एस धम्‍मो सनंतनो--भाग-1 ओशो (01)----------

प्रवचन—1 आत्मक्रांति का प्रथम सूत्रअवैर


मनो मृब्बड्गमा धम्मा मनो मनोमया।
मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति वा,
ततो नं दुक्‍खमन्‍वेति चक्कंव बहतो पदं।।1।।

मनो पुब्‍बड्गमा धम्मा मनो मनोमया।
मनसा वे पसन्नेन भासति वा करोति बा,
ततो नं. मुनमन्‍वेति छायाव अनपायिनी ।।2।।

अक्कोचि मै अवधि मै अजिनि मं अहसि से।
ये च तं उपनय्हन्‍ति वेरं तेस क सम्मति ।।3।।

अक्कोचि मं अवधि मै अजिनि मं अहासि में।
ये तं न उपनय्हन्‍ति वेरं तेसूपसम्मति ।।4।।

नहि वेरेन वेरामि सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन व सम्मन्ति एस धम्मो सनंतनो।।5।।

परे च न विजानत्ति मयमेत्था यमामसे।
ये च तत्थ विजानन्ति ततो सम्मन्ति मेधगा।।6।।


      गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैंहिमाच्छादित पर्वत और भी हैंपर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है,उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम- भगवत्ता उपलब्ध की हैउतनी किसी और के माध्यम से नहीं।

