारत आजाद हुआउस दिन पांच सौ पत्नियां थीं। बीसवीं सदी में पांच सौ पत्नियां हो सकती हैंतो कोई ज्यादा बड़ी संख्या नहीं हैसिर्फ बत्तीस गुनीसोलह हजार। कोई बहुत बड़ा मामला नहीं है। कहानी बनाने की जरूरत नहीं है। यह हो सकता है। लेकिन कोई अड़चन नहीं थी। समाज की धारणा ही यही थी कि सम्राट की पत्नियां ज्यादा होंगी ही।
असल में जितना बड़ा सम्राटउसका प्रमाण ही एक था कि कितनी पत्नियां! वह उसकी संपदा का गणित था कि कितनी पत्नियां! गरीब आदमी एक ही पत्नी नहीं रख सकता। पत्नी रखना खर्चीला मामला है। सभी एफोर्ड नहीं भी कर सकते। तो जितना बड़ा सम्राटउतनी पत्नियांयह स्वीकृत मान्यता थी।
तो कोई अड़चन नहीं होती थी किसी सम्राट को हजारों शादियां कर लेने में। कोई भाव भी नहीं उठता था। अंतःकरण कभी नहीं कहेगा कि यह तुम क्या कर रहे हो। या इसमें कुछ पाप है। इस बात पर निर्भर करता है कि समाज ने क्या सिखाया है।
जुआ स्वीकृत थातो युधिष्ठिर जुआ खेलते रहे। लेकिन हमने कभी उनको धर्मराज के पद से नीचे नहीं उतारा। आज अधार्मिक आदमी भी जुआ खेलता है तो अंतःकरण में चोट पड़ती है। युधिष्ठिर को जरा भी न पड़ी! और जुआ कोई साधारण नहीं थासब तो लगाया हीपत्नी भी लगा दी। अभी आप जरा पत्नी को लगाकर देखें। छाती साथ नहीं देगीअंतःकरण इनकार करेगा। लेकिन युधिष्ठिर को बिलकुल भी नहीं किया। और युधिष्ठिर के पीछे लिखने वालों ने कभी भी एतराज नहीं उठाया। उनके धर्मराज होने में कोई शंका पैदा नहीं हुई।
समाज को स्वीकार थाजुआ एक खेल था। और जितने बड़े खिलाड़ी थेउतने बड़े दाव थे। युधिष्ठिर बड़े खिलाड़ी थेपत्नी को भी दाव पर लगाने की हिम्मत उन्होंने जुटाई। इसमें कहीं कोई नीति—निषेध नहीं था। इसमें कोई कठिनाई नहीं आ रही थी।
द्रौपदी के पांच पति हैं। लेकिन हमने द्रौपदी को पांच महाकन्याओं में गिना है। जिन्होंने पांच महाकन्याओं में गिनाउनकी मान्यता और रही होगी। हम अगर आज एक स्त्री के पांच पति हों तो उसे कहां रखेंगेउसे हम पांच प्रात: स्मरणीय कन्याओं में नहीं गिन सकते। लेकिन जिन्होंने गिना हैउन्हें कोई अड़चन न थी। पांच पति हो सकते थे। पांच पत्नियां हो सकती थींपांच पति हो सकते थे। बहुपत्नीबहुपति प्रथा स्वीकृत थीतो अंतःकरण में कोई चोट नहीं थी।
यह जो अंतःकरण हैयह समाज पर निर्भर है। यह जो अंतःकरण हैयह वास्तविक अंतःकरण नहीं हैयह समाज के द्वारा आरोपित हैप्लांटेड है। यह ऊपर से थोप दिया गया है। इस अंतःकरण की शुद्धि से परमात्मा का कोई संबंध नहीं। जिस अंतःकरण की बात उपनिषद कह रहे हैंउसका अर्थ है..।
हमारे पास जितनी इंद्रियां हैं वे बहिर्करण हैंउनके द्वारा बाहर का ज्ञान होता है। अंतःकरण वह हैजिसके द्वारा भीतर का ज्ञान होता है। जिसके द्वारा चेतना भीतर सजग होती है। इस भीतर के शान वाली स्थिति कोजिसको हम विवेक कह रहे हैंप्रज्ञा कह रहे हैंउसी का एक नाम अंतःकरण है।
इस भीतर की प्रज्ञा को निखारने की जो व्यवस्था हैवह समाज के अंतःकरण के अनुकूल चलने से नहीं उपलब्ध होने वाली है। न ही प्रतिकूल चलने से उपलब्ध होने वाली है। इसका यह मतलब नहीं है कि आप समाज जो कहता हैउसको इनकार करके व्यर्थ उपद्रव में पड़े। उसकी भी कोई जरूरत नहीं है। वह एक समझौता है। वह समाज में जीने की एक व्यवस्था है।
जहां इतने लोग एक बात को मानकर चल रहे हैंवहां चुपचाप उनकी बात मान लेने से कम उपद्रव होता है। और आप अपने भीतर की यात्रा पर आसानी से जा सकते हैं। अन्यथा व्यर्थ की छोटी—छोटी बातो में उलझाव खड़ा हो जाएगा और बाहर अटकाव हो जाएगा।
