कठोपनिषद--ओशो (तैहरवां प्रवचन) सत्‍य की अभिव्‍यंजना विपरीतताओं में—तैहरवां प्रवचन


सत्‍य की अभिव्‍यंजना विपरीतताओं मेंतैहरवां प्रवचन


तृतीय वल्‍ली :

ऊर्ध्वमूलोउवाक्शाख एषोsश्वत्थ: सनातन:।
तदेव शुक्रं सद् ब्रह्म तदेवामृतमुव्यते।
तस्मिल्लोका: श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कस्वन। एतद्वै तत्।।1।।

यदिदं किं च जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम्।
महद्भयं वज़मुद्यतं य एतद्धिरमृतास्ते भवन्ति।।2।।

भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्य:।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचम:।। 3।।

इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक् शरीरस्य विम्रस:।
तत: सर्गेष लोकेष शरीरत्वाय कल्पते।।4।।


ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह ( प्रत्यक्ष जगत) सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व वह ( परमेश्वर) ही है। वही ब्रह्म है (और) वही अमृत कहलाता है। सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह ( परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था)।।1।।

परब्रह्म परमेश्वर से ) निकला हुआ यह जो कुछ भी संपूर्ण जगत है उस प्राणस्वरूप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है। इस उठे हुए वज्र के समान महान भयस्वरूप ( सर्वशक्तिमान) परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं अर्थात जन्म—मरण से छूट जाते हैं।।2।।


इसी के भय से अग्नि तपती है ('इसी के) भय से सूर्य तपता है तथा इसी के भय से इंद्र वायु और पांचवें मृत्यु देवता ( अपने—अपने काम में) प्रवृत्त हो रहे हैं।।3।।

यदि शरीर का पतन होने से पहले इस मनुष्य शरीर में ही ( साधक) परमात्मा को साक्षात कर सका ( तब तो ठीक है )नहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है।।4।।


सत्य की अभिव्‍यंजना विपरीतताओं में

जैसे किसी सरोवर के किनारे कोई वृक्ष खड़ा हो तो सरोवर में जो प्रतिबिंब बनता हैवह उलटा होगा। तट पर खड़े हुए वृक्ष की शाखाएं आकाश में ऊपर की ओर फैली होंगीतट पर खड़े वृक्ष की मूलजड़ें नीचे जमीन में फैली होंगी। लेकिन प्रतिबिंब उलटा होगा। उसमें जड़ें ऊपर होंगीशाखाएं नीचे होंगी। सभी प्रतिबिंब उलटे होते हैं। प्रतिबिंब कभी भी सीधा नहीं हो सकता। इस वैज्ञानिक सत्य को ध्यान में रखकर इस सूत्र को समझना बहुत आसान होगा।
चीजें जैसी हैंठीक उससे उलटी दिखाई पड़ती हैंक्योंकि देखना भी एक तरह का प्रतिबिंब है। आंख भी एक दर्पण है। आंख पर भी प्रतिबिंब बनते हैं। प्रतिबिंब सभी उलटे हो जाते हैं। तो इस जगत को जैसा हम देख रहे हैंयह जगत इससे ठीक उलटा है। जगत का जो नियम हमें मालूम होता हैवास्तविक नियम उससे ठीक उलटा होगा।
आभास सत्य से विपरीत होते हैंइस मौलिक विचार के आधार पर भारत के मनीषियों ने एक बहुत पुराना प्रतीक उपयोग किया है। वह प्रतीक—
ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व वह परमेश्वर ही है। वही ब्रह्म है और वही अमृत कहलाता है।
ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। हम तो जो भी देखते हैंउसमें जड़ें नीचे की तरफ हैंशाखाएं ऊपर की तरफ हैं। लेकिन यह यम का सूत्र नचिकेता को कहा गया हैइसमें यम कह रहा है कि ऊपर की ओर मूलनीचे की ओर शाखाएं हैं। जैसा भी हमारा जानना हैजीवन का सत्य उससे ठीक विपरीत है। इसे हम कुछ जीवन के अलग—अलग पहलुओं से समझने की कोशिश करें।
हम सोचते हैं कि मृत्यु जीवन की दुश्मन हैलेकिन सत्य बिलकुल विपरीत है। मृत्यु के बिना जीवन हो ही नहीं सकता। तो मृत्यु जीवन की शत्रु तो जरा भी नहींमित्र है। मृत्यु के बिना जीवन के होने की कोई संभावना नहीं है। जिस दिन मृत्यु मिट जाएगीउसी दिन जीवन भी मिट जाएगा। लेकिन हमारे देखने में सब चीजें उलटी हो जाती हैं। हमें लगता है कि जीवन और मृत्यु में विरोध हैजब कि वस्तुत: मृत्यु ही जीवन का आधार है। और मृत्यु के बिना जीवन हो नहीं सकता।
हमें अनुभव में आता है कि प्रेम और घृणा विपरीत हैंजब कि सचाई बिलकुल उलटी है। मनसविद कहते हैं कि प्रेम और घृणा एक ही ऊर्जा के दो पहलू हैंवे साथ—साथ हैं। फ्रायड ने जो महानतम खोजें इस सदी में की हैंउसमें एक खोज यह भी थी कि आदमी जिसको प्रेम करता हैउसी को घृणा भी करता है। हम भी अगर थोड़ा सोचेंतो खयाल में बात आ सकती है। आप किसी भी व्यक्ति को सीधा शत्रु नहीं बना सकते। शत्रु बनाने के पहले मित्र बनाना जरूरी होगा। सीधी शत्रुता पैदा ही नहीं हो सकतीशत्रुता के लिए पहले मित्रता चाहिए। तो मित्रता शत्रुता का पहला कदम हैअनिवार्य कदम हैउसके बाद ही शत्रुता हो सकती है।
तो शत्रुता और मित्रता विपरीत नहीं हैंबल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस—जिसको हम प्रेम करते हैं,उस—उसको घृणा भी करते हैंऔर जिस—जिसको हम घृणा करते हैंउस—उसको हम प्रेम भी करते हैं। शत्रुओं से हमारा बड़ा लगाव होता हैउनकी याद आती है। उनके बिना हम अधूरे हो जाएंगेउनके बिना हमारे जीवन में कुछ खाली हो जाएगा। उसी तरहजैसे मित्र के मिट जाने पर कुछ खाली हो जाएगा। मित्र भी हमें भरते हैंशत्रु भी हमें भरते हैं।
बुद्ध ने कहा है कि मैं कोई मित्र नहीं बनाताक्योंकि मैं कोई शत्रु नहीं बनाना चाहता हूं। पर हम तो सोचते हैं : शत्रु और मित्र विपरीत हैं। जीवन में ऐसी बात नहीं है। हम तो सोचते हैं : रात और दिन विपरीत हैंअंधेरा और प्रकाश विपरीत हैं। सचाई यह नहीं है। अंधेरा प्रकाश का ही एक रूप है। प्रकाश अंधेरे का ही एक ढंग है। वे दोनों एक ही ऊर्जा के अलग—अलग कम हैं।
अगर जगत से अंधकार पूरी तरह मिट जाए तो हमारी साधारण बुद्धि कहेगी कि सब तरफ प्रकाश ही प्रकाश रह जाएगा। विज्ञान इससे राजी नहीं होगा। विज्ञान कहेगाअंधकार अगर बिलकुल मिट जाए तो प्रकाश बिलकुल मिट जाएगाया प्रकाश बिलकुल मिट जाए तो अंधकार बिलकुल मिट जाएगा।
अगर जगत से घृणा बिलकुल मिटानी हो तो प्रेम को बिलकुल मिटाना पड़ेगा। जब तक प्रेम हैघृणा जारी रहेगी। जब तक मित्र हैंतब तक शत्रु पैदा होते रहेंगे। और अगर मृत्यु को बिलकुल पोंछ देना होतो जन्म को बिलकुल पोंछ देना होगा। जब तक जन्म हैमृत्यु होती रहेगी।
अगर दुनिया से युद्ध मिटाने होंतो हम सोचते हैं कि जब युद्ध मिट जाएंगे तो दुनिया में परम शाति होगी। लेकिन युद्ध अगर बिलकुल मिट जाएं तो शाति भी मिट जाएगी। यह जरा कठिन मालूम पड़ता है। यही हमारे आभास और सत्य की विपरीतता है। दुनिया में तभी तक शाति रह सकती हैजब तक युद्ध जारी रहेंगे। शांति और युद्ध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें से एक भी खो जाए तो दूसरा भी खो जाएगा।
हम सोचते हैं कि बीमारी हैस्वास्थ्य है—विपरीत हैं। और हमारी चेष्टा होती है कि ऐसा वक्त आ जाए कि आदमी के जीवन में कोई बीमारी न रहे। जिस दिन ऐसा होगाउसी दिन कोई स्वास्थ्य भी न रह जाएगा।
इस बात की संभावना है कि वैज्ञानिक धीरे—धीरे ऐसी व्यवस्था निकाल लें कि बीमारी न रह जाए। वह व्यवस्था एक ही हो सकती है कि धीरे—धीरे वे मनुष्य के सारे अंगों को बदल डालें। उनकी जगह प्लास्टिक और स्टेनलेस स्टील और कृत्रिम अंगों को डाल दें। बीमारी मिट जाएगीलेकिन स्वास्थ्य भी मिट जाएगा। स्वास्थ्य का जो अनुभव हैजो वेल बीइंग हैवह स्टेनलेस स्टील और प्लास्टिक के अंगों से नहीं हो सकती। बीमारी के साथ ही जुड़ा है स्वास्थ्य।
