उपनिषद--कठोपनिषद--ओशो (तीसरा--प्रवचन)

सन्‍यास वैराग्‍य में हेतु रूपा : मृत्‍युतीसरा प्रवचन

 
द्वितीय बल्‍ली :


अन्‍यत्‍छेूयोध्न्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानाथें पुरुषं सिनीत:।
तयो: श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेsर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते।। 1।।

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीर:।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते।। 2।।

स त्वं प्रियान् प्रियरूपाक्य कामानभिध्यायन्नचिकेतोइत्यस्राक्षी:।
नैतान् सृंकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मंजन्ति बहवो मनुष्य।:।। 3।।

दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सिन नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त।।4।।

अविद्यायामन्तरे वर्तमाना: स्वयं धीरा: यण्डितम्मन्यमाना:।
दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:।। 5।।


इस प्रकार परीक्षा करके जब यम ने समझ लिया कि नचिकेता दृढ़निश्चयी परम वैराग्यवान एवं निर्भीक. है अत: ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी है तब ब्रह्मविद्या का उपदेश आरंभ करने के पहले उसका महत्व प्रकट करते हुए यम ने कहा—श्रेय अर्थात कल्याण का साधन अलग है और प्रेय अर्थात प्रिय लगने वाले भोगों का साधन अलग है। वे भिन्न— भिन्न फल देने वाले दोनों साधन मनुष्य को बांधते हैं अपनी—अपनी ओर आकर्षित करते हैं। उन दोनों में से श्रेय अर्थात कल्याण के साधन को ग्रहण करने वाले का कल्याण होता है। परंतु जो प्रेय अर्थात सांसारिक भोगों के साधन को स्वीकार करता है वह यथार्थ लाभ से वंचित रह जाता है।। 1।।


श्रेय और प्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं। बुद्धिमान मनुष्य उन दोनों के स्वरूप पर भलीभांति विचार करके उनको पृथक—पृथक करके समझ लेता है। और वह श्रेष्ठबुद्धि मनुष्य परम कल्याण के साधन को ही भोग—साधन की अपेक्षा श्रेष्‍ठ समझकर ग्रहण करता है। परंतु मंदबुद्धि वाला लौकिक योगक्षेम की इच्छा से भोगों के साधनरूप प्रेय को अपनाता है।।2।।

हे नचिकेता! तुम ऐसे निस्पृह हो कि प्रिय लगने वाले और अत्यंत सुंदर रूप वाले इस लोक और परलोक के समस्त भोगों को भलीभांति सोच— समझकर तुमने छोड़ दिया। इस संपत्तिरूप श्रृंखला को बेड़ियों को तुम नहीं प्राप्त हुए इसके बंधन में तुम नहीं फंसे जिसमें बहुत से मनुष्य फंस जाते हैं।। 4।।

जो कि अविद्या और विद्या नाम से विख्यात हैं ये दोनों परस्पर अत्यंत विपरीत और भिन्न— भिन्न फल देने वाली हैं तुम नचिकेता को मैं विद्या का अभिलाषी मानता हूं। क्योंकि तुमको बहुत से भोग किसी प्रकार भी नहीं लुभा सके।। ४।।

अविद्या के भीतर रहते हुए भी अपने आपको बुद्धिमान और विद्वान मानने वाले मूड लोग नाना योनियों में चारों ओर भटकते हुए ठीक वैसे ही ठोकरें खाते रहते हैं जैसे अंधे मनुष्य के द्वारा चलाए जाने वाले अंधे अपने लक्ष्य तक न पहुंचकर इधर—उधर भटकते और कष्ट भोगते हैं।।5।।