अगर साधुपुरुषों ने समाज की मान्यता स्वीकार की हैतो इसलिए नहीं कि वह ठीक हैबल्कि इसलिए कि उससे शाति में जाना आसान है। इस बात को ठीक से समझ लें। अगर साधुपुरुषों ने समाज की सारी व्यवस्था स्वीकार कर लीतो इसलिए नहीं कि वह बिलकुल ठीक है। कोई समाज की व्यवस्था बिलकुल ठीक नहीं है। और बिलकुल ठीक समाज की व्यवस्था हो भी नहीं सकती। क्योंकि जब तक सारे व्यक्ति ठीक न होंतो उनके जोड़ के ठीक होने का कोई उपाय नहीं है।
समाज तो अनिवार्यरूप से गलत है और गलत रहेगा। बसकम गलत होता जाए इतनी ही आशा करनी काफी है। केवल व्यक्ति ही पूरा ठीक हो सकता हैसमाज तो भीड़ है। और जैसे पानी अपना तल बना लेता हैऐसे ही भीड़ भी अपना तल बना लेती है। भीड़ हमेशा अपने निम्नतम व्यक्ति के तल पर उतर जाती है।
समाज की धारणाएं सही हैं या गलतयह महत्वपूर्ण नहीं है। साधुपुरुष उनको स्वीकार कर लेता हैसिर्फ इसलिए ताकि बाहर कोई उपद्रव खड़ा न हो और वह भीतर की यात्रा पर सुगमता से जा सके।
लेकिन यह अंतःकरण जीवन की चरम बात नहीं है। अंतःकरण तो भीतर की उस चेतना शक्ति का नाम है,जिससे हम बाहर नहीं देखते बल्कि भीतर देखने में समर्थ हो जाते हैं।
आप आंख बंद करते हैंतो भीतर अंधेरा हो जाता है। उस अंधेरे में भी कोई जानता हुआ मालूम पड़ता है। आप कान बंद कर लेंतो भीतर सन्नाटे की आवाज आने लगती है। लेकिन उस सन्नाटे की आवाज में भी कोई सुनता हुआ मालूम पड़ता है।
यह जो भीतर जानता हुआसुनतादेखता हुआ मालूम पड़ता हैयह आपका अंतःकरण है। और इसको जितना आप प्रगाढ़ करते जाएं.। पहले तो बहुत धीमी झलक उसकी मिलेगी। क्योंकि हम बाहर देखने के इतने आदी हो गए हैं कि आंखे हमारी बाहर के लिए नियोजित हो गई हैं। अचानक भीतर आंख बंद करते हैं तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
यह ठीक वैसे ही हैजैसे आप सूरज की रोशनी से एकदम अंधेरे कमरे में आ जाएं तो आपको कुछ दिखाई नहीं पडता। लेकिन थोड़ा बैठें। थोड़ी ही देर में आंखे अपने फोकस को बदल लेती हैं। वह कमरे के लिए एडजस्ट होती हैं,समायोजित होती हैं। फिर जितना अंधेरा दिखाई पड़ता थाउससे कम अंधेरा दिखाई पड़ता है। फिर आप बैठे ही रहें,चुपचाप कमरे के साथ एक होते जाएं। थोड़ी देर में कमरा प्रकाशित मालूम होने लगता है। अंधेरे से अंधेरे कमरे में भी अगर आप राजी होकर बैठेंतो थोड़ी देर में थोड़ा— थोड़ा दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। लेकिन हम अपने भीतर के अंधेरे कमरे में कभी बैठते ही नहीं। कभी थोड़ी—बहुत आंख बंद करते है,
मेरे पास लोग आते हैंवे कहते हैं कि क्या आप कहते हैं भीतर देखेंभीतर देखें! आंख बंद करते हैंवहां तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
आप जन्मों—जन्मों से बाहर देख रहे हैं। अनंत—अनंत काल से बाहर देख रहे हैं। इतने काल के बाद जब आप भीतर जाएंगेतो अंधेरा तो दिखाइएए पड़ेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि वहा अंधेरा है। आप जिस रोशनी को देखने के आदी हो गए हैंवह रोशनी वहा नहीं है। वहां और तरह की रोशनी है। उस और तरह की रोशनी के लिए थोड़ा धीरज रखना जरूरी है।
इतना ही एक आदमी कर ले कि रोज एक घंटा आंख बंद करके बैठ जाए और भीतर देखता रहेचाहे कुछ दिखे और चाहे न दिखे। तीन महीने के भीतर पाएगा कि भीतर रोशनी मालूम पड़ने लगी। सिर्फ एक घंटा। इतनी प्रतीक्षा ही करे—कुछ न करे।
लेकिन हमारे पास धैर्य इतना कम हैजिसका हिसाब नहीं। धैर्य है ही नहीं। एक आदमी बैठता है दो मिनट आंख बंद करकेतो कहता है : कुछ भी सार नहीं है। कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता। न कोई आत्मा हैन कोई ब्रह्म के दर्शन होते हैं! छोड़ो भी। इतनी देर में तो रेडियो से न्यूज ही सुन लेतेकि एक दफा अखबार फिर से पढ़ लेते!