अब इस बात के उपाय हैं। अब हृदय बदला जा सकता हैमस्तिष्क के हिस्से भी बदले जा सकते हैं। आज नहीं कलसारे के सारे मनुष्य के शरीर में जो भी खराब होने वालेजिनकी संभावना रुग्ण होने की हैऐसे जो भी अंग हैं,वे सब अलग कर दिए जा सकते हैं। प्लास्टिक बीमार नहीं पड़ेगा। स्टेनलेस स्टील बड़ी लंबी उम्र की होगी। आपके हाथ में हड्डियों की जगह स्टेनलेस स्टील हो सकती है। नसों की जगह प्लास्टिक की नसें होंगी। और आज नहीं कलहम खून से भी बेहतर रासायनिक—द्रव्य खोज सकते हैं। शरीर को पूरा का पूरा यंत्रवत बनाया जा सकता है। फिर शरीर बीमार नहीं पड़ेगा। लेकिन भीतर जो आत्मा छिपी हैउसको स्वास्थ्य का भी कोई अनुभव नहीं होगा।
असल में स्वास्थ्य बीमारियों के बीच एक संतुलन है। और बीमारियां स्वास्थ्य का डगमगा जाना है। दोनों साथ हैं। एक को हटा देंदूसरा विनष्ट—हो जाता है। लेकिन हमें ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। हमें तो दिखाइ पड़ता है कि एक को मिटा देंतो दूसरा बचेगा। यही हमारे आभास की विपरीतता है।
तो जहां—जहां हमें जैसा—जैसा दिखाई पड़ता हैबहुत गौर से उससे उलटा करके सोचनाउलटे के सत्य होने की संभावना ज्यादा है।
ऐसा देखेंजहां—जहां मनुष्य को सुख दिखाई पड़ता हैवहां—वहां अंत में दुख हाथ लगता है। लेकिन मन कहता है कि जहां सुख दिखाई पड़ता हैवहां सुख होगा। खोजने पर दुख हाथ लगता है। और जीवन में अनेक बार हम प्रयोग कर चुके हैं। जहां सुख दिखाई पड़ावहीं दौड़ेऔर पाया कि दुख हाथ लगा।
ऋषियों ने इस सूत्र को उलट लिया। उन्होंने कहाजहां—जहां दुख दिखाई पड़ेवहा—वहा प्रवेश करने की कोशिश करना। जब सुख दिखाई पड़ने पर दुख मिलता हैतो जहा दुख दिखाई पड़ता हैउसमें खोजने से सुख मिलेगा। इस वैज्ञानिक खोज का नाम ही तप है। तप का मतलब है : दुख में खोजना सुख को। क्योंकि सुख में खोजने वाले दुख पा रहे हैं। सूत्र उलटा लिया। एक यात्रा भ्राति में ले जाती थीतो हमने दिशा बदल ली।
भोगी हम उसे कहते हैंजो सुख के आभास में सोचता है कि खोजने से सुख मिलेगा। योगी हम उसे कहते हैं,जिसकी यह भांति टूट गई और जिसने सूत्र को उलटा कर लियाऔर अब जो दुख में कोशिश करता है खोजने की। और जो व्यक्ति दुख में खोजता हैवह निश्चित ही सुख पाता है। क्योंकि सुख में खोजने वालों ने सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं पाया है।
इस बात को कि जीवन के सत्य हमें उलटे दिखाई पड़ते हैंक्योंकि हमारा चित्त उनके प्रतिबिंब बनाता हैझील की भांति वृक्ष उलटा हो जाता है—तो इसके पहले की आप अपने जीवन का दर्शन निर्मित करेंजीवन का पथ चुनें और जीवन का गंतव्य चुनें—इस महत्वपूर्ण बात को स्मरण रखना।
इसलिए ऋषियों ने कहा है कि जो वृक्ष तुम्हें दिखाई पड़ता है कि जड़ें नीचे हैं और शाखाएं ऊपर हैंवस्तुत: इससे उलटा होगा। जीवन के वृक्ष की शाखाएं ऊपर नहीं नीचेऔर मूल नीचे नहीं ऊपर है। इसे शाश्वतसनातन पीपल का वृक्ष ऋषियों ने कहा है '
यह तो सिर्फ काव्य—प्रतीक है। और इस काव्य—प्रतीक को जीवन में उपयोग किए बिनाऔर जीवन में जगह—जगह नियोजित किए बिना इसका अर्थ साफ नहीं होता है।
ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व परमेश्वर ही है।
लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई हमें पदार्थ पड़ता है। दिखाई हमें पड़ता है पदार्थ और वस्तुत: है परमेश्वर।
परमेश्वर हमें अदृश्य हैपदार्थ हमें दृश्य है। जब कोई व्यक्ति जीवन की इस प्रक्रिया को उलटा करता हैतो पदार्थ अदृश्य होने लगता है और परमात्मा दृश्य होने लगता है। और जिस दिन पदार्थ पूरी तरह अदुशा हो जाता है,सिर्फ परमात्मा दृश्य रह जाता हैउस दिन जानना कि सत्य की अनुभूति हुई।
इसलिए उस परम अवस्था में ज्ञानियों ने जगत को माया कह दिया। कह दिया इसलिए कि वह दिरब्राइ नहीं पड़ती थीखो गई। जैसा कि अज्ञानी ईश्वर को असत्य कहते हैं। कहेंगे ही। जो नहीं दिखाई पड़तावह नहीं है। अज्ञानी कहता हैकहां है ईश्वरउसे दिखाने का कोई उपाय भी नहीं है। क्योंकि सवाल ईश्वर के होने का नहीं हैसवाल अज्ञानी के देखने के ढंग का है। उसके देखने का ढंग ऐसा है कि पदार्थ पकड़ में आता है और ईश्वर छूट—छूट जाता है।
ज्ञानी को पदार्थ पकड़ में नहीं आताछूट—छूट जाता हैसिर्फ परमेश्वर ही पकड़ में आता है। इसलिए अज्ञानी कहता है—जगत सत्यब्रह्म मिथ्या। ज्ञानी कहता है—ब्रह्म सत्यजगत मिथ्या। उलटा हो जाता है। इस गणित को अगर आप खयाल रख लें और जीवन में थोड़ा—सा हुसका उपयोग करने लगेंतो आप पाएंगेआप बदलने लगेआप नए होने लगे।
इसका कैसे उपयोग करेंयह तो मैंने आपको तात्विक उदाहरण दिए। आचरण में इसका उपयोग हो सकता है। यह सूत्र बड़ा कीमती है। जब कोई गाली देतो आपको क्रोध पैदा होता है—यह सहजप्राकृतिकअज्ञानी मनुष्य की स्थिति है। ज्ञानी कहते हैं : जब कोई क्रोध करेतो क्षमा पैदा हो। उलटा कर लेना है। जब कोई क्रोध करेतो क्षमा करनाक्षमा के भाव को जन्माना। तुम्हारा जीवन नया हो जाएगा। जब कोई गाली दे और क्रोध तुम करोतो तुम्हारा जीवन जैसा थावैसा ही रहेगा। उसमें कोई रूपांतरण संभव नहीं है। क्योंकि तुम कोई बुनियाद बदल नहीं रहे हो।
जब कोई तुम्हारा आदर करे तो हम प्रफुल्लित होते हैंप्रसन्न होते हैं। ज्ञानी ने कहा हैजब तुम्हारा कोई आदर करेतब तुम उदास हो जानाउपेक्षा से भर जाना। क्यों जब कोई आदर करता—हैसम्मान करता है तो हम प्रसन्न होते हैंक्योंकि अहंकार तृप्त होता है। और अहंकार रोग है। इसलिए आपके दुश्मन आपको उतना नुकसान नहीं पहुंचा सकतेजितने आपके खुशामदी आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं। क्योंकि वे आपके अहंकार को भर रहे हैं।
कबीर ने तो कहा है कि आगन कुटी छवाकरजो तुम्हारी निंदा करते हैंउनको अपने घर के पास ही बसा लेना। यह उलटा है। जो तुम्हें गाली देते हैंउनको तुम मकान के बगल में ही बसा लेनाताकि सुबह—शाम वे तुम्हें गाली देते रहें। क्योंकि जो तुम्हें गाली देता हैवह तुम्हारे अहंकार को तोड़ता है। और जो तुम्हारी प्रशंसा करता है,स्तुति करता हैवह तुम्हारे अहंकार को बढ़ाता है। और अहंकार ही महारोग हैवही दुख का आधार हैस्रोत है।
आचरण में इस सूत्र का अर्थ होगा कि जो सहजप्राकृतिक प्रतिक्रिया मालूम होती हैवह मत करनाउससे उलटा करना। तुम्हारा जीवन धार्मिक होता चला जाएगा।
जीसस को सूली दी गई और अंतिम समय कहा गया कि तुम्हें कुछ कहना तो नहीं हैतो जीसस ने परमात्मा की तरफ हाथ उठाकर कहा कि इन सबको क्षमा कर देनाक्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।
जब तुम्हें कोई सूली दे रहा होतो तुम्हारे मन से अभिशाप निकल सकते हैं। वरदान के निकलने का कोई उपाय नहीं है। अभिशाप बिलकुल प्राकृतिक प्रक्रिया है। वह तो पशुओं से भी वही निकलेगापत्थर से भी वही निकलेगा। उसके लिए मनुष्य होने की कोई जरूरत नहीं है। वह तो जीवन का जड़ नियम है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है और आग जलाती हैऐसे ही पशुता क्रोध के उत्तर में दुगुना क्रोध पैदा करती है। वह पशुता का सहज नियम है। लेकिन पशु का अर्थ है : जो थिर है और जो गतिमान नहीं है। पशु का अर्थ है : जो जड़ हैरुका है और जिसके जीवन में कोई ऊर्ध्वगमन नहीं है।
संस्कृत का यह शब्द पशु बड़ा अदभुत है। संस्कृत के सभी शब्द अदभुत हैं। कोई भाषा इस अर्थ में वैज्ञानिक नहीं है जैसी संस्कृत है। एक—एक शब्द के पीछे पूरा तत्व—दर्शन है। और एक—एक शब्द को ऐसे ही कामचलाऊ ढंग से नहीं बना लिया गया हैबड़े विचार और बड़ी चितना से निखौरा गया है।
पशु शब्द बनता है पाश से। पाश का अर्थ होता है: जो बांध लेबंधन। पशु का अर्थ है जो बन। हुआ है। पशु का अर्थ जानवर नहीं हैजो बंधा हुआ हैजो जकड़ा हुआ हैजो प्रकृति के अंधे नियमों का गुलाम हैजो स्वतंत्र नहीं है।
