गाँव की शांति में अचानक तूफ़ान आ गया, कहाँ दबी पड़ी थी यह अशांति जंगली घास की तरह दो बून्द पड़ी नहीं की उग आई। मनुष्य, औरतें, बच्चे ही नहीं, पेड़, पौधे, पशु-पक्षी सभी आश्चर्य और शौक मे भर गये थे। औरतें गली चौराहों पर खड़ी धुधंट मे ही खुसर-फुसर करती हुई जगह-जगह खड़ी दिखाई दे रही थी। कैसी कुंभ करणी नींद से एक दम जाग गया था पूरा गाँव। सबसे ज्यादा रौनक चाचा चुन्नी की चाय की दुकान पर थी । दुकान क्या गाँव का तोरण ही समझो, जो गाँव की कथा, पटकथा, रौनक, मेला यहीं से शुरू और यहीं खत्म। गाँव के ब्रह्मांड का केंद्र बिन्दु समझो। चुन्नी चाचा की चुटकी मे कुछ ऐसा जस था, अगर उनके हाथ की कोई चाय पी लेता तो फिर हो जाता कायल चाचा की चाय का। बात यहां तक सुनने मे आती है, चुन्नी चाचा की शान मे, किसी ने उनके हाथ की चाय न पी तो समझो जीवन बेकार, नाहक ही आया दुनियाँ मे सर खपाई करने के लिए। आज की खुसर-फुसर ने दुकान का सारे कायदे कानून ताक पर रख दिये थे। चाचा का पहले ही पारा सातवें आसमान पर रहता था, आज जो गिनना ही मुश्किल है...अनन्त आसमान ही समझो। कितनी ही क्रोध भरी वाणी चाचा की जबान से निकल रही हो, आप चेहरे पर फैला क्रोध का कोई चिन्ह तक नहीं पाओगे। चेहरा कैसे सपाट रेगिस्तानी रेत की तरह, जहाँ मीलों तक कोई झाड़-झुक्कड़ नहीं सफाचट मैदान, कोरा, निर्मल, भाव रहित। गजब कलाकार थे हमारे चुन्नी चाचा, कोई नाटक-नौटंकी वाले की निगाह में आ जाते तो फिर छुट्टी थी तुम्हारे दिलीप, शाहरुख को कोई घास भी नहीं डालता बेचारों को। चलो जो भी होता है,अच्छा ही होता है, वरना तो हमारे गाँव का रौनक मेला तो उठ चुका होता अब तक। अरे नाम होता, अब कोई कम नाम है गाँव का, ये सब किसके दम से है। चाचा चुन्नी चाय वाले कह लो या’’दसघरा वाले’’ दोनो पर्यायवाची वन गये है।
घटना यूँ घटी गाँव के प्रधान रतन चौधरी की बेटी ने मनखू धानुक के लड़के से कोर्ट मे विवाहा कर लिया। अब बोलों बचा कुछ कहने को, अनहोनी बात हो गई। दादा बुलाकि, राम सरूप, महाशय जिले सिंह, हवलदार कबूल...। चारों चौकड़ी लम्बा घुटनों तक मुँह लटका ये, आग बबूला हो, चिन्तित बैठे सर धुन रहे थे।
दादा बुलाकि--’’इब तै बहन-भाई के ब्याहा की कमी रहेगी’’
महाशय जिले सिंह सर पर दयानंद स्टाइल साफा बाँधते, कली का बंगाली कुर्ता पहने, हाथ मे मोटा-सोटा लिए हुऐ कहाँ--’’कलजुग आ गया भाई शामी जी (दयानंद जी ) ने पहला ही कै दी थी या बात, या तै शुरूआत से भाई बुलाकि।’
हवलदार कबूल--’’मेरा तै इशा मन कर सै साले न झांगड़ दे गेर के, सारी डि माग की आशकि-वासकि की गरमी झड़ जागी’’
चाचा चुन्नी--’’ तम यूं क्यू थूक बिलोन लाग रे हो, इब कुछ ना हो सकता, पंचायत की बेलू इब कै रह री से। इस कोट कचहरियाँ के सामहिं निरा बावला से कबूल तू तै। घनी चबरचबर करी ना तै हाँन्ड़ो गे घले-घले, कान बोच के पड़े रहो दड़बों मै। इब हरि जना का टेम आ रहा सै, भौत सत्ता लिया तुमने जाती कै नाम तै।’’