नुष्य दो भांति से विकसित होता है। एक तो उसके पास साधनसुविधाएंसंपत्तिपरिग्रह बढ़ता चला जाए,लेकिन आत्मा न बढ़े। और दूसराउसकी अंतस—चेतना बढ़े। संसार में जो भी हम पा सकते हैंउससे हम विकसित नहीं होते। हमारी शक्ति भला विकसित होती होहमारे महल बड़े हो जाते होंहमारी धन की राशि बड़ी हो जाती हो,हमारा ज्ञान बड़ा संग्रह बन जाता होस्मृति भरपूर हो जाती होउपाधियांसम्मानसत्कार मिल जाते होंलेकिन भीतर की चेतनाभीतर की आत्माबीइंगवैसा ही अविकसित रह जाता है जैसा जन्म के साथ था।
बाहर की यह दौड़ सभी को पकड़ लेती है। भीतर की दौड़ बड़ी मुश्किल से कभी किसी को पकड़ती है। उसके भी कारण हैं।
बाहर की दौड़ इसलिए आसानी से पकड़ लेती है कि बाहर का हमें इंद्रियों के द्वारा अनुभव होता है। आंखों से दिखाई पड़ती हैं वस्तुएंकानों से ध्वनियां सुनाई पड़ती हैंनाक गंध की खबर देती हैस्वाद मिलता है। शरीर के सारे उपकरण बाहर की खबर देते हैंभीतर की कोई खबर नहीं देते। शरीर विकसित ही इसलिए हुआ है कि उससे बाहर की खबर मिल सके। शरीर आत्मा और बाहर के बीच सेतु हैइसलिए शरीर बाहर की खबर देता है। इस खबर के मिलते ही चेतना बाहर की तरफ दौड़नी शुरू हो जाती है।
आंखे बाहर देखती हैंभीतर तो देखती नहीं। और जहां हमें दिखाई पड़ता हैवहीं मार्ग भी मालूम होता है। समस्त इंद्रिया बहिर्गामी हैं। होंगी ही। क्योंकि अंतर्गामी इंद्रियों की कोई जरूरत नहीं है। जो भीतर है मेरेउसे तो मैं बिना इंद्रियों के भी जान ले सकता हूं। जो बाहर हैउसे बिना इंद्रियों के जानने का कोई उपाय नहीं है।
मनुष्य की सारी इंद्रियों का विकास बाहर के जगत को जानने की आकांक्षा  से हुआ है। मेरे हाथ आपको छू सकते हैं। मेरे हाथ से मैं सब कुछ पकड़ सकता हूं सिर्फ अपने हाथ को छोड्कर। मेरी आंखे सब कुछ देख सकती हैं,सिर्फ मेरी आंखे खुद को नहीं देख सकतीं। आँख-आंख को ही नहीं देख सकती।
स्वभावत: इस कारण चेतना बाहर की तरफ बहती है। और हम बाहर के संग्रह मेंबाहर के संसार मेंबाहर की वस्तुओं मेंउनके बढ़ाने मेंउनके विकास में संलग्न हो जाते हैं। ऐसे एक आदमी संपत्तिशाली हो जाता है और भीतर दरिद्र रह जाता है। ऐसे एक आदमी महाशक्तिशाली हो जाता है—बाहर की दुनिया मेंलेकिन भीतर दीन रह जाता है। और जब तक भीतर दीनता हैतब तक बाहर की कोई शक्ति और सामर्थ्य किसी काम में आने वाली नहीं।
दूसरी बातहमारे चारों तरफ बाहर दौड़ते हुए लोग हैंऔर आदमी का मन बड़ा नकलची है। हम सीखते ही सारी बातें नकल से हैं। भाषा घर में जो बोली जाती हैबच्चा सीख लेगा। स्वभावत: और किसी भाषा को सीखने का उपाय भी नहीं है। घर के मां—बाप जिस धर्म को मानते हैंबच्चा भी मानने लगेगा।
जिस मंदिर में प्रार्थना—पूजा करते हैं ?ई वह भी वहां जाने लगेगा। घरपरिवारगांवसमाजदेश के लोग जिस तरफ दौड़ रहे हैंबच्चा भी उसी दौड़ में सम्मिलित हो जाएगा।
हम भीड़ के साथ बहते हैं। सभी लोग बाहर की तरफ दौड़ रहे हैं। उन सबके साथ हम भी दौड़ते चले जाते हैं। सारा शिक्षण बाहर की यात्रा का हैअंतर—यात्रा का कोई शिक्षण नहीं है।
इस देश ने कुछ कोशिश की थी। जब ये उपनिषद रचे गएतब वह कोशिश अपनी चरम अवस्था में थी। इसके पहले की कोई बच्चा बाहर के संसार से जुड़ेहम उसे भेज देते थे गुरुकुलउन लोगों के पास जो भीतर की तरफ दौड़ रहे हैं। इसके पहले कि कोई बाहर की तरफ जाएहम उसे भीतर का स्वाद दे देना चाहते थे।
एक बार भी वह स्वाद आ जाएतो फिर बाहर का कोई भी स्वाद उससे कीमती कभी भी नहीं हो पाता। और एक बार इस बात का रस आ जाए कि भीतर भी एक जगत हैतो बाहर की सब दौड़ फीकी और उदास मालूम होने लगती है। फिर कोई बाहर चले भी तो भी कर्तव्यवश चलता हैवासनावश नहीं। फिर कोई बाहर के जीवन में संलग्न भी रहेतो साक्षी की तरह संलग्न होता हैभोक्ता की तरह नहीं।
सिर्फ भारत ने एक अनूठा प्रयोग किया था कि इसके पहले कि भीड़ पकड़ ले और आदमी बाहर की तरफ बहने लगेहम उसे गुरुकुल भेज देते थेताकि वह उन लोगों के सान्निध्य में बैठ जाए जो भीतर की तरफ बह रहे हैं। उस हवा में वह भी भीतर की तरफ बह पाए। और थोड़ा—सा उसे बोध हो जाएथोड़ा संगीत सुनाई पड़ने लगेथोड़ो भीतर की वीणा बज उठेफिर हम उसे संसार में भेज देते थेनिर्भीक।
हमने इस देश में जीवन के चार चरण किए थे। पहले चरण को हमने ब्रह्मचर्य कहा था। यह शब्द बड़ा अनूठा है। इस शब्द का अर्थ है—ईश्वर जैसी चर्या। ब्रह्म जैसी चर्या। ब्रह्म जैसा आचरण। यह शब्द उतना छोटा नहीं है जैसा कि लोगों ने इसे मान रखा है। लोग तो समझते हैं कि शायद वीर्य का निरोध ब्रह्मचर्य है। यह बड़ी क्षुद्र व्याख्या है। वीर्य का निरोध तो सहज हो जाता है। लेकिन ईश्वर जैसी चर्या अगर होतो वीर्य का निरोध तो छाया की भांति पीछे चला आता है। वह कोई मौलिकवह कोई आधारभूत बात नहीं है। वह तो जो बाहर की तरफ दौड़ रहा हैउसका ही वीर्य भी बाहर की तरफ दौडता है। जो भीतर की तरफ चलने लगाउसके वीर्य की गति भी अंतर्मुखी हो जाती है।
ईश्वर जैसी चर्या का अर्थ है—जिसकी जीवन—चेतना भीतरऔर भीतरऔर भीतर की तरफ जा रही है। केंद्र की तरफ जाती हुई चेतना का नाम ब्रह्मचर्य है। अपने से बाहर जाती चेतना का नाम अब्रह्मचर्य है। दूसरे की तरफ जाती हुई चेतना का नाम कामवासना है। अपनी तरफ जाती हुई चेतना का नाम ब्रह्मचर्य है। पच्चीस वर्ष के लिए हम युवकों को भेज देते थे गुरुकुल मेंताकि वे भीतर की तरफ बहना सीखें। इसके पहले कि संसार का स्वाद उन्हें आए वे परमात्मा का थोड़ा—सा स्वाद ले लें। फिर कोई डर नहीं है। फिर संसार उन्हें कभी भी भुला न सकेगा। फिर वह याद बनी ही रहेगी। फिर वह भीतर की पुकार जारी ही रहेगी। फिर भीतर कोई धुन बजती ही रहेगी। और धन फिर कितनी ही आवाज करेउस भीतर की आवाज को दबाना मुश्किल होगा।
स्त्रियां पुरुषों को कितना ही आकर्षित करेंया पुरुष स्त्रियों को कितना ही आकर्षित करेंवह आकर्षण फीका ही रहेगा। जिसने एक बार भी भीतर के पुरुष या भीतर की स्त्री का दर्शन कर लियाउसके लिए बाहर फिर छायाएं हैं,फिर बाहर तस्वीरें हैंफिर बाहर कुछ भी वास्तविक नहीं है। फिर कोई आकर्षण बाहर नहीं है। फिर कोई खींच नहीं सकता। तब हम मानते थे व्यक्ति को इस योग्य कि वह अब संसार में जाए। 
बड़ी अजीब बात है। संसार के बाहर का अनुभव ले-लेफिर संसार में जाए। प्रयोजन कीमती था। फिर कोई संसार में जाता था तो भी संसार उसके भीतर नहीं पहुंच पाता था। जिसने भीतर की थोड़ी—सी भी समझ पैदा कर ली,वह संसार से फिर अछूता निकल जाता था। वह चलता था इस नदी मेंलेकिन उसके पैरों में पानी नहीं छूता था। फिर वह गुजरता था इन्हीं सब जगहों सेजहां से आप गुजरते हैंलेकिन वह गुजर जाता था एक मेहमान की तरह। यह घर उसके लिए धर्मशाला ही होता था। यह परिवार उसके लिए एक नाटक से ज्यादा मूल्य नहीं रखता था। जो भी जरूरी थावह करता था। लेकिन कोई भी ऐसी वासना नहीं थी जो विक्षिप्तता बन जाए।
तो हम दूसरे चरण में उसे गृहस्थ बनाते थे। ऐसा अनूठा प्रयोग पृथ्वी पर फिर कभी दुबारा नहीं हुआ। और जब तक यह प्रयोग दुबारा नहीं होतापृथ्वी अत्यंत दुख और पीड़ा से भरी रहेगी।
बाहर जाने के पहले भीतर पैर मजबूती से जम जाने चाहिए। धन पर हाथ पड़े इसके पहले स्वयं की संपदा का अनुभव हो जाना चाहिए। फिर धन साधन होगा। फिर हम उसका उपयोग कर लेंगेलेकिन धन फिर हमारा मालिक न हो पाएगा।