पशुता से ऊपर उठना हो तो प्रकृति जो सहज रूप से करने को कहेउससे विपरीत को तुम अपनी साधना समझना। जब तुम्हारी कोई प्रशंसा करे तो तुम रोनाऔर जब तुम्हें कोई गाली दे तो तुम हंसना अगर जीवन इस एक छोटे—से सूत्र को मानकर चल पड़ेतो मोक्ष ज्यादा दूर नहीं है। और तुम्‍हें परमात्‍मा को खोजने नहीं जाना पड़ेगा,परमात्मा तुम्हें खोजता हुआ आ जाएगा। फिर उसकी तलाश की कोई जरूरत नहीं है।
एक बार तुमने जीवन की साधारण प्रक्रिया को बदलकर विपरीत किया कि तुम सत्य के जगत में प्रवेश कर गए,कि तुम उस पथ पर आ गए जहां से सत्य तुम्हें खींच लेगा।
अभी हम उलटे खड़े हैं। जिसे हम सीधा होना समझ रहे हैंवह शीर्षासन है। हमें सब उलटा दिखाई पड़ रहा है। हमें पैर के बल खड़ा होना होगा। जैसे हम हैंउससे उलटा हो जाना पड़ेगा।
सारे संतो का बस एक ही प्रयास है कि तुम्हारे जीवन की जो अंधी प्रक्रियाएं हैंवे होशपूर्ण हो जाए। तुम जहां जड़ की तरह व्यवहार करते होयंत्र की तरह व्यवहार करते होवहां तुम सचेतन हो जाओ। और सचेतन कोई तभी होता हैजब प्रकृति का अतिक्रमण करता है। कोई गाली देतो क्रोध करने के लिए सचेतन होने की कोई भी जरूरत नहीं है।
क्रोध मूर्च्छा है। उसके लिए होश की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन कोई गाली दे और क्षमा करना हैतो बहुत सावधान होना पड़ेगाबहुत जागरूक होना पड़ेगाबहुत चित्त को ऊंचाई पर उठाना पड़ेगाभीतर की ज्योति को खूब जगमगाना पड़ेगा। तब भी डर है कि क्रोध की पुरानी आदत पकड़ ले और नीचे खींच ले। लेकिन बड़े मजे की प्रक्रिया है। अगर कोई व्यक्ति जीवन की सामान्य प्रक्रियाओं को उलटा करने लगेतो बड़ा रस उपलब्ध होगा। तब पूरा जीवन एक प्रयोगशाला हो जाता है।
तब दूसरे भी बहुत चकित होंगेक्योंकि दूसरे भी तभी चकित होते हैं जब वे पाते हैं कि तुम अंधे नहीं हो। दूसरे भी तभी चकित होते हैं और मुसीबत में पड़ते हैंजब तुम उनके सहज अनुमान के अनुसार नहीं चलते हो।
बुद्ध को कोई गाली देता है तो बुद्ध चुपचाप सुन लेते हैं। बुद्ध के ऊपर कोई थूक जात है तो वह चुपचाप अपनी चादर से पोंछ लेते हैं। और जिसने धूका हैउस आदमी से कहते हैंतमें: कुछ और कहना है? आनंद क्रोध से भर जाता है—उनका शिष्य—और वह कहता हैआप क्या कह रहे हैं इस आदमी सेयह पागल है और इसने आपके ऊपर थूका! मुझे आज्ञा दें तो मैं इसे ठीक करूं।
बुद्ध कहते हैंउसे मैं क्षमा कर दूं क्योंकि वह नासमझ हैलेकिन तू इतने दिन से मेरे पास है और तू बिलकुल ही मूर्च्छित व्यवहार कर रहा है! यह आदमी कुछ कहना चाहता हैजो शब्दों में नहीं कहा जा सकताइसलिए थूककर प्रगट कर रहा है।
थूकना एक भाषा है। बहुत बार भाव गहरा होता हैआप प्रगट नहीं कर पातेकिसी को गले लगा लेते हैंवह एक भाषा है। कुछ इतना गहरा था हृदय मेंजिसे शब्द नहीं कह पातेतो आप छाती से लगा लेते हैं।
तो बुद्ध कहते हैंकुछ भाव है इसके मन में बहुत गहराजिसको यह शब्द से नहीं कह पाताथूककर जाहिर कर रहा है। बड़े गहरे क्रोध से भरा हैवह क्रोध शब्द से पूरा नहीं होगा। इसलिए मैं इससे पूछता हूं कि और भी कुछ कहना हैइतना कहायह समझाकुछ और भी कहना हैकुछ इसकी व्याख्या भी करनी है?
वह आदमी तो बड़ा बेचैन हो गया। क्योंकि जब कोई आपके ऊपर यूके तो अपेक्षा करता है कि अब कुछ उपद्रव होगा। लेकिन यहां एक तात्विक चर्चा छिड़ जाए कि फना भी एक भाषा है और इस आदमी ने कुछ कहा है! तो वह आदमी थोड़ा बेचैन हुआउसे थोड़ा अपराध— भाव लगा होगा कि मैंने गलत आदमी पर धूक दिया। वह चला गया।
वह दूसरे दिन सुबह आयाबुद्ध के चरणों में सिर रखकर रोने लगा। उसकी आंख से आंसू बहने लगे। उसने कहा कि मुझे क्षमा कर दें। मैं कल आपके ऊपर धूक गया था। मुझसे बड़ी भूल हो गई। मैं पीछे पछताया। मैं रातभर सो नहीं सका। बुद्ध ने कहातू बिलकुल नासमझ है। उस बात को बीते कितना समय हो गया! तब से गंगा का कितना पानी बह गया! अब उसको तू याद क्यों रखे हैऔर तूने यूका थाहमने उसे लिया नहीं थाइसलिए व्यर्थ पश्चात्ताप मत कर। तूने यूका होगालेकिन हमें कोई चोट नहीं पहुंचीइसलिए तू व्यर्थ पश्चात्ताप मत कर।
और बुद्ध ने आनंद से कहाआनंद! देखयह आदमी फिर कुछ कहना चाहता है। लेकिन बात इतनी गहन है कि नहीं कह पातातो इसने आसुओ से पैर धो डाले।
व्यक्ति जैसे ही जीवन की सामान्य धारा के ऊपर अपने को उठाना शुरू करता हैएक बड़ी रसपूर्ण प्रक्रिया शुरू होती है। और एक बहुत मधुर और एक बहुत मीठी यात्रा का प्रारंभ होता हैजो रोज—रोज मधुर होती जातीरोज—रोज मीठी होती जाती हैरोज—रोज सुगंधित होती जाती हैऔर भीतर एक रस झरने लगता है। इस यात्रा के अंत में ही अमृत की वर्षा है।
लेकिन जैसे हम हैंजहा हम हैंहम बिलकुल उलटे हैं। हम वही कर रहे हैंजो नहीं करना चाहिए। हम वैसे ही जी रहे हैंजैसा नहीं जीना चाहिए। हम अपने ही हाथ से काटे बो रहे हैं और अपने ही हाथ से मार्ग पर पत्थर रख रहे हैंजिनकी वजह से यात्रा असंभव हो जाएगी। हम अपने ही दुश्मन हैं।
तत्व और आचरण दोनों में यह सूत्र खयाल में आ जाए कि हमारी बुद्धि विपरीत देख रही हैतो जीवन के रूपांतरण की कुंजी आपके हाथ में उपलब्ध हो जाती है।
इसका मूलभूत तत्व वह परमेश्वर है वही ब्रह्म है और वही अमृत है। सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था। उसको कोई लाघ नहीं सकता। उसके पार जाने का कोई उपाय नहीं है। उसको ट्रासेंड नहीं किया जा सकता। परमात्मा का अर्थ ही यही है कि जो अंत हैकि जो आखिरी है—सीमांत—जिसके पार कुछ शेष नहीं रह जाता। अगर उसके पार कुछ शेष रह जाता हैतो वह परमात्मा नहीं है।
इसे ऐसा समझें कि जब तक आपके मन में पाने की कोई कामना हैतब तक आप परमात्मा नहीं हैं। जिस दिन आपके मन में पाने की कोई कामना न रहीउसका अर्थ हुआ कि अब आगे जाने को कुछ भी न बचाउस दिन आप परमात्मा हो गए।
इसलिए ज्ञानियों ने परमात्मा की परिभाषा की है—निर्वासना से भरी हुई चेतना। क्योंकि वासना अतिक्रमण करना चाहती है—और आगेऔर आगे। और वासना अनेक रूप लेती हैवह कहीं भी तृप्त नहीं होती। अगर आप इसी क्षण,जैसे हैं वहीं तृप्त हो जाएं और कह दें कि बस आगे और कुछ भी मांग नहीं है—कहने से नहीं होगायह भीतर भाव प्रविष्ट हो जाए—तो इसी क्षण आपका सब अंधकार गिर जाए और आप परमात्मा हो जाएं।
परमात्मा का अर्थ है : इसी क्षण में पूर्ण तृप्तिजिसके पार कुछ भी नहीं बचता।
लेकिन आदमी बहुत उपद्रवी है। अगर वह एक तरफ से अपने उपद्रव को छोड़ता हैतो तभी छोड़ता है जब दूसरी तरफ अपने उपद्रव को तैयार कर लेता है।
एक मित्र मेरे पास आए। वृद्ध हैं। रो रहे थे। बड़े भाव से भरे थे। रोकर कह रहे थे कि मेरी कुंडलिनी अभी तक जगी नहीं। बीस वर्ष से भटक रहा हूं। न—मालूम कितने आश्रमकितने गुरुकितनी साधनाएं कर चुका हूं लेकिन कुंडलिनी नहीं जगी।
उनके भाव में कमी नहीं हैउनकी खोज में कमी नहीं हैलेकिन उनकी मौलिक दृष्टि आत है। वे कुंडलिनी को ऐसे ही खोज रहे हैंजैसे कोई धन को खोजता हो। और न मिले तो रोता हो। न मिले तो परेशान होपीड़ित होसंतप्त हो। कुंडलिनी उनका लोभ बन गई है।
और ध्यान रहेइस आंतरिक यात्रा की यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि वहा लोभ के द्वारा कोई भी प्रवेश नहीं हो सकता। वहां तृप्ति के द्वारा प्रवेश है।
जो नहीं मिला हैउसकी फिक्र छोड़ेजो मिला हैउसका अनुग्रह मानें और प्रवेश बढ़ता जाएगा। लेकिन वे परेशान हैं। इस परेशानी से कुंडलिनी जाग्रत होने वाली नहीं है। उस परेशानी से ही रुकी है। बीस साल की खोज के कारण नहीं मिलीऐसा नहीं है। बीस साल की खोज के कारण ही रुकी है। वह जो अति तनाव है पाने काउसी से भीतर सब सिकुड़ गया है।
जहां पाने का तनाव रहेगावहां हम संसार में हैं। यह पाने की दौड़ संसार है। और न पाने के लिए राजी हो जानासंसार से बाहर हटने लगना है।