धैर्य बिलकुल नहीं है। पेशेन्स जैसी कोई चीज नहीं है। और इस भीतर की यात्रा में धैर्य तो आत्मा है। सारे प्रयत्न की आत्मा धैर्य है।
आप कुछ भी न करें अगरइतना ही कर लें कि रोज एक घंटा आंख बंद करके बैठ जाएं चाहे कुछ होचाहे कुछ न हो। बस भीतर देखने की कोशिश करते रहेंटटोलते रहें। आप थोड़े ही दिनों में पाएंगे कि अंधेरा उतना घना नहीं हैजितना आपको लगता था। थोड़ी— थोड़ी रोशनी प्रगट होने लगी। चीजें थोड़ी साफ होने लगीं। तीन महीने निरंतर धैर्यपूर्वक देखने पर आपको पहली दफा अंतःकरण समझ में आएगा कि क्या है। अंतःकरण का मतलब है : भीतर की इंद्रियजो भीतर देखने में समर्थ है। करण का अर्थ होता हैइंद्रियउपकरणऔर अंत: का अर्थ होता हैभीतर की ओर ले जाने वाली।
हमारी बाकी इंद्रियां बहिर्करण हैं। भीतर की तरफ ले जाने वाली इंद्रिय हम उपयोग ही नहीं कर रहे हैं। और ध्यान रहेजिस इंद्रिय का उपयोग नहीं होतावह अपनी लोच की क्षमता खो देती है। आप एक सालभर पैर बांधकर बैठ जाएं और उपयोग न करें। फिर पैर चल नहीं सकेंगे। पैर चल सकते थे पहलेलेकिन सालभर जड़ बने रहे तो फिर चल नहीं सकेंगे। आप जिन—जिन चीजों का उपयोग नहीं करेंगेवे—वे चीजें जड़ हो जाएंगी।
उपयोग जीवन का हिस्सा हैउससे चीजें सजग रहती हैं। हमने बहुत—सी चीजों का उपयोग बंद कर दिया हैवे समाप्त हो गई हैं। और अंतःकरण का उपयोग तो हमने न मालूम कितने जन्मों से नहीं किया है। किया ही नहीं।
तो इसलिए थोड़ी प्रतीक्षाधैर्य अत्यंत आवश्यक है। जो पैर बहुत दिन से न चला होउसकी मसाज भी करनी पड़ेगीउसे चलाने के थोड़े से अभ्यास भी करने पड़ेंगे। और धीरे— धीरे ही उसमें गति होगीखून दौड़ेगाप्राण आएंगे। ठीक वैसी ही स्थिति अंतःकरण की है।
यम नचिकेता से कह रहा है—शुद्ध अंतःकरण। जिस दिन यह भीतर की इंद्रिय पूर्ण शक्तिवान हो जाती है और देखने में समर्थ हो जाती हैऔर इसका प्रत्यक्ष शुद्ध हो जाता हैचीजें साफ होने लगती हैं—इस शुद्धता की आखिरी अवस्था में ब्रह्मलोक हैजहां आप ब्रह्म जैसे हो जाते हैं। वहा दो और दो चारऐसा जाग्रत में साफ हो जाएस्वप्न में नहीं। प्रतिबिंब में नहींसीधा प्रत्यक्ष हो जाएसाक्षात्कारवैसी सत्य की प्रतीति होती है।
अपने— अपने कारण से भिन्न— भिन्न रूपों में उत्पत्र हुई इंद्रियों की जो पृथक— पृथक सत्ता है और जो उनका उदय और लय हो जानारूप स्वभाव है उसे जानकर आत्मा का स्वरूप उनसे विलक्षण समझने वाला धीर पुरुष शोक नहीं करता।
और जैसे—जैसे अंतःकरण शुद्ध होगावैसे—वैसे आपको दिखाई पड़ेगा कि बाकी इंद्रियों की सारी शक्ति उसी में लीन होती जा रही है। जैसे—जैसे अंतःकरण सजग होगाबाकी इंद्रियों की जो बहती हुई ऊर्जा हैजो व्यर्थ उनसे लीकेज—उनसे व्यर्थ शक्ति बाहर जा रही थी—वह सब की सब अंतःकरण को उपलब्ध होने लगी। और एक घड़ी आती हैजब सारी बहिईंद्रिया अपनी पूरी ऊर्जा को अंतःकरण में ही लीन कर देती हैंउसी में डूब जाती हैं। कानआंखजीभनाक—सब उसी में डूब जाते हैं।
डूब जाने का अर्थ है कि गंध की जो क्षमता नाक में थीवह अंतःकरण को उपलब्ध हो जाती है। आंख की जो क्षमता आंख में थी देखने कीवह अंतःकरण को उपलब्ध हो जाती है। अब तो वैज्ञानिक भी इससे किसी दूसरे अर्थ में राजी हैं। 