तो ब्रह्मचर्य के बाद हम भेजते थे उसे गृहस्थ मेंकि जाए घर मेंविवाह करेसंतति हो उसकी। संसार को देखेसंसार को जीए। लेकिन यह व्यक्ति और ढंग से जीता था। इसके जीने का गुण ही अलग था। क्योंकि यह व्यक्ति साक्षी हो पाता था। हम साक्षी नहीं हो पातेहम भोक्ता हो जाते हैं।
भोक्ता होना पीड़ा है। साक्षी होना परम आनंद है। और साक्षी को अगर हम नर्क में भी डाल देंतो भी दुख में नहीं डाल सकते। और भोक्ता को हम स्वर्ग में भी रख देंतो भी हम दुख के बाहर नहीं ले जा सकते। भोगी मन दुखी होगा ही। क्योंकि भोगी मन के लक्षण हैं कुछ। भोगी मन का पहला लक्षण तो यह है कि जो भी मिल जाए वह कम मालूम होता है। भोगी मन का दूसरा लक्षण यह है कि उसे जो भी मिल जाए वह व्यर्थ मालूम होता हैजो नहीं मिलता वही सार्थक मालूम होता है। भोगी मन का तीसरा लक्षण यह है कि उसकी वासना अनंत होती है और वासना की पूर्ति के साधन सदा सीमित हैं।
इसलिए भोगी मन को कभी भी किसी तरह के सुख में प्रविष्ट कराना असंभव है। वह हर जगह दुखी होगा। दुख उसके भीतर पैदा होता है। हर चीज उसके दुख में रंग जाती है।
साक्षी को दुखी करना असंभव है। क्योंकि साक्षी के भी वैसे ही लक्षण हैं। साक्षी का पहला लक्षण तो यह है कि जो भी घटना घटती होवह उससे अपने को पृथक मानता है। जो भी घट रहा होवह उससे. अपने को फासले पर देखता है। वह जानता है कि मैं सिर्फ देखने वाला हूं। तो अगर दुख घट रहा है तो वह दुख का भी देखने वाला है। वह दुख के साथ एक नहीं हो पाता। और जब तक आप दुख के साथ एक न होंतब तक दुखी नहीं हो सकते।
साक्षी मन का दूसरा लक्षण है कि जो भी मिल जाए वह उसके लिए अनुगृहीत होता है। जो भी मिल जाएवह उसे परमात्मा की अनुकंपा मानता है। जो भी मिल जाएवह उसे अपने कर्तृत्व का फल नहीं मानताउसकी अनुकंपा मानता है। क्योंकि साक्षी कर्ता तो बनता ही नहींइसलिए वह यह तो कह ही नहीं सकता कि मैंने किया इसलिए मुझे मिला! वह सदा यही कहता है कि मैंने तो कुछ भी नहीं किया और यह सब मुझे मिलाइसलिए मैं अनुगृहीत हूं। उसके अनुग्रह की कोई सीमा नहीं है। उसके धन्यवाद काआभार का अहोभाव अनंत है। इसे समझ लें। 
साक्षी का मतलब ही यह है कि वह जानता हैमैंने कभी कुछ नहीं किया। मैं सिर्फ देखने वाला हूं। तो जो कुछ भी हुआ हैवह मेरे द्वारा नहीं हुआ हैउसमें मैं कर्ता नहीं हूं। इसलिए जो भी हो जाएवह प्रभु की अनुकंपा है।
साक्षी से सुख को छीनना असंभव है। साक्षी उस कला को जानता हैजिससे उसके चारों तरफ सुख फैलता है। जैसे मकड़ी अपने भीतर से जाले को निकालकर निर्मित करती हैवैसा ही भोक्ता अपने चारों तरफ दुख का जाल निर्मित करता है और साक्षी अपने चारों तरफ सुख का जाल निर्मित करता है।
फिर साक्षी की कोई वासना नहीं है। क्योंकि जब मैं कर्ता हो ही नहीं सकतातो करने की कोई कामना व्यर्थ है। और जिसकी कोई वासना नहीं हैजिसकी कोई अपेक्षा नहीं हैउसे आप कभी भी दुखी नहीं कर सकते। दुख आता है अपेक्षा के टूटने से।
मैंने सुना है कि एक आदमी बहुत उदास और दुखी बैठा है। उसकी एक बड़ी होटल है। बहुत चलती हुई होटल है। और एक मित्र उससे पूछता है कि तुम इतने दुखी और उदास क्यों दिखाई पड़ते हो कुछ दिनों सेकुछ धंधे में कठिनाईअड़चन हैउसने कहाबहुत अड़चन है। बहुत घाटे में धंधा चल रहा है। मित्र ने कहासमझ में नहीं आता,क्योंकि इतने मेहमान आते—जाते दिखाई पड़ते हैं! और रोज शाम को जब मैं निकलता हूं तो तुम्हारे दरवाजे पर होटल के तख्ती लगी रहती है नो वेकेंसी कोकि अब और जगह नहीं हैतो धंधा तो बहुत जोर से चल रहा है! उस आदमी ने कहातुम्हें कुछ पता नहीं। आज से पंद्रह दिन पहले जब सांझ को हम नो वेकेंसी की तख्ती लटकाते थेतो उसके बाद कम से कम पचास आदमी और द्वार खटखटाते थे। अब सिर्फ दस—पंद्रह ही आते हैं। पचास आदमी लौटते थे पंद्रह दिन पहलेजगह नहीं मिलती थी। अब सिर्फ दस—पंद्रह ही लौटते हैं। धंधा बड़ा घाटे में चल रहा है।
अपेक्षा से भरा हुआ चित्त निश्चित ही दुखी होगा।
मैं एक घर में मेहमान था। गृहिणी ने मुझे कहा कि आप मेरे पति को समझाइए कि इनको हो क्या गया है। बसनिरंतर एक ही चिंता में लगे रहते हैं कि पाच लाख का नुकसान हो गया। पत्नी ने मुझे कहा कि मेरी समझू में नहीं आता कि नुकसान हुआ कैसे! नुकसान नहीं हुआ है। मैंने पति को पूछा। उन्होंने कहाहुआ है नुकसानदस लाख का लाभ होने की आशा थीपांच का ही लाभ हुआ है। नुकसान निश्चित हुआ है। पांच लाख बिलकुल हाथ से गए।
अपेक्षा से भरा हुआ चित्तलाभ हो तो भी हानि अनुभव करता है। साक्षीभाव से भरा हुआ चित्तहानि हो तो भी लाभ अनुभव करता है। क्योंकि मैंने कुछ भी नहीं कियाऔर जितना भी मिल गयावह भी परमकृपा हैवह भी अस्तित्व का अनुदान है।
तो गृहस्थ हम बनाते थे व्यक्ति कोजब वह भीतर के साक्षी की थोड़ी—सी झलक पा लेता था। फिर पत्नी होती थीलेकिन वह कभी पति नहीं हो पाता था। फिर बच्चे होते थेवह उनका पालन करता थालेकिन कभी पिता नहीं हो पाता था। मकान बनाता थादुकान चलाता थालेकिन सब ऐसे जैसे किसी नाटक के मंच पर अभिनय कर रहा हो। और प्रतीक्षा करता था उस दिन कीकि वह जो भीतर की यात्रा पच्चीस वर्ष की उम्र में अधूरी छूट गई थीजल्दी से उसे पूरा करने का कब अवसर मिले। तो पचास वर्ष की उम्र में वह वानप्रस्थ हो जाता था।
वानप्रस्थ का अर्थ था कि अब उसकी नजर फिर जंगल की तरफ। जंगल से ही शुरू हुई थी उसकी यात्राअब वह फिर जंगल की तरफ देखने लगा। लेकिन अभी जंगल चला नहीं जाता थाक्योंकि उसके बच्चे पच्चीस वर्ष के होकर गुरुकुल से वापस लौट रहे होंगे। और अभी बाप एकदम छोड्कर चला जाएतो बच्चे बिलकुल मुश्किल में पड़ जाएंगे। उन्हें भीतर का तो थोड़ा—सा अनुभव हुआ हैलेकिन बाहर के उपद्रव के जाल की शिक्षा भी चाहिए।
तो बाप घर रुकता थापच्चीस वर्ष। पचहत्तर वर्ष की उम्र तक वह घर रुकता। उसका मुख जंगल की तरफ होतावह घर से अपना डेरा उखाड़ने लगता। लेकिन बच्चे लौटते हैं आश्रम सेउनको इस संसार की जो व्यवस्था है,इसका जो उसका अपना अनुभव हैवह उसे दे देना है। और जब वह पचहत्तर साल का होतातो वह संन्यस्त हो जाता। वह वापस जंगल में लौट जाता। क्योंकि जब वह पचहत्तर साल का होतातब उसके बच्चे पचास साल के करीब पहुंचने लगते। उनके वानप्रस्थ होने का वक्त आ जाता।
यह जो पचहत्तर साल की अवस्था में संन्यस्त होकर चले जाते लोगये गुरु हो जाते। छोटे बच्चे इनके पास पहुंचते। ऐसा हमारा वर्तुल था। जो सारे जीवन की सब अवस्थाओं को देखकर लौट आया है जंगल मेंउसके पास हम अपने छोटे बच्चों को भेज देते थे कि उससे वे जीवन का सार और जीवन की कुंजी लेकर आ जाएं।
शिक्षक और विद्यार्थी के बीच इतना फासला तो होना ही चाहिए। आज जगत में बड़ी असुविधा हैक्योंकि शिक्षक और विद्यार्थी के बीच कोई सम्मान का भाव नहीं है। हो भी नहीं सकताक्योंकि फासला बिलकुल नहीं है। कई बार तो ऐसा है कि हो सकता है विद्यार्थी ज्यादा अनुभवी हो शिक्षक से। और अगर थोड़ा बहुत फासला भी है तो वह इतना इंच दो इंच का है कि उसमें कोई आदरभाव पैदा नहीं होता।