एक आदमी धन के लिए दौड़ रहा है। एक आदमी पद के लिए दौड़ रहा है। एक आदमी यश के लिए दौड़ रहा है। और एक आदमी मोक्ष के लिए दौड़ रहा है। फर्क क्या हैकोई भी फर्क नहीं है। मोक्ष के लिए दौड़ा ही नहीं जा सकता। मोक्ष तो खड़े होने वाले को मिलता है।
धन के लिए दौड़ा जा सकता हैक्योंकि धन खड़े होने वाले को नहीं मिलता। दौड़ने वाले को भी नहीं मिल पाता हैतो खड़े होने वाले को तो मिलने का कोई उपाय नहीं है। धनपदयशसब दौड़े हैं। मोक्ष दौड़ नहीं है। मोक्ष ठहर जाना हैरुक जाना है।
एक साधिका ने आज ही मुझे आकर कहा कि अभी तक कोई अनुभव नहीं हो रहा है! अनुभव करना क्या है?प्रकाश दिखाई पड़ने लगे तो कुछ हो जाएगाकि भीतर रंग दिखाई पड़ने लगें तो कुछ हो जाएगाकि भीतर कोई सुगंध आने लगे तो कुछ हो जाएगाया आपके हाथ से राख झड्ने लगे तो कुछ हो जाएगा न: कि ताबीज निकलने लगे तो कुछ हो जाएगाकि आप बीमारों को छू दें और वे ठीक हो जाएं तो कुछ हो जाएगावह सब खेल संसार का है और मन का है।
अनुभव की तलाश लोभ है। उस तलाश को गिर जाने दें। अनुभव को नहीं चाहिएअनुभोक्ता को। वह जो अनुभव करने वाला हैउसकी पहचान। अनुभव तो फिर भी पराए हैंबाहर हैं। अध्यात्म अनुभव नहीं है। अध्यात्म,अनुभव जिसको होते हैंउसके साथ एक हो जाना है। जिसके सामने प्रकाश आते हैऔर जिसके सामने सुगंधें तैरती हैं,और जिसके सामने रंगों की बहार आ जाती है और इंद्रधनुष फैल जाते हैंऔर जिसके भीतर संगीत बजने लगता है...। लेकिन ये सब बाहर ही हैं। चाहे आंख बंद करके ये घटनाएं घट रही होंतो भी बाहर हैं। इनको जानने वाला तो और भीतर है। जानने वाला हमेशाजिसे भी जानता हैउससे भीतर हैपीछे हैपार है। और जब तक आप जानने वाले में न ठहर जाएंतब तक अध्यात्म का कोई स्वाद आपको नहीं मिल सकता।
तो कोई बाहर का सेंसेशन खोज रहा है कि चलो फिल्म देखेंरेडियो सुनेकोई नायिका आईकोई नर्तकी आई—उसको देखें। कोई बाहर का रूप—रंग खोज रहा हैकुछ भीतर के रूप—रंग खोज रहे हैंकि चलो कुंडलिनी जगाएंभीतर का प्रकाश देखेंकि भीतर का आनंद लेंलेकिन खोज वही है कि कुछ सेंसेशनकोई उत्तेजना। दोनों ही अध्यात्म नहीं हैं।
अध्यात्म तो उसकी तलाश हैउस चैतन्य कीउस साक्षी— भाव कीजहा सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं और केवल अनुभोक्ता रह जाता है। जहां सब दृश्य खो जाते हैं और केवल द्रष्टामात्र रह जाता है। जहा सब ज्ञेय समाप्त हो जाते हैं और मात्र शाता शेष रह जाता है। उस केवल—ज्ञान कीउस कैवल्य की खोज अध्यात्म है।
सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था।
तो जिस दिन आप उस घड़ी में पहुंच जाएं जहां लांघने को कुछ न बचेसमझना कि आ गया घर। समझना कि आ गया वह मंदिरजिसकी तलाश थी। यह इसी क्षण भी हो सकता है। क्योंकि परमात्मा का समय से कोई संबंध नहीं है कि साल लगेगी कि दो साल लगेगीकि दो जन्म लगेंगे कि पचास जन्म लगेंगे। आप के ऊपर निर्भर है। अनंत जन्म लग सकते हैं। और एक क्षण भी काफी है।
यह बोध साफ हो जाए कि नहीं कुछ लांघना हैनहीं कहीं जाना हैनहीं कुछ पाना है। जो भी मैं हूं वहीं परम तृप्ति का भाव सजग हो जाएतृप्ति का दीया जल जाए—इसी क्षण आप उसमें प्रवेश कर गएजिसको लांघने का कोई उपाय नहीं। जो लाघने की कोशिश कर रहा हैवह संसार में भटकता रहेगा।
हम सब लांघने की कोशिश कर रहे हैं—और! और! कुछ भी हो। चाहे कुंडलिनी हो और चाहे धन हो—और! और चाहिए! कुछ भी हमें मिल जाए और की दौड़— धूप नहीं मिटती। वह और की आपाधापी भीतर जारी रहती है—और! और! यह और ही संसार है।
जो हैउससे राजीपन। जितना हैउससे स्वीकार। जो हैउससे एक तथाता का भाव। एक परम अहोभावउसको लाघने की कोई वृत्ति नहीं।
लाघने की वृत्ति का नाम महत्वाकाक्षा हैएंबीशन है। दस रुपये पास होंतो लांघने की वृत्ति कहती है कि सौ के बिना कैसे चलेगासौ पास होंतो लाघने की वृत्ति कहती है : हजार के बिना कैसे चलेगाऔर यह वृत्ति कभी समाप्त नहीं होती।
एंड्रू कारनेगी मरा तब उसके पास दस अरब रुपये थे। मरने के दो दिन पहले उसने कहा कि मैं अतृप्त मर रहा हूं क्योंकि मेरे इरादे सौ अरब रुपये इकट्ठे करने के थे।
दस अरब केवल! जैसे कोई भिखमंगा कहेदस पैसे केवल! दस नए पैसे! दस अरब केवल! सौ अरब की योजना थी। और यह मत सोचिए कि सौ अरब से कोई फर्क पड़ जाता। दस अरब से जब कोई फर्क नहीं पड़ासौ अरब से क्या फर्क पड़ने वाला थाजब तक आप सौ अरब पर पहुंचते हैंतब तक आपकी महत्वाकांक्षा हजार अरब पर पहुंच चुकी होगी। वह सदा आपके आगे है। जैसे छाया पीछे चलती हैवैसे महत्वाकाक्षा आगे चलती है। जहां आप पहुंच जाते हैं,वह सदा उसके आगे होती है।
बायजीद सूफी फकीर ने कहा है कि महत्वाकाक्षा आकाश के क्षितिज की भांति है। आपके और क्षितिज के बीच फासला हमेशा वही रहता हैचाहे आप कितनी ही यात्रा करें। क्योंकि क्षितिज कहीं है नहींसिर्फ भासता है। दूर लगता है कि आकाश जमीन को छू रहा है। आकाश जमीन को कहीं भी नहीं छूता। बढ़ें तो ऐसा लगता हैजैसे अभी कुछ ही समय में पहुंच जाएंगे उस जगह जहां आकाश जमीन को छू रहा है। जितना आप बढ़ते जाते हैंउतना ही क्षितिज आगे बढ़ता जाता है। वह और आगे छूता हैफिर और अणे छूता है। आप पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर अपनी जगह पर वापस लौट आएंतब भी वह उतना ही आगे छूता रहता है। वह छूता नहींसिर्फ छूता हुआ मालूम पड़ता है।
आपके और क्षितिज के बीच के फासले को कम करने का कोई भी उपाय नहीं है। आप सोचते हों कि पैदल चलने से पूरा नहीं होतातो शायद कार में चलने से पूरा होगाया हवाई जहाज में उड़ने से पूरा होगा। नहींकोई उपाय ही नहीं हैक्योंकि क्षितिज की कोई रेखा वस्तुत: नहीं है। नहीं तो उपाय हो सकता था। वहां सिर्फ रेखा भासती है। वहां है नहींप्रतीत होती है।
महत्वाकांक्षा की रेखा क्षितिज की भांति है। बस लगता है कि दस अरब पर रेखा हैजब तक आप दस अरब की रेखा पर पहुंचते हैंपाते हैं कि रेखा आगे हट गईफासला उतना का उतना है। यह बड़े मजे की बात है। इस लिहाज से देखने पर एक बड़ी गहरी आर्थिक प्रक्रिया समझ में आ जाती है। दुनिया में गरीब और अमीर के बीच धन का कितना ही फर्क होगरीबी का फर्क नहीं होता।
एक आदमी के पास दस पैसे हैंउसको सौ पैसे की चाह है। वह नब्बे पैसे से गरीब है। एक आदमी के पास दस रुपये हैंउसे सौ रुपये की चाह हैवह नब्बे रुपये से गरीब है। वह नब्बे का आकड़ा बराबर चलेगा। दस अरब होंतो सौ अरब की चाह है। वह नब्बे का आकड़ा बराबर कायम रहता है। वह क्षितिज और आदमी के बीच की दूरी है—वह नब्बे। आपके पास कितना हैक्या हैइससे कोई सवाल नहींलेकिन आप नब्बे गुना गरीबनब्बे के फासले से गरीब बने रहेंगे।
भिखमंगा और सम्राट दोनों बराबर गरीब होते हैं। उनके खाते—बही में आकड़े अलग—अलग होते हैंलेकिन दोनों की आकांक्षा मानवीय आकांक्षा है। जितना होता हैउससे एक खास फासले पर आकांक्षा होती है। कि आप सोचते हैं कि एक भिखमंगा खड़ा हो और एक सम्राट खड़ा होतो क्षितिज की रेखा दोनों के लिए अलग—अलग होगीक्षितिज की रेखा दोनों के लिए बराबर होती है। और दोनों ही यात्रा करेंसम्राट अपनी पूरी संपत्ति के साथऔर गरीब अपनी पूरी दीनता के साथजहां भी वे खड़े होंगेवहां से फासला उतना ही होगा जितना पहले था। और दोनों के फासले में कभी कमी—ज्यादा नहीं आएगी।
दुनिया में दो तरह के गरीब हैं। एकजिनके पास धन हैऔर एकजिनके पास धन नहीं है। बाकी गरीबी में कोई भेद नहीं है।
तो फिर अमीर— कौन हो सकता हैअमीर वही हो सकता है जिसकी क्षितिज—रेखा आगे नहींपैर के नीचे है। इसका ही अर्थ है तृप्ति—जिसकी क्षितिज—रेखा पैर के नीचे हैजो क्षितिज को वहां देखता है जहां उसका पैर हैजो कहता हैजहा मेरा पैर पड़े वहीं आकाश जमीन को छूता हैऔर कहीं भी नहीं। जिस दिन कोई व्यक्ति इस भाव से भर जाता हैउस भाव का नाम संन्यास हैवीतरागता हैतृप्ति है। या हम जो भी नाम देना चाहें। वह व्यक्ति दौड़ से मुक्त हो गया।