आप जानते हैं कि अंधा आदमी आपसे ज्यादा अच्छी तरह से सुनने लगता है। इसलिए अंधा संगीतज्ञ हो सकता है—आपसे ज्यादा अच्छा। क्या कारण हैक्योंकि आंख की ऊर्जा कान को उपलब्ध हो जाती है। ट्रासफर हो जाती है। आंख काम नहीं कर रही है तो जो ऊर्जा आंख से बाहर जाती है और अस्सी प्रतिशत ऊर्जा आंख से बाहर जा रही है शरीर की। आप अपनी आंखों के दुरुपयोग के कारण जितना थकते हैंउतना और किसी चीज के कारण नहीं थक रहे हैं।
अमेरिका में नई खोजें कह रही हैं कि टेलीविजन कैंसर का मूल आधार बनता जा रहा है। क्योंकि टेलीविजन आंख को बुरी तरह थकाने वाला हैजैसी और कोई चीज नहीं थका सकती। अमेरिका में डर पैदा हो रहा हैटेलीविजन का जैसा विस्तार हुआ हैवह पूरे जीवन को रुग्ण किए दे रहा है। और टेलीविजन इतना विक्षिप्त कर देता है छोटे—छोटे बच्चों को भी कि वे दिनभर देख रहे हैं। जब भी उनको मौका हैतब वे टेलीविजन पर अटके हुए हैं! न उन्हें खेलने में रस हैन कहीं बाहर जाने में। सब कुछ टेलीविजन हो गया है।
आंख की इतनी ऊर्जा का व्यय कैंसर पैदा कर सकता है।थक जाए तो कैंसर है। वह बीमारी कम हैइसलिए उसका इलाज नहीं खोजा जा रहा हैइलाज खोजना मुश्किल मालूम पड़ रहा है। क्योंकि वह बीमारी होतीतो हम कुछ दवा खोज लेते। वह बीमारी कम हैवह पूरे यंत्र की गहरी थकान है। जैसे पूरा यंत्र मरना चाहता हैइतना थक गया है। पूरे यंत्र का रोआ—रोआकण—कण मरने के लिए आतुर हैआत्मघाती हो गया हैतो फिर उसे जगाना बहुत मुश्किल है। उसको वापस जीवन में लौटा लेना बहुत मुश्किल है।
आपकी आंख जितना थकाती हैउतनी कोई चीज नहीं थकाती। अंधे आदमी की आंख की ऊर्जा बह नहीं रही,वह कान की तरफ बहने लगती है। हैलन केलर हैवह अंधी भी हैबहरी भी हैग्ती भी है। तो सारी की सारी ऊर्जा उसके हाथों से बहने लगी। उसके हाथ इतने संवेदनशील हैंकि पृथ्वी पर किसी के हाथ नहीं। क्योंकि वह सारा काम हाथ से ही लेती है। किताब भी हाथ से ही पढ़ती है। लोगों से मिलती भी है तो उनके चेहरे को हाथ से ही छूती है। और जिस आदमी का चेहरा एक बार हाथ से छू लेती हैउसके हाथ की स्मृति में प्रविष्ट हो जाता है वह चेहरा। दस साल बाद भी चेहरे को छूकर पहचान लेगी कि वह कौन है। सारी ऊर्जा हाथ में चली गईस्पर्श ही सब कुछ हो गया।
वैज्ञानिक इसको स्वीकार करते हैं कि ऊर्जाएं ट्रासफर हो सकती हैं। एक जगह से दूसरी जगह उपयोग में आ सकती हैं। एक इंद्रिय दूसरे में लीन हो सकती है। लेकिन योग की बहुत पुरानी धारणा है कि भीतर एक छठवीं इंद्रिय है जिसमें पांचों इंद्रियां लीन हो सकती हैं। और जिस दिन उस छठवीं इंद्रिय का जागरण होता है और सभी इंद्रियां उसमें लीन हो जाती हैंउस दिन भीतर के अनुभव शुरू होते हैं।
भीतर ऐसी सुगंध हैजैसी बाहर उपलब्ध करने का कोई उपाय नहीं। और भीतर ऐसा नाद है कि उस नाद को बाहर का श्रेष्ठतम संगीत भी केवल इशारा ही करता है। और भीतर ऐसा प्रकाश है कि कबीर ने कहा है कि हजार—हजार सूरज जैसे एक साथ उदय हो जाएं।
अरविंद कहते थे कि जब मैं जागा हुआ नहीं थातो जिसे मैंने जीवन समझा थाअब वह मृत्यु जैसा मालूम होता है। क्योंकि अब मैं भीतर के जीवन से परिचित हुआ हूं तो तौल सकता हूं। जिसे मैंने सुख समझा थावह आज परम दुख मालूम पडता है। क्योंकि भीतर के आनंद का उदय हुआ हैअब मैं तुलना कर सकता हूं कि सुख क्या था। वह परम दुख मालूम होता है।