मैं बीच में फसा अखबार पढ़ना तो भूल गया, बस किसी तरह मुहँ छू पाये हुये था उससे। सोच रहा था निकल भागू यहां से किसी तरह।
दादा बुलाकि--’’अर छोरे तू किसका सै।’’
मैं--’’राम दरस का, पाटन का पोता।’’
--’’भाई कोथी मे पढ़े सै।’’
--’’दादा १६वीं मे।’’
--’’भौत अच्छा तू भी गाम का नाम रोशन करीयों, एक बात मेरी समझ में कोन्या आती यों पढ-पढ के थारे डिमाग में गोबर भर जा सै। देख मारे गाम की भी कोये खबर आई से इस अखबार में।’’
--’’ कौन सी खबर दादा मुझे पता नहीं है।’’( जबकि मुझे पता था )
--’’अरे कितना बावला से यो छोरा, अ: रे रत्तन की छोरी और मनखू धानुक के छोरे की’’
--’’नहीं दादा इसमें ऐसी कोई खबर नहीं आई हे।’’
--’’ चौखा यो भी ठीक रही, अरे चुन्नी चार कप चा ते पिला दे यार कितनी देर होगी मगज खपाई करते। इज्जत ते गाम कि गइ, पर बचे इस देस की भी ना।’’
मैने देखा गाँव में एक मोत जैसा मातम था, चारो तरफ मायूसी छाई थी। सबका दुख अपना दुख था,
किसी एक घर की घटना ना हो कर पूरे गांव पर छा गए घने काले बादल की तरह, अब बरसा की तब बरसा। कैसी सरलता, अपना पन फैला रहता था गाँव के लोगो में, जबान से क्रोध कितना ही झरता परन्तु मन में कोई मैल, वमन, ईशा का भाव रंच मात्र भी नहीं होता था। चाचा चुन्नी की कथा तो पूरण कथा ही समझो, जिसका न आदि है अन्त,चराचर एक नदी के बहाव की तरह जो बीना रुके अपनी सीतलता से किनारों को छूता चलता जाए। एक बार आप ने चाय पी कर दोबारा माँग ली तो आपकी शामत आ गई--’’सारे दिन चा-चा भाग याड़े ते फूँक देगी तेरे कलेजे ने।’’आर ब्लाक राजेन्द्र नगर में थी हमारे चाचा चुन्नी की चाय की दुकान, बड़े-बड़े गाडियों वाले जब चाय की चुसकी भरते तो दंग रह जाते, भूल जाते चाचा की कटु वाणी, चाय के मिठास में कटुता कहाँ खो जाती थी पता ही नहीं चलता था। एक दिन एक सरदार जी सुबह जल्दी आ गये चाय पीने के लिए, सरदी की ठिठुरन थी, चाचा अभी अंगीठी सुलगा ही रहे थे । अरे बाबा एक कप चाय पिला दो, चाचा का माथा एक दम गर्म अंगीठी से भी पहले, परन्तु कोई शुभ घडी ही थी, या सुबह की ताजगी छाई होगी चाचा के दिमाग़ में, कुछ नहीं बोले बस एक बार देखा सरदार जी को अपने चिर परिचित अन्दाज मे और चाय चढ़ा दी अंगीठी पर, सरदार जी भी अपने तरीके के एक ही थे। ’’अरे बाबा चाय में थोड़ी पत्ती तेज रखना’’, चाचा ने फिर देखा हलके से मुस्कुराये शायद बचपन लोट आया होगा, अरे बाबा थोड़ी चीनी तेज रखना, थोड़ा नमक भी डाल देना, गले में दर्द हो रहा हैं। जब सरदार जी ने पहला घुट भरा चाय का तो लगे थू..थू..करने अरे ये क्या किया बाबा तू पागल हो गया है। ’’ फूफा जीब सारी चीज घनी तै फिर नून थोड़ा क्यू यो भी छींक के ले,कहे ते तेरे आठ आने भी इसमें डाल दु।’’ चाचा खिलखिला कर एक शरारत भरी हंस दिए, सरदार जी बेचारे अपनी झेप मिटा कर बड़बड़ करते चले गये। १९७५ में झुगिया टूटी सब ने कहा पर्ची ले लो ’’सुलतान पुरी’’ दुकान मिल जायेगी,नहीं माने --’’कौन इतनी दूर जागा अपने ही घर के रोड़े ना संभाले जाते।’’