लेकिन एक पचहत्तर साल का बूढ़ाजिसने जीवन के ब्रह्मचर्य कागार्हस्थ कावानप्रस्थ होने का और संन्यस्त होने का सारा अनुभव संजो लिया हैजब छोटे बच्चे उसके पास जाते तो उन्हें लगता कि वे किसी हिमाच्छादित शिखर के पास आ गए हैं। उसकी चोटी बड़ी ऊंची होतीआकाश छूती! वहा सम्मान सहज होता।
लोग कहते हैंगुरु का आदर करना चाहिए। और मैं कहता हूं जिसका आदर करना ही पड़ेवही गुरु है। करना चाहिए का कोई सवाल नहीं उठता। और जहां करना चाहिए का सवाल उठता हैवहां कोई आदर हो नहीं सकता। आदर कोई थोपा नहीं जा सकताउसकी कोई मांग नहीं हो सकती।
जीवन में दो यात्राएं हैं—एक भीतर की तरफएक बाहर की तरफ। इस सूत्र में अब हम प्रवेश करें।
इस प्रकार परीक्षा करके जब यम ने समझ लिया कि नचिकेता दृढ़निश्चयी परम वैराग्यवान एवं निर्भीक है अत: ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी है तब ब्रह्मविद्या का उपदेश आरंभ करने के पहले उसका महत्व प्रकट करते हुए यम ने कहा.।
उसने कई बातें जांच लीं। उसने एक तो समझ लिया कि यह नचिकेता वैराग्य— भाव से भरा है। जो वैराग्य— भाव से भरा हैवही भीतर जा सकता है। जो राग— भाव से भरा हैवह बाहर जाएगा। क्योंकि हम वहीं जाते हैंजहा हमारी तृप्ति हो। राग की तृप्ति है बाहरवासना की तृप्ति है बाहरकाम की तृप्ति है बाहरइच्छाएं तो पूरी होंगी बाहरतृष्णाएं तो पूरी होंगी बाहर। होंगी या नहीं होंगीलेकिन आभासपूरे होने काबाहर है।
यम को जब पक्का हो गया कि नचिकेता वैराग्य को उपलब्ध हो गया हैतब उसे लगा कि अब ब्रह्मविद्या की बात कही जा सकती है। क्योंकि ब्रह्मविद्या का अर्थ है—आत्यंतिक रूप से भीतर जानाउस बिंदु पर पहुंच जानाजहां सिर्फ भीतर का ही अस्तित्व रह जाता हैऔर बाहर खो जाता है। बाहर होता ही नहीं। बाहर जैसी कोई घटना ही नहीं बचती। सब कुछ भीतर ही हो जाता है। सारा अस्तित्व भीतर समा जाता हैसमाविष्ट हो जाता है। केंद्र पर ही प्राणों की सारी धारा आ जाती है। लेकिन यह तो तभी होगाजब प्राण बंट—बंटकर वासनाओं में बाहर न जा रहे हों।
वैराग्य का अर्थ है—बाहर जाने की वृत्ति खो गई हो। और तभी कोई ब्रह्मविद्या में प्रवेश पा सकता है। यम ने देखा कि नचिकेता वैराग्यवान हैदृढ़—निश्चयी है। इसे हिलाया—डुलाया नहीं जा सकता। ब्रह्मविद्या के खोजी को निश्चयडिसीसिवनेस तो होनी ही चाहिए।
लेकिन हमारा मन तो बड़ा कंपता हुआ है। जरा—सी बात कोई कह देहमारे सब निश्चय खो जाते हैं। जरा—सा कोई संदेह पैदा करना चाहेतत्काल हममें संदेह पैदा हो जाते हैं। लोग डरते हैंआस्तिक डरते हैंनास्तिक की बात सुनने से! बड़े कमजोर आस्तिक हैं! डर किस बात का है? कहीं नास्तिकता की बात आस्तिकता को हिला न दे।
और जो आस्तिकता नास्तिकता की बात से हिल जाती होवह दो कौड़ी की है। उसका क्या मूल्य हैवह नास्तिकता से भी गई—बीती है। कम से कम नास्तिक आस्तिकों से डरते तो नहीं! मैंने ऐसा कभी नहीं देखा कि नास्तिक आस्तिक से डरता हो कि यह हमको डिगा देगा। एक नास्तिक नहीं डरता। नास्तिक तलाश करता है कि आस्तिक कहां है कि उसको डिगाएं। यह बड़ी हैरानी की बात है।
नास्तिकों ने अपने किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है कि आस्तिकों की बातें मत सुननाक्योंकि उससे मन में शंका पैदा होगी। आस्तिकों ने लिखा है. नास्तिकों की बातें मत सुननाउनके शास्त्र मत पढ़नाक्योंकि उससे मन डिगता है।
लेकिन ध्यान रहेमन डिगता तभी है जब मन डिगने की हालत में होता है। जब आप हिलना चाहते हैं तभी कोई हिला सकता है।
तो मैं तो कहता हूं कि अगर आप आस्तिक हैं तो नास्तिकों को अपने आसपास बसा लेना। वे आपको हिला—हिलाकर मौका देते रहेंगे कि आप हिल सकते हैं कि नहीं हिल सकते। और अगर नास्तिक हिला देता हो तो समझना कि अभी आस्तिकता पैदा नहीं हुई। तो झूठी आस्तिकता अपने ऊपर थोपे मत रहना।
लेकिन मुझे ऐसा लगता है.. इसीलिए दुनिया में इतने आस्तिक मालूम होते हैंझूठे ही होंगेनहीं तो जमीन बदल जाए। जमीन पर कितने आदमी आस्तिक हैं! सौ में कभी एकाध नास्तिक होता है। निन्यानबे तो आस्तिक ही होते हैं। ये निन्यानबे आस्तिक इस जमीन को धार्मिक नहीं बना पाते और एक नास्तिक इस जमीन को अधार्मिक बनाए हुए है। आश्चर्य है! ये निन्यानबे आस्तिक झूठे हैं। इनके भीतर कोई आस्था नहीं है। ऊपर—ऊपर से थोपकर इन्होंने अपने को सम्हाल रखा है। और ये भयभीत हैं।
भय तभी होता है जब स्वयं के भीतर संदेह हो। कोई आपको संदिग्ध नहीं कर सकता। लेकिन आप संदिग्ध हैं ही। सिर्फ ऊपर से आपने एक आवरण बना लिया है दृढ़ निश्चय का। इसलिए जब भी कोई संदेह की बात करता हैतो आपके भीतर के संदेह तरंगें लेने लगते हैं। वे भीतर छिपे हैं।
जो भीतर छिपा हैवही आपमें पैदा किया जा सकता है। इसे आप एक परम सिद्धात समझ लें। जो आपके भीतर नहीं हैउसे कोई भी पैदा नहीं कर सकता। अगर आपके भीतर संदेह हैतो कोई भी संदेह पैदा कर सकता है। अगर आपके भीतर श्रद्धा हैतो ही कोई आपके भीतर श्रद्धा पैदा कर सकता है। जो आपके भीतर नहीं हैउसे भीतर जन्माने का कोई उपाय नहीं है।
यम ने बड़ी कोशिश की हिलाने की। इस छोटे—से बच्चे के साथ यम थोड़ा ज्यादती करता हुआ मालूम पड़ता है। यह निर्दोष बच्चे को वह प्रलोभन दे रहा है! अगर सोचें तो थोड़ा हमें लगेगा कि यम थोड़ी ज्यादती कर रहा है। इस निर्दोष बच्चे की जिसकी उम्र पांच सालसात सालइतनी कुछ रही होगीउससे यह कहना कि तुझे हम स्वर्ग की अप्सरए देते हैं! थोड़ा ज्यादा मालूम पड़ता है। इस भोले बच्चे को विकृत करने की पूरी कोशिश कर रहा है यम। इस छोटे—से बच्चे को कहना कि तुझे हम सम्राट बना देते हैं सारे संसार काकि तुझे जो चाहिए ले। तू जो मांगेहम देते हैं। छोटे बच्चे तो खिलौनों के प्रलोभन में आ जाते हैं। सारे संसार का साम्राज्य देने का जहां प्रलोभन दिया जा रहा हो,वहां कहना चाहिए कि यम थोड़ा कठोर परीक्षा ले रहा है। बूढ़े—बूढ़े भी खिलौनों में उलझ जाते हैं।
एक युवक मेरे पास आया। ऐसे ही मैंने उससे पूछा कि तुम्हारे पिता भी कभी यहां आते हैं? उसने कहा कि नहीं,मेरे पिता को फुर्सत ही नहीं है। वे अपनी कार ही साफ करते रहते हैं! चलाते भी नहींकि खराब न हो जाए! सुधार करवाते रहते हैं। कभी यह बदलेंगेकभी वह बदलेंगे! कभी नया कुछ साज—सामान डालेंगेसज़ा के। और दिनभर वे कार में ही लगे हुए हैं। उनको फुर्सत नहीं। मेरी मां आना चाहती हैउस युवक ने कहालेकिन पिताजी घर में रहते हैं चौबीस घंटे तो वह भी नहीं आ सकती।
कार खिलौना हो गई। साधन न रहीकि उससे कहीं पहुंचना है। पहुंचने का तो कोई सवाल ही नहीं है। निकालते तो हैं नहींकि खराब न हो जाए। लेकिन रखे. रखे भी चीजें खराब तो होती ही हैंतो फिर उसको लीपापोती करके ठीक करते रहते हैं।
छोटे बच्चे अपने खिलौनों से खेल रहे होंयह समझ में आता है। लेकिन बड़े बच्चे भी खिलौनों से ही खेलते रहते हैं। आप भी सोचें कि आप अपनी चीजों की कितनी चिंता करते हैंसारा जीवन चीजों की चिंता में व्यतीत हो जाता है।
इस छोटे —से बच्चे को यह कहना कि तुझे सारे संसार का साम्राज्य दिए देता हूं। इस छोटे—से बच्चे को यह कहना कि तुझे जितना जीना हो तू जी! जितनी लंबी उम्र चाहिए! तेरे बेटे हजारों वर्ष के होंतेरे पोते हजारों वर्ष के हों,ऐसी लंबी तेरी जीवन—यात्रा हो! ध्यान रहेबच्चे को मृत्यु का कोई बोध नहीं होता। मृत्यु का बोध तो को तक को मुश्किल से हो पाता है। क्योंकि जिसको मृत्यु का बोध हो जाएवह संन्यस्त हो जाएगा। मृत्यु संन्यास लाती हैवैराग्य लाती है। मरते दम तक आदमी जीना चाहता है। अगर मरती हुई आखिरी श्वास टूट रही होतब भी आप किसी को कह दें कि अब बस तुम मरने वाले होतो वह आपको दुश्मन की तरह देखता है।