जो दौड़ से मुक्त हैवह लांघने के पागलपन से मुक्त है। जो लाघने के पागलपन से मुक्त हैवह उस परमात्मा में प्रवेश कर जाता है जिसे लांघने का कोई भी उपाय नहीं।
परब्रह्म परमेश्वर से निकला हुआ यह जो कुछ भी संपूर्ण जगत है उस प्राणस्वरूप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है। इस उठे हुए वज के समान महान भयस्वरूप सर्वशक्तिमान परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं अर्थात जन्म—मरण से छूट जाते हैं।
यहां एक बहुत महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग है। सोचने जैसा है। क्योंकि जगत में परमात्मा की तरफ यात्रा करने वालों की दो श्रृंखलाएं हैंदो धाराएं हैं। एक कहती है कि परमात्मा प्रेमस्वरूप है और एक कहती है कि परमात्मा भयस्वरूप है। दोनों बड़ी विपरीत हैं।
तुलसीदास ने कहा हैभय बिन होइ न प्रीति। परमात्मा का अगर भय न होतो प्रेम न होगा। लेकिन वह जो प्रेमस्वरूप मानती है—जैसे जीसस ने कहा है गॉड इज लवपरमात्मा प्रेम है—वह दूसरी धारा कहेगी कि जहां भय हो,वहा प्रेम तो हो ही नहीं सकता। आप जिससे भयभीत हैंउससे घृणा कर सकते हैंप्रेम कैसेजहा भय पैदा हो जाएगा,वहां आप डर के कारण झुक सकते हैंलेकिन आदर नहीं हो सकता। भय के कारण आप पैरों पर सिर रख सकते हैं,लेकिन समर्पण नहीं हो सकता। प्रेम का तो कोई उपाय नहीं हैजहां भय है।
लेकिन जो कहते हैं कि परमात्मा भयस्वरूप है और उसके भय से ही चांद—तारे चल रहे हैंउसके भय से ही प्रकृति अपनी लीक पर कायम हैउसके भय के कारण ही सब व्यवस्था है। उसका भय टूट जाए तो सारी व्यवस्था टूट जाए। उसके भय के कारण अनुशासन है। उनके कहने की भी बात समझने जैसी है। दोनों धाराएं समझने जैसी हैं। और दोनों धाराएं उस तक ले जाती हैं।
प्रेम की बात समझनी बहुत आसान है कि परमात्मा प्रेमस्वरूप है। होना ही चाहिए। परम प्रेमपरम प्रेम का धामऔर उससे प्रेम की धाराएं हमारी तरफ बह रही हैं। यह बात बहुत कठिन नहीं हैक्योंकि हमारी धारणा परमात्मा के प्रति वही होती हैजो हमारी धारणा पिता और मा के प्रति होती है। इसलिए हमने अकारण ही परमात्मा को पिता,महापिताया मां या माता नहीं कहा है। कारण से कहा है।
फ्रायड जैसे मनोवैशानिक तो कहते हैं कि परमेश्वर की धारणा पिता की धारणा का ही विस्तार हैउसका ही प्रक्षेप है। जो बच्चे पिता के पास बड़े होते हैंऔर जो पिता के प्रेम से भर जाते हैंऔर पिता के प्रति आदर से भर जाते हैंवे बच्चे बाद में धार्मिक हो जाएंगे। और जो बच्चे पिता के प्रति अवश। से भर जाते हैंविरोध—विद्रोह से भर जाते हैंवे बच्चे बाद में नास्तिक हो जाते हैं। पिता और बेटे के बीच कैसा संबंध हैइस पर निर्भर करेगा कि व्यक्ति और परमात्मा के बीच कैसा संबंध होगा। फ्रायड की इस बात में अर्थ है।
लेकिन पिता की तरफ भी अगर हम ध्यान देंतो वहां भी दो धाराएं मौजूद हो जाती हैं। पिता प्रेम भी करता है,लेकिन पिता से बच्चा भयभीत भी होता है। अकेला प्रेम ही नहीं है पितासाथ में भय भी है। और बडा भय तो यही है कि वह चाहे तो अपने प्रेम को देने से रोक सकता है।
बड़ा भय क्या है बच्चे के सामनेमां या पिता चाहेंतो प्रेम देने से वे वंचित कर सकते हैं। वह भय भी है। वे प्रेम भी दे सकते हैंवे प्रेम देने से रोक भी सकते हैं। और बच्चे के लिए इससे बडी भय की कोई बात नहीं होती। क्योंकि असहाय है बच्चा और पिता और मां का प्रेम उसे न मिल सकेतो वह खत्म हो जाएगा। तो मृत्यु का भय मालूम होता है। अगर मां इतना ही मुंह फेर लेकह दे कि नहींमुझे तुझसे कुछ भी लेना—देना नहींतो बच्चे की पीड़ा हम नहीं समझ सकते हैं कि कितनी भयंकर हो जाती है।
जिससे हम प्रेम करते हैंउसके साथ—साथ छाया में छिपा हुआ भय भी है। और वह भय इस बात का है कि प्रेम नष्ट हो सकता हैप्रेम टूट सकता हैप्रेम न दिया जाएयह हो सकता है। प्रेम के और हमारे बीच में अवरोध आ सकते हैं।
इसलिए बाप से बेटा सिर्फ प्रेम ही नहीं करताभयभीत भी होता है। ये दोनों ही भाव साथ जुड़े रहते हैं। और बड़ी कला यही हैइन दोनों के बीच संतुलन पिता स्थापित कर ले। नहीं तो हर हालत में अयोग्य पिता सिद्ध होता है। और योग्य पिता होना बड़ा कठिन है। बच्चे पैदा करना बिलकुल आसान बात है। उससे आसान और क्या होगा! लेकिन पिता होना बड़ा कठिन है। मा होना बड़ा कठिन हैजन्म देना बिलकुल आसान है।
कठिनाई यही है कि भय और प्रेम के बीच संतुलन स्थापित करना है। अगर बाप इतना ज्यादा भयभीत कर दे बेटे को कि बेटे की आस्था ही प्रेम से उठ जाएतो भी बेटा नष्ट हो जाएगा। क्योंकि जिंदगीभर अब वह किसी को प्रेम न कर सकेगा।
जिस बच्चे को प्रेम नहीं मिला हो बचपन मेंवह बिना प्रेम के ही जीएगा। वह बातें कितनी ही प्रेम की करे,कविताएं लिखेशास्त्र रच डालेलेकिन प्रेम उसके जीवन में नहीं होगा। वह प्रेम का पहला जो संस्पर्श थाजिससे प्रेम का बीज जमतावह नहीं जम पाया। अगर मां और बाप बेटे को प्रेम न कर सकेंतो बेटा फिर किसी को प्रेम नहीं कर पाएगा। और वह जो क्रुद्ध बेटा हैवह सब तरफ से विनाश का कारण हो जाएगा।
आज सारी दुनिया में विद्यालयविश्वविद्यालय बड़े उत्पात के कारण बने हैं। विशेषकर पश्चिम के मुल्कों में बहुत भयंकर आग है। पूरब के मुल्कों में भी फैल रही है। क्योंकि पूरब के शिक्षालय भी पूरब के नहीं हैंवे भी पश्चिम की अनुकृतिया हैंनकल हैं। तो वहां जो बीमारी पैदा होती हैवह कोई तीन—चार साल में पूरब में आ जाती है। उसमें भी हम पीछे हैं। वहा दवा कोई नई होती हैउसको भी तीन साल लग जाते हैंहमारे मुल्क के अस्पताल में उपयोग में आए तब तक। वहां कोई बीमारी भी पैदा होती हैउसको भी आने में वक्त लग जाता है। हम हर हालत में पीछे हैं।
वहा युवकों का एक भारी विद्रोह चल रहा है पुरानी पीढ़ी के खिलाफशिक्षा के खिलाफसंस्कृति के खिलाफ,समाज के खिलाफ। अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उसका मूल कारण यही है कि इन बच्चों को इनके मां—बाप से प्रेम नहीं मिलायह पीढ़ी बिना प्रेम के बड़ी हुई है। और पश्चिम में प्रेम का उपाय कम हो गया है। क्योंकि करीब—करीब बच्चे इसके पहले कि बड़े होंतलाक हो जाते हैं। सौ विवाह में पचास तलाक हो रहे हैं। तो पचास परिवार विच्छिन्न हो रहे हैं। बाप बदल जाते हैंमां बदल जाती है। सौतेली मां के पास बड़ा होना पड़ता हैया सौतेले बाप के पास बड़ा होना पड़ता है। जिंदगी की जो प्रेम की धारा हैवह सब जगह से टूट जाती है।
ये पिछले तीस वर्षों में पश्चिम में तलाक के बढ़ने के साथ जो बच्चे पैदा हुए हैंइनको प्रेम नहीं मिला। ये उसका बदला ले रहे हैं। ये प्रेम नहीं कर सकते। ये विध्वंस से भर गए हैं। प्रेम सृजनात्मक है। और जब प्रेम न मिले तो आदमी तोड़ने लगता हैनष्ट करने लगता है।
हिटलर के ऊपर जिन लोगों ने अध्ययन किया हैवे कहते हैंहिटलर को उसकी मां का और पिता का प्रेम नहीं मिला। उस न मिलने के कारणइतना भयंकर युद्ध हुआ। हिटलर तोड़ना चाहता थासब तरह से नष्ट करना चाहता था। बनाने में उसका कोई रस नहीं थाक्योंकि प्रेम न हो तो बनाने में रस होता ही नहीं।
जिस दिन आपके जीवन में प्रेम आता हैउसी दिन सृजन आता है। एक युवक एक युवती के प्रेम में पड़ता है,तत्थण घर बसाने की सोचने लगता है। तत्‍क्षण घर को कैसे सजानाकैसे कमानाएक सृजनात्मक प्रक्रिया शुरू हो जाती है। जहा प्रेम न होवहा विध्वंस की धारा पकड़ जाती है।