जिस दिन सारी इंद्रिया उसी मूल इंद्रिय में खो जाती हैं जो अंतःकरण हैउस दिन भीतर के अनुभव शुरू होते हैं। भीतर जैसा सौंदर्य हैजैसी सुगंध हैजैसा रस हैबाहर तो केवल उसकी झलक है। जिसे हम संसार कह रहे हैंवह सब फीका हो जाता है। त्यागियों ने संसार छोड़ा नहींउन्होंने भीतर केउस परम भोग को अनुभव किया हैजिसके कारण बाहर का सब व्यर्थ हो गया।
इसलिए मैं निरंतर दोहराता हूं कि सिर्फ अज्ञानी छोड़ते हैंज्ञानी छोड़ते ही नहीं। ज्ञानी तो और श्रेष्ठतर को पा लेते हैं। उसके पाते ही बाहर का व्यर्थ हो जाता है। आप कंकड़—पत्थर से खेल रहे थेफिर किसी ने कोहिनूर आपके हाथ में दे दिया। कोहिनूर हाथ में पड़ते ही पत्थर—कंकड़ छूट जाते हैं। फिर कोई समझाने की जरूरत नहीं कि छोड़ोये कंकड़—पत्थर हैंइनका त्याग करो। इसे समझाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। कंकड़—पत्थर तभी तक हीरे मालूम होते हैंजब तक हीरे को न जाना हो। हीरे को जानते ही वे कंकड़—पत्थर हो जाते हैंक्योंकि तुलना का उदय होता है।
अंतःकरण की जो प्रतीतियां हैंवे जगत के सारे सुखों को एकदम फीका और क्षीण कर जाती हैंबासा कर जाती हैं।
बाहर भी संभोग है। बाहर का संभोग क्षणभर का सुख है। लेकिन जब अंतःकरण को वीर्य की पूरी ऊर्जा मिल जाती हैतो भीतर जो संभोग का रस है...। भीतर के पुरुष और स्त्री का जो मिलन हैहमने उसी के प्रतीक अर्धनारीश्वर की प्रतिमा बनाई हैशंकर की प्रतिमा बनाई हैजो आधी पुरुष है और आधी स्त्री है। सिर्फ भारत ने वैसी प्रतिमा बनाईपृथ्वी पर कहीं भी कोई वैसी प्रतिमा नहीं है। वह एक भीतर के अनुभव का अंकीकरण है बाहर।
भीतर जब स्त्री और पुरुष की दोनों ऊर्जाएं संयुक्त हो जाती हैं. क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में दोनों ऊर्जाएं हैं। कोई भी आदमी न तो पुरुष है अकेला और न ही कोई स्त्री पूरी स्त्री है। हर पुरुष आधा पुरुष आधा स्त्रीऔर हर स्त्री आधी स्त्री आधा पुरुष है। इस संबंध में इस सदी के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव जुग की खोजें बड़ी महत्वपूर्ण हैं।
कं ने प्रमाणित किया है कि हर आदमी आधा—आधा है। होगा ही। क्योंकि हर एक का जन्म 'स्त्री और पुरुष के मिलने से हुआ है। और दोनों ने दान दिया है। आप जो भी हैंआपके पिता का भी अंश है और आपकी मां का भी अंश है। तो आप एकदम पुरुष नहीं हो सकते। आप एकदम स्त्री भी नहीं हो सकते। कुछ मां ने भी दिया हैकुछ पिता ने भी दिया हैइसलिए फर्क जो है वह मात्रा का है। अगर मां का अंश ज्यादा हैतो आप स्त्री हो जाएंगे। और अगर पिता का अंश ज्यादा हैतो आप पुरुष हो जाएंगे। लेकिन यह मात्रा का फर्क है। साठ परसेंट पुरुषचालीस परसेंट स्त्रीतो आप पुरुष हो जाएंगे। साठ परसेंट स्त्रीचालीस परसेंट पुरुष—आप स्त्री हो जाएंगे।
इसलिए कभी—कभी तो ऐसी भी घटनाएं घटती हैं कि कुछ बाउंड्री केसेज होते हैंसीमात—कि करीब—करीब पचास परसेंट दोनोंतो थर्ड सेक्सएक तीसरी यौन की स्थिति बन जाती है।