एक हमारे यहाँ का एम० एल० ए० श्री मान लाल जी पधारे, करेला वो भी नीम चढ़ा, नेता तो नेता ही होते हे। गाँव मे धूसते ही खुले चोंक के बीच चाचा की दुकान नजर आई, इका-दुक्का ग्राहक बैठे हुए थे, नेता जी ने आव देखा न ताव चला दिया नेता गिरी का रोब ’’अरे बाबा जरा भाग के जा और बुला कर तो ले आओ जरा रमेश्वर कौशिक जी को।’’
चाचा ने उठा लिया अपना सोटा तेरे बाप का नौकर लागू सू, आया चाल के हुक्म चलाने वाला।’’ पकड़ लिया चाचा चुन्नी ने नेता को, नेता तो बेचारा अपनी पूँछ दबा कर भागे, अरे बाबा बहुत गुसैल हो तुम तो। आसे थे हमारे चाचा चुन्नी। होली के दिनों मे छोटे-बड़े लड़के छुपा-छुपी खेलते, फिर देर रात होली पर लकडियां इक्कठा करते,चोरी से जब सब सो जाते। चाचा चुन्नी की दुकान के सामने कीकर का बहुत बड़ा तना पड़ा था। सभी ने सलाह मिलाई,इसे एक दिन पहले होली पर डालेंगे, सो पहुँच गये चाचा की दुकान के पास रात के २बजे। सब निश्चिंत थे अब वहाँ कौन होगा, परन्तु चाचा चुन्नी तो भूत बने पहरे पर बैठे थे। उम्मीद के अनुसार काम नहीं बना, समझे बात फैल गई इससे चाचा चुन्नी चौकन्ना हो इन्तजार मे बैठे है, कोई कुछ बोले बिना खजले कुत्ते की तरह पूँछ दब कर चल दिए खाली हाथ वापस। चाचा ने आवाज लगाई ’’अर छोरों उलटे क्यू चाल पड़े, कै लैन आये थे।’’ किसी ने हिम्मत कर के कहा कुछ नहीं चाचा घर जाते है।
’’होली की ताही लाकडी लेन आये थे, अरे यार क्यों डरन लाग रहे हो। ड़रों मत, ठा लौ जितनी थारी इच्छा हो,मैं कुछ ना कहूँ, बरस भर का त्योहार से, और भाई यो तो पुन्न का काम से, आ जाओ मैं भी हाथ लगा थारी मदद कर दु भौत भारी सै।’’
हम डरे-सहमते उस कुत्ते की हालत में आगे बढ़े जिसके सामने दूध का भरा बरतन हो और हाथ में मोटा सोटा, कई देर पुं..च..पुं..च ..का लाड़ सुन कर हम आगे बढ़े। सब यहीं सोच रहे थे कब हुआ चाचा का हमला, बच्चे तो फिर भी पास नहीं आये। चाचा ने खुद अपने हाथों से लड़की उठ वाई, पूरी रात सोये नहीं हमारा इन्तजार करते रहे थे। शायद हमारे खेल मे शामिल होने के लिए, ताकि हमारे मन में चोरी का भाव न कुरेदते। कैसे विरोध भाषी चरित्र,कितना कड़वा बोलते थे, पर थे कितने ’’मिठ बोले’’ ऐसे थे हमारे चाचा चुन्नी चाय वाले।
परन्तु आज चाचा क्या सभी गाँव के लोग परेशान है, सब समय की गति को पढ़ना चाहते हैं, परन्तु समय बिना ध्वनि किये तेज चाल से चला जाता है। जीवन के इस चौराहे पर जब मनुष्य पहुँचता है, तब खो चुका होता हे अपनी संघर्ष समता, पुराने संस्कार सूख कर दीमक खाई लड़की हो चुके होते है, आपने जरा छुआ नहीं की भुरभुरा कर गिर पड़े गे पल भर में। चाय पीते हुए गहरी साँस ले मेरी तरफ़ देख चाचा चुन्नी कहने लगे। ’’ छोरे राम दरस के तम जवानों का कोई देन नहीं से इस ग्राम-देस के प्रति, इस मिट्टी के प्रति, आजादी फिरी मे थ्यागी(मिल गई) इब तोड़ अपने ही झुकड़े ते अपने सिंगडा तै।’’