सारी दुनिया में चल रहे युवकों के विद्रोह प्रेम की कमी के कारण हैं। और सारी दुनिया में युवक नास्तिक होते जा रहे हैं। होंगे ही। क्योंकि जिनको पिता का और मां का प्रेम न मिला होवे कल्पना भी नहीं कर सकते कि इस जगत का कोई पिता और मां है। और अगर हो भीतो वह गोली मार देने योग्य है। उसकी पूजा करने का कोई सवाल नहीं है।
मां या पिता के होने की कला यह है कि अकेला भय अगर हो...। जो कि बहुत जो अनुशासन को थोपने वाले बाप होते हैंया मां होती हैंवे अपने सब तरह के प्रेम को रोक लेते हैंकि कहीं बेटा प्रेम के कारण बिगड़ न जाए! वे उसे भयभीत करते हैंडंडे के बल पर उसको सुधारने की कोशिश में लगे रहते हैं। वह सुधार अंततः विकृति सिद्ध होता है।
लेकिन दूसरी तरफ धी खाई है। कुछ मां —बाप इस डर से—और पश्चिम के मनोवैशानिको ने बहुत डरा दिया है कि बच्चे को जरा भी भयभीत मत करनाउसे जरा भी डराना मतउस पर जरा भी कुछ थोपना मतअनुशासन मत लादनानहीं तो वह विद्रोही हो जाएगा—तो मां—बाप डर गए हैं। सिर्फ प्रेम करनाअकेला प्रेम भी जहरीला हो जाता है। क्योंकि अकेले प्रेम का मतलब स्वच्छंदता हो जाता है। और तब बेटों को लगता है कि प्रेम उनका अधिकार है। तुम्हें प्रेम देना ही पड़ेगा। प्रेम को अर्जित करने का कोई सवाल नहीं है कि बैटा कुछ करे और प्रेम अर्जित करे। नहींबेटे का हक है। कर्तव्य कुछ भी नहीं है।
और अगर मां—बाप सिर्फ प्रेम दें और भय की कोई भी उपस्थिति न होतो भी बेटा बिगड़ जाता है। तब वह सारी दुनिया से प्रेम मांगता है। दुनिया आपकी मां—बाप नहीं है। दुनिया कोई आपको प्रेम देने के लिए नहीं बैठी है। दुनिया में जब आप जाएंगेतो वहा संघर्ष हैप्रतियोगिता हैयुद्ध है। वहा कोई आपके लिए प्रेम देने नहीं बैठा है।
और जिसके मां—बाप ने सिर्फ प्रेम दिया हैवह कोमल हो जाता है। वह इतना कोमल हो जाता है कि संघर्ष में वह टिक नहीं पातावह टूट जाता है। वह सब से प्रेम की आशा करता है। वह सब तरफ हाथ फैलाए रहता है कि मुझे प्रेम करो। और उसे एक बात भूल ही गई है कि संसार प्रेम देगालेकिन तुम्हें उसका प्रेम अर्जित करना पड़ेगा। तुम्हें कुछ करना पड़ेगा अपने जीवन में। तुम्हें कमाना पड़ेगा प्रेम। मुफ्त नहीं मिलेगा।
मां —बाप का प्रेम मुफ्त मिल सकता है। इस जगत में फिर प्रेम मुफ्त नहीं मिलेगा। पत्नी का प्रेम भी मुफ्त नहीं मिलेगाउसको भी अर्जित करना होगा। तो फिर बच्चा मां—बाप की तलाश कर रहा है। तो वह हो सकता है ईश्वरवादी हो जाए। और बैठा मंदिर में हाथ जोड़े ऊपर आकाश में कहे कि हे पिता! हे परम पिता!! मगर जीवन उसका बांझ होगा। क्योंकि जीवन में संघर्ष से जो प्रौढ़ता आती हैजो शक्ति आती हैवह उसके पास नहीं होगी।
इसलिए अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मां और बाप के होने की कला यह है कि भय और प्रेम के बीच एक संतुलन हो। इतना भय कि बच्चा बगावती न हो जाए और इतना प्रेम की बच्चा मुफ्त प्रेम को मांगने का आदी न हो जाए। यह बड़ी जटिल है बात। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई रस्सी पर—दो पहाड़ों के बीच बंधी हुई रस्सी पर—कोई नट चलता होतो उसे पूरे वक्त बैलेंससंतुलन सम्हालना पड़ता है। जरा ही बाएं झुकता हैतो दाएं झुक जाता हैताकि बाएं न गिर जाए। और जैसे ही दाएं झुकता है कि दाएं गिरने की हालत आ जाती हैतो बाएं झुक जाता है। दाएं गिरने का डर पैदा होता हैतो बाएं झुकता है।
जरा ही भय से डर पैदा होता है तो प्रेमजरा ही प्रेम से भय पैदा होता है तो डर। दोनों के बीच जो रस्सी की तरहरस्सी पर चलने वाले नट की तरह अपने को सम्हाल लेवही कुशल पिता और कुशल मां हो सकते हैं।
परमात्मा के संबंध में भी दो ही दृष्टियां हैं।
ईसाइयत मानती है कि परमात्मा प्रेम है। और जीसस और यहूदी— धर्म का विरोध यही थाक्योंकि यहूदी— धर्म मानता है—परमात्मा भयावह है.। यहूदी शास्त्र यम के इस वचन से राजी हो जाएंगे कि वह उठे हुए वज की भांति भयस्वरूप है। वह पूरे समय अपने हाथ में शस्त्र लिए हुए है। जरा—सी बातऔर वह नष्ट कर देगा। जरा—सी नाराजगी,और आग बरसा देगा। जरा—सा क्रोधऔर प्रलय हो जाएगा। यहूदी—धर्म भय के ऊपर आधारित है। वह कहता है,परमात्मा जो है वह भयंकर है। विराट ऊर्जा है वहां। और वह विराट ऊर्जा प्रेमपूर्ण नहीं है।
इसे थोड़ा हम समझें। वह विराट ऊर्जा प्रेमपूर्ण नहीं हैवह विराट ऊर्जा तो जो उसके अनुकूल चलता हैबस उसी के लिए कृपापूर्ण है। जो उसके विपरीत चलता हैउसे नष्ट कर देती है।
यह बात कविता में बहुत अच्छी नहीं मालूम पड़तीलेकिन विशान इससे राजी है कि जगत का कोई भी नियम प्रेमपूर्ण नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आपका दुश्मन है।
जमींन में कशिश हैग्रेविटेशन है। अगर आप जरा ही इरछे —तिरछे चलेतो गिरेंगे। हाथ—पैर की हड्डी टूट जाएगी। जमीन की कशिश आपको माफ नहीं करेगीकि तुम कहते थेहे पृथ्वी माता! कि तुमने कई दफा सिर झुकाकर पृथ्वी के चरण छुए थे! अगर आप तिरछे चलेतो हड्डी टूटेगी। उस वक्त पृथ्वी माता कुछ भी दया नहीं करेगी। नियम के विपरीत आप गए कि आप नुकसान उठाएंगे। लेकिन आप सम्हलकर चलते रहेंतो पृथ्वी आपकी हड्डी तोड़ने को जरा भी उत्सुक नहीं है।
विज्ञान भी कहता है कि जगत के नियम प्रेमपूर्ण नहीं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वे आपके दुश्मन हैं। इसका कुल इतना मतलब है कि वे तटस्थ हैं। और आप अगर अनुकूल चलते हैंतो आप सुख को उपलब्ध होंगे। अगर प्रतिकूल चलते हैंतो दुख को उपलब्ध होंगे।
पुराने धर्मों की भाषा मेंयहूदी और उस तरह केजिन्होंने भयस्वरूप माना है परमेश्वर कोउनका भी कहना यही है कि वह आपका दुश्मन नहीं है। लेकिन वह शाश्वत नियम है। अगर आप उसके अनुकूल चलते हैंतो परम मोक्ष तक पहुंच जाएंगे। और अगर प्रतिकूल चलते हैंतो महानर्क में पड़ जाएंगे।
यम भी नचिकेता को उसके भयस्वरूप का वर्णन कर रहा है। कारण भी है कि यम भयस्वरूप का वर्णन करे। क्योंकि यम स्वयं भय की ही प्रक्रिया है। यम का अर्थ हैमौत का देवता। मौत का देवता प्रेम की बात भी कैसे करे?मौत का देवता भय की ही बात करेगा।
और यम की यह बात आधी सच है कि परमात्मा से सिर्फ जो प्रेम की ही आशा रखेंगेवे नष्ट हो जाएंगे। क्योंकि वै अपने को बदलने की कोई भी कोशिश न करेंगे। जो परमात्मा से भयभीत भी होंगे और जो समझेंगे कि अगर मैं अनुकूल नहीं हूं तो मेरी स्तुतियां काम आने वाली नहीं हैंमेरी खुशामद से परमात्मा नहीं बदला जा सकताकेवल मेरे आचरण से...। वह भी मैं परमात्मा को नहीं बदलता हूं अपने को बदलता हूं—'जब मेरा आचरण ठीक होता है और मैं परमात्मा की धारा में बहता हूं।
जब कोई आदमी नदी की धारा में बहता है तो नदी उसे ले चलती है सागर की तरफ। और जब कोई आदमी नदी के विपरीत लड़ता है तो नदी भयावह हो जाती है। परमात्मा भयावह हैअगर हम विपरीत हैं। परमात्मा प्रेमपूर्ण है,अगर हम अनुकूल हैं। अगर हम नदी की धारा में बह रहे हैंतो परमात्मा हमें ले चलेगा। फिर हमें तैरने की भी जरूरत नहीं हैहमें हाथ भी हिलाने की जरूरत नहीं हैनदी खुद ले चलेगी। 
रामकृष्ण कहते थेतुम सिर्फ उसकी हवा का रुख पहचान लोफिर तुम अपनी नाव का पाल खोल दो। फिर तुम्हें पतवार भी न चलानी पड़ेगीफिर नावउसकी हवाएं ले चलेंगी गंतव्य की ओर। लेकिन तुम उसकी हवा का रुख पहचान लो। और अगर तुम हवा के विपरीत चलेतो तुम्हें बड़ी मेहनत करनी पड़ेगीऔर मेहनत करके भी तुम सफल न हो पाओगेसिर्फ टूटोगे। क्योंकि विराट से लड़कर कोई भी सफल नहीं हो सकता।
भयावह का अर्थ इतना ही है कि विराट से तुम लड़ना मतविराट के प्रति समर्पित हो जाना।
इस उठे हुए वज्र के समान महान भयस्वरूप सर्वशक्तिमान परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं। जन्म—मरण से छूट जाते हैं!