गौतम बुद्ध की वाणी अनूठी है। और विशेषकर उन्हें जो सोच-विचारचिंतन-मननविमर्श के आदी हैं।
      हृदय से भरे हुए लोग सुगमता से परमात्मा की तरफ चले जाते हैं। लेकिन हृदय से भरे हुए लोग कहां हैं न और हृदय से भरने का कोई उपाय भी तो नहीं है। हो तो होन हो तो न हो। ऐसी आकस्मिकनैसर्गिक बात पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। बुद्ध ने उनको चेताया जिनको चेताना सर्वाधिक कठिन है-विचार से भरे लोगबुद्धिवादीचिंतन-मननशील।
      प्रेम और भाव से भरे लोग तो परमात्मा की तरफ सरलता से झुक जाते हैंउन्हें झुकाना नहीं पड़ता। उनसे कोई न भी कहेतो भी वे पहुंच जाते हैंउन्हें पहुंचाना नहीं पड़ता। लेकिन वे तो बहुत थोड़े हैं और उनकी संख्या रोज थोड़ी होती गयी है। उंगलियों पर गिने जा सकेंऐसे लोग हैं।
मनुष्य का विकास मस्तिष्क की तरफ हुआ है। मनुष्य मस्तिष्क से भरा है। इसलिए जहां जीसस हार जाएंजहां कृष्ण की पकड़ न बैठेवहां भी बुद्ध नहीं हारते हैंवहां भी बुद्ध प्राणों के अंतरतम में पहुंच जाते हैं।
      बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म कहा गया है। बुद्धि पर उसका आदि तो हैअंत नहीं। शुरुआत बुद्धि से है। प्रारंभ बुद्धि से है। क्योंकि मनुष्य वहा खड़ा है। लेकिन अंतअंत उसका बुद्धि में नहीं है। अंत तो परम अतिक्रमण हैजहां सब विचार खो जाते हैंसब बुद्धिमत्ता विसर्जित हो जाती हैजहां केवल साक्षीमात्र साक्षी शेष रह जाता है। लेकिन बुद्ध का प्रभाव उन लोगों में तत्‍क्षण अनुभव होता है जो सोच-विचार में कुशल हैं।
      बुद्ध के साथ मनुष्य-जाति का एक नया अध्याय शुरू हुआ। पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने वह कहा जो आज भी सार्थकमालूम पड़ेगाऔर जो आने वाली सदियों तक सार्थक रहेगा। बुद्ध ने विश्लेषण दियाएनालिसिस दी। और जैसा सूक्ष्म विश्लेषण उन्होंने कियाकभी किसी ने न किया थाऔर फिर दुबारा कोई न कर पाया। उन्होंने जीवन की समस्या के उत्तर शास्त्र से नहीं दिएविश्लेषण की प्रक्रिया से दिए।
      बुद्ध धर्म के पहले वैज्ञानिक हैं। उनके साथ श्रद्धा और आस्था की जरूरत नहीं है। उनके साथ तो समझ पर्याप्त है। अगर तुम समझने को राजी होतो तुम बुद्ध की नौका में सवार हो जाओगे। अगर श्रद्धा भी आएगीतो समझ की छाया होगी। लेकिन समझ के पहले श्रद्धा की मांग बुद्ध की नहीं है। बुद्ध यह नहीं कहते कि जो मैं कहता हूंभरोसा कर लो। बुद्ध कहते हैंसोचोविचारोंविश्लेषण करोखोजोपाओ अपने अनुभव सेतो भरोसा कर लेना।
      दुनिया के सारे धर्मों ने भरोसे को पहले रखा हैसिर्फ बुद्ध को छोड़कर। दुनिया के सारे धर्मों में श्रद्धा प्राथमिक हैफिर ही कदम उठेगा। बुद्ध ने कहाअनुभव प्राथमिक हैश्रद्धा आनुसांगिक है। अनुभव होगातो श्रद्धा होगी। अनुभव होगातो आस्था होगी।
      इसलिए बुद्ध कहते हैंआस्था की कोई जरूरत नहीं हैअनुभव के साथ अपने से आ जाएगीतुम्हें लानी नहीं है। और तुम्हारी लायी हुई आस्था का मूल्य भी क्या हो सकता हैतुम्हारी लायी आस्था के पीछे भी छिपे होंगे तुम्हारे संदेह।
तुम आरोपित भी कर लोगे विश्वास कोतो भी विश्वास के पीछे अविश्वास खड़ा होगा। तुम कितनी ही दृढता से भरोसा करना चाहोलेकिन तुम्हारी दृढ़ता कंपती रहेगी और तुम जानते रहोगे कि जो तुम्हारे अनुभव में नहीं उतरा हैउसे तुम चाहो भी तो भी कैसे मान सकते होमान भी लोतो भी कैसे मान सकते होतुम्हारा ईश्वर कोरा शब्दजाल होगा,जब तक अनुभव की किरण न उतरी हो। तुम्हारे मोक्ष की धारणा मात्र शाब्दिक होगीजब तक मुक्ति का थोड़ा स्वाद तुम्हें न लगा हो।
बुद्ध ने कहा : मुझ पर भरोसा मत करना। मैं जो कहता हूं उस पर इसलिए भरोसा मत करना कि मैं कहता हूं। सोचनाविचारनाजीना। तुम्हारे अनुभव की कसौटी पर सही हो जाएतो ही सही है। मेरे कहने से क्या सही होगा!
      बुद्ध के अंतिम वचन हैं : अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनना। और तुम्हारी रोशनी में तुम्हें जो दिखायी पड़ेगाफिर तुम करोगे भी क्या-आस्था न करोगे तो करोगे क्याआस्था सहज होगी। उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है।
      बुद्ध का धर्म विश्लेषण का धर्म है। लेकिन विश्लेषण से शुरू होता हैसमाप्त नहीं होता वहा। समाप्त तो परम संश्लेषण पर होता है।  बुद्ध का धर्म संदेह का धर्म हैं। लेकिन संदेह से यात्रा शुरू होती हैसमाप्त नहीं होती। समाप्त तो परम श्रद्धा पर होती है।
      इसलिए बुद्ध को समझने में बड़ी भूल हुई। क्योंकि बुद्ध संदेह की भाषा बोलते
हैं। तो लोगों ने समझायह संदेहवादी है। हिंदू तक न समझ पाएजो जमीन पर सबसे ज्यादा पुरानी कौम है। बुद्ध निश्चित ही बड़े अनूठे रहे होंगेतभी तो हिंदू तक समझने से चूक गए। हिंदुओं तक को यह आदमी खतरनाक लगा,घबड़ाने वाला लगा।
      हिंदुओं को भी लगा कि यह तो सारे आधार गिरा देगा धर्म के। और यही आदमी हैजिसने धर्म के आधार पहली दफा ढंग से रखे।
      श्रद्धा पर भी कोई आधार रखा जा सकता है! अनुभव पर ही आधार रखा जा सकता है। अनुभव की छाया की तरह श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा अनुभव की सुगंध है। और अनुभव के बिना श्रद्धा अंधी है। और जिस श्रद्धा के पास आख न होंउससे तुम सत्य तक पहुंच पाओगे?
      बुद्ध ने बड़ा दुस्साहस किया। बुद्ध जैसे व्यक्ति पर भरोसा करना एकदम सुगम होता है। उसके उठने-बैठने में प्रामाणिकता होती है। उसके शब्द-शब्द में वजन होता है। उसके होने का पूरा ढंग स्वयंसिद्ध होता है। उस पर श्रद्धा आसान हो जाती है। लेकिन बुद्ध ने कहातुम मुझे अपनी बैसाखी मत बनाना। तुम अगर लंगड़े होऔर मेरी बैसाखी के सहारे चल लिए-कितनी दूर चलोगेमंजिल तक न पहुंच पाओगे। आज मैं साथ हूं कल मैं साथ न रहूंगाफिर तुम्हें अपने ही पैरों पर चलना है। मेरी रोशनी से मत चलनाक्योंकि थोड़ी देर को संग-साथ हो गया है अंधेरे जंगल में। तुम मेरी रोशनी में थोड़ी देर रोशन हो लोगेफिर हमारे रास्ते अलग हो जाएंगे। मेरी रोशनी मेरे साथ होगीतुम्हारा अंधेरा तुम्हारे साथ होगा। अपनी रोशनी पैदा करो। अप्प दीपो भव!
      यह बुद्ध का धम्मपदकैसे वह रोशनी पैदा हो सकती है अनुभव कीउसका विश्लेषण है। श्रद्धा की कोई मांग नहीं है। श्रद्धा की कोई आवश्यकता भी नहीं है। इसलिए बुद्ध को लोगों ने नास्तिक कहा। क्योंकि बुद्ध ने यह भी नहीं कहा कि तुम परमात्मा पर श्रद्धा करो।
      तुम कैसे करोगे श्रद्धातुम्हें पता होता तो तुम श्रद्धा करते ही। तुम्हें पता नहीं है। इस अज्ञान में तुम कैसे श्रद्धा करोगेऔर अज्ञान में तुम जो श्रद्धा बांध भी लोगेवह तुम्हारी अज्ञान की ईंटों से बना हुआ भवन होगाउसे तुम परमात्मा का मंदिर कैसे कहोगेवह तुमने भय में बना लिया होगा। मौत डराती होगीइसलिए सहारा पकड़ लिया होगा। यहां जिंदगी हाथ से जाती मालूम होती होगीइसलिए स्वर्ग की कल्पनाएं कर ली होंगी। लेकिन इन कल्पनाओं सेभय पर खड़ी हुई इन धारणाओं सेकहीं कोई मुका हुआ है! इससे ही तो आदमी पंगु है। इससे ही तो आदमी पक्षाघात में दबा है। इसलिए बुद्ध ने ईश्वर की बात नहीं की।
      एच जी वेल्स ने बुद्ध के संबंध में कहा है कि पृथ्वी पर इस जैसा ईश्वरीय व्यक्ति और इस जैसा ईश्वर-विरोधी व्यक्ति एक साथ पाना कठिन है-सो गॉड लाइक एंड सो गॉडलेस! अगर तुम ईश्वरीय प्रतिभाओं को खोजने निकलो तो तुम बुद्ध से ज्यादा ईश्वरीय प्रतिभा कहां पाओगेसो गॉडलेस! और फिर भी इतना ईश्वर-शुन्य! ईश्वर की बात ही नहीं की। इस शब्द को ही गंदा माना। इस शब्द का उच्चार नहीं किया। इससे यह मत समझ लेना कि ईश्वर-विरोधी थे बुद्ध। उच्चार नहीं कियाक्योंकि उस परम शब्द का उच्चार किया नहीं जा सकता।
      उपनिषद कहते हैंईश्वर के संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना तो कह ही देते हैं। बुद्ध ने इतना भी न कहा। वे परम उपनिषद हैं। उनके पार उपनिषद नहीं जाता। जहां उपनिषद समाप्त होते हैंवहां बुद्ध शुरू होते हैं। आखिर इतना तो कह ही दियारोक न सके अपने कोकि ईश्वर निर्गुण है। तो निर्गुण उसका गुण बना दिया। कहा कि ईश्वर निराकार हैतो निराकार उसका आकार हो गया। लेकिन बिना कहे न रह सके। उपनिषद के ऋषि भी बोल गए! मौन में ही सम्हालना था उस संपदा कोबोलकर गंवा दी। बंधी मुट्ठी लाख की थीखुली दो कौड़ी की हो गयी। वह बात ऐसी थी कि कहनी नहीं थी। क्योंकि तुम जो कुछ भी कहोगेवह गलत होगा। यह कहना भी कि परमात्मा निराकार हैगलत हैक्योंकि निराकार भी एक धारणा है। वह भी आकार से ही जुड़ी है। आकार के विपरीत होगीतो भी आकार से संबंधित है।
      निराकार का क्या अर्थ होता हैजब भी अर्थ खोजने जाओगेआकार का उपयोग करना पड़ेगा। निर्गुण का क्या अर्थ :होता हैजब भी कोई परिभाषा पूछेगागुण को परिभाषा में लाना पड़ेगा। ऐसी निर्गुणता भी बड़ी नपुंसक है,जिसकी परिभाषा में गुण लाना पड़ता है! और ऐसे निराकार में क्या निराकार होगाजिसको समझाने के लिए आकार लाना पड़ता है!
बुद्ध 'से ज्यादा कोई भी नहीं बोलाऔर बुद्ध से ज्यादा चुप भी कोई नहीं है। कितना बुद्ध 'बोले हैं! अन्वेषक खोज करते हैं तो वे कहते हैँएक आदमी इतना बोलायह संभव कैसे है! उन्हें डर लगता है कि इसमें बहुत कुछ प्रक्षिप्त है,दूसरों ने डाल दिया है। कुछ भी प्रक्षिप्त नहीं है। जितना बुद्ध बोलेपूरा संगृहीत ही नहीं हुआ है। खूब बोले। और फिर भी उनसे ज्यादा चुप -कोई भी नहीं है। क्योंकि जहाँ-जहां नहीं बोलना थावहां नहीं बोले। ईश्वर के संबंध में एक शब्द न कहा। इस खतरे को भी मोल लिया कि लोग नास्तिक समझेंगे। और आज तक लोग नास्तिक समझे जा रहे हैं। और इससे बड़ा कोई आस्तिक कभी हुआ नहीं।
      बुद्ध महा आस्तिक हैं। अगर परमात्मा के संबंध में कुछ कहना संभव नहीं हैतो फिर बुद्ध ने ही कुछ कहा-चुप रह करइशारा किया।
      पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक विटगेंस्टीन ने अपनी बड़ी अनूठी किताब ट्रैक्टेटस में लिखा है कि जिस संबंध में कुछ कहा न जा सकेउस संबंध में बिलकुल चुप रह जाना उचित है। दैट व्हिच कैन नॉट बी सेडमस्ट नॉट बी सेड। जो नहीं कहा जा सकताकहना ही मतकहना ही नहीं चाहिए।
      अगर विट्गिस्टीन बुद्ध को देखता तो समझता। अगर विट्गिस्टीन के वचन को बुद्ध ने समझा होता तो वे मुस्कुराते और उन्होंने स्वीकृति दी होती। विट्गिस्टीन को भी पश्चिम में लोग नास्तिक समझे। नास्तिक नहीं है। पर जो कही नहीं जा सकती बातअच्छा है न ही कही जाए। कहने से बिगड़ जाती है। कहने से गलत हो जाती है।
      लाओत्से तककहता तो है प्रथम वचन में अपने ताओ -तेह-किंग में कि सत्य कहा नहीं जा सकताऔर जो भी कहा जाए वह असत्य हो जाता हैलेकिन फिर भी सत्य के संबंध में बहुत सी बातें कही हैं। बुद्ध ने नहीं कहीं। तुम कहोगेफिर बुद्ध कहते क्या रहेबुद्ध ने स्वास्थ्य के संबंध में एक शब्द भी नहीं कहाकेवल बीमारी का विश्लेषण किया और निदान कियाऔषधि की व्यवस्था की। बुद्ध ने कहामैं एक वैद्य हूंमैं कोई दार्शनिक नहीं हूं। मैं तुम्हारी बीमारी का विश्लेषण करूंगानिदान करूंगाऔषधि सुझा दूंगाऔर जब तुम ठीक हो जाओगेतभी तुम जानोगे कि स्वास्थ्य क्या है। मैं उस संबंध में कुछ भी न कहूंगा।
      स्वास्थ्य जाना जाता हैकहा नहीं जा सकता। बीमारी मिटायी जा सकती हैबीमारी समझायी जा सकती है,बीमारी बनायी जा सकती हैबीमारी का इलाज हो सकता है-सही हो सकता हैगलत हो सकता है-बीमारी के साथ बहुत कुछ हो सकता है। स्वास्थ्यजब बीमारी नहीं होती तब जो शेष रह जाता हैवही। उस तरफ केवल इशारे हो सकते हैं,मौन। इंगित हो सकते हैं-वे भी प्रत्यक्ष नहींबड़े परोक्ष।
      बुद्ध के धर्म को शून्यवादी कहा गया है। शून्यवादी उनका धर्म है। लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि शून्य पर उनकी बात पूरी हो जाती है। नहींबस शुरू होती है।
      बुद्ध एक ऐसे उतुंग शिखर हैंजिसका आखिरी शिखर हमें दिखायी नहीं पड़ता। बस थोड़ी दूर तक हमारी आंखें जाती हैंहमारी आंखों की सीमा है। थोड़ी दूर तक हमारी गर्दन उठती हैहमारी गर्दन के झुकने की सामर्थ्य है। और बुद्ध खोते चले जाते हैं-दूर.. हिमाच्छादित शिखर हैं। बादलों के पार! उनका प्रारंभ तो दिखायी पड़ता हैउनका अंत दिखायी नहीं पड़ता। यही उनकी महिमा है। और प्रारंभ को जिन्होंने अंत समझ लियावे भूल में पड़ गए। प्रारंभ से शुरू करनालेकिन जैसे-जैसे तुम शिखर पर उठने लगोगेऔर आगेऔर आगे दिखायी पड़ने लगाऔर आगे दिखायी पड़ने लगेगा।
      बहुत लोग बोले हैं। बहुत लोगों ने मनुष्य के रोग का विश्लेषण किया हैलेकिन ऐसा सचोट नहीं। बड़े सुंदर ढंग से लोगों ने बातें कही हैंबड़े गहरे प्रतीक उपाय में लाए हैं। पर बुद्धबुद्ध के कहने का ढंग ही और है। अंदाजे-बया और! जिसने एक बार सुनापकड़ा गया। जिसने एक बार आख से आख मिला लीफिर भटक न पाया। जिसको बुद्ध की थोड़ी सी भी झलक मिल गयीउसका जीवनरूपांतरित हुआ।
      आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्वजिस दिन बुद्ध का जन्म हुआघर में उत्सव मनाया जाता था। सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ थापूरी राजधानी सजी थी। रातभर लोगों ने दीए जलाएनाचे। उत्सव का क्षण था! बूढ़े सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ था। बड़े दिन की प्रतीक्षा पूरी हुई थी। बड़ी पुरानी अभिलाषा थी पूरे राज्य की। मालिक बूढ़ा होता जाता था और नए मालिक की कोई खबर न थी। इसलिए बुद्ध को सिद्धार्थ नाम दिया। सिद्धार्थ का अर्थ होता हैअभिलाषा का पूरा हो जाना।
      पहले ही दिनजब द्वार पर बैंड-बाजे बजते थेशहनाई बजती थीफूल बरसाए थे महल मेंचारों तरफ प्रसाद बंटता थाहिमालय से भागा हुआ एक वृद्ध तपस्वी द्वार पर खड़ा हुआ आकर। उसका नाम था असिता। सम्राट भी उसे सम्मान करता था। और कभी असिता राजधानी नहीं आया था। जब कभी जाना था तो शुद्धोदन कोसम्राट को,स्वयं उसके दर्शन करने जाना होता था। ऐसे बचपन के साथी थे। फिर शुद्धोदन सम्राट हो गयाबाजार की दुनिया में उलझ गया। असिता महातपस्वी हो गया। उसकी ख्याति दूर-दिगंत तक फैल गयी। असिता को द्वार पर आए देखकर शुद्धोदन ने कहाआपऔर यहां! क्या हुआकैसे आना हुआकोई मुसीबत हैकोई अड़चन हैकहे। असिता ने कहानहींकोई मुसीबत नहींकोई अड़चन नहीं। तुम्हारे घर बेटा पैदा हुआउसके दर्शन को आया हूं।
      शुद्धोदन तो समझ न पाया। सौभाग्य की घड़ी थी यह कि असिता जैसा तपस्वी और बेटे के दर्शन को आया। भागा गया अंतगृह में। नवजात शिशु को लेकर बाहर आ गया। असिता झुकाऔर उसने शिशु के चरणों में सिर रख दिया। और कहते हैंशिशु ने अपने पैर उसकी जटाओं में उलझा दिए। फिर तब से आदमी की जटाओं में बुद्ध के पैर उलझे हैं। फिर आदमी छुटकारा नहीं पा सका। और असिता हंसने लगाऔर रोने भी लगा। और शुद्धोदन ने पूछा कि इस शुभ घड़ी में आप रोते क्यों हैं?
      असिता ने कहायह तुम्हारे घर जो बेटा पैदा हुआ हैयह कोई साधारण आत्मा नहीं हैअसाधारण है। कई सदियां बीत जाती हैं। यह तुम्हारे लिए ही सिद्धार्थ नहीं हैयह अनंत-अनंत लोगों के लिए सिद्धार्थ है। अनेकों की अभिलाषाएं इससे पूरी होंगी। हंसता हूंकि इसके दर्शन मिल गए। हंसता हूं प्रसन्न हूंकि इसने मुझ के की जटाओं में अपने पैर उलझा दिए। यह सौभाग्य का क्षण है! रोता इसलिए हूं कि जब यह कली खिलेगीफूल बनेगीजब दिग-दिगंत में इसकी सुवास उठेगीऔर इसकी सुवास की छाया में करोड़ों लोग राहत लेंगेतब मैं न रहूंगा। यह मेरा शरीर छूटने के करीब आ गया।
      और एक बड़ी अनूठी बात असिता ने कही हैवह यह कि अब तक आवागमन से छूटने की आकांक्षा थीवह पूरी भी हो गयीआज पछतावा होता है। एक जन्म अगर और मिलता तो इस बुद्धपुरुष के चरणों में बैठने कीइसकी वाणी सुनने कीइसकी सुगंध को पीने कीइसके नशे में डूबने की सुविधा हो जाती। आज पछताता हूं लेकिन मैं मुक्त हो चुका हूं। यह मेरा आखिरी अवतरण हैअब इसके बाद देह न धर सकूंगा। अब तक सदा ही चेष्टा की थी कि कब छुटकारा हो इस शरीर सेकब आवागमन से आज पछताता हूं कि अगर थोड़ी देर और रुक गया होता.। इसे तुम थोड़ा समझो।
      बुद्ध के फूल के खिलने के समयअसिता चाहता हैकि अगर मोक्ष भी दांव पर लगता हो तो कोई हर्जा नहीं। तब से पच्चीस सौ साल बीत गए। बहुत प्रज्ञा-पुरुष हुए। लेकिन बुद्ध अतुलनीय हैं। और उनकी अतुलनीयता इसमें है कि उन्होंने इस सदी के लिए धर्म दियाऔर आने वाले भविष्य के लिए धर्म दिया। कृष्ण की बात कितनी ही समझाकर कही जाएइस सदी के लिए मौजूं नहीं बैठती। फासला बड़ा हो गया है। बड़ा अंतराल पड़ गया है। कृष्ण ने जिनसे कहा था उनके मनों मेंऔर जिनके मन आज उसे सुनेंगेबड़ा अंतर है। बुद्ध की कुछ बात ऐसी हैकि ऐसा लगता है अभी-अभी उन्होंने कही। बुद्ध की बात को समसामयिक बनाने की जरूरत नहीं हैवह समसामयिक हैवह कंटेम्प्रेरी है।       कृष्ण पर बोलोतो कृष्ण को खींचकर लाना पड़ता है बीसवीं सदी मेंबुद्ध को नहीं लाना पड़ता। बुद्ध जैसे खड़े ही हैंबीसवीं सदी में ही खड़े हैं। और ऐसा अनेक सदियों तक रहेगा। क्योंकि मनुष्य ने जो होने का ढंग अंगीकार कर लिया हैबुद्धि कावह अब ठहरने को हैवह अब जाने को नहीं है। और उसके साथ ही बुद्ध का मार्ग ठहरने को है।
      धम्मपद उनका विश्लेषण है। उन्होंने जो जीवन की समस्याओं की गहरी छानबीन की हैउसका विश्लेषण है। एक-एक शब्द को गौर से समझने की कोशिश करना। क्योंकि ये कोई सिद्धात नहीं हैं जिन पर तुम श्रद्धा कर लो। ये तो निष्पत्तियां हैंप्रयोग की। अगर तुम भी इनके साथ विचार करोगे तो ही इन्हें पकड़ पाओगे। यह आख बंद करके स्वीकार कर लेने का सवाल नहीं हैयह तो बड़े सोच-विचारमनन का सवाल है।
      साधारणत: आदमी की जिंदगी क्या हैकुछ सपने! कुछ टूटे-फूटे सपने! कुछ अभी भी साबितभविष्य की आशा में अटके! आदमी की जिंदगी क्या हैअतीत के खंडहरभविष्य की कल्पनाएं! आदमी का पूरा होना क्या हैचले जाते हैंउठते हैंबैठते हैंकाम करते हैं-कुछ पक्का पता नहींक्योंकुछ साफ जाहिर नहींकहा जा रहे हैंबहुत जल्दी में भी जा रहे हैं। बड़ी पहुंचने की तीव्र उत्कंठा हैलेकिन कुछ पक्का नहींकहां पहुंचना चाहते हैंकिस तरफ जाते हो?
      कल मैं एक गीत पढ़ता था साहिर का :
      न कोई जादा न कोई मंजिल न रोशनी का सुराग
      भटक रही है खलाओं में जिंदगी मेरी
      न कोई रास्तान कोई मंजिल,
      रोशनी का सुराग भी नहीं;
      कोई एक किरण भी नहीं।
      और पूरी जिंदगी अंधेरी घाटियों में,
      शून्य में भटक रही है।
      भटक रही है खलाओं में जिंदगी मेरी

