जे. कृष्ण मूर्ति—कि तीसरी किताब
यह किताब गागर में सागर है। इतनी छोटी है कि उसे किताब कहने में झिझक होती हे। चार इंच चौड़ी और पाँच इंच लंबी इस लधु पुस्तक के सिर्फ 46 पृष्ठों में पूरा ज्ञान सम्माहित है। किताब के लेखक का नाम दिया है ‘’अल्कायन’’। मद्रास के थियोसोफिकल पिब्लशिग हाऊस ने सन 1910 में पहली बार यह किताब प्रकाशित की। उसके बाद इसके दर्जनों संस्करण हुए। ओशो ने यह किताब 1969 में जबलपुर की किसी दुकान से खरीदी थी।
किताब की भूमिका है एनी बेसेंट द्वारा लिखित। उन्होंने लिखा है कि हमारे एक छोटे बंधु की—जो कि आयु में छोटा है, आत्मा में बड़ा—यह पहली किताब है जो उसके गुरु ने उसे हस्तांतरित की है। गुरु के विचार शिष्य के शब्दों का परिधान पहन कर आये है।
इसके बाद एक आमुख है जिस पर किसी का नाम नहीं है। जाहिर है इसे लेखक ने ही लिखा है। उसमे लेखक स्पष्ट करता है: ‘’ये मेरे शब्द नहीं है, मेरे गुरु के शब्द है। ये शब्द उन सके लिए है जो अंतर्यात्रा पर चलना चाहते है। लेकिन गुरु के शब्दों की प्रशंसा करना काफी नहीं है, उन पर चलना जरूरी है। गुरु के शब्दों को एकाग्रता से सुनना चाहिए। यदि चूक गए तो वे सदा के लिए खो गए। क्योंकि गुरु दो बार नहीं बोलता।‘’
किताब के कुल चार प्रकरण है, और एक-एक प्रकरण में एक-एक गुणों का विवेचन किया है जो अंतर्यात्रा पर चलने के लिए आधारभूत है।
1.विवेक 2. इच्छारहित 3. सदाचार 4. प्रेम।
यह एकमात्र किताब है जो कृष्ण मूर्ति ने थियोसाफी के प्रभाव में लिखी है। इसलिए इनकी भाषा, अभिव्यक्ति, सोचने का ढंग बहुत परंपरा से बंधा है। जो कि अत्यंत गैर-कृष्णामूर्ति जैसा है। बुद्धत्व के बाद उनके द्वारा लिखी गई किताबों पर उनकी अपनी छाप है। जो कि पूरे विश्व साहित्य में अद्वितीय है। यह किताब पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई भी आम धार्मिक ग्रंथ पढ़ रहे हो। फिर भी आध्यात्मिक पथ पर चलने के इच्छुक पथिक के लिए वह कीमती पाथेय है।
किताब की एक झलक:
अनेक लोग है जिनके लिए इच्छारहित होना बहुत मुश्किल जान पड़ता है। क्योंकि वे महसूस करते है कि वे ही इच्छा है। यदि उनकी विशिष्ट इच्छाएं पसंदगी ना-पसंदगी उनसे छीन ली जाए तो वह बचेंगे ही नहीं। लेकिन ये वहीं लोग है जिन्होंने गुरू को नहीं जाना और देखा है। उनकी पवित्र उपस्थिति में सारी इच्छाएं मर जाती है। सिवाय एक उनके जैसे होने की इच्छा के। फिर भी इससे पहले कि उससे दरस-परस हो जाए, तुम इच्छाओं को त्याग सकते हो।
