मैं अँधेरों को मिटाने आ गया।
गीत गा तुमको जगाने आ गया।।
थक गए अब है कदम चलते नहीं।
बादल दुखों के है यूहीं छटते नहीं।
फूल जीवन में कहीं खिलते नहीं।
बीज बंजर है पड़े उगते नहीं।
शूल पथ के मैं हटाने आ गया।
हो धरा पर पंख नभ के ले लिये।
कल्पनाओं में बहुत तुम जी लिये।
कंठ अंगारों से भर कर पी लिये।
पैबंद दुखों के दामनों पर सी लिये।
देव धरा को मैं बनाने आ गया।
गीत गा तुमको जगाने आ गया।
हैं कठिन, जीवन नदी भी है विकट।
हाथ से पतवार को अब न यू झटक।
दो कदम बस और आगे देख है तट।
तूफ़ानों को देख कर न तू सिमट।
घाट को तीर्थ बनाने आ गया।।
गीत गा तुमको जगाने आ गया।
प्रीत पथ है एक, और राहे अनन्त।
सिंधु तट से न बुझ गी ये जलन।
ध्यान के मधुरस में है मीठी छुअन।
आज तुमको है पुकारता है ये गगन।
राह फूलों से सजाने आ गया।
गीत गा तुमको जगाने आ गया।
हाय भरम है क्यों तुझे अभिमान का।
झूठा दंभ रह गया तुझे क्यों ज्ञान का।
रुला फिरेगा धूल में सर आन का।
दीप पथ पर में जलाने आ गया।
गीत गा तुमको जगाने आ गया।।
अपना होना ही है होना एक बस।
सूखे फूलों में नहीं होता है रस।
जान ले तूँ मौन मदिरा का कलस।
फिर बूझेगी देख जीवन की जलस।
होश अमरत का पिलाने आ गया।
मैं अधरों को मिटाने आ गया।
गीत गा तुमको जगाने आ गया।।
--स्वामी आनंद प्रसाद ‘मानस’
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