      ऐसी ही मनुष्य की दशा है सदा से। बहुत सी झूठी मंजिलें भी तुम बना लेते हो। राहत के लिए कुछ तो चाहिए! सत्य बहुत कडुवा है। और अगर सत्य के साथ तुम खड़े हो जाओतो खड़े होना भी मुश्किल मालूम होगा।

      सिगमंड फ्रायड ने कहा है कि आदमी बिना झूठ के जी नहीं सकता। झूठ सहारा है। तो हम झूठी मंजिलें बना लेते हैं। असली मंजिल का तो कोई पता नहीं। बिना मंजिल के जीना असंभव। कैसे जीओगे बिना मंजिल केअगर यह पक्का ही हो जाए कि पता ही नहीं कहो जा रहे हैंतो पैर कैसे उठेंगेयात्रा कैसे होगीतो हम कल्‍पित मंजिल बना लेते हैंएक झूठी मंजिल बना लेते हैं। उससे राहत मिल जाती हैलगता है कहीं जा रहे हैं। कोई रास्ता नहीं है क्योंकि झूठी मंजिलों के कहीं कोई रास्ते होते हैं! जब मंजिल ही झूठी हैतो रास्ता कैसे हो सकता हैतो फिर हम रास्ता भी बना लेते हैं। रास्ता बना लेते हैंमंजिल बना लेते हैं-सब कल्पितसब मन के जालसब सपने! और ऐसे अपने को भर लेते हैं। और लगता है शून्य भर गयाजिंदगी बड़ी भरी-पूरी है।

      कोई कुछ दिन हुए चल बसा। एक मित्र ने आकर कहा कि आपको पता चलाफलां-फलां व्यक्ति चल बसेबड़ी भरी-पूरी जिंदगी थी! मैंने पूछारुको। चल बसेठीकउसमें तो कुछ किया नहीं जा सकता। लेकिन भरी-पूरी जिंदगी थी,यह तुमसे किसने कहाशायद उन्होंने सोचकर कहा भी नहीं था। थोड़े झिझकेकहामैं तो ऐसे ही कह रहा था। कहने की बात थी। पर मैंने कहाकहा तब तुम भी सोचते होओगे कि बड़ी भरी-पूरी जिंदगी थी। मैं उनको जानता हू। और अगर तुम मुझसे पूछो तो कुछ भी नहीं हुआक्योंकि वे मरे हुए ही थे। अब मरा हुआ मर जाए इसमें कौन सी बड़ी घटना हो गयी। जिंदा वे कभी थे नहीं। क्योंकि जिंदगी तो सत्य के साथ ही उपलब्ध होती हैऔर कोई जिंदगी नहीं है। लेकिन जो झूठ के साथ जी रहा हैवह भी सोचता हैजिंदगी भरी-पूरी है।

      कितने झूठ तुमने बना रखे हैं! लड़का बड़ा होगाशादी होगीबच्चे होंगेधन कमाएगायश पाएगाऔर तुम मर रहे हो! और तुम्हारे बाप भी ऐसे ही मरेकिं तुम बड़े होओगेकि शादी होगीकि धन कमाओगे। और तुम्हारा लड़का थी ऐसे ही मरेगा। जिंदगी बड़ी भरी-पूरी जा रही है!

      बाप बेटे के लिए मर जाता है। बेटा अपने बेटे के लिए मर जाता है। ऐसा एक-दूसरे पर मरते चले जाते हैं। कोई जीता नहीं। मरना इतना आसानजीना इतना कठिन!

      लोग सोचते हैंमौत बड़ी दुस्तर है। गलत सोचते हैं। मौत में क्या दुस्तरता है? क्षण में मर जाते हो। जिंदगी दुस्तर है। सत्तर साल जीना होता है। और बिना झूठ के तुम जीना नहीं जानते होतो तुम हजार तरह के झूठ खड़े कर लेते हो-यशपदप्रतिष्ठासफलताधन। जब इनसे चुक जाते हो तो धर्ममोक्षस्वर्गपरमात्माआत्माध्यान,समाधि। पर तुम कुछ न कुछ ताकि अपने को भरे रखो। और ध्यान रखनाबुद्ध का सारा जोर झूठ से खाली हो जाने पर है। सत्य से भरना थोड़े ही पड़ता है। झूठ से खाली हुए तो जो शेष रह जाता हैवही सत्य है। गयी बीमारीजो बचा वही स्वास्थ्य है।

      लेकिन कितने ही लोगों ने जगाने की कोशिश की हैतुम जागते नहीं। आदमी का झूठ को पैदा करने का अभ्यास इतना गहरा है कि वह बुद्ध के आसपास भी-बुद्ध भी मौजूद हों जगाने को तो उनके आसपास भी-अपनी नींद की सुविधा जुटा लेता है। बुद्ध जगाते हैंतुम उनके जगाने की चेष्टा को भी नशा बना लेते हो। तुम हर चीज में से शराब निकाल लेते हो। ऐसी कोई चीज नहीं है जिसमें से तुम शराब न निकाल लो। इसलिए तो बुद्ध आते हैंचले जाते हैंबुद्धपुरुष पैदा होते हैंविदा हो जाते हैंतुम अपनी जगह अडिग खड़े रहते होतुम अपने झूठ से हटते नहीं। शायदबुद्धपुरुषों ने जो कहा उसको भी तुम अपने झूठ में सम्मिलित कर लेते हो।

      क्या है तुम्हारे झूठ का राजअहंकार। अहंकार सरासर झूठ है। ऐसी कोई चीज कहीं है नहीं। तुम हो नहींसिर्फ एक भ्रांति होहै तो पूर्ण। सारा अस्तित्व इकट्ठा है। यह भ्रांति है कि तुम अलग हो।

      कल ही एक मित्र से मैंने कहा कि अब जागो। तो उन्होंने कहा कि कोशिश बहुत करता हूं मन निंदा से भी भर जाता है अपने प्रतिअपराधी भी मालूम होता हूंबेईमान भी मालूम पड़ता हूं-क्योंकि जो करना चाहिए मालूम हैसमझ में आता हैऔर नहीं कर रहा हूं। तो मैंने उनसे कहातुम एक ही कृपा करोयह करने का खयाल छोड़ दो। क्योंकि उसने पैदा कियावही श्वास ले रहा हैतुम करना भी उसी पर छोड़ दो। उन्होंने कहा कि जन्म उसने दियाइतना तक तो मैं मान सकता हूंलेकिन बाकी और काम वही कर रहा हैयह नहीं मान सकता। यह तो मैं मान ही नहीं सकता कि बेईमानी भी वही कर रहा है।

      अब यह थोड़ा सोचने जैसा है। हमें भी लगेगा कि बेचाराधार्मिक बात तो कह रहा है यह व्यक्तिकि बेईमानी कैसे परमात्मा पर छोड़ दूंलेकिन नहींसवाल यह नहीं है। अहंकार...! यह कोई परमात्मा को बचाने की चेष्टा नहीं है कि परमात्मा पर बेईमानी कैसे सौंप दूंयह भी अहंकार को बचाने की चेष्टा है। ध्यान रखना कि जब बेईमानी तुम करोगेतो ईमानदारी भी तुम ही करोगे। लेकिन जब जन्म भी तुम्हारा अपना नहीं है और मौत भी तुम्हारी अपनी नहीं हैतो दोनों के बीच में तुम्हारा अपना कुछ कैसे हो सकता हैजब दोनों छोर पराए हैंजब जन्म के पहले कोई और के हाथ में तुम होमौत के बाद किसी और के हाथ मेंतो यह बीच की थोड़ी सी जो घड़ियां हैंइनमें तुम अपने को सोच लेते हो अपने हाथ मेंवहीं भ्रांति हो जाती है। वही अहंकार तुम्हें जगने नहीं देता। वही अहंकार सोने की नयी तरकीबेंव्यवस्थाएं खोज लेता है।

      इसलिए बुद्धपुरुष आते हैं। उनके तीर ठीक तरकस से तुम्हारे हृदय की तरफ निकलते हैं। पर तुम बचा जाते हो।