मैंने सुना हैएक युवक ज्योतिष का अध्ययन करके लौटा। उसका पिता पुराना अनुभवी ज्योतिषी था। उसने अपने बेटे से कहा कि जल्दी मत करना। क्योंकि यह ज्योतिष बडी गहरी कला है। इसमें सत्य कहना आवश्यक नहीं है। इसमें सत्य कहने से बचना पड़ता है। और इसमें सत्य भी कहना हो तो ऐसे ढंग से कहना होता है कि उसका पता न चल पाए। इसमें असत्य भी बोलने पड़ते हैं। यह बड़ी मीठी कला है। इसमें सिर्फ शास्त्र के शान से कुछ न होगा। तू ठहर। हर किसी को ज्योतिष का ज्ञान मत दिखाने लगना।
लेकिन उस युवक ने कहाकि मैं काशी से लौटा हूं और सब शान पूरा पा लिया हूं और अब रुकना मुझसे नहीं हो सकता। मैं जाता हूं सम्राट के पास। और जितना मैं जानता हूं उससे मैं घोषणा कर सकता हूं कि क्या होने वाला है। उसने कहातेरी मर्जी। मैं भी पीछे आता हूं।
बाप ने कहा कि पहले मैं सम्राट को कुछ कहूं उसका हाथ देखूं फिर तू देखना। बाप ने हाथ देखा, और उसने कहा कि साम्राज्य और बढ़ेगातेरे जीवन में सूर्योदय होने के करीब है। युवक थोड़ा हैरान हुआक्योंकि रेखाए कुछ और कहती हैंयह आदमी मरने के करीब है।
बाप को सम्राट ने सम्मानित कियाधन दियाकीमती वस्तुएं भेंट कीं। बेटे ने हाथ देखकर कहा कि एक बात भर निश्चित है कि तुम सात दिन से ज्यादा नहीं जीओगे। सम्राट ने उसे पकड़वाकर कोड़े लगवाए। बाप खड़ा देखता हंसता रहा। पिटे हुए लड़के को लेकर घर लौटा'। उससे कहा कि देखशास्त्र में जो लिखा है वह समझदारों के लिए है। समझदार कहां हैं लेकिन! वह मुझे भी दिख रहा था कि सात दिन में मरेगालेकिन उसके पहले अपने को मरना हो तो इसकी घोषणा करनी है। सत्य कहना काफी नहीं है। वह क्या चाहता हैउसकी वासना क्या हैउसकी हाथ की रेखा से ज्यादा उसकी इच्छाओं की रेखाओं को पहचानना जरूरी है।
इसलिए जब आप ज्योतिषी के पास जाते हैंतो वह आपकी इच्छाओं की रेखाएं पहचानता है। वह कोशिश करता हैवासनाएं कहां दौड़ रही हैंउनमें जितनी दूर तक सहयोग दे सकेदेता है।
मरते दम तक भी आदमी यह सुनना नहीं चाहता है कि वह मर रहा हैया मरने वाला है।
यह छोटा—सा बच्चा जो अभी जीवन को जाना भी नहींइसे लंबे जीवन का प्रलोभन देनाथोड़ा ज्यादा है! लेकिन यम ने अतिशयोक्ति की हैताकि अगर यह बच्चा हिल सकता हो तो हिल ही जाए। और ध्यान रहेमृत्यु के सामने हम सब छोटे बच्चे ही हैं। और जीवन के अंत तक प्रलोभन हमें हिलाता है। संशय हमें डांवाडोल करते हैं। कोई भी हमें दिक्कत में डाल सकता है। कोई भी! कोई मृत्यु जैसे सबल महात्मा का होना जरूरी नहीं हैकोई भी!
मेरे पास लोग आते हैंवे कहते हैं कि हम ध्यान करते हैंऔर बड़ा आनंद आना शुरू हुआ था कि एक आदमी ने कहा कि यह तुम क्या कर रहे होयह कोई ध्यान है! बस संशय पैदा हो गया। तुम्हें आनंद आ रहा थाइतनी जल्दी संशय कैसे पैदा हो गया! कम से कम इतना तो देखो कि इस संशय से कुछ आनंद आ रहा हैतो जिससे आनंद आ रहा थाउस दिशा में चलो। क्योंकि अंततः अगर कोई व्यक्ति आनंद को ही खोजता चला जाए तो परमात्मा तक पहुंच जाता है।
इसलिए हमने परमात्मा की व्याख्या में सच्चिदानंदउसे आनंद की आखिरी अवस्था कहा है। अगर कोई इतनी ही जांच—परख करता रहे अपने यंत्र की कि जहां मुझे आनंद आ रहा है वहीं मैं चलता चला जाऊंतो भी आदमी कितना ही भटकेसदा के लिए भटका हुआ नहीं रहेगा।
लेकिन आनंद आ रहा होतो भी कोई भी आपको डांवाडोल कर सकता है। भीतर संदेह बैठा ही हुआ हैबाहर के लोग सिर्फ उसे इशारा करके निकाल देते हैंप्रगट कर देते हैं। आप खुद ही डरे हुए हैंकि पता नहीं मैं क्या कर रहा हूं! पता नहीं यह पागलपन तो नहीं है! आपका भय ही आपका संदेह बन जाता हैदूसरे तो केवल निमित्त हैं।
यम ने पूरी कोशिश कीलेकिन पाया कि इस नचिकेता को हिलाने—डुलाने का कोई भी उपाय नहीं है। दृढ़निश्चयी है। परम वैराग्यवान है। निर्भीक है। अत: ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी है।
तो ये तीन बातें अधिकारी बनाती है—कि वैराग्य होकि चेतना भीतर की तरफ चलने को राजी होकि निश्चय होकि जो हम करना चाहें उसे पूरे प्राणों से कर सकेंकि अभय होकि भय हमें डावाडोल न करे।
ध्यान रहेजब तक भय होता हैतब तक प्रलोभन भी होता है। भय और लोभ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो आदमी भयभीत हैउसे फौरन लोभ में डाला जा सकता है। जो आदमी लोभी हैउसे भयभीत किया जा सकता है। ध्यान रहेदोनों साथ जुड़े हैं। अक्सर लोग कोशिश करते हैं निर्भय होने कीलेकिन उन्हें पता नहींजब तक लोभ है,तब तक वे निर्भय नहीं हो सकते। क्योंकि लोभ भय का मूल है। जब तक आप कुछ मांगते हैंतब तक आप डरेंगे।
मैंने सुना है कि च्चाग्त्सेचीन का एक बहुत रहस्यवादी संतएक सम्राट का वजीर था। फिर उसने वजीर के पद को छोड़ दिया और संन्यस्त हो गया। फिर वह जंगल में एक वृक्ष के नीचे निवास करने लगा। सम्राट शिकार को आया थातो उसके मित्रों ने कहा कि आपका पुराना वजीर च्चाग्त्से यहां पास में ही एक वृक्ष के नीचे रहता है। अगर आपकी जिज्ञासा हो तो हम देखते चलें। सम्राट ने कहाजरूर! देखने जैसा होगा। क्या हुआ च्चाग्त्से कासंन्यस्त होकर वह कैसा हो गया हैवजीर था सम्राट का पुराना। सम्राट परिचित भी था भलीभाँति। और वजीर बड़ा सुसंस्कृत था।
सम्राट आयाउतरकर खड़ा हुआ। च्चांग्त्से पैर फैलाए बैठा थाअपनी खंजड़ी बजा रहा था। पैर फैलाए ही रहा। यह बड़ी अशोभन बात थी। सम्राट सामने खड़ा हो और आप पैर फैलाए बैठे हों! तो सम्राट ने कहा कि च्चाग्त्सेसंन्यास ठीक हैलेकिन संस्कार तो मत छोड़ो। ये पैर क्यों फैले हुए हैं?
तो च्चाग्त्से ने कहाजिस दिन लोभ छूट गयाउस दिन भय भी छूट गया। न तुमसे कुछ चाहना हैन तुमसे कुछ डर है। संस्कार के कारण पैर नहीं मुड़ते थेलोभ के कारण मुड़ते थे। डरता था। तुम कुछ छीन सकते थे। तुम जो छीन सकते थेमैं खुद ही छोड़ आया। अब तुम्हारा कोई भय नहीं। अब तुम समझ रहे हो कि तुम सम्राट होमेरे लिए जैसे और लोग इस राह से गुजरते हैंवैसे ही तुम हो। तुम सम्राट थे कभीवह मेरे लोभ के कारण थे। क्योंकि तुमसे कुछ ज्यादा मिल सकता थाजो किसी और से नहीं मिल सकता था। अबअब तुम वैसे ही राह से गुजरने वाले एक राहगीर होजैसे और हैं। और पैर अब क्या मोडेअब कोई भय न रहा।
जैसे ही लोभ जाता हैवैसे ही भय चला जाता है।
तो जब यम ने देखा कि इतने लोभ भी इस नचिकेता को प्रलोभित नहीं करतेस्वभावत: यह निर्भीक है। इसके पास कोई भय नहीं है। यह अभय को उपलब्ध हुआ है। यह ब्रह्मविद्या का अधिकारी है।
तो यम ने कहा—श्रेय अर्थात कल्याण का साधन अलग है और प्रेय अर्थात प्रिय लगने वाले भोगों का साधन अलग है। वे भिन्न—भिन्न फल देने वाले दोनों साधन मनुष्य को बांधते हैं अपनी— अपनी ओर आकर्षित करते हैं। उन दोनों में से श्रेय अर्थात कल्याण के साधन को ग्रहण करने वाले का कल्याण होता है। परंतु जो प्रेय अर्थात सांसारिक भोगों के साधन को स्वीकार करता है वह यथार्थ लाभ से वंचित रह जाता है।