कभी—कभी इक्यावन प्रतिशत और उन्नचास प्रतिशतऐसा फर्क होता है। तो पुरुष होता तो पुरुष हैलेकिन उसके सारे ढंग स्त्रैण होते हैं। स्त्री होती तो स्त्री हैलेकिन उसके ढंग बिलकुल पुरुष जैसे होते हैं। लक्ष्मीबाई और जोन आफ आर्क और दुर्गावती—इनके शारीरिक विश्लेषण का हमें कोई पता नहीं हैलेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि इनमें पुरुष—तत्व बहुत ज्यादा थे। खूब लड़ी मर्दानीवह केवल कवि की ही भाषा नहीं हैअगर कभी खोज—बीन हो सकेतो वह विज्ञान की भी भाषा हो सकती है।
लेकिन यह समाज पुरुषों का हैइसलिए स्त्री अगर तलवार लेकर लड़ेतो हम कहते हैं—शानदार मर्दानी! और अगर पुरुष बाल बढ़ा ले और मधुर ढंग से नाचेतो हम कहते हैं—नामर्द! यह समाज पुरुषों का हैइसमें स्त्री होना पाप है। इसमें पुरुष होना बड़ी गुणवत्ता है। अगर एक पुरुष बड़े बाल बढ़ाकर स्त्रैणमधुरभाव में जीता हैतो हम निंदा से देखते हैं। और एक स्त्री तलवार लेकर मैदान में आ जाती हैतो हम बड़ी प्रशंसा से देखते हैं। यह बड़ी अजीब बात है।
अगर मर्दानी स्त्री प्रशंसा के योग्य हैतो नामर्द पुरुष क्यों प्रशंसा के योग्य नहीं हैदोनों ही गुणवान हैं। और अगर एक निंदा के योग्य हैतो दूसरा भी निंदा के योग्य है। लेकिन पुरुष अपनी प्रशंसा करता है स्त्री की निंदा करता चला जाता है। और समाज पुरुषों का है और पुरुषों ने इतना उपद्रव किया है कि स्त्रियों तक को राजी कर लिया हैकि वे भी पुरुष की धारणाओं से राजी हो गई हैं। वे भी कहेंगी कि क्या महान लक्ष्मीबाईमर्दानी! और स्त्रिया भी किसी पुरुष को स्त्रैण ढंग से देखकर कहेंगी कि नामर्द। उनके मन में भी निंदा है। लेकिन हर आदमी के भीतर दोनों हैं।
आदमी बायसेक्यूअल हैद्विलिंगीय है। इसलिए कभी—कभी तो ऐसी घटनाएं घट जाती हैं कि एक पुरुष अचानक थोड़े से हार्मोन्स के फर्क सेबीमारी सेचोट सेदुर्घटना से स्त्री हो जाता है। या स्त्री पुरुष हो जाती है। इंग्लैंड में कई मुकदमे अदालत में आए हैंजिनमें एक पुरुष ने शादी की स्त्री सेलेकिन बाद में साल दो साल के बाद वह पुरुष स्त्री हो गया और अदालत को डायवोर्स दिलवाना पड़ा। फिर तो इसकी वैज्ञानिक खोज बढ़ती चली गई। और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि ये हमारे हाथ में है कि किसी भी स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री में रूपांतरित किया जा सकता है। यह सर्जरी हो सकती है।
व्यक्ति के भीतर दोनों हैं। और आपके भीतर जो पुरुष हैवह बाहर की स्त्रियों में इसीलिए उत्सुक है। जिस दिन भीतर की स्त्री से मिलन हो जाएउस दिन बाहर की स्त्री में रस खो जाएगा।
और वह जो परम संभोग हैजो महासंभोग हैजो भीतर घटित होता हैउसकी प्रतीक है अर्धनारीश्वर की प्रतिमा—आधा पुरुष आधी स्त्री। जब भीतर दोनों मिल जाते हैंतब पहली दफा इनडिवीजुअलपहली दफा आप में व्यक्ति पैदा होता हैविभेदखंड टूट जाते हैं। आपकी दोनों विपरीतताए इकट्ठी हो जाती हैं। एक वर्तुल निर्मित होता है। उस वर्तुल का नामउस अंतर्संभोग का नाम समाधि है।
अंतःकरण को सारी शक्ति मिल जाती है सारी इंद्रियों की। और तब भीतर जिस आनंद कीअमृत की वर्षा होती हैकबीर ने कहा है कि घनघोर बरस रहे हैं अमृत के बादल और कबीर नहा रहा है! हजार—हजार सूरज उगे हैं और प्रकाश इतनाइतना विराट है कि जिसकी कोई सीमा नहीं!