      हजारों खिज़ पैदा कर चुकी है नस्ल आदम की
      आदमी ने कितने बुद्धपुरुष पैदा किए!
      हजारों खिज़-पैगंबरतीर्थंकर!
      हजारों खिज़ पैदा पर चुकी है
      नस्ल आदम की ये सब तस्लीम
      लेकिन आदमी अब तक भटकता है

      यह सब तस्लीमयह सब स्वीकार कि हजारों बुद्धपुरुष हुए हैं। पर इससे क्या फर्क पड़ता हैआदमी अब तक भटकता है। आदमी भटकना चाहता है। कहता तो आदमी यही है कि भटकना नहीं चाहता। कहते तो तुम मेरे पास यही होशात होना चाहते हैंसत्य होना चाहते हैंसरल होना चाहते हैं। लेकिन सच में तुम होना चाहते होया कि सरलता के नाम पर तुम नयी जटिलता खोज रहे होया सत्य के नाम पर तुमने नए झूठों की तलाश शुरू की हैया शाति के नाम पर अब तुमने एक नया रोग पालाअब तुम शाति के नाम पर अशात होने को उत्सुक हुए होसाधारण आदमी अशात होता है सिर्फशाति की तो कम से कम चिंता नहीं होती। अब तुम शाति के लिए भी चिंतित हुए। पुरानी अशांति तो बरकरारअब तुम और धन करोगे उसमेंगुणनफल करोगे। अब तुम कहोगे कि शाति भी चाहिए। अब एक नयी अशांति जुड़ीकि शाति नहीं है। झूठ तो तुम थेअब तुम कहते होसत्य खोजेंगे। अब तुम सत्य के नाम पर कुछ नए झूठ ईजाद करोगे-स्वर्ग केमोक्ष केनर्क केपरमात्मा केआकाश के।

      मंदिरों में जाओस्वर्गों के नक्शे टंगे हैं-पहला स्वर्गदूसरा स्वर्गपहला खंडदूसरा खंडतीसरा खंडसच खंड तकनक्शे टंगे हुए हैं। आदमी की मूढ़ता की कोई सीमा हैकोई अंत है! अपने घर का नक्शा भी तुमसे बनेगा नहीं। अपना भी नक्शा तुम बना न सकोगे कि तुम क्या होकहो होकौन होतुमने स्वर्ग के नक्शे बना लिए!

      एक दुकान पर एक शिकारी कुछ सामान खरीद रहा था। अफ्रीका जा रहा था शिकार करने। कहीं जंगल में भटक न जाएइसलिए उसने एक यंत्र खरीदा : दिशासूचक यंत्रकॅम्पास। और तो सब ठीक थाउसने खोलकर देखालेकिन कॅम्पास में पीछे एक आईना भी लगा था। यह उसकी समझ में न आया। क्योंकि यह कोई कॅम्पास है या किसी स्त्री का साज-श्रृंगार का सामानइसमें आईना किसलिए लगा हैयह दिशासूचक यंत्र हैइसमें आईने की क्या जरूरत?उसने दुकानदार से पूछा कि और सब तो ठीक हैलेकिन यह मेरी समझ में नहीं आया कि इसमें आईना क्यों लगा है?दुकानदार ने कहायह इसलिए कि जब तुम भटक जाओतो कॅम्पास तो बताएगा स्थानआईने में तुम देख लेना ताकि पता चल जाए-कौन भटक गया हैकहा भटक गए हो यह तो कॅम्पास से पता चल जाएगालेकिन कौन भटक गया है!

      अपना पता नहीं हैस्वर्ग के नक्शा बना दिए हैं! विवाद चल रहे हैं लोगों के-कितने नर्क होते हैंहिंदू कहते हैं,तीन। जैन कहते हैंसात। बुद्ध ने बड़ी मजाक की हैउन्होंने कहासात सौ। यह मजाक की हैक्योंकि बुद्ध को जरा भी उत्सुकता नहीं है इस तरह की मूढ़ताओं में। लेकिन मजाक भी -नहीं समझ पाते लोग। बुद्ध के मानने वाले हैं जो कहते हैं कि नहींसात सौ ही होते हैंइसीलिए कहे। मैं तुमसे कहता हूं सात हजार।

      आदमी सत्य से भी झूठ खोज लेता है। इसलिए आदमी भटकता है।

      बुद्ध बड़े शुद्ध खोजी हैं। उनकी खोज बड़ी निर्दोष। घर छोड़ा तो जितने गुरु उपलब्ध थेसबके पास गए। गुरु उनसे थक गएक्योंकि असली शिष्य आ जाए तभी पता चलता है कि गुरु-गुरु है या नहीं। झूठे शिष्य हों साथतो पता ही नहीं चलता।

      लोग मुझसे पूछते हैं आकरकि असली गुरु का कैसे पता चलेमैं उनको कहता हूं तुम फिक्र न करो। अगर तुम असली शिष्य होपता चल जाएगा। नकली गुरु तुमसे बचेगाभागेगाकि यह चला आ रहा है असली शिष्ययह झंझट खड़ी करेगा। तुम गुरु की फिक्र ही छोड़ दो। असली शिष्य अगर तुम होतो नकली गुरु तुम्हारे पास टिकेगा ही नहीं। तुम टिके रहनावही भाग जाएगा।

      जिब्रान की कहानी है कि एक आदमी गांव-गाव कहता फिरता था कि मुझे स्वर्ग का पता हैजिनको आना हो मेरे साथ आ जाओ। कोई आता नहीं थाक्योंकि लोगों को हजार दूसरे काम हैंकोई स्वर्ग जाने की इतनी जल्दी वैसे भी किसी को नहीं है। लोग स्वर्गीय तो मजबूरी में होते हैं। जब हाथ-पैर ही नहीं चलते और लोग मरघट पर पहुंचा आते हैंतब स्वर्गीय होते हैं। कोई स्वर्गीय होने को राजी नहीं था। लोग कहतेआपकी बात सुनते हैंजंचती हैजब जरूरत होगी तब उपयोग करेंगेमगर अभी कृपा करेंअभी…अभी हमें जाना नहीं।

      एक गांव में ऐसा हुआ.. उस आदमी का खूब धंधा चलता था। क्योंकि जिनको स्वर्ग नहीं जानाउनको बचने के लिए भी गुरु को कुछ गुरु-दक्षिणा देनी पड़ती थी। वह आ जाए गांव में और समझाएतो उसकी कुछ सेवा भी करनी पड़तीपैर भी पड़ने पड़ते। वे कहतेतुम बिलकुल ठीक होमगर अभी हम साधारणजनअभी संसार में उलझे हैंजब कभी सुलझेंगेजरूर आपकी बात का खयाल करेंगे। रख लेते हैं सम्हालकर हृदय में। तो गुरु का धंधा भी चलता था। न कभी कोई झंझट आयी थीन कुछ!

      एक गांव में उपद्रव हो गया। एक असली शिष्य मिल गया। उसने कहाअच्छातुम्हें पता है! पक्का पता है?बिलकुल पक्का पता है। क्योंकि अभी तक कोई झंझट आयी नहीं थी। उसने कहाअच्छामैं चलता हूं। कितने दिन लगेंगे पहुंचने मेंतब जरा गुरु घबड़ाया कि यह जरा उपद्रवी मालूम पड़ता है। पैर छुओबात ठीक है। साथ चलने की बात! मगर अब सबके सामने मना भी नहीं कर सका। उसने कहादेखेंगेभटकाके साल दो सालभाग जाएगा अपने आप। छह साल बीतगए। वह उनके पीछे ही पड़ा है। वह कहता है कि कब आएगाअभी तक आया नहीं। एक दिन उस गुरु ने कहातेरे हाथ जोड़ता हूं भैया! तू जब तक न मिला था हमको भी पता थाअब तेरे कारण हमारा भी! असली शिष्य मिल जाएतो फिर गुरु अपने आप।

      दुनिया में नकली गुरु हैंक्योंकि नकली शिष्यों की बड़ी संख्या है। नकली गुरु तो बाइप्राडक्ट हैं। वे सीधे पैदा नहीं होते। नकली शिष्य उन्हें पैदा कर लेता है।

      बुद्ध सभी गुरुओं के पास गए। गुरु घबड़ा गए। क्योंकि यह व्यक्ति निश्चित प्रामाणिक था। जो उन्होंने कहा,वह इसने इतनी पूर्णता से किया कि उनको भी दया आने लगीकि यह तो हमने भी नहीं किया है! कोई करता ही नहीं थातब तक बात ठीक थी 1 इस पर दया आने लगी। इससे यह भी न कह सकते थे कि तुमने पूरा नहीं किया,इसलिए उपलब्ध नहीं हो रहा है। इसने पूरा-पूरा किया। उसमें तो रत्ती भर कमी नहीं रखी। गुरुओं ने हाथ जोड़कर कहा कि बसहम यहां तक तुम्हें बता सकते थेइसके आगे हमें खुद भी पता नहीं है।

      सारे गुरुओं को बुद्ध ने चुका डाला। एक गुरु साबित न हुआ। तब सिवाय इसके कोई रास्ता न रहा कि खुद खोजें। और इसीलिए बुद्ध की बातों में बड़ी ताजगी हैक्योंकि उन्होंने खुद खोजा। किसी गुरु से नहीं पाया था। किसी से सुनकर नहीं दोहराया था। फिर खुद खोज पर निकले-नितांत अकेलेबिना किसी सहारे के। शास्त्र धोखा दे गए गुरु धोखा दे गएसब पीछे हट गएअकेला रह गया खोजी। ऐसा ही होता है। जब तुम्हारी खोज असली होगीतुम पाओगे शास्त्र काम नहीं देते। शास्त्र तभी तक काम देते हैं जब तक तुम उनका भजन-पाठ करते हो। बस तभी तक। अगर तुमने यात्रा शुरू कीतुम तत्क्षण पाओगे शास्त्र में हजार गलतियां हैं। होनी ही चाहिए। क्योंकि हजारों साल तक हजारों लोग उसे दोहराते रहे हैंबनाते रहे हैं। उसमें बहुत कुछ छूट गया हैबहुत कुछ जुड़ गया है। लेकिन यह तो पता तुम्हें तभी चलेगा जब तुम यात्रा करोगे।

      एक तुम नकशा लिए घर में बैठे होउसकी तुम पूजा करते हो-तो कैसे पता चलेगायात्रा पर निकलो तब तुम्हें पता चलेगा-अरेइस नक्शो में नदी बतायी हैयहां कोई नदी नहीं है! इस नक्शो में पहाड़ बताया हैयहां कोई पहाड़ नहीं है!
एस धम्मो सनंतनो इस नक्शो में कहा है बाएं मुड़नाबाएं मुड़ो तो गड्डा है। यात्रा होती नहीं। दाएं मुड़ो तो ही हो सकती है।

      जब तुम यात्रा पर निकलोगे तभी परीक्षा होती है तुम्हारे नक्‍शो की। उसके बिना कोई परीक्षा नहीं। जो भी यात्रा पर गएउन्होंने शास्त्र को सदा कम पाया। जो भी यात्रा पर गएउन्होंने गुरुओं को कम पाया। जो भी यात्रा पर गए,उन्हें एक बात अनिवायरूपेण पता चली कि प्रत्येक को अपना मार्ग स्वयं ही खोजना पड़ता है। दूसरे से सहारा मिल जाएबहुत। पर कोई दूसरा तुम्हें मार्ग नहीं दे सकता। क्योंकि दूसरा जिस मार्ग पर चला थातुम उस पर कभी भी न चलोगे। वह उसके लिए था। वह उसका था। वह उसके स्वभाव में अनुकूल बैठता था।
और प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है।
बुद्ध ने यह घोषणा की कि प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। इसलिए एक ही राजपथ पर सभी नहीं जा सकतेसबकी अपनी पगडंडी होगी। इसीलिए सदगुरु तुम्हें रास्ता नहीं देताकेवल रास्ते को समझने की परख देता है। सदगुरु तुम्हें विस्तार के नक्शो नहीं देताकेवल रोशनी देता हैताकि तुम खुद विस्तार देख सकोनक्शो तय कर सको। क्योंकि नक्शो रोज बदल रहे हैं।