श्रेय और प्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं। बुद्धिमान मनुष्य उन दोनों के स्वरूप पर भलीभांति विचार करके उनको पृथक— पृथक करके समझ लेता है। और वह श्रेष्ठबुद्धि मनुष्य परम कल्याण के साधन को ही भोग— साधन की अपेक्षा श्रेष्ठ समझकर ग्रहण करता है परंतु मंदबुद्धि वाला लौकिक योगक्षेम की इच्छा से भोगों के साधनरूप प्रेय को अपनाता है
ये दो शब्द बड़े कीमती हैं—श्रेय और प्रेय। श्रेय से अर्थ है—वह जो श्रेष्ठ हैवह जो सत्य हैवह जो परम आत्यंतिक हैशुभ हैशिव है। और प्रेय से अर्थ है—वह जो प्यारा हैप्रिय हैचित्त को प्रसन्न करता हैचित्त को रंजित करता हैजो किसी काम को किसी वासना को तृप्त करने का आश्वासन देता है। प्रेय का अर्थ है—वासना जिससे प्रफुल्लित होती है। और श्रेय का अर्थ है—आत्मा जिससे प्रफुल्लित होती है। प्रेय का अर्थ हैमन को लगता है कि इससे आनंद आएगा। लेकिन आता कभी भी नहीं। क्योंकि लगने से कुछ संबंध नहीं है।
आपको भला लगता हो कि रेत से तेल निकल आएगालेकिन लगने से कुछ अर्थ नहीं है। रेगिस्तान में आपको भला लगता हो कि वह दूर जो दिखाई पड़ता है मरूद्यान वह वास्तविक हैलेकिन आपके दिखाई पड़ने से कुछ वास्तविकता का संबंध नहीं है। आप जब पास जाते हैं तो पाते हैं : सब किरणों का खेल था। वहां कोई मरूद्यान नहीं है। वह केवल मृग—मरीचिका थी। जो आपको दिखाई पड़ता हैवह जरूरी रूप से होऐसा नहीं है।
प्रेय से अर्थ है—जो आपको दिखाई पड़ता है कि तृप्ति देगालेकिन जब आप पाते हैं तो तृप्ति देता नहीं। एक आदमी सोचता है कि यह स्त्री मिल जाएया यह पुरुष मिल जाए। जब तक नहीं मिलतातब तक लगता है कि सारे स्वप्न उसी के इर्द—गिर्द घूमते हैं। लेकिन मिल जाने पर मृग—मरीचिका हाथ लगती है। कोई भी प्रेम सफल नहीं होता। और अगर प्रेमी रहना होसदा प्रेमी बने रहना होतो प्रेयसी की निकटता न मिले यह जरूरी है।
रवींद्रनाथ ने एक उपन्यास लिखा—और रवींद्रनाथ ने बड़े अनुभव से यह बात कही है—उस उपन्यास में जो पात्र है,वह एक युवती के प्रेम में है। और वह युवती से कहता है कि विवाह हम न करें। क्योंकि विवाह सदा ही प्रेम को तोड़ देता है। युवती की समझ में बात नहीं आती। आ भी नहीं सकती। क्योंकि प्रेम हैइसलिए विवाह करें—यह समझ में आता है। वह युवक कहता हैविवाह भी हम कर लेंतो तू झील के उस पार रहना और मैं इस पार। कभी—कभी हम मिल लिया करेंगे—आकस्मिकअनायास। या कभी निमंत्रण देकर मैं तेरे घर आऊंगाया तू मेरे घर आ जाना। लेकिन हम साथ—साथ न रहें। वह युवती कहती हैतुम पागल हो! विवाह हम करते ही इसलिए हैं कि साथ—साथ रहें। चौबीस घंटे साथ रहें। वह युवक कहता हैतो प्रेम मर जाएगा।
रवींद्रनाथ ने बड़े अनुभव से यह कथा लिखी है। हजारों—हजारों प्रेम की कथा यही है। मजनूं अब भी लैला को प्रेम करता होगाकहीं भी होक्योंकि लैला उसको मिली नहीं। मिल जाती तो उसका सदा के लिए छुटकारा हो जाता।
एक मृग—मरीचिका है। प्रेय से अर्थ है—वे वस्तुएंवे व्यक्तिवे संबंधदूर से पता चलता है कि बड़ा आनंद होगाजैसे—जैसे पास आते हैंआनंद खो जाता है और दुख घना हो जाता है।
ठीक इससे उलटी स्थिति श्रेय की है। प्रेय में प्रारंभ में तो लगता है सुख और पीछे आता है दुख। श्रेय में पहले तो लगता है दुख और पीछे आता है सुख। इसलिए श्रेय शुरू में तपश्चर्या है। वह कष्ट का अपने हाथ सेस्वेच्छा से वरण है। इसलिए श्रेय का साधक तपश्चर्या में लगेगा ही।
यह बड़े मजे की बात है कि जहां पहले सुख दिखाई पड़ता हैवहां पीछे दुख हाथ आता है। यह हम सबका अनुभव है। हम सबको थोड़े—बहुत अनुभव हैं कि जहां—जहां सुख दिखाई पड़ावहां—वहां दुख पाया। लेकिन उससे हमने कुछ सीखा नहीं। उससे हमने यह जीवन का नियम न सीखा कि सुख का पहले दिखाई पड़ना खतरनाक है। वह असल में प्रलोभन है।
वह सुख का पहले दिखाई पड़ना वैसे ही है जैसे हम कड्वी दवा पिलानी हो किसी को तो ऊपर से शक्कर चढ़ा देते हैं। हर कड्वी गोली के ऊपर शक्कर चढ़ी होती है। मछली को पकड़ना हो तो काटे में आटा लगा देते हैं। कौन आटा डालकर बैठता है नदी के किनारे मछलियों को खिलाने! काटा डालकर बैठते हैं लोग। लेकिन मछली काटे को पकड़ेगी नहीं। मछली आटे को पकड़ना चाहती है। तो सीधी बात हैसीधा गणित हैकि आटे को ऊपर और कांटे को भीतर कर लो।
हम सब पूरे जीवन यही कर रहे हैं। इसे थोड़ा समझें। क्योंकि जीवन के गहरे मनस—शास्त्र से संबंधित यह बात है। अभी पश्चिम में बहुत खोजबीन चलती हैक्योंकि पश्चिम ने एक बड़ी भूल कर ली। वह भूल यह कर ली कि उसने प्रेम के ऊपर विवाह को आधारित कर लिया। इसके पहले विवाह आयोजित होते थेअरेंज्‍ड होते थे। लड़के और लड़की का कोई संबंध ही नहीं थाजैसे उनका विवाह ही नहीं हो रहा है। यह मां—बाप का मामला था। पंडित—पुरोहित कुंडली मिलातेहिसाब बिठाते। माता—पिता कुल की जांच—पड़ताल करते और विवाह करते। लड़के और लड़की का कोई लेना—देना नहीं था। विवाह दो परिवार करते थे। प्रेम का कोई सवाल नहीं था।
पश्चिम ने एक नया प्रयोग करने की कोशिश की पिछले दो—तीन सौ सालों में। और उसने कहा कि आयोजित विवाह भी कोई विवाह है! प्रेम से विवाह होना चाहिए। बात बड़ी कीमती थी। लेकिन प्रेम का विवाह टूट रहा है। तलाक रोज बढ़ते चले जाते हैं। अमरीका में सौ विवाह में से पचास के तलाक हो जाते हैं। और जो पचास के नहीं होतेवह आप यह मत समझना कि वे बड़े सुख में रह रहे हैं। वे सिर्फ तलाक की हिम्मत नहीं जुटा पाते। कुछ अड़चनें हैं।
सिर्फ कहानियों में या फिल्मों मेंखासकर भारतीय फिल्मों मेंविवाह पर सब खत्म हो जाता हैउसके बाद दोनों सुख से रहने लगे! कोई कभी नहीं रहता। कि राजा—रानी का विवाह हो गया और उसके बाद वे दोनों सुख से रहने लगेइस पर कहानी खत्म हो जाती है। असल में कहानी यहीं से शुरू होती है। सारा उपद्रव यहां से शुरू होता है। इसके पहले तो प्राथमिक भूमिका थीआटा था। काटा तो यहां से शुरू होता हैजहां से दो व्यक्ति साथ होते हैं।
पश्चिम में विवाह टूट रहा है। क्योंकि विवाह को प्रेम के आधार पर खड़ा किया जा रहा है। प्रेम के आधार पर विवाह खड़ा होगातो टूटेगा। कारण हैं उसके। क्योंकि जब भी दो व्यक्ति एक—दूसरे के प्रेम में पड़ते हैंतो दोनों ही अपने भीतर जो श्रेष्ठ है वह दिखलाते हैं और जो निकृष्ट है उसको छिपाते हैं।
अगर आप किसी के प्रेम में पड़ जाएं—आप पुरुष हैं या स्त्री हैं—तो जिससे आप प्रेम में पड़ जाते हैंउसको आप अपना सुंदरतम चेहरा दिखलाते हैं। वह आपकी वास्तविकता नहीं है। वह आपका पूरा होना नहीं हैएक पहलू हो सकता है। और यह भी हो सकता है कि पहलू भी न होवह सिर्फ दिखावा हो। लेकिन कभी—कभी बीच पर मिलेकभी बगीचे में मिलेकभी चांद—तारों के नीचे मिलेतो यह चेहरा दिखाया जा सकता है। लेकिन जब चौबीस घंटे साथ रहेंगेतो वह जो असली आदमी हैवह प्रगट होना शुरू होगा। वह असली आदमी नरक है। तो वे जो बातें चांद—तारों के नीचे हुई थीं,वे सब टूट जाती हैं।
जब दो व्यक्ति करीब आते हैंउनकी असलियत जाहिर होती है। दोनों के नरक प्रगट हो जाते हैं। और दोनों ने जो चेहरे दिखाए थे वे हट जाते हैंक्योंकि उनको चौबीस घंटे ओढ़े रहना आसान नहीं है।