संतो को निरंतर लगा है कि वे जो जानते हैंउसे कहना मुश्किल है। क्योंकि जो भी वे कहेंबाहर की भाषा में कहना पड़ेगा। और बाहर की चीजें ही सब इतनी फीकी हो गईं कि अब उस भाषा का क्या उपयोग करना! सब बासा मालूम होने लगाबाहर सब बासा मालूम होने लगा। और भीतर इतने ताजे काइतने युवा काइतने स्फूर्त जीवन से भरी हुई धारा का अनुभव होता है कि बाहर के शब्दों का उसके लिए उपयोग करना अन्यायपूर्ण लगता है।
इसलिए बहुत संत चुप रह गए हैं। या उन्होंने कहा भी है तो फिर प्रतीक गढ़े हैं। या फिर उन्होंने अपनी भाषा ही गढ़ ली है अलग। विद्वानजन कबीरनानकदादू की भाषा को सधुक्कड़ी कहते हैं। क्योंकि उन्होंने अपनी भाषा गढ़ ली। वे कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लगेजो उनके ही हैं।
कबीर ने उलटबासिया लिखींजिनमें से कुछ मतलब नहीं निकलता। उलटी हैं ही वे। जैसे कबीर ने



 लिखा है कि मछली झाड़ पर चढ़ गई! कहीं मछली कोई झाड़ पर चढती हैकि नदी में आग लग गई! नदी में कहीं कोई आग लगती है?
लेकिन कबीर की मजबूरी है। आपकी जो भाषा है अगर उसका प्रयोग करेंठीक वैसा ही जैसा होता हैतो वे जो कहना चाहते हैंवह इतना बड़ा है कि उसमें समाता नहीं। तो फिर वे आपसे उलटी भाषा का प्रयोग करते हैं कि शायद आपको चौंका दें। शायद आप समझने को उत्सुक हो जाएं। शायद आप पूछने लगेंक्या मतलब नदी में आग लग जाने काकि मछली का झाडू पर चढ़ जाने का क्या प्रयोजन?
शायद आप इस उलटी भाषा से चौके। यह एक शॉक ट्रीटमेंट हैएक धक्का हैजिससे आपकी बंधी हुई धारणाएं टूट जाएं। बंधी हुई भाषा अस्तव्यस्त हो जाए। तब इशारे किए जा सकते हैं।
और जब सारी इंद्रियां लीन हो जाती हैं अंतःकरण मेंतो इस आत्मा के विलक्षण स्वरूप को समझने वाला धीर पुरुष शोक नहीं करता। शोक का कोई कारण नहीं है। आनंद से :परिपूर्ण हो जाता है।
इंद्रियों से तो मन श्रेष्ठ है मन से बुद्धि श्रेष्ठ है बुद्धि से उसका स्वामी जीवात्मा श्रेष्ठ है और जीवात्मा से अव्यक्त शक्ति श्रेष्ठ है। परंतु अव्यक्त से भी वह व्यापक और सर्वथा आकाररहित परमपुरुष श्रेष्ठ है जिसको जानकर जीवात्मा मुक्त हो जाता है और अमृतस्वरूप आनंदमय ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। इसे थोड़ा समझ लें।
भीतर से बाहर की यात्रा के पड़ाव हैं। ठीक वे ही पड़ाव बाहर से भीतर की तरफ जाते वक्त फिर से पडेंगे। जब चेतना उतरती है पदार्थ तकतो उसके पड़ाव हैंएक—एक सीढ़ी नीचे उतरती है। जब वापस लौटती हैतो उन्हीं सीढ़ियों पर फिर चढ़ती है। सांख्य ने ये पड़ाव बड़े स्पष्ट किए हैं। पहले क्या हैफिर वह कैसे तीन में बंटता हैफिर वह कैसे नीचे उतरता चला आता है। शरीर तक आते— आते कितनी जगह चेतना रूपांतरित होती है।
जैसे हम पानी को गर्म करते हैंया बर्फ को गर्म करना शुरू करते हैं। बर्फ गर्म होता है तो पिघलता है। पिघलकर पानी बनता है। एक खास डिग्री पर बर्फ पानी हो जाता है। फिर हम गर्म करते चले जाते हैं। एक खास डिग्री पर पानी उबलने लगता हैफिर सौ डिग्री पर आकर भाप बनने लगता है।