      जिंदगी कोई घिर बात नहीं हैजड़ नहीं है। जिंदगी प्रवाह है। जो कल था वह आज नहीं हैजो आज है वह कल नहीं होगा।

      सदगुरु तुम्हें प्रकाश देता हैरोशनी देता हैदीया देता है हाथ में कि यह दीया ले लोअब तुम खुद खोजो और निकल जाओ। और ध्यान रखनाखुद खोजने से जो मिलता हैवही मिलता है। जो दूसरा दे-देवह मिला हुआ है ही नहीं। दूसरे का दिया छीना जा सकता है। खुद का खोजा भर नहीं छीना जा सकता। और जो छिन जाए वह कोई अध्यात्म हैजो छीना न जा सकेवही।

पहली गाथा :

'मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी हैमन उनका प्रधान हैवे मनोमय हैं। यदि कोई दोषयुक्त मन से बोलता है या कर्म करता हैतो दुख उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाड़ी का चक्का खींचने वाले बैलों के पैर का।'

      छोटा सूत्रपर बड़ा दूरगामी। ध्यान रखनाबुद्ध किसी शास्त्र को नहीं दोहरा रहे हैं। बुद्ध से शास्त्र पैदा हो रहा है।

      'मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी है।

      कोई भी वृत्ति उठती है राह पर तुम खड़े होएक सुंदर कार निकली। क्या हुआ तुम्हारे मन मेंएक छाप पड़ी। एक काली कार निकलीएक प्रतिबिंब गंजा। कार के निकलने से वासना पैदा नहीं होती-अगर तुम देखते रहो और तुम्हारा देखना ऐसा ही तटस्थ हो जैसे कैमरे की आख होती है। कैमरे के सामने से भी कार निकल जाएवह फोटो भी उतार देगातो भी कार खरीदने नहीं जाएगा। और न सोचेगा कि कार खरीदनी है। अगर तुम वहां खड़े हो और कैमरे जैसी तुम्हारी आख है--तुमने सिर्फ देखाकाली कार गुजर गयी। चित्र बनागया। एक छाया आयीगयी-कुछ भी कठिनाई नहीं है।

      लेकिन जब यह काली छाया कार की तुम्हारे भीतर से निकल रही हैतब तुम्हारे मन में एक कामना जगी-ऐसी कार मेरे पास हो! मन में एक विकार उठा। एक लहर उठी-जैसे पानी में किसी ने कंकड़ फेंका और लहर उठी। कार तो जा चुकीअब लहर तुम्हारे साथ है। अब यह लहर तुम्हें चलाएगी।

      तुम धन कमाने में लगोगेया तुम चोरी करने में लगोगेया किसी की जेब काटोगे। अब तुम कुछ करोगे। अब वृत्ति ने तुम्हें पकड़ा। अब वृत्ति तुम्हारी कभी क्रोध करवाएगीअगर कोई बाधा डालेगा। अगर कोई मार्ग में आएगा तो तुम हिंसा करने को उतारू हो जाओगेमरने-मारने को उतारू हो जाओगे। अगर कोई सहारा देगा तो तुम मित्र हो जाओगेकोई बाधा देगा तो शत्रु हो जाओगे। अब तुम्हारी रातें इसी सपने से भर जाएंगी। बस यह कार तुम्हारे आसपास घूमने लगेगी। जब तक यह न हो जाएतुम्हें चैन न मिलेगा।

      और मजा यह है कि वर्षों की मेहनत के बाद जिस दिन यह तुम्हारी हो जाएगीतुम अचानक पाओगेकार तो अपनी हो गयीलेकिन अबइन वर्षों की बेचैनी का अभ्यास हो गया। अब बेचैनी नहीं छोड़ती। कार तो अपनी हो गयीलेकिन बेचैनी नहीं जातीक्योंकि बेचैनी का अभ्यास हो गया।

      अब तुम इस बेचैनी के लिए नया कोई यात्रा-पथ खोजोगे। बड़ा मकान बनाना है! हीरे-जवाहरात खरीदने हैं! अब तुम कुछ और करोगेक्योंकि अब बेचैनी तुम्हारी आदत हो गयी। और अब इस बेचैनी का तुम क्या करोगेसालों तक बेचैनी को सम्हालाकार तो मिल गयीलेकिन अब कार का मिलना न मिलना बराबर है। अब यह बेचैनी पकड़ गयी।

      इसीलिए तो धनी बहुत लोग हो जाते हैं और धनी नही हो पाते। क्योंकि जब वे धनी होते हैंतब तक बेचैनी का अभ्यास हो गया उनका। जब तक धनी हुए तब तक चैन से न रह सकेसोचा कि जब धनी हो जाएंगे तब चैन से रह लेंगे। लेकिन चैन कोई इतनी आसान बात है। अगर बेचैनी का अभ्यास घना हो गयातो धनी तो तुम हो जाओगे,बेचैनी कहां जाएगीतब और धनी होने की दौड़ लगती है। और मन कहता है और धनी हो जाएंफिर..?। लेकिन सारा जाल मन का है।

      बुद्ध ने अपनी एक-एक वृत्ति को जांचा और पाया कि वृत्ति मन के सरोवर में उठी लहर है। वृत्ति का मतलब ही लहर होता है। वह मन का कैप जाना है। अगर मन निष्कंप रह पाए तो कोई वृत्ति पैदा नहीं होती। अगर मन कंप गया,तो वृत्ति पैदा हो जाती है। फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस चीज से कंपता है।

      आज से ढाई हजार साल पहले बुद्ध के समय में कार तो नहीं थीतो कई
नासमझ सोचते हैं कि तब बड़ी शाति थीक्योंकि कार नहीं थीतो कार की तो चिंता पैदा नहीं हो सकती थी। हवाई जहाज नहीं थातो हवाई जहाज खरीदना है इसकी चिंता तो पैदा नहीं हो सकती थी। लेकिन तुम गलती में हो। चिंताएं इतनी ही थीं। क्योंकि किसी के पास शानदार बैलगाड़ी थीबग्घी थीवह चिंता पैदा करवाती थी। किसी के पास शानदार घोड़ा थावह चिंता पैदा करवाता था।

      चिंता के लिए विषय से कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम लहर सरोवर में उठाने के लिए एक कंकड़ फेंको या कोहिनूर हीरा फेंकोइससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कोहिनूर हीरा भी वृत्ति उठाता हैसाधारण कंकड़ भी उतनी ही वृत्ति उठाता है,उतनी ही लहर उठाता है। पानी फिकर नहीं करता कि तुमने कोहिनूर फेंका कि कंकड़ फेंका। कुछ फेंकाबस इतना काफी है। मन ने कुछ भी फेंका और उपद्रव शुरू हुआ।

'मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी हैमन उनका प्रधान हैवे मनोमय हैं। यदि कोई दोषयुक्त मन से बोलता है या कर्म करता हैतो दुख उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाड़ी का चक्का खींचने वाले बैलों के पैर का।

      बुद्ध ने एक सूत्र पाया : जीवन में दुख. है। हम भी जीवन में दुखी हैं। और जब हमें दुख पकड़ता है तो हम पूछते हैंकिसने दुख पैदा कियाकौन मेरा दुख पैदा कर रहा है-पत्नीपतिबेटाबापमित्रसमाजकौन मेरा दुख पैदा कर रहा है-आर्थिक-व्यवस्थासामाजिक-ढांचाकौन मेरा दुख पैदा कर रहा है?

      मार्क्स से पूछो तो वह कहता हैदुख पैदा हो रहा है क्योंकि समाज का आर्थिक ढांचा गलत है। गरीबी हैअमीरी हैइसलिए दुख पैदा हो रहा है।

      फ्रायड से पूछो तो वह कहता हैदुख इसलिए पैदा हो रहा है कि मनुष्य को अगर उसकी वृत्तियों के प्रति पूरा खुला छोड़ दिया जाएतो वह जंगली जानवर जैसा हो जाता है। दुख पैदा होगा उससे। सभ्यता नष्ट हो जाएगी। अगर उसे समझाया- बुझाया जाएतैयार किया जाएपरिष्कृत किया जाएतो दमन हो जाता है। दमन होने से दुख पैदा होता है।

      इसलिए फ्रायड ने कहादुख कभी भी न मिटेगा। अगर आदमी को बिलकुल खुला छोड़ दोतो मार-काट हो जाएगीक्योंकि आदमी के भीतर हजार तरह की जानवरी वृत्तियां हैं। अगर दबाओंढंग का बनाओसज्जन बनाओतो दमन हो जाता है। दमन होता हैतो दुख होता रहता हैवृत्तियां पूरी नहीं हो पातीं। पूरी करो तो मुसीबतन पूरी करो तो मुसीबत।

      तो फ्रायड ने तो अंत में कहा कि आदमी जैसा हैकभी सुखी हो ही नहीं सकता। सुख असंभव है।

      फ्रायड और मार्क्सइनका विश्लेषण ही अगर अकेला विश्लेषण होता तो पक्का है कि आदमी कभी सुखी नहीं हो सकता। क्योंकि रूस में गरीब-अमीर मिट गए लेकिन दुख नहीं मिटा। गरीब-अमीर मिट गएतो दूसरे वर्ग खड़े हो गए। कोई पद पर हैकोई पद पर नहीं है। कोई कम्युनिस्ट पार्टी में हैकोई कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं है। जो पद पर हैवह इतना शक्तिशाली हो गया है जितना धनी पुराने दिनों में कभी भी न था। और जो पद पर नहीं हैवह इतना निर्बल हो गया है जितना भूखाभिखमंगागरीब कभी नहीं था। धनी के हाथ में इतनी ताकत कभी नहीं थी जितनी रूस में पदाधिकारी के हाथ में है। संघर्ष वहीं का वहीं खड़ा है। भेद वहीं का वहीं खड़ा है। वर्ग नए बन गएपुराने मिटे तो। कुछ ऐसा लगता हैआदमी बीमारी बदलता जाता है। क्रांतियों के नाम से केवल बीमारी बदलती हैकुछ भी बदलता नहीं। ऊपर के ढंग बदलते हैंभीतर का रोग जारी रहता है।

      सब क्रांतियां व्यर्थ हो गयी हैंसिर्फ बुद्ध की एक क्रांति अभी भी सार्थकता रखती है। बुद्ध कहते हैंतुम्हारे मन में ही कारण है। बाहर खोजने गएपहला कदम ही गलत पड़ गया। अब तुम ठीक कभी न हो पाओगे। तुम्हारे मन में ही दुख का कारण है। जब भी तुम किसी को दुख देना चाहते होतुम दुख पाओगे। जब भी तुम दुख देने की आकांक्षा से भरे किसी विचार के पीछे जाते होतम दुख के बीज बो रहे हो। दूसरे को दुख मिलेगा या नहीं मिलेगा,तुम्हें दुख जरूर मिलेगा। तुम अगर आज दुख पा रहे होतो बुद्ध कहते हैंकल बोए बीजों का फल है। और अगर कल तुम चाहते हो दुख न पाओतो आज कृपा करनाआज बीज मत बोना।