मैने हिम्मत कर मधुमक्खी के छत्ते मे हाथ डालने की कोशिश की--’’ दादा सालों से फिल्मों मे टी वी मे एक ही कहानी दिखाते है, उसी गाँव का लड़की-लड़का साथ खेलते है, लड़ते हे, फिर प्रेम करते हे शादी करके उसी गाँव मे रहते है, कोई विरोध नहीं करता आप भी कहते थे,’’गंगा-जमुना’’ दिलीप कुमार की बहुत अच्छी फिल्म है। एक नहीं सभी भारतीय फिल्मों की यहीं कहानी होती है। कहीं यहीं बच्चों के दिमाग में गलत असर छोड़ ती हो, फिल्म ही आज
समाज का चरित्र निर्माण करती है, बाल कोमल मन उन्हें ही अपना आदर्श मान वैसा ही होना करना और बनना चाहते, अब आज लोगो की मानसिकता बदल रही है, पैसे ने समाज में आदर्श, सिद्धान्तों से कहीं उपर अपना स्थान बना गया है। नैतिकता सिसक रही है विकास के किसी कोने में पड़ी-पड़ी इसको रोक पाना असम्भव है।
चाचा चुन्नी--’’ अरे छोरे पाटन के पोते एक बात ध्यान तै सुन ले, इन फिल्म वालो और नेताओं में त कीड़ी(चींटी) कितना भी दिमाग़ ना हो सै, अरे देश की लगाम इब इनके हाथ में आगी। गन्जें के हाथ में नाखून आगे इब टाँट(सर) की खैर कोना। इब आन वाले टेम मै ये ही भगवान होगें थारे, राम,किशन, दयानंद शामी जी की जगहा, इन नेताओं और फिल्मी हीरो की फोटू लागी धर-धर। अर आज तूँ मारी वात गांठ बन्ध ले,२०० साल राज किया अंग्रेजों ने मारे तोर तरीके रहन सहन को न्या छिन पाये। देख लिया आजादी के २५ साल में थारी लंगोटी छिन ये सुतिनी पनहा दी। अरे यो भारत देश केवल भारत रतन की माला मे ही लिखा रह जा गा। इन मल्ल छो की एक-एक गंदी बात थारे डिमाग में गीता, पुराण बन के बैठ जा गी। अर यार जिले सिंह मैं तै मर जा गाँ जीब तक तू जिन्दा रहे तै पुछिया इस छोरे तै-- अगर छोरे -छोरे ब्याहा ना करे आपस मे ते थू से मारी जिन्दगी पै। पहाड़ तै गिरन के बाद केवल गिरना ही हो से, रूकना की सम्भावना कोना होती। जो आज तम सोचो सो वो ही थारे सामने बोया पाएगा कल काटना भी वो ही पड़े गा। नाहक गाँधी, भगत सिंह, बिसमिल, आजाद, सुभाष ने देस आजाद करवाया। कै पत्ता था उन् ने कि थारे बाद कुत्ते मलाई खाएंगे, आजादी की तै बात छोड़ दो ये तो इसने भी सम्हाल के भी रख लो ते थारी बड़ी मेहरबानी होगी।’
३०-३५ साल पहले जब ये बात कहीं थी, जब तो मैने सोचा जोश में बोल रहे है चाचा चुन्नी। शायद आज गाँव में ऐसी घटना धटी है इससे उत्तेजित हो क्रोध के आवेग मे बोल रहे है। परन्तु अभी दिल्ली कोर्ट का फैसले की खबर आई फिर इसपर चर्चा चली तब कहीं यादों की दबी परतों में दबी-भूली वो बात, नास्तरादमों की भविष्य वाणी की तरह सटीक और सत्य महसूस हो निकल आई। समय के चलने की कोई आहट, ध्वनि, कोई भाषा भी होती है, जो समस्त आस्ति त्व में केवल है, वो शब्द-ध्वनि के पार शून्य में। उसके लिये कान नहीं ह्रदय की विमलता ही उस सम्प्रेषण को महसूस कर सकती हैं। उसका विस्तार अनन्त है, परन्तु हम उसे सुकेड-समेट कर कैद करना चाहते है, एक परिवार तक ही नहीं केवल अपने घर के कोने तक। कितने सरल ह्रदय थे, अनपढ़ गवार से कहलाने वाले वो लोग.....उनको मेरा नमन।
--स्वामी आनंद प्रसाद‘’मानस’
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