क्योंकि वस्तुत: अगर हम ठीक से समझेंतो मृत्यु भी हमारे गलत चलने का परिणाम है। हम अपने को शरीर से बाधतेहैंइसलिए मृत्यु घटित होती है। अगर हम शरीर से अपने को न बाधेंमृत्यु घटित न होगी। शरीर की ही मृत्यु होती हैहमारी तो मृत्यु नहीं होतीलेकिन हम शरीर से बांध लेते हैं। जैसे कोई कागज की नाव पर सवार हो जाएफिर नाव डूब जाए तो गलती नाव की नहीं हैगलती सागर की भी नहीं है। आप कागज की नाव पर सवार थे,डूबना तो निश्चित ही था। जितनी देर चल गईवही काफी है। वह भी चमत्कार है!
शरीर के साथ जिसने अपने को बांधा हैउसने मरने की तो तैयारी कर ही लीक्योंकि शरीर मरणधर्मा है। जो व्यक्ति भी मरणधर्मा के साथ चलेगावह अमृत के विपरीत चल रहा है। वह मरेगाबार—बार मरेगा। जो व्यक्ति अमृत के अनुकूल चलेगामरणधर्मा से नहीं बांधेगा अपने कोयम कह रहा हैवह समस्त भयों से मुक्त हो जाता हैवह मृत्यु से मुका हो जाता हैजन्म—मरण से छूट जाता है।
वे अमर हो जाते हैंजो परमात्मा के भयस्वरूप को स्मरण करते हैं और उसके अनुकूल अपने जीवन को अनुशासन से भर लेते हैं।
इसी के भय से अग्नि तपती है इसी के भय से सूर्य तपता है इसी के भय से इंद्र वायु और पांचवें मृत्यु देवता अपने—अपने काम में प्रवृत्त हो रहे हैं
यदि शरीर का पतन होने से पहले इस मनुष्य शरीर में ही साधक परमात्मा को साक्षात कर सका तब तो ठीक है नहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है।
मनुष्य की अवस्था मेंमनुष्य की योनि मेंएक विशेषता है। मनुष्य से नीचे भी योनियां हैं। पशु हैंपक्षी हैं,वृक्ष हैंपदार्थों का फैलाव है। मनुष्य से ऊपर की भी योनियां हैं—देवता हैंस्वर्गों के निवासी हैं। मनुष्य से पीछे और मनुष्य से आगेदोनों तरफ योनियां हैं। मनुष्य ठीक मध्य की योनि है। लेकिन मध्य की योनि होने के कारण एक विशेषता हैऔर वह यह कि मनुष्य एक चौराहा है। वहां से नीचे की तरफ भी रास्ता जाता हैवहां से ऊपर की तरफ भी रास्ता जाता है। और वहा से ऊपेर—नीचेदोनों से मुका होने की तरफ भी रास्ता जाता है। इसे हम थोड़ा समझें।
नीचे की योनियां बिलकुल ही दुख में डूबी हैं। नर्क है समझें कि मनुष्य के नीचे का जगत। वहां दुख ही दुख है। वहा दुख इतना ज्यादा है कि दुख से मुक्त होने की आशा भी नहीं बंधती। दुख से मुक्त होने की आशा तभी बंधती है,जब थोड़ी—बहुत सुख की रेखा हो।
मनोवैज्ञानिकजो क्रातियों का गहन अध्ययन करते हैंउनका कहना है कि क्राति तब तक नहीं होती जब तक दुख बहुत ज्यादा हो। यह बडी उलटी बात लगेगी। राजनीति के विद्यार्थी समझते हैं कि जब दुख बहुत ज्यादा होता है समाज मेंतो क्रांति हो जाती है। यह बात गलत है। दुख बहुत ज्यादा होता है तो क्राति होती नहींक्योंकि दुख के लोग इतने आदी हो जाते हैं। सुख की कोई आशा ही न होतो क्रांति किसलिए करनी?
राजनीतिक विचारक कहते हैं कि गरीबक्राति करता हैजो कि गलत है। गरीब क्राति नहीं कर सकता। क्रांतिकारी सभी मर्ध्यावेत्तीय घरों में पैदा होते हैं। चाहे लेनिनचाहे मार्क्ससब मध्यवर्गीय परिवारों में पैदा होते हैं।
न तो अमीर घर में पैदा होते हैं क्रांतिकारीऔर न गरीब घर में पैदा होते हैं। मध्यवर्गीयबीच मेंजिनको दुख का भी अनुभव है और जिन्हें सुख की भी आशा है। जो महल में भी नहीं पहुंच गए हैं और झोपड़े में भी नहीं हैंजो बीच के मकान में हैं। कोशिश की जाए तो वह महल बन सकता है। और अगर कोशिश न की जाए तो जल्दी ही झोपड़ा हो जाएगा। जो बीच में अटके हैंजिनको दुख की भी प्रतीति है और सुख का स्वप्न भी जिनके साथ हैवे लोग क्रांति पैदा करतें हैं।
मनुष्य के पीछे दुख का जगत है। इसलिए कोई पशु मोक्ष पाने की कोशिश नहीं करता। दुखमूर्च्छा इतनी सघन है कि कोई आशा भी नहीं है। आशा न हो तो आप कोशिश भी नहीं करते।
हिंदुस्तान में पांच हजार साल का इतिहास हैशूद्रों ने कोई बगावत नहीं की। कोई आशा ही नहीं थीबगावत का कोई कारण नहीं था। अंग्रेजों ने आशा बंधाई। अंग्रेजों के आने के बाद शूद्रों को आशा बंधनी शुरू हुई। राज्य हिंदुओं का नहीं हैबगावत हो सकती है। आशा बंधनी शुरू हुईशूद्र भी शिक्षित हो सकता है—हिंदुओं की व्यवस्था हौती तो शूद्र शिक्षित ही नहीं हो सकता था—शूद्र भी शिक्षित होकर नौकरी कर सकता है। वे मध्यवर्गीय होने लगेकुछ लोग शूद्रों में मध्यवर्गीय होने लगे। उन मध्यवर्गीय शूद्रों के मन में स्वभावत: क्राति उठनी शुरू हो गई।
हिंदुस्तान मेंआप जानकर हैरान होंगे कि जिन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ीवे सब वे ही लोग थे जो पश्चिम से शिक्षा लेकर लौटे। यह बड़े मजे की बात है कि पश्चिम से शिक्षा लेकर लौटे हुए लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी—चाहे वे गांधी होंचाहे नेहरूचाहे अरविंद। पश्चिम ने गुलामी दी थीपश्चिम ने ही आजादी भी दी। क्या कारण होगाजो भारत में ही रह रहा थाउसको कोई आशा नहीं थी।
सुभाष ने अपने संस्मरणों में कहीं कहा हैकि यूरोप जब मैं शिक्षित होने गयापढ़ने गयाऔर जब मैंने देखा कि अंग्रेज मेरे जूते पर पालिश करता हैतब मुझे लगा कि गुलाम होना अनिवार्य नहीं है। अंग्रेज भी जूते पर पालिश कर सकता है। तो अंग्रेजों की मालकियत कोई अनिवार्य तत्व नहीं है।
जो बच्चे हिंदुस्तान से बाहर पढ़ने गएउनको आशा बंधी। उस आशा का परिणाम था कि भारत आजादी की लड़ाई में लग गया। जो बच्चे भारत में ही पढ़ रहे थेउनको आशा भी नहीं बंध सकती थी। मनुष्य के पीछे जो योनियां हैंवे अत्यंत दुख की हैंदारुण दुख की हैं। वहा कोई आशा नहीं बंधती। वहां कोई क्राति नहीं हो सकती। मनुष्य के ऊपर की जो योनियां हैंबड़े सुख की हैंमहासुख की हैं। सुख से कोई क्राति कभी नहीं करता। क्योंकि जो सुख में है,वह क्रांति कैसे करेगाजिसके पास कुछ भी है खोने कोवह बदलाहट नहीं करना चाहता।
इसलिए क्रातिकारी को मारना होतो उसको कुछ दे दोकोई पद दे दो। कितना ही कम्यूनिस्ट क्रातिकारी हो,उसको मिनिस्ट्री दे दोक्राति समाप्त हो गई। एक फियेट कार भी क्राति को नष्ट कर सकती है। कुछ खोने को भर पास हो जाएतो क्राति से खुद ही भय पैदा हो जाता है। जिसके पास सुख हैंवह बदलाहट नहीं चाहता। सुख हमेशा स्टेटस को चाहता है —स्थिति वैसी ही बनी रहे। सुखी व्यक्ति कोइ रूपांतरण नहीं चाहता।