      'यदि कोई दोषयुक्त मन से बोलता हैसोचता हैव्यवहार करता हैया वैसे कर्म करता हैतो दुख उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाड़ी जाती है तो बैलों के पीछे चाक चले आते हैं।'

      तुम्हारे मन में अगर किसी को भी दुख देने का जरा सा भी भाव हैतो तुम अपने लिए बीज बो रहे हो। क्योंकि तुम्हारे मन में जो दुख देने का बीज हैवह तुम्हारे ही मन की भूमि में गिरेगाकिसी दूसरे के मन की भूमि मैं नहीं गिर सकता। बीज तो तुम्हारे भीतर हैवृक्ष भी तुम्हारे भीतर ही होगा। फल भी तुम्हीं भोगोगे।

      अगर बहुत गौर से देखा जाएतो जब तुम दूसरे को दुख देना चाहते होतब तुमने अपने को दुख देना शुरू कर ही दिया। तुम दुखी होने शुरू हो ही गए। तुम क्रोधित होकिसी पर क्रोध करके उसे नष्ट करना चाहते होउसे तुम करोगे या नहींयह दूसरी बात हैलेकिन तुमने अपने को नष्ट करना शुरू करे दिया।

      बुद्ध कहते थेक्रोध से बड़ी कोई मूढ़ता नहीं है। दूसरे के कसूर के लिए तुम अपने को दंड देते हो। एक आदमी ने तुम्हें गाली दीकसूर उसका होगाअब क्रोधित तुम हो रहे हों-दंड तुम अपने को दे रहे होकसूर उसका था। इससे ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती हैउसने गाली दीउसकी समस्या हैतुम क्यों बीच में आते होतुम गाली मत लो। लेने पर निर्भर है। लेना आवश्यक नहीं है। आप मुझे गाली दे सकते हैंलेकिन लेने पर थोड़े ही मजबूर कर सकते हैं। देना आपके बस में हैलेना मेरे बस में है। उस मालकियत को मुझसे कोई कभी नहीं छीन सकता। मैं कह सकता हूं कि नहीं लेताफिर तुम क्या करोगेतुम्हारी गाली तुम्हीं पर लौट जाएगी। तुमने गाली देने के लिए जो तैयारी में दुख भोगावह भोगाअब गाली लौटेगी तब तुम जो दुख भोगोगेवह भोगोगे।

      जब हम किसी चीज को अपने मन के भीतर ले लेते हैंतभी वह सक्रिय हो जाती है। और दूसरे से लेने की कोई जरूरत नहीं हैतुम अपने भीतर ही इतने दुख के बीज पैदा करते रहते हो। अकारण!

      मैं कलकत्ते में एक मित्र के घर मेहमान होता था। उनके पास सबसे बढ़िया कोठी है कलकत्ते में। थी कहना चाहिएअब नहीं है। अब एक दूसरी कोठी खड़ी हो गयीपड़ोस में ही खड़ी हो गयी। जब मैं उनके घर मेहमान होता थातो वे हमेशा अपने मकान में मुझे ले जाते। कई बार दिखा चुके थेमगर फिर-फिर दिखाते। उनका रस खतम नहीं होता था। स्विमिंग-पूलबगीचा-सब दिखाते। उनकी आदत थीयह मानकर मैं जब भी वे दिखाते फिर इस तरह उत्सुकता लेता जैसे कभी नहीं देखा है। मगर आखिरी बार जब उनके घर गयातो उन्होंने मकान न दिखाया। मैं थोड़ा हैरान हुआक्या यह आदमी बदल गया! मैंने पूछा कि क्या मामला हैमकान नहीं दिखलाइएगाकहने लगेक्या खाक दिखलाए!
क्या हुआ?
देखते नहीं कि बगल में एक बड़ा मकान खड़ा हो गयाजब तक इससे बड़ी कोठी न कर लूं तब तक अब चैन नहीं! अब क्या दिखाना है!
इनका मकान वैसे का वैसा ही हैक्योंकि बगल के मकान ने इनके मकान में कुछ फर्क नहीं किया है। इनका मकान ठीक उतना ही सुंदर है जैसा था। लेकिन बगल में एक मकान खड़ा हो गया! बड़ी लकीर किसी ने खींच दीइनकी लकीर छोटी हो गयीबिना छुए। किसी ने छुआ नहींहाथ नहीं लगायामगर बगल में एक लकीर खड़ी हो गयी।
उनकी पत्नी ने मुझसे कहा कि कुछ समझाइए इनकोन सोते हैंन चैन! इनकी छाती पर बोझ हो गया है वह बगल का मकान। बगल के मकान वाले को शायद पता भी न हो कि कोई जला- भुजा जा रहा हैकि कोई मरा जा रहा है। मगर इस आदमी ने अपने भीतर एक बीज बो लिया। यह उस मकान से नहीं आया हैक्योंकि इसकी पत्नी को कोई तकलीफ नहीं है। इसकी पत्नी भी वहीं हैउसे कोई तकलीफ नहीं है। मकान से नहीं आया हैइसके अपने भीतर के मन का रोग है। एक ईर्ष्या जगी है। अहंकार को चोट लगी है।
मैंने उनसे कहा कि मैं सदा जानता थाकभी न कभी यह झंझट होगी। आप अपने मन में अपने मकान का इतना रस लेते हैं कि कोई भी मकान अगर खड़ा हो गयातो आप जी न सकोगे। क्योंकि सदा आपको देखकर मुझे ऐसा लगा है,यह
मकान आपके लिए नहीं हैआप मकान के लिए हो। आप मालिक नहीं होयह मकान मालिक है। आप वस्तु को अपना सब सम्हाल दिए हैंदे दिए हैं वस्तुओं को। आप गुलाम हो गए हैं। मुझे डर था कि कभी न कभी यह होगा,कोई मकान बड़ा बगल में खड़ा हो जाएगातो तुम न झेल पाओगे।
वे रुग्ण रहने लगे जब से वह मकान बन गया। मन में सारा खेल है।
यही जिंदगी मुसीबत यही जिंदगी मसर्रत
यही जिंदगी हकीकत यही जिंदगी फसाना
कैसी मन की व्याख्या हैकैसे तुम देखते होकैसे तुम सोचते होकैसी तुम व्याख्या करते हो जीवन की-सब उस पर निर्भर है।
'मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी हैमन उनका प्रधान है। यदि कोई प्रसन्न मन से बोलता है या कर्म करता हैतो सुख उसका अनुसरण करता है-वैसे ही जैसे कभी साथ न छोड़ने वाली छाया।
अगर तुम दुखी हो तो अपने को कारण जाननाअगर सुखी हो तो अपने को कारण जानना। अपने से बाहर कारण को मत ले जाना। वही धोखा है। इसको ही मैं धार्मिक क्रांति कहता हूं। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन के सारे कारणों को अपने भीतर देख लियावह व्यक्ति धार्मिक हो गया। क्योंकि अब उसके हाथ में है बात। अब दुखी होना होतो तुम जानते हो कौन से बीज बोने। सुखी होना होतो जानते हो कौन से बीज बोने। अब कोई मजबूरी न रही। फिर अगर दुख में ही मजा लेना होतो मजे से बीज बोओकोई बाधा नहीं डाल सकता। लेकिन एक बात फिर तुम न कर सकोगे कि दुख के तो बीज बोओ और रोना भी रोओ कि मैं दुखी क्यों हूं! अपने ही हाथ से जहर पीओऔर फिर रोओ कि मैं मर क्यों रहा हूं! मरना होमजे से जहर पीओ। जीना होमत पीओ। तुम्हारे हाथ हैंतुम्हारी प्याली हैतुम्हारा जहर है-और तुम्हीं को जीना या मरना है।

      'उसने मुझे डांटामुझे मारामुझे जीत लियामेरा लूट लिया-जो ऐसी गांठें मन में बनाए रखते हैंउनका वैर शात नहीं होता।

      उसने! दूसरे पर जिनका सारा जोर है-उसने मुझे डाटाउसने मुझे माराउसने मुझे जीत लियामेरा लूट लिया-जो दूसरे पर नजर रखते हैं...।

      बुद्ध का एक शिष्य हुआ पूर्ण काश्यप। वह निश्चित ही पूर्ण हो गया थाइसलिए उसे बुद्ध पूर्ण कहते हैं। फिर एक दिन बुद्ध ने उससे कहा कि पूर्णअब तू पूर्ण सच में ही हो गया। अब मेरे साथ-साथ डोलने की कोई जरूरत न रही। अब तू जा। अब तू गांव-गावनगर-नगर घूम और डोल। मेरी खबर ले जा। मेरे पास तूने जो पाया हैउसे लुटा।

      पूर्ण ने कहा : भगवानकिस दिशा में जाऊंआप इशारा कर दें।

      बुद्ध ने कहा : तू खुद ही चुन ले। अब तू खुद ही समर्थ है। अब मेरे इशारे की
भी कोई जरूरत न रही।

      तो पूर्ण ने कहा कि जाऊंगा--'सूखानाम का एक इलाका था बिहार में-वहां जाऊंगा। बुद्ध ने कहातू खतरा मोल ले रहा है। वह जगह भली नहीं। लोग सज्जन नहीं। लोग बड़े दुष्ट हैं और लोग सताने में रस लेते हैं। लोग तुझे परेशान करेंगे। इन पीत-वस्त्रों में उन्होंने भिक्षु कभी देखा नहीं। वे बड़े जंगली हैं। तू वहा मत जा।
     
      पर पूर्ण ने कहाइसीलिए तो उनको मेरी जरूरत है। किसी को तो जाना ही होगा। कब तक वे जंगली रहेंकब तक उनको पशुओं की तरह रहने दिया जाएमुझे जाना होगा। आशा दें।

      बुद्ध ने कहाजामगर मेरे दो-तीन सवालों के जवाब दे दे। पहला - अगर वे तुझे गालियां देंअपमान करेंतो तुझे क्या होगा तो पूर्ण ने कहायह भी आप मुझसे पूछते हैंक्या होगाआप भलीभांति जानते हैं कि मैं प्रसन्न होऊंगा। क्योंकि मेरे मन में यह भाव उठेगाकितने भले लोग हैंसिर्फ गालियां देते हैंमारते नहीं। मार भी सकते थे।

      बुद्ध ने कहाठीक। मगर अगर मारे नमारने ही लगेंतो तेरे मन में क्या होगापूर्ण ने कहाआप पूछते हैं?आप भलीभांति जानते हैं कि पूर्ण प्रसन्न होगाकि धन्यभाग कि मारते हैंमार ही नहीं डालते। मार भी डाल सकते थे।

      बुद्ध ने कहाआखिरी सवालपूर्ण। अगर मार ही डालेंतो मरते वक्त तेरे मन में क्या होगापूर्ण ने कहा,आपऔर पूछते हैंआपको भलीभांति मालूम है कि जब मैं मर रहा होऊंगा तो मेरे मन में होगाधन्यभागउस जीवन से छुटकारा दिला दिया जिसमें कोई भूल-चूक हो सकती थी।

      बुद्ध ने कहाअब तू जा। अब तुझे जहां जाना हैतू जा। अब तुझे कोई गाली नहीं दे सकता। अब तुझे कोई मार नहीं सकता। अब तुझे कोई मार डाल नहीं सकता। ऐसा नहीं कि वे तुझे गाली न देंगेगाली तो वे देंगेलेकिन तुझे अब कोई गाली नहीं दे सकता। ऐसा नहीं कि वे तुझे मारेंगे नहींमारेंगेलेकिन तुझे अब कोई मार नहीं सकता। और कौन जानेकोई तुझे मार भी डालेलेकिन अब तू अमृत है। अब तेरी मृत्यु संभव नहीं।

      सारा खेल मन का हैकैसे हम देखते हैं!