अगर हमें वापस बर्फ बनाना होतो हमें लौटना पड़ेगा। फिर हमें पानी से गर्मी खींचनी पड़ेगीभाप को ठंडा करना पड़ेगा। भाप ठंडी होगी तो पानी बन जाएगी। पानी और ठंडा होगा तो बर्फ बन जाएगा। लेकिन वे ही बिंदु हमें पार करने पड़ेंगेवे ही डिग्रियांजो हमने बर्फ से भाप की तरफ जाते वक्त की थीं। वे ही हमें लौटते मेंउलटी यात्रा परबर्फ की तरफ आने मेंफिर से उन्हीं डिग्रियों से गुजरना होगा।
ये डिग्रियां हैं : इंद्रियों से तो मन श्रेष्ठ है। इसलिए पहले इंद्रियां मन में लीन हो जाती हैंजब भीतर की यात्रा शुरू होती है। मन से बुद्धि श्रेष्ठ है। इसलिए मन विवेक में लीन हो जाता हैजब भीतर की तरफ चलते हैं। बुद्धि से जीवात्मा श्रेष्ठ है। फिर बुद्धि जीवात्मा में लीन हो जाती है। जीवात्मा से अव्यक्त शक्ति श्रेष्ठ है।
अव्यक्त शक्ति को हम ईश्वर कहें। हमारी जो प्रचलित भाषा में अव्यक्त शक्ति का नाम ईश्वर हैवह जो अप्रगट होकर काम कर रहा है। ईश्वर ब्रह्म का काम करता हुआ रूप है।
परंतु ईश्वर से भी अव्यक्त से भी व्यापक और सर्वथा आकाररहित परमपुरुष श्रेष्ठ है जिसको जानकर जीवात्मा मुक्त हो जाता है और अमृतस्वरूप आनंदमय ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। जीवात्मा से ईश्वरईश्वर से और पीछे परम निराकार ब्रह्म। 
उस ओर से हम ऐसे ही चलकर यहां तक आए हैं। भाप बनते तक ब्रह्म पिघला हैईश्वर बना है। ईश्वर भी पिघला हैजीवात्मा बना है। जीवात्मा पिघली हैबुद्धि बनी है। बुद्धि पिघली हैमन बना है। मन पिघलकर इंद्रिया हो गया है। इंद्रियां आखिरी पड़ाव हैं। ठीक ऐसे ही वापस लौटना पड़ेगा। और एक—एक चीज को उसके पीछे छिपी हुई शक्ति में लीन करते चले जाना है।
जिस दिन लीन करने को कुछ भी न बचेजिस दिन आखिरी भाव भी लीन हो जाए—ईश्वर का भाव आखिरी भाव हैउसके पार फिर कोई भाव नहींफिर निर्भाव की दशा है—जिस दिन आखिरी भाव भी लीन हो जाएउस दिन उस परम का अनुभव हैजिसे उपनिषद ब्रह्म कहते हैंजिसे बुद्ध ने निर्वाण कहा हैमहावीर ने मोक्ष कहा है।
इंद्रियों से ब्रह्म तक सरकना हैपीछे वापस।
यह सरकना हो सकता है। क्योंकि जैसे हम इंद्रियों तक आ गए हैंवैसे ही हम वापस जा सकते हैं। इंद्रियों तक आना हो सकता हैतो इंद्रियों से वापस जाना भी हो सकता है। जिस रास्ते से आप इस माउंट आबू शिविर तक आए हैं अपने घर सेलौटते वक्त उसी रास्ते से आप वापस अपने घर की तरफ जाएंगे। रास्ता वही होगाआप भी वही होंगे। लेकिन एक बार वह रास्ता माउंट आबू तक लाया और दूसरी बार वही रास्ता माउंट आबू के विपरीत आपको ले जाएगा। सिर्फ फर्क होगा—दिशा भिन्न होगी। अभी माउंट आबू की तरफ मुंह थाजाते वक्त माउंट आबू की तरफ पीठ होगी। बस इतना ही फर्क होगा।
बाकी सब वही है। घर भी वहीमाउंट आबू भी वही। आप भी वहीरास्ता भी वही। चलने की शक्ति भी वही। सब वही है—सिर्फ दिशा। अभी इस तरफ मुंह थाजाते वक्त इस तरफ पीठ होगी।
अभी हमारे मुंह इंद्रियों की तरफ हैं। इंद्रियों की तरफ पीठ हो जाएयात्रा घर की तरफ वापस शुरू हो गई।
और जब तक खोया हुआ घर न मिल जाएतब तक आदमी के जीवन में कोई चैन संभव नहीं है। ध्यान के लिए तैयार हों।


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