इसलिए स्वर्ग में कोई क्राति नहीं होती। स्वर्ग में अब तक कोई एक बुद्ध पैदा नहीं हुआन कोई एक महावीर,न कोई एक क्या। स्वर्ग में लंपट देवता हैं। इंद्र हैंजिनकी विवेक की दृष्टि से कोई कीमत नहीं हैऔर धंधा अप्सराओं को नचाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। खुद तो किसी साधना मेंस्वर्ग के देवताओं की कोई कथा नहीं हैबल्कि अगर कोई और साधना कर रहा हो तो उसको हिलाने—डुलाने में उनका बड़ा रस है। तो कोई ऋषि—मुनिकोई बेचारा अपने झोपड़े मेंअपने पहाड़ परअपने वृक्ष के नीचेबैठकर कुछ साध रहा होतो जरूर इन देवताओं को उसको सताने में रस आता है कि भेज दो उर्वशी को कि ऋषि—मुनि को परेशान करे।
स्वर्ग से कभी कोई मुक्त नहीं हुआ है। हो नहीं सकता। सुख से कोई मुक्त होना ही क्यों चाहेगाइसलिए सुख की अतिशयता भी अभिशाप है। दुख की अतिशयता तो अभिशाप है हीसुख का अतिशय होना भी अभिशाप है।
मनुष्य मध्यवर्गीय योनि है। न तो वह नर्क में हैऔर न स्वर्ग में। वह त्रिशंकु की तरहवह बीच में है। वह जरा ही भूल—चूक करे तो नर्क में गिर सकता हैऔर जरा ही होशियारी करे तो स्वर्ग में प्रवेश कर सकता है। वह दोनों के मध्य में है।
मनुष्य योनि रूपांतरण कीट्रांसफामेंशन की अवस्था है। और अगर समझ जाए ठीक सेतो न नर्क में जाना चाहेगा और न स्वर्ग में। क्योंकि सुख भी बार—बार भोगने पर बासे हो जाते हैंऔर दुख जैसे हो जाते हैं। अगर आप स्वर्ग में जाएं तो वहा आप हर देवता को जम्हाई लेते हुए पाएंगे। ऊब गया होगा। सुंदर—सुंदर स्त्रियां चौबीस घंटे आपके पास मौजूद रहेंआप उनसे भी भागना चाहेंगे कि थोड़ी देर मुझे अकेला रहने दो।
सौंदर्य भी कुरूपता हो जाती है। मिष्ठान्न खाते—खाते जीभ तरसने लगती हैविपरीत के लिए। सुविधा में बैठे—बैठे मन असुविधा में जाने की आकांक्षा करने लगता है। स्वर्ग में जो बैठे हैंवे बुरी तरह ऊबे हुए हैं। बोरडम स्वर्ग का लक्षण है। वहां हर आदमी ऊबा हुआ है। ऊबा हुआ हैइसीलिए तो इतना मनोरंजन का उपाय कर रहा है। नाचगाना,शराब—वह चल रहा है।
मुसलमानों के स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं। बोतलों से काम वहा नहीं चल सकता। झरने! कि आप पीए ही मतडूबेतैरेंनहाएं! स्वर्ग में सिर्फ मनोरंजन के साधन हैं।
आप थोड़ा समझें। जमीन पर भी आज अमेरिका स्वर्ग होने के करीब पहुंच गया है। बड़ी ऊब है। सब सुलभ है और कोई रस नहीं है। मनोरंजन ही मनोरंजन चारों तरफ इकट्ठा हो गया है ) सुबह से रात तक आप मनोरंजन करते रहें। लेकिन रस बिलकुल नहीं है। और कितनी ही बड़ी बात घट जाएमिनटों में रस खत्म हो जाता है। चांद पर ण्हुंचने की कितनी पुरानी आकांक्षा है आदमी की! जब से आदमी जमीन पर हैतब से चांद का सपना है। छोटे बच्चे पैदा होते ही से हाथ बढ़ाने लगते हैं चांद पकड़ने के लिए। आदमी हजारों—हजारों वर्ष से चांद पर पहुंचने की आकांक्षा रखे है।
फिर पहला आदमी एक दिन चांद पर उतर भी गया और अमेरिका में पंद्रह मिनट में रस चला गया। पंद्रह मिनटदस मिनट तक लोगों ने टेलीविजन पर देखाफिर क्य—होने टेलीविजन अलग—बंद—दूसरा प्रोग्राम शुरू। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पंद्रह मिनट के बाद किसी का रस नहीं था कि चांद पर आदमी पहुंच गया। पंद्रह मिनट में इतनी बड़ी घटना व्यर्थ हो गई। बस हो गई बातखत्म हो गई। देख लिया कि आदमी चांद पर उतर गयाअब और क्या है! अब कुछ और। भयंकर ऊब है।
स्वर्ग में भी मनोरंजन के इतने साधन हैंभयंकर ऊब होगी। ऊब जहां होती हैवहां मनोरंजन के साधन जुटाने पड़ते हैं। जहा मनोरंजन के साधन जुटते जाते हैंवहां ऊब बढ़ती चली जाती है। बहुत कथाएं हैं स्वर्ग के देवताओं की कि वे तरसते हैं जमीन पर आकर किसी युवती को प्रेम करने कोकि वहां की उर्वशी तड़पती है कि पृथ्वी के किसी पुरुरवा को प्रेम करे। यहां थोड़ा रस हैक्योंकि यहां जीवन एकदम सुखद नहीं है। यहां जीवन संघर्ष है। यहां कठिनाई भी हैअसुविधा भी है।
जो मनुष्य इस बात को समझ लेता है कि दुख तो दुख है हीसुख भी अंततः दुख हो जाता हैऔर दुख से तो छुटकारा चाहिए हीअंततः सुख से भी आदमी छूटना चाहता है। जो इस सत्य को समझ लेता हैवह न तो स्वर्ग को चाहता है न नर्क कोवह मुक्त होना चाहता है। वह समस्त वासनाओं के पार जाना चाहता है।
तो मनुष्य के अस्तित्व से तीन मार्ग निकलते हैं। एक दुख काएक सुख का और एक मोक्ष कामुक्ति का। मुक्ति न तो सुख है न दुख। मुक्ति दोनों के पार है।
यदि शरीर का पतन होने के पहले इस मनुष्य शरीर में ही साधक परमात्मा को साक्षात न कर सका — कर सका तो ठीकन कर सका— तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश हो जाता है।
बहुत लंबी यात्रा के बाद कभी—कभी चेतना मनुष्य की स्थिति में खड़ी होती है। फिर लंबी यात्रा का चक्र शुरू हो जाता है।
जो व्यक्ति मनुष्य होने की अवस्था में मोक्ष की प्यास से नहीं भरतेउनका भविष्य अंधकारमय है। कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि कितनी उनकी लंबी यात्रा होगी। फिर दुबारा चौराहे तक पहुंचने में कितना समय लगेगाकहना कठिन है। चौराहे से चूक जाना बहुत आसान है। क्योंकि कोई लंबा समय नहीं है। चौराहे को फिर से पाना बड़ा कठिन हो सकता है।
करीब—करीब ऐसी हालत है कि मैंने सुना हैएक आदमी अपनी कार को भगाए जा रहा है। वह रोककर एक वृक्ष के नीचे बैठे आदमी से पूछता है कि दिल्ली कितनी दूर हैवह आदमी कहता हैइट डिपेंड्स—यह निर्भर करता है—कि दिल्ली कितनी दूर हैजिस तरफ तुम जा रहे होदिल्ली बहुत दूर है। क्योंकि दिल्ली पीछे छूट गई। अगर तुम लौटने को राजी हो जाओतो दिल्ली बहुत पास है। लेकिन तुम्हें दिशा बदलनी पड़ेगी।
आदमी तेजी से भागा जा रहा है मौत की तरफ। और जिस जगह से वह मुक्त हो सकता हैवह पीछे छूटी जा रही हैप्रतिपल। फिर दुबारा कब इस संयोग को उपलब्ध होगाकहने का कोई उपाय नहीं है। अगर रुक जाएठहर जाए और आगे की तरफ दौड़ने की फिक्र छोड़ दे और भीतर की तरफ चलना शुरू हो जाएदिशा मोड ले बाहर की तरफ से भीतर की तरफपदार्थ की तरफ से परमात्मा की तरफतो योनियों में भटकाव बंद हो जाता है। और मनुष्य अयोनि हो जाता हैमनुष्य मुक्त हो जाता है। फिर किसी और शरीर में उसका प्रवेश नहीं है।
नचिकेता से यम ने कहा—यही है वह परमात्माजिसके संबंध में तुमने पूछा था।
अब ध्यान के लिए तैयार हों।
ध्‍यान योग शिविर
माऊंट आबू, राजस्‍थान।

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