      'उसने मुझे डांटाउसने मुझे मारामुझे जीत लियामेरा लूट लिया-जो ऐसी गांठें मन में नहीं बनाए रखते हैं,उनका वैर शात हो जाता है।

      और वैर नर्क है। कहीं और कोई नर्क नहींशत्रुता में जीना नर्क है। तुम जितनी शत्रुता अपने चारों तरफ बनाते होउतना तुम्हारा नर्क बड़ा हो जाता है। तुम जितनी मित्रता अपने चारों तरफ बनाते होउतना स्वर्ग खड़ा हो जाता है। स्वर्ग मित्रों के बीच जीने का नाम है। नर्क शत्रुओं के बीच जीने का नाम है। और सब तुम पर निर्भर है। नर्क कोई भौगोलिक जगह नहीं हैऔर न स्वर्ग कोई भौगोलिक जगह है। नक्शो
में मत पड़ना। मनोदशाएं हैं। स्टेट्स आफ माइंड।

      जब तुम सारे जगत को मित्र की तरह देखते हो-ऐसा नहीं कि सारा जगत मित्र हो जाएगाइस भूल में मत पड़ना--लेकिन तुम जब सारे जगत को मित्र की भांति देखते होतुम्हारे लिए जगत मित्र हो गयातुम्हारे शत्रु समाप्त हो गए। और अगर कोई तुम्हारी शत्रुता करेगातो वह शत्रुता उसके मन में होगीवह उसकी पीड़ा पाएगा। लेकिन तुम्हें कोई पीड़ा नहीं दे सकता।

      'इस संसार में वैर से वैर कभी शात नहीं होता। अवैर से ही वैर शात होता है। यही सनातन धर्म हैयही नियम है।

      नहि वेरेन वेरामि सम्मन्तीध कुदाचनं
      अवेरेन व सम्मन्ति एस धम्मो सनंतनो।।

      यही सनातन धर्म है। शत्रुता से शत्रुता समाप्त नही होती। क्रोध से क्रोध समाप्त नहीं होता। वैर से वैर नहीं मिटता। और जितना वैर बढ़ता जाता हैउतना तुम अपने चारों तरफ अपने हाथों नर्क निर्मित करते चले जाते हो।

      यह जगत तुम्हारी कृति है। तुम चारों तरफ अपना परिवेश बनाते हो। यह बात तुम्हें दिखायी पड़ जाएयह इशारा तुम्हें समझ आ जाएतो तुम्हें फिर कोई दुख नहीं दे सकता। तुम्हारा स्वभाव तब सुख हो जाएगा।

      फैलाओ मैत्री!

      महावीर ने कहा है : मित्ति मे सव्‍व भूए सू वैरं मज्‍झ न केवई। मेरी मित्रता सबसे हैसारे विश्व से है। --सव्‍व भूए सू। और वैर मेरा किसी से भी नहीं।
     
      महावीर के कानों में भी कीलें ठोकने वाले मिल गएपत्थर मारने वाले मिल गए। महावीर को गाव-गांव से खदेड़ कर बाहर निकालने वाले मिल गए। लेकिन महावीर यही कहते रहेवैर मज्‍झ न केवई--मेरी किसी से कोई शत्रुता नहीं। उनकी होगीउनका हिसाब वे जानें।

      अभी कुछ दिन पहले मैं एक कहानी कह रहा था कि दो मनोवैज्ञानिकएक ही मकान में उनका दफ्तर थारोज सुबह आतेलिफ्ट में सवार होतेअक्सर साथ-साथ सवार होते। वह जो लिफ्ट को चलाने वाला सेवक थावह बड़ा हैरान था। जब भी वे दोनों साथ-साथ जाते तो पहले एक मनोवैज्ञानिक उतरतादसवीं-बारहवीं मंजिल पर कहीं। जब भी वह उतरतादरवाजे से लौटकर दूसरे मनोवैज्ञानिक के ऊपर थूकताचला जाता अपनी तरफऔर दूसरा चुपचाप अपना रूमाल निकालकर अपना मुंह पोंछ लेताटाई पोंछ लेताया कोट पर पड़ गया होता यूकपोंछ लेतारख लेता और अपना बस तैयारी करने लगताक्योंकि पंद्रहवीं या बीसवीं मंजिल पर उसको उतरना था। आखिर उस लिफ्टमैन को और सम्हालना मुश्किल हो गया।

      एक दिन उसने कहा कि यह बात बहुत हुई जा रही हैयह मामला क्या हैयह आदमी क्यों आपके ऊपर थूकता है?

      तो उस मनोवैज्ञानिक ने कहायह उसकी समस्या हैउसी से पूछो। मेरा इसमें कोई हाथ ही नहीं है। यह समस्या उसकी हैउसी से पूछो। बेचारा! जरूर कोई न कोई पागलपन उसे सवार है। मेरा तो कुछ भी नहीं बिगड़ता। पोंछ लेता हूं। उसकी सोचो! असली तकलीफ वही पा रहा है। थूकने के पहले तकलीफ पाता होगा, थूकते वक्त तकलीफ पाता हैपीछे तकलीफ पाता होगा। क्योंकि समस्या उसकी हैवही कुछ कर रहा है। हम तो केवल दर्शक हैं।

      अगर जीवन को ऐसे देखने की कला आ जाए तो फिर तुम्हें कोई दुख नहीं दे सकता। दूसरा देना भी चाहे तो यह उसकी समस्या है। और तुम इस भ्रांति में कभी मत पड़ना कि वैर से तुम दूसरों के वैर को मिटा दोगे। कभी कोई नहीं मिटा पाया। प्रेम से ही मिटता है वैर। करुणा से ही मिटता है क्रोध।
'इस संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होतेअवैर से ही होते हैं। यही सनातन नियम है।

      यह बुद्ध के धर्म की आधारशिला है।

      और थोड़ा सोचो भी कि कौन तुम्हें सुख दे पाता हैकौन तुम्हें दुख दे पाता है! सब तुम्हारे मन का ही हिसाब है। अभी घडी भर पहले जो बात सुख देती थीघड़ी भर बाद दुख देने लगती है। अभी जो बात दुख दे रही हैघड़ी भर बाद सुख दे सकती है। तुम्हारी व्याख्या! तुम कैसे उस बात को पकड़ते हो! क्या उस बात को रंग देते हो! क्या रूप देते हो! और अगर तुम्हें यह दिखायी पड़ जाए कि कोई दूसरा सुख नहीं दे सकतातो दुख कैसे देगाकिसने तुम्हें कभी कोई सुख दियायाद है कुछकिसने तुम्हें कभी कोई आनंद दियायाद है कुछऔर जब किसी ने कोई सुख नहीं दियातो दुख कोई क्या देगा!

      मैं एक गीत कल पढ़ता था। बात मूल्यवान लगी-

      डरूं मैं किसलिए गुस्से सेप्यार में क्या था
      मैं अब खिजां को जो रोऊंबहार में क्या था
      डरूं मैं किसलिए गुस्से सेप्यार में क्या था

      जब दूसरे के प्यार से कुछ न मिलातब उसके गुस्से से क्या परेशान होना है! जब प्यार ही कुछ न दे सकातो गुस्सा क्या छीन लेगा?

      मैं अब खिजां को जो रोऊंबहार में क्या था

      और अब पतझड़ आ गयीसब वीरान हुआ जाता है-इसको रोऊंलेकिन बहार में क्या थाजब बहार थी तब भी जब कुछ पास न थाजब बहार में भी कोई सुख
      न मिलातो अब पतझड़ में दुख का क्या प्रयोजन है?

      लेकिन आदमी बड़ा अजीब है! जिनसे तुम्हें सुख नहीं मिलाउनसे भी तुम दुख
ले लेते हो। जिनके जीते-जी तुम्हें कभी कोई शाति नहीं मिलीउनके मरने पर तुम रोते हो।

      मैं एक युगल को जानता हूं। जब तक पति जिंदा रहापति और पत्नी निरंतर कलह करते रहे। कभी-कभी मेरे पास आते थे। लेकिन सुलझाव कोई आसान न था। सब उलझाव सुलझ जाएंपति-पत्नी के बड़े मुश्किल से सुलझते हैं,क्योंकि सुलझाना ही नहीं चाहते। शायद वही उनकी जिंदगी हैवही व्यस्तता हैवही कुल भराव है। वह भी चला जाए,तो फिर बड़ा खाली हो जाता है। कई बार तलाक देने की बात भी उठीलेकिन उस पर भी राजी न हो पाते थे। फिर पति शराब पीने लगा। और शराब पीते-पीते मरा। जवान ही थाअभी कोई छत्तीस साल उम्र थीज्यादा नहीं थी। जब मर गया तो पत्नी मेरे पास आयीछाती पीट-पीटकर रोने लगी।

      मैंने उससे कहाअब तू रोना बंद कर। क्योंकि जिस आदमी के कारण तू कभी हंसी नहींउसके लिए रोना क्या?और मैं जानता हूं कि हजार बार तेरे मन में यह सवाल उठता रहा होगा कि यह आदमी मर ही जाए तो अच्छा! बोल,झूठ कहता हूं या सचवह थोड़ी चौंकी। उसने कहाआपको कैसे पता चला?

      पता चलने की क्या बात हैकितनी बार तूने नहीं सोचा है कि यह आदमी मर ही जाए तो झंझट मिटे। अब मर गया। आकांक्षा पूरी हो गयी। अब क्यों रोती हैजिससे तुझे सुख नहीं मिलाउससे दुखी होने का क्या प्रयोजन है?

      लेकिन यही बड़े मजे की बात है। सुख लेने में तो तुम बड़े कंजूस होदुख लेने में तुम बड़े कुशल हो। सुख तो तुम बामुश्किल स्वीकार करते हो। दुखतुम द्वार सजाकर खड़े हो सदा। स्वागतम! हाथ फैलाए खड़े हो सदा। तुम दुखी होना चाहते हो! दुखवादी हो! अन्यथा कोई कारण नहीं तुम्हारे दुखी होने का।

      जीवन को जो जानते हैंवे पहचान लेते हैं कि न तो दूसरे से सुख मिलता हैन दुख मिलता है। न तो किसी के जीवन से तुम्हें जीवन मिलता हैन किसी की मौत से तुम्हें मौत मिलती है।

      डरूं मैं किसलिए गुस्से सेप्यार में क्या था
      मैं अब खिजां को जो रोऊंबहार में क्या था

      और जब तुम्हें दोनों बातें साफ दिखायी पड़ जाती हैंतब जैसे एक उदघाटन हो जाता है भीतरएक बिजली कौंध जाती है कि यह मैं ही हूं अपनी ही शकल देखता हूं दूसरे तो केवल दर्पण हैं। अपने ही प्रतिबिंबअपनी ही प्रतिध्वनिअपनी ही परछाईं पकड़ता हूं दूसरे तो केवल दर्पण हैंघाटियां हैंजिनमें अपनी ही आवाज गुंजकर लौट आती है।

      इसे बुद्ध एस धम्मो सनंतनो कहते हैंयही धर्म का सनातन सूत्र है। न परमात्मान मोक्षन वेदन आत्मा-कोई भी धर्म के मूल आधार नहीं हैं। बुद्ध कहते हैंएस धम्मो सनंतनो-यह छोटा सा सूत्र कि तुम्हारे दुख के कारण तुम होतुम्हारे सुख के कारण तुम हो और दूसरे को दुख देने से तुम कभी सुख न पा सकोगेदूसरे को सतानें से कभी तुम उत्सव न मना सकोगे।