मैं यह कह रहा हूं कि दो प्रेमी भी आटा दिखलाते हैं और काटे को छिपा लेते हैं। इसलिए सब विवाह जो प्रेम पर खड़े होते हैं. टूट जाते हैं। तब तक प्रेम पर विवाह खड़े नहीं हो सकतेजब तक हम काटे को दिखलाने की हिम्मत न जुटाएं। दो प्रेमियों को चाहिए कि विवाह के पहले अपने नर्क को पूरा प्रगट कर दें। अगर दोनों एक—दूसरे के नर्क से राजी होंतो विवाह होना चाहिए। फिर तलाक नहीं होगा। क्योंकि तलाक का सारा कारण पहले ही समाप्त हो गया।
लेकिन दोनों अपना स्वर्ग दिखलाते हैं। दोनों दिखलाते हैं अपने स्वप्नों का जाल। जितने—जितने करीब आते हैं,स्वप्न खो जाते हैं। जैसे इंद्रधनुष के पास जाएंगेइंद्रधनुष खो जाएगा। वह सिर्फ दूर से ही दिखाई पड़ता हैपास जाने की भूल मत करना।
जीवन में सब तरफ ऐसा है। न केवल ऐसा पति—पत्नी के बीच हैमित्रों के बीचगुरु—शिष्यों के बीचनेताओं— अनुयायिओं के बीचसब तरफ जहां भी संबंध हैंवहा आटा है। थोड़ी ही देर में आटे की पर्त को तोड़कर काटा निकल आता हैक्योंकि कांटा वास्तविक है और आटा ऊपर—ऊपर हैवह केवल पर्त है। प्रेय हम उसे कहते रहे हैंजिसमें पहले तो झलक मिले कि सुख मिलेगा और पीछे दुख मिले। प्रेय का हमें अनुभव है। श्रेय ठीक इससे उलटा है। और अगर यह हो सकता है कि पहले सुख की झलक और पीछे दुख हाथ आता होतो इससे उलटा भी हो सकता है कि पहले दुख और पीछे सुख हाथ आता हो।
हमने इस आधार पर एक अलग जीवन निर्मित करने की कोशिश की थी। इस देश में हम बच्चों के जीवन का प्रारंभ अत्यंत कठोर दुख और तप से शुरू करवाते थे। जंगल में भेज देना गुरुकुल में बच्चों कोकष्टपूर्ण था। न वहा सुविधाएं थीं सभ्यता कीन साधन थे। वहां ठीक जंगल में सारी कठिनाइयों और कठोरताओं के बीच बच्चे को बड़ा होना पड़ता था। कठोर गुरु वहा थे। श्रम भी करना होतालकड़ी काटनी होतीगाएं चरानी होतींघास काटना पड़ता। छोटे बच्चे सारी मेहनत करतेतब कहीं छोटी—मोटी शिक्षा उन्हें मिलती। पच्चीस साल इस तपश्चर्या के बाद जब वे जीवन में आतेतो अगर उन्हें रूखी रोटी भी मिल जाती तो सुखद मालूम होती थी।
भारत सुखी था बहुत दिनों तकउसका कारण यह नहीं था कि भारत के पास सब कुछ था। उसका कारण था कि भारत की शिक्षा दुख से शुरू होती थी। आज शिक्षा सुख से शुरू होती हैपूरा मुल्क दुखी हैपूरी जमीन दुखी है। विद्यार्थी को जो सुविधा यूनिवर्सिटी में और हास्टल में मिलती हैवह उसका बाप घर पर नहीं दे सकता। और जब यूनिवर्सिटी की सारी सुख—सुविधाओं को लेकर बच्चा वापस लौटेगाविवाह करेगाऔर एक सौ रुपये की नौकरी पर लगेगाऔर सारे तरह के कष्ट आने शुरू होंगेजीवन एक महादुख हो जाएगा।
असल में जो चीजें भी सुख से शुरू होती हैंवे दुख पर समाप्त होती हैं। और जो चीजें भी दुख से शुरू होती हैं,वे सुख पर समाप्त हो सकती हैं। दुख की शिक्षा प्राथमिक चरण होना चाहिएतो जीवन के अंत में संतोष संभव है। लेकिन सभी मा—बाप सोचते हैं कि बच्चों को सुख दो। बेचारे बच्चे! इन्हें तो कम से कम सुख दो। वे इनके जीवनभर के दुख का आयोजन कर रहे हैं।
तपश्चर्या का अर्थ है—दुख को स्वेच्छा से वरण करना। श्रेय का प्रयोजन है प्रेय से उलटा दुख को पहले वरण (नो। दुख से भागो मतछिपाओ मत। दुख से डरो मतबल्कि दुख को जीओ। ताकि दुख का दंश निकल जाए। और तुम इतने अभ्यस्त हो जाओ दुख के कि दुख तुम्हें दुख न दे सके। उसके बाद जीवन में महासुख का अवतरण है।
इसलिए कर्तव्य दुख देता हैनैतिकता दुख देती है। शुभ करने में दुख होता हैअशुभ करने में बड़ा प्रलोभन मिलता है। अगर लाख रुपये पड़े हैंतो सामने दोनों सवाल उठ जाते हैं। एक मन कहता हैउठा लो। क्योंकि लाख के पीछे बड़े सुख की संभावना है। बहुत महल खड़े होने का उपाय है। और एक मन कहता हैछोड़ दो। लेकिन छोड़ने में दुख है। अगर आप उठा लेते हैं और चोरी को चुन लेते हैंतो आपने प्रेय को तो चुन लियालेकिन साथ ही आपका पूरा जीवन दुख से भर जाएगा।
लेकिन अगर आप छोड़ देते हैंहिम्मत सेसाहस से हट जाते हैं उन लाख रुपयों पर लात मारकरतो आपने दुख को चुना। क्योंकि लाख के सुख की जो आशा थीवह समाप्त हो गई। लेकिन इस दुख के चुनाव में आप श्रेय को चुन रहे हैंअचौर्य को चुन रहे हैं। और यह अचौर्य आपको महासुख की तरफ ले जाएगा। चोरी ने कभी किसी को सुखी नहीं बनाया है। चोर कितना ही इकट्ठा कर लेचोर ही होगादुखी ही होगा। उसकी आत्मा दबी ही होगी। उसकी आत्मा का फूल खिल नहीं सकता है।
श्रेय का अर्थ हैदुख को चुननाशुभ के लिए। चाहे स्पष्ट रूप से पीड़ा में गुजरना पड़ेसंताप भोगना पड़े,असुविधा झेलनी पड़ेकष्ट भाग्य बन जाए लेकिन श्रेय के लिएशुभ के लिएशिव के लिए उस कष्ट को जो स्वीकार कर लेता हैउसकी आत्मा विकसित होती है। उसकी आत्मा इंटीग्रेटेडअखंड हो जाती है। उसकी आत्मा एक हो जाती है। यह कष्टों का स्वेच्छा से वरण अग्नि बन जाता है। और उसकी आत्मा इस अग्नि में निखरकर शुद्ध हो जाती है।
लेकिन जो छोटे —छोटे क्षुद्र सुखों को चुन लेता हैधीरे — धीरे पाता है कि सारी आत्मा खंडित हो गई। वासनाएं,उनकी दौड़उनकी साधन—सामग्री इकट्ठी होती चली जाती हैभीतर का आदमी खोता चला जाता है।
नचिकेता के सामने दोनों ही सवाल हैं। यम ने उसे कहा कि श्रेय और प्रेय दो मार्ग हैं।
हे नचिकेता! तुम ऐसे निस्पृह हो कि प्रिय लगने वाले और अत्यंत सुंदर रूप वाले इस लोक और परलोक के समस्त भोगों को भलीभांति सोच— समझकर तुमने छोड़ दिया। इस संपत्तिरूप श्रृंखला को बेड़ियों को तुम नहीं प्राप्त हुए। इसके बंधन में तुम नहीं फंसे जिसमें बहुत से मनुष्य फंस जाते हैं।
जो कि अविद्या और विद्या के नाम से विख्यात हैं।
ये दो शब्द और भी समझने जैसे हैं।
अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं होताजैसा कि शब्दकोशों में लिखा है। विद्या का अर्थ भी सिर्फ शान नहीं होता,जैसा कि शब्दकोशों में अंकित है। अविद्या का अर्थ होता हैऐसा ज्ञान जिससे प्रेय मिले। और विद्या का अर्थ होता है,ऐसा शान जिससे श्रेय मिले। अविद्या भी जान हैविद्या भी ज्ञान है। अविद्या उस शान का नाम है जिससे प्रेय मिलता है।
चोर का भी कुछ ज्ञान है। कोई योगी का ही शान है ऐसा नहीं हैभोगी का भी कुछ ज्ञान है। बुरे आदमी की भी कुछ व्यवस्था हैकुशलता हैकारीगरी है। बुरे आदमी की भी कला है।
जिससे प्रेय मिलता हैउस ज्ञान का नाम अविद्या है। इसे अगर समझें तो बड़ी मुश्किल होगी। इसका मतलब होगा कि सारा विज्ञान अविद्या है—पूरी साइंटिफिक नॉलेज। क्योंकि उससे प्रेय मिलता हैश्रेय नहीं मिलता। ज्यादा से ज्यादा प्रिय वस्तुएं मिलती हैंलेकिन आत्मा तो नहीं मिलती।
विज्ञान अविद्या का हिस्सा है। विद्या हम उसे कहते हैं जिससे आत्मा मिलती है। विद्या हम उसे कहते हैं जिससे व्यक्ति प्रिय का मोह छोड़ देता हैशुभ की खोज करता हैसत्य की खोज करता है। वह जो प्रिय की मिठास हैउसका त्याग करता हैऔर चाहे कडुवा जहर ही क्यों न हो सत्यउसको पीने की तैयारी करता है। उस तैयारी से ही नवजीवन उपलब्ध होता है।
यम ने कहा कि ये दो हैं। और नचिकेता! तूने बड़ी हिम्मत की। तू बड़ा वैराग्यवान साबित हुआ। तू इस श्रृंखला में न फंसाइस बेड़ी में न उलझाजो कि अधिक लोगों को बांध लेती है—प्रिय कीप्रेय की। अविद्या और विद्या दोनों परस्पर अत्यंत विपरीत और भिन्न— भिन्न फल देने वाली हैं। तुम नचिकेता को