विवेक ने तुम्हें दिखा दिया है कि अधिकांश लोग जिसकी आकांशा करते है, जैसे धन, सत्ता, वे पाने योग्य नहीं है। जिन्हें वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है सिर्फ कहने के लिए नहीं, उनके लिए सारी दौड़ खो जाती है। जब अहंकार की सारी इच्छाएं विलीन हो जाती है, तब भी अपने काम के परिणाम देखने की इच्छा बनी रहती है। अगर तुम किसी की सहायता करते हो तो तुम देखना चाहते हो कि तुमने कितनी सहायता की। शायद तुम चाहते हो कि वह भी उसे देखे और अनुग्रह अनुभव करे। लेकिन यह भी इच्छा है और उससे श्रद्धा नहीं है। जब तुम अपनी पूरी उर्जा उड़ेल कर किसी की सहायता करते हो तब परिणाम तो होंगे ही; तुम देख सको या ना देख सको। यदि तुम नियम को जानते हो तो ऐसा होगा ही। इसलिए तुम्हें सही काम करना है सही करने के खातिर; फल की आशा से नहीं। तुम्हें काम की खातिर काम करना है; उसका परिणाम देखने के लिए नहीं। तुम्हें संसार की सेवा करनी है क्योंकि तुम्हारा प्रेम इतना है कि तुम वैसा करने के लिए विवश हो।
ओशो का नज़रिया:
कृष्ण मूर्ति कहते है कि उन्हें स्मरण नहीं है कि उन्होंने यह किताब कब लिखी। बहुत पहले यह लिखी गई थी। जब कृष्ण मूर्ति नौ दस साल के रहे होंगे। उन्हें इतनी पुरानी याद कैसे होगी जिस समय यह किताब छपी थी? लेकिन यह एक बहुत बड़ी रचना है।
मैं पहली बार दुनिया से कहना चाहता हूं कि इसकी असली लेखिका है ऐनि बेसेंट। ऐनि बेसेंट ने अपना नाम क्यों नहीं दिया? उसके पीछे कारण था। वह चाहती थी कि संसार कृष्ण मूर्ति को सदगुरू की तरह जाने। यह एक मां की महत्वाकांक्षा थी। उसने कृष्ण मूर्ति की परवरिश की थी। और वह उनसे वैसा ही प्रेम करती थी जैसी एक मां अपने बच्चे से करती है। बुढ़ापे में उसकी एक ही इच्छा थी कि कृष्ण मूर्ति जगत गुरु बन जाए। अब कृष्ण मूर्ति जगत गुरु कैसे बने अगर उनके पास जगत से कहने के लिए कुछ न हो? इस किताब—‘’एट दि फीट ऑफ दि मास्टर’’—में उसने इस जरूरत को पूरा किया है।
‘’कृष्ण मूर्ति इस किताब के लेखक नहीं है। वे खुद कहते है कि उन्हें याद नहीं है कि उन्होंने यह किताब कब लिखी। वे प्रामाणिक आदमी है, सच्चे और ईमानदार, फिर भी यह किताब उन्हीं के नाम से बिकती है। उन्हें उसे रोकना चाहिए। इस किताब के प्रकाशक को उन्हें ये बात स्पष्ट कर देना चाहिए कि वे इसके लेखक नहीं है। अगर वे प्रकाशित करना चाहते है तो इसे बीना नाम के प्रकाशित करे। लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं किया। इसलिए मुझे कहना पड़ता है कि अभी तक वे, ज़ेन के दस बैलों में से नौवें पर ही अटके है। वे इनकार नहीं कर सकते। वे सिर्फ इतना ही कहते है कि उन्हें याद नहीं है। इनकार करो। कहो कि यह तुम्हारी रचना नहीं है।
लेकिन किताब सुंदर है। वस्तुत: किसी को भी फख्र होता है उसने लिखी है। जिन्हें राह पर चलना है और गुरु से सुर मिलाना है, उन्हें इस किताब का अध्ययन करना चाहिए। मैंने कहा, ‘’अध्ययन’’ पढ़ना नहीं, क्योंकि लोग उपन्यास पढ़ते है। या आध्यात्मिक कहानियां पढ़ते है—लोब सैंग राम्पा की दर्जनों किताबों की तरह।
ओशो
दि बुक्स आय हैव लव्ड
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