      वैर से वैर शांत नहीं होताअवैर से शात हो जाता है। अवैर बरस जाएवैर की अग्नि शांत हो जाती है। फिर हो या न हो शातयह कोई सवाल नहीं हैतुम्हारे लिए समाप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति को यह सूत्र समझ में आ गया,उसके लिए नर्क नहीं हैवह यहीं इसी क्षण स्वर्ग में प्रविष्ट हो जाता है। उसका स्वर्ग कल नहीं हैउसका स्वर्ग अभी है।

      'हम इस संसार में नहीं रहेंगेसामान्यजन यह नहीं जानते। और जो इसे जानते हैंउनके सारे कलह शात हो जाते हैं।

      बड़ी थोड़ी देर का बसेरा हैरैन बसेरा! सुबह हुई और चल पड़ेंगे यात्री। यह कारवां यहीं ठहरा न रहेगा। ये तंबू हैंजिनको तुमने घर समझा है। ये अभी-अभी लगाए हैंअभी-अभी उखाड़ने का वक्त आ जाएगा। और कितने कारवां तुमसे पहले निकल चुके हैं! उनके पदचिह्न भी नहीं रह गए। खों गए हैं बिलकुल। दूर उनके पैरों कीघुड़सवारों की उड़ती धूल भी दिखायी नहीं पड़ती। सिकंदर की फौजों की उड़ती धूल भी अब दिखायी नहीं पड़ती।

      यहां क्षण भर हम हैं। हम जैसे बहुत लोग पहले थे। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक-एक आदमी के नीचे कम से कम दस-दस आदमियों की लाशें गड़ी हैं। तुम जहां बैठे हो वहां दस आदमी मर चुके हैं। हर आदमी मरघट पर बैठा हैलाशों के ढेर पर बैठा है। कितनी देर तुम जिंदा रहोगेथोड़ी देरजल्दी तुम भी ग्यारहवीं लाश बन जाओगे और बारहवां आदमी तुम्हारे ऊपर बैठा होगा। कारवां की उड़ती धूल भी दिखायी नहीं पड़तीकारवां खुद ही धूल हो गए।

      इस संसार में सदा नहीं रहेंगेऐसा जिसको समझ में आ गयाउसी को इस संसार में रहने का ढंग आ गया। जिसको समझ में आ गया कि ओस की बूंद हैअब गिरीतब गिरीभोर की तरैया हैअब डूबीतब डूबी। क्षणभर का खेल है। फिर क्या चिंता हैफिर किसको दुख देना हैकिसको पीड़ा देनी हैकिससे शत्रुता लेनी हैशत्रुता हम ले पाते हैं इसी आधार पर कि जैसे सदा रहना है।

      तुम थोड़ा सोचोअगर इसी वक्त खबर आ जाए कि आज सांझ तुम्हारी मौत हो जाएगी-पक्की खबर आ जाए-क्या तुम अपने दुश्मनों से क्षमा नहीं मांग आओगे? क्या तुम उनसे जिनको मिटाने को तत्पर थेक्षमायाचना नहीं कर लोगेक्या वैर समाप्त नहीं हो जाएगाजाते आदमी का क्याकौन सा वैर! किसकी शत्रुता! कैसी शत्रुता! जब विदा होने का क्षण आ जाएगातुम सभी से क्षमा मांग लोगे। लेकिन पक्का नहीं कि वह क्षण कब आएगा। अभी आ सकता है। लेकिन एक बात पक्की है कि कभी न कभी आएगा। ज्यादा देर नहीं है। जो कली खिल गयीअब फूल के कुम्हलाने में ज्यादा समय नहीं है। सुबह हो गयीसूरज चढ़ आया-सांझ को कितनी देर हैप्रतिपल सांझ हुई जाती है। सुबह के साथ ही सांझ हो गयी।
जिसको ऐसा दिखायी पड़ जाता हैवह फिर इस जगत में वैर के बीज नहीं बोता। फिर वह कल्याणमित्र हो जाता है। फिर वह मैत्री बोता है। वह अपने चारों तरफ स्वर्ग की फसल काटता है।

      'हम इस संसार में नहीं रहेंगेसामान्यजन यह नहीं जानते हैं।
      ऐसे जीते हैं जैसे सदा यहां रहना है। उसी से सारी भूल हो जाती है।
      और जो इसे जानते हैंउनके सारे कलह शात हो जाते हैं।

      क्षणभंगुर है जीवन। आंख झपकीक्षणभर का सपना है जीवन। इस पर बहुत भरोसा मत कर लेना। इस पर तुमने जितना ज्यादा भरोसा कियाउतने ही भटक जाओगे। इसमें सो मत जाना। इसमें खो मत जाना। जागे रहना।

      नींद स्वाभाविक लगती हैक्योंकि नींद सनातन की आदत हो गयी है। जागना कठिन मालूम पड़ता हैक्योंकि कभी जागे नहीं। लेकिन एक बार तुम जाग जाओगेतो यह जीवन तो क्षणभंगुर हो जाएगामहाजीवन के द्वार खुलेंगे। एक बार तुम जागकर देख लोगे तो तुम हंसोगे-क्या सपने देखते थेजब कि सत्य के खजाने उपलब्ध थे!

      लेकिन बुद्ध उन खजानों के संबंध में कुछ भी नहीं कहते। वे कहते हैंडर है। खजाने की बात भी तुम सुन लेते हो सपने मेंतो तुम उसका भी सपना बना लेते होऔर नींद तुम अपनी गहरी कर लेते हो। इसलिए बुद्ध कहते हैंवे उस संबंध में कुछ भी न कहेंगे। इतना ही कहेंगे कि तुम जहां होगलत हो।

      इसलिए बुद्ध निषेधात्मक हैंनिगेटिव हैं। उनका धर्म नकार का है। वे ब्रह्म की बात नहीं करतेक्योंकि वह तो उसकी बात हो जाएगी जो खुली आख से दिखायी पड़ता है। वे मोक्ष की बात नहीं करतेक्योंकि तुमसे क्या मोक्ष की बात करनी! तुम इतनी गहरी नींद में पड़े होतुमने संसार की ऐसी शराब पी ली है कि तुमसे क्या मोक्ष की बात करनी! शराब के नशे में तुम मोक्ष को सुनोगे भीतो भी कुछ और समझोगे। अनर्थ हो जाएगा। वे कहते हैंइतना ही समझो कि तुम नाली में पड़े होबेहोश पड़े होजागो!

      बुद्ध मेटाफिजिक्सदर्शनशास्त्र की बात नहीं करते। बुद्ध चिकित्सक हैं। वे सिर्फ तुम्हारी बीमारी की बात करते हैं। और निदान उनका दुरुस्त हैशत-प्रतिशत सही है। इस निदान पर सोचना।

      बुद्ध का धर्म भरोसे का नहीं हैगहन सोच-विचारचिंतन-मननऔर उसी चिंतन-मनन और सोच-विचार से उठे हुए ध्यान का धर्म है। परमात्माआत्मामोक्ष-ये शब्द बुद्ध के लिए पराए हैं। बुद्ध तो तुम्हारे मन का खंड-खंड करेंगे। क्योंकि तुम्हारा मन ही एकमात्र सवाल है। अगर तुम उस मन से जाग गएतो वह शेष सब तुम पा लोगे जो उपनिषदों ने कहा हैवेदों ने कहा हैकुरान ने कहा हैबाइबिल ने कहा है।

      लेकिन बुद्ध उसको कहते नहींइस बात को स्मरण रखना। जो पाना हैवह पाकर ही जाना जाएगा। उसकी चर्चा व्यर्थ है। और उसकी चर्चा खतरनाक है।

      झेन फकीर हैं जापान में-बुद्ध को प्रेम करते हैंसुबह-सांझ पूजा करते हैं-लेकिन वे कहते हैंअगर बुद्ध का भी बहुत ज्यादा विचार मन में आने लगे और बुद्ध के प्रति भी बहुत ज्यादा लगाव बनने लगेतो सावधान! कहीं नींद में नया सपना तो नहीं आ रहा है! झेन फकीर कहते हैंअगर बुद्ध रास्ते पर मिल जाएंउठाकर तलवार काट देना।

      बोकोजू अपने गुरु के पास था। उसके गुरु ने कहा कि देखअब वह खतरा करीब आ रहा है जब बुद्ध तुझे रास्ते पर मिलेंगे। डरना मत। लगाव भी मत करना। राग मत लगाना। उठाकर तलवार काट देनादो टुकड़ेखंड-खंड कर देना बुद्ध के। चाहे तोड़कर नमस्कार कर लेनालेकिन पहले तोड़ देना।

      बोकोजू ने कहालेकिन तलवारकहां से तलवार लाऊंगा वहांगुरु ने कहाघबड़ा मतजहां से बुद्ध को लाया-कल्पना का सब जाल है-वहीं से तलवार भी ले आना। उठाकर तलवार काट ही देना। कहीं ऐसा न हो कि बुद्ध का सपना आने लगे।

      बुद्ध ने सपने को कोई सहारा नहीं दिया। बुद्ध से बड़ा मूर्तिभंजक जगत में नहीं हुआ है। और बड़े विडंबना की बात हैबुद्ध से ज्यादा मूर्तियां किसी की नहीं हैं। और उनसे बड़ा मूर्तिभंजक कोई नहीं है!

      उर्दू में शब्द है बुद्ध के लिएबुत। बुत जो हैजिसका मतलब अब मूर्ति होता हैबुद्ध का ही बिगड़ा हुआ रूप है। इतनी मूर्तियां बनीं बुद्ध की कि बुद्ध शब्द बुत होकर मूर्ति का ही पर्यायवाची हो गया। और इतना बड़ा मूर्तिभंजक कोई भी नहीं!

      बुद्ध की तलवार तुम्हें काटेगीतुम्हें खंड-खंड करेगी। तुम्हारी श्रद्धाओंविश्वासों कोतुम्हारी मान्यताओं को तोड़ेगीताकि तुम ही बचो तुम्हारी शुद्धता मेंतुम्हारी परिपूर्ण निर्दोषता मेंतुम्हारे कवांरेपन में। वही बच जाए जो काटा नहीं जा सकतानैनं छिदंति शस्त्राणि-जिसे छेदा नहीं जा सकताजिसे जलाया नहीं जा सकता।

      बुद्ध छेदेंगे और जलाएंगेताकि जो छेदा जा सकता है वह छिद जाएजो जलाया जा सकता है वह जल जाए और फिर तुम बच जाओ तुम्हारी परिशुद्ध अवस्था में। वही वेदों का ब्रह्म हैमहावीर का कैवल्य हैकपिल और कणाद का मोक्ष हैबुद्ध का वही निर्वाण है।

      निर्वाण शब्द नकारात्मक है। निर्वाण का अर्थ होता हैदीए को फूंककर बुझा देना। एक दीया जल रहा हैअंधेरी रात हैतुमने फूंक मारी और दीया बुझ गया;
फिर तुम यह नहीं पूछते कि यह ज्योति कहां गयीबुद्ध कहते हैंऐसा ही निर्वाण है। मैं चाहूंगा कि तुम फूंक मारो और अपने को बुझा दो। और फिर मत पूछो कि कहां गए। खो गयी अनंत मेंहो गयी एक 'एकके साथ! मगर पूछो मत कहां गयी! निराकार के साथ एक हो गयी। मगर पूछो मत! कहने में बात बिगड़ जाएगी। चुप्पी और चुप्पी में समझ लो।

      ऐसेबड़े गहन बुद्ध के विश्लेषण और निषेध में हम उतरेंगे। अगर तुम हिम्मत पूर्वक बुद्ध के विश्लेषण में उतर जाओतो बुद्ध तुम्हें परम स्वास्थ्य की दशा में ला सकते हैं।

आज इतना ही।

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