 मैं विद्या का अभिलाषी मानता हूं। क्योंकि तुमको बहुत से भोग किसी प्रकार भी लुभा न सके।
तुम उस तत्व की खोज में होउस ज्ञान कीउस बोध कीउस ध्यान कीउस योग कीउस कीमिया की खोज में होजिससे व्यक्ति परम श्रेय कोपरम परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है। तुम प्रिय की तलाश नहीं कर रहे। क्योंकि मैंने तुम्हें सब प्रलोभन दिएतुम उनसे अछूते बाहर आ गएउग्स्पर्शित। कोई भी तुम्हारे मन को डांवाडोल न कर पाया।
अविद्या के भीतर रहते हुए भी अपने आपको बुद्धिमान और विद्वान मानने वाले मूड लोग नाना योनियों में चारों ओर भटकते हुए ठीक वैसे ही ठोकरें खाते रहते हैं जैसे अंधे मनुष्य के द्वारा चलाए जाने वाले अंधे अपने लक्ष्य तक न पहुंचकर इधर—उधर भटकते और कष्ट भोगते हैं।
बड़ी अदभुत बात यम ने कही। यम ने कहा कि बहुत हैं जो बुद्धिमान हैंपंडित हैंजो अपने को ज्ञानी मानते हैंलेकिन उनका सारा ज्ञान अविद्या का है।
हमारे विद्यालयविश्वविद्यालय अभी तक भी विद्यालय नहीं हैं इस अर्थों मेंअविद्यालय हैं। क्योंकि वहां जो भी सिखाया जा रहा हैउससे प्रेय की उपलब्धि होती है—वह भी नहीं हो पा रही है! उसका भी सिर्फ आश्वासन मिलता है। वे आश्वासन भी पूरे नहीं हो पाते। अगर हम उपनिषद के ऋषियों से पूछेंतो हमारे विद्यालय को वे कहेंगे कि गलत नाम दिया तुमनेअविद्यालय कहो। विद्यालय तो वह है जहा व्यक्ति को स्वयं को पाने कीसत्य को पाने की—आजीविका पाने की नहींजीवन को पाने की कला सिखाई जाती है। कहता है यमतुम अभिलाषी हो विद्या के। क्योंकि तुम वैराग्यवानदृढ़निश्चयीनिर्भीकतुम डांवाडोल नहीं होतेवासना के झोंकेआंधिया तुम्हारे चित्त की लौ को कंपा नहीं पातीं। तुम तैयार होतुम पात्र होमैं तुमसे विद्या कहूंगा।
आप भी जानते हैं बहुत कुछ। वह विद्या नहीं है। एक इंजीनियर हैएक डाँक्टर हैएक प्रोफेसर हैएक दुकानदार हैएक बढ़ई हैएक कारीगर हैएक कलाकार हैचित्रकार हैमूर्तिकार हैवे जो भी जानते हैंविद्या नहीं है। वे जो भी जानते हैंउससे प्रेय को पाया जा सकता हैउससे श्रेय को पाने का कोई उपाय नहीं है।
तो जब तक कोई व्यक्ति श्रेय को पाने की कला न जान लेतब तक विद्यावान नहीं है। और श्रेय की कला को बिना जाने जो अपने को बुद्धिमान मानता होयम कह रहा है नचिकेता से कि वे बुद्धिमान छू हैं। और वे बुद्धिमान अपने को ही नहीं भटकातेवे बहुतो को अपने साथ भटकाते हैं। जैसे अंधा दूसरे अंधों को ले चले और कहे कि मैं तुम्हें रास्ता दिखाऊगा। वह खुद भी भटकेगा अनंत जन्मों तकऔर बहुतो को भटकाएगा भी।
लेकिन यह मजे की बात हैऔर थोड़ी समझ लेने जैसी है। अंधे का भी मन दूसरों को मार्ग दिखाने का तो होता है। क्योंकि मार्ग दिखाने में अहंकार की बड़ी तृप्ति है। मार्ग पता न भी होतो भी।
जिब्रान ने एक छोटी—सी कहानी लिखी है। लिखा है कि एक गुरु था और वह गाव—गाव जाता और लोगों से कहता कि मुझे परमात्मा के घर का पता है। जिन्हें भी पहुंचना हो उस परम स्थान तकआएं मेरे पीछे। लेकिन ध्यान रहेफिर मेरे पीछे ही चलना होगा संकल्पपूर्वक। फिर बीच से लौटना मतडावाडोल मत होना। रास्ता कठिन हैयात्रा लंबी है। प्रलोभन भी देता और फिर काफी भय भी बता देता कि दुर्गम मार्ग है। और जाना बहुत मुश्किल है। कभी लाखों में कोई एक पहुंच पाता है। लेकिन अगर कोई हो सच्चा पहुंचने वालाआ जाए मेरे पीछेमैं उसे ले चलूंगा। 
लोग कहते कि अभी तो सुविधा नहीं हैलेकिन आकांक्षा  है। कभी जब समय होगासुविधा होगीसंसार की उलझन से जरा छूटेंगेतो आपके चरणों में आएंगे। उसकी हिम्मत बढ़ती चली गईक्योंकि कोई कभी पीछे चलने को राजी न होता था। तो वह और दावे करने लगा कि अभी पहुंचा सकता हूं कोई चलने भर को राजी होलेकिन मार्ग बहुत दुर्गम है।
लेकिन एक गांव में एक पागल आदमी मिल गया। उसने कहाअब देर नहीं करनी है। मैं तैयार हूं। गुरु थोड़ा डरा। उसे पहली दफे खयाल आया कि कहा ले जाऊंगा! यह तो मूल ही गया था वह। क्योंकि कहीं ले जाने का कभी कोई सवाल न उठा था। फिर भी उसने सोचा—उसने डरवाने की कोशिश की कि मार्ग बहुत दुर्गम है। यात्रा लंबी है उस आदमी ने कहाबातचीत बंदसमय खोना व्यर्थ हैहम चलें। इतना समय क्यों गंवाएंजब चलना ही है तो चलना ही है। गुरु ने कहाबीच से छोड्कर मत जाना। उस खोजी ने कहामैं नहीं जाने वाला। आप भर बीच में मत छोड़ देना। मैं अब जाने ही वाला नहीं हूं कहीं। जहां आप होंगेमैं आपकी छाया हूं। गुरु बहुत घबड़ाया। लेकिन सोचा कि इतनी हिम्मत कितने दिन तक! एक वर्ष बीतावह आदमी उसके पीछे ही लगा रहा। गुरु की हालत खराब होने लगी! वह अब दूसरे गांव में भी जाता तो इतनी हिम्मत से न कह पाताक्योंकि वह आदमी पीछे खड़ा है! वह कहताएक साल से तो मैं पीछे चल रहा हूं। अभी कहीं पहुंचे नहीं। यहीं गांव—गाव घूमते हैं! तो उसकी हिम्मत टूटने लगी। उसने बड़ी कोशिश की कि किसी तरह से इस आदमी को भगा देहटा देइससे छूट जाए। मगर वह बड़ा पक्का खोजी था। वह नचिकेता जैसा रहा होगा। वह बिलकुल पीछे ही लग गया। छ: साल बीत गए। उस आदमी ने यह भी नहीं पूछा कि अभी तक नहीं पहुंचे! उसने कहामार्ग दुर्गम हैकभी तो पहुंचेंगेलेकिन मैं पीछे रहूंगा।
एक दिन गुरु ने उसके हाथ जोड़े और कहा कि देखतेरे कारण मैं भी मार्ग भूल गया! मुझे पता था। तू कृपा करऔर मुझे छोड़।
अंधों को भी मार्गदर्शन करने का खयाल तो आता है। और उसके कारण हैं। अंधा अगर दो आदमी पा जाए—अंधे ही सही—जो उसके पीछे चलते होंतो अंधे को लगने लगता है कि मेरे पास आंखे हैं। दो आदमी मेरे पीछे चलते हैंतो अंधे तो नहीं हो सकते! तो जितनी भीड़ बढती जाती है गुरुओं के पीछेउतना गुरु को पक्का भरोसा होने लगता है कि जरूर मैं कहीं जा रहा हूं।
अनुयायी की बड़ी जरूरत है गुरु को। उसकी वजह से ही उसे पक्का भरोसा होता है कि मैं भी हूं। और मेरे पास आंखे हैं।
सौ में निन्यानबे गुरु इस भांति... खुद अंधे अंधों को लिए चलते हैं। लेकिन बड़ी कठिनाई है। अंधे आदमी की बड़ी मुसीबत है। वह तौले भी तो कैसे तौले कि जो मुझे लेजा रहा हैवह अंधा है या नहींअंधा आदमी कैसे पता लगाए कि जो मुझे ले जा रहा हैवह अंधा है या नहींअगर खुद आंखे होतींतो देख लेता। आंखे तो नहीं हैं।
इसलिए शिष्य की बड़ी मजबूरी है। वह टटोलता फिरता है—एक गुरु से दूसरे गुरुतीसरे गुरु के पास। कैसे वह पक्का पता लगाए?
लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि जिस आदमी की मैंने यह कहानी कहीअगर गुरु को आप इतने जोर से पकड़ लेंतो अगर वह अंधा है तो खुद ही हाथ जोड़कर कहेगा कि मेरे पास आंखे नहीं हैंअब आप कहीं और जाएं।
और एक बात ध्यान रहे कि भटकना तो पड़ेगा। सीधा—सीधा आपको गुरु मिल जाएयह असंभव है। करीब—करीब असंभव है। भटकना पड़ेगा। लेकिन अगर आप साहस सेनिर्भीकता सेऔर आखिरी शब्द खयाल रखें—वैराग्य के भाव से चलते रहेंतो अंधा गुरु आपको ज्यादा देर तक धोखा नहीं दे पाएगा। क्योंकि अंधा गुरु आपको लुभा पाता है,क्योंकि आपके भीतर वासना हैवैराग्य नहीं है।
तो कोई ताबीज देता हैकोई राख गिराता हैकोई चमत्कार दिखाता हैउससे आप प्रभावित होते हैं। आपकी वासनाआपका लोभ—आपको लगता है कि जिस आदमी के हाथ में आकाश से ताबीज आ जाता हैतो यह क्या नहीं कर सकता। तो मेरी इच्छाएं भी पूरी करवा सकता है। जो चमत्कारी है उससे मेरी बीमारी दूर होगीबेटा पैदा हो जाएगाकि धन मिलेगाकि अदालत में मुकदमा जीत जाऊंगा। वासनाओं को प्रलोभन मिलता है।
जो गुरु भी आपकी वासनाओं को किसी तरह तृप्त कर रहा हैजान लेना कि वह अंधा हैऔर अंधों को प्रलोभित करने की कला उसे पता है। जो गुरु आपकी वासनाओं को प्रलोभित नहीं कर रहा हैबल्कि आपको उस तरफ ले जा रहा है जहां परम वैराग्य हैजहां परम मृत्यु हैजहा जीवन का सारा उपद्रव छूट जाता हैबाहर की दौड़ खो जाती हैऔर भीतर का शून्य प्रगट होता हैअगर कोई गुरु आपको शून्यता की तरफ ले जा रहा हैजहां आपको कोई दूसरा आश्वासन नहीं है कि आपको धन मिलेगापद मिलेगाप्रतिष्ठा मिलेगीयश मिलेगाकि आप चुनाव जीत जाओगे..?
दिल्ली में एक ऐसा नेता नहीं है जिसका कोई गुरु न हो। क्योंकि वे गुरु चुनाव ही जितवाते हैं! और जैसे ही कोई नेता हारता है चुनाव मेंअगर इसके पहले गुरुओं के पास न गया होतो फौरन पहुंच जाता है। जो लोग दिल्ली में पदों से हटते हैंतो तत्‍क्षण आप उनको कहीं न कहीं ऋषियों के आश्रम में पाएंगे। बैठे हैं सत्संग में! पर वे सत्संग में तभी तक रहते हैंजब तक चुनाव फिर नहीं जीत जाते।
गुरु—कृपा की तलाश चल रही है! और प्रलोभन देने वाले लोग हैंजो कह रहे हैंसब कुछ हो जाएगासब कुछ मिलेगाबस तुम समर्पण करो। गुरु—चरणों में आ जाओसब मिलेगा।
वासना से भरे हुए लोग अंधों के द्वारा आकर्षित कर लिए जाते हैं। फिर जैसा यम कहता है—अंधों के पीछे चलते हुए लोग! जैसे नेता खुद गड्डे में गिरता है और बाकी अंधे भी गड्डे में गिरते हैं। नानक ने कहा है—अंधा अधम ठेलिया। वे अंधे अंधों को लिए जा रहे हैं।
लेकिन यम ने कहानचिकेता! तुझे कोई अंधा नहीं ले जा सकता। तेरा गुरु होने के लिएगुरु ही कोई होतो ही उपाय है। क्योंकि तुझे प्रलोभित नहीं किया जा सकता। जहां लोभ मर गयावहां आपको कोई भी भटका नहीं सकता। सिर्फ लोभ भटकाता है। इसलिए आप गुरु की तलाश उतनी न करेंजितना लोभ को छोड़ने की तलाश करें। जिस दिन लोभ नहीं होगाउस दिन गुरु से मिलन हो जाएगा। जिस दिन आपके भीतर लोभ न होगाउस दिन कोई भी गलत आदमी आपको मार्ग—दिशा नहीं दे सकता। तब जो ठीक हैउससे सत्संग हो जाता है।
रात्रि के ध्यान के संबंध में दो बातें समझ लें।
रात्रि का ध्यान त्राटक का प्रयोग है। लेकिन बहुत अनूठा और बहुत शक्तिशाली। पहले चरण में पंद्रह मिनट तक आप एकटक मेरी ओर देखेंगे। (... बैठे रहेंपहले समझ लें।... ) एकटक मेरी ओर देखेंगे। आंख झपकनी नहीं है। पलक गिरने नहीं देना हैचाहे आंसू  बहने लगें। पूरी तरह आंख मेरी तरफ लगाए रखें। दोनों हाथ ध्यान करते वक्त ऊंचे उठा लेने हैं और खड़े होकर ध्यान करना है। मैं अपने हाथ से आपको इशारा करूंगा। जब मैं हाथ से आपको इशारा करूं तो आपको अपनी पूरी शक्ति से कूदना हैताकि आपके भीतर जो छिपी हुई ऊर्जा हैवह सक्रिय हो जाए। आंख मेरी तरफ लगाए रखनी हैताकि मुझसे जोड़ बन जाए ताकि मुझसे संबंध और सेतु निर्मित हो जाए। और उछलते रहना हैऔर दोनों हाथ आकाश की तरफ ऊपर उठाए रखने हैं। और हू... हू... हू... का महामंत्र बोलना है।
यह हू का महामंत्र आपके भीतर चोट करेगा। मेरा हाथ का इशारा आपको गति देगा। और मेरी तरफ आपकी आंख का जुड़ा होना एक गहन संबंध निर्मित करेगा। अगर यह प्रयोग ठीक से कियातो पंद्रह मिनट में आप किसी और लोक में छलांग लगा रहे होंगे। पंद्रह मिनट के बाद मैं रुक जाने को कहूंगा। जो जैसा होउसे वहीं आंख बंद करके रुक जाना हैमुर्दे की भांति। पंद्रह मिनट इम मौनशून्यशाति में खड़े रहनाया गिर गए हों तो गिरे रहना।
बाद में अभिव्यक्ति का पंद्रह मिनट का समय होगा। तब पूरे दिनभर के आनंद कोप्रभु के प्रति अनुकंपा को,अनुग्रह को नाचकरगाकर प्रगट कर देना है। और ध्यान रहेआनंद को जितना प्रगट किया जाएउतना ही बढ़ता चला जाता है। तो कंजूसी न करें। और डरें न कि कोई क्या कहेगा! छोटे बच्चों की तरह आनंद को प्रगट करें।
ध्‍यान योग शिविर,

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