धुल का कण सरक कर परों के तले,
उसका धीरत ते से सिमटना, नाचना।
झूम कर करना यूं अट्टहास,
क्यों नहीं आता उसको अहं से उठना।
फिर भी वो हवा के नाजुक पंखों पर बैठ कर,
बना देता है रेत के ऊंचें-ऊंचें पहाड़।
रात की सीतलता का करता है इंतजार।।
डूबते सूरज की सपाट, सिमटती धूप में,
वो सोने सा गर्वित लगता है।
बसन्त की सुकोमल शान्ति में वो,
सीने पर कांटे उगा कर हंसता है।।
अपाढ़, के गरजते घन-घोर मेघों में,
रिम-झिम टपकता बूँदों में भी।।
कैसी नन्हें बच्चे की तरह ,
सुबकियां भर-भर कर नहाता है।।
हाए! मनुष्य तुझे क्या हो गया है,
कहां खो गई है तेरी हंसी।।
कहां है तेरी आंखों का उल्लास,
कहां छुट गया तेरा उन्माद।।
देख अपने कदम को फिर से,
क्या वो तुझे चला रहे है।
या तू उन्हें....।।
ठहर जा, ठिठक जा।
एक पल में सब बदल जाएगा।
बस तुझे रूकना भर है,
परन्तु तू रूकना भूल गया है शायद,
बस अब एक कदम और नहीं,
बस इसके बाद इति है।
नहीं देख सकेगा तू पीछे चाहकर,
क्या समय देखेगा मुड़कर फिर से,
एक काली छाया निगल चूकि होगी इस धरा को,
इन सुरम्य गर्वित जीवन को,
केबल बचा होगा अन्धकार,
एक काल अन्धकार, एक प्रलय,विभीषीका.......।।
--स्वामी आनंद प्रसाद मानस
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