अमृत की खोज---


मैं धार्मिक मनुष्‍य उसको कहता हूं, जो जीवन की अर्जन की प्रक्रिया में संलग्‍न है, उसको नहीं, जो मंदिर जा रहा है, उसको नहीं जो सुबह गीता और कुरान पढ़ रहा है, उसको नहीं जिसने जनेऊ पहन रखा है, चोटी रख रखी है, उसको नहीं जो मस्जिद में जा रहा है और गिरजे में जा रहा है, उससे कोई धार्मिक होने का अनिवार्य संबंध नहीं है। धार्मिक होने का अनिवार्य संबंध इस बात से है कि जो जीवन के सृजन में संलग्‍न है, जिसने जीवन को स्‍वीकार नहीं कर लिया, जो जीवन को निर्मित करने में लगा है। जो प्रतिपल मृत्‍यु से जुझ रहा है, और अमृत की खोज कर रहा है। जो चुपचाप नहीं बैठा है कि मौत आ जाए और बहा कर ले जाए। जो सिर्फ मृत्‍यु की प्रतीक्षा नहीं कर रहा है। जो जुझ रहा है, जो संघर्ष कर रहा है कि मृत्‍यु के इस धिराव के बीच में अमृत को कैसे उपलब्‍ध हो सकता हूं। मैं उसे कैसे पा सकता हूं जिसकी कोई मृत्‍यु नहीं है। क्‍योंकि वही जीवन हो सकता है, जहां मृत्‍यु न हो, ये जीवन होने का एक धोखा मात्र ही है, वही जीवन है।

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