दूसरा शरीर—स्वाधिष्ठान चक्र
दूसरा शरीर हमारे दूसरे चक्र से संबंधित है, स्वाधिष्ठान चक्र से। स्वाधिष्ठान चक्र की भी दो संभावनाएँ है। मूलत: प्रकृति से जो संभावना मिलती है। वह है, भय, घृणा,क्रोध, हिंसा। ये सब स्वाधिष्ठान चक्र की प्रकृति से मिली हुई स्थिति है। अगर इन पर ही कोई अटक जाता है। तो इसकी जो दूसरी, इसके बिलकुल प्रतिकूल ट्रांसफॉर्मेशन की स्थिति है—प्रेम, करूणा, अभय, मैत्री, यह संभव नहीं हो पाती।
साधक के मार्ग पर, दूसरे चक्र पर जो बाधा है, वह घृणा, क्रोध, हिंसा,इनके रूपांतरण, का सवाल है। यहां भी वहीं भूल होगी जो सब तत्वों पर होती है। कोई चाहे तो क्रोध कर सकता है और चाहे तो क्रोध को दबा सकता है। हम दो ही काम करते है, कोई भयभीत हो सकता है। और कोई भय को दबाकर व्यर्थ ही बहादुरी दिखा सकता है। दोनों ही बातों से रूपांतरण नहीं होगा। भय है, इसे स्वीकार करना पड़ेगा, इसे दबाने छिपाने से कोई प्रयोजन नहीं है। हिंसा है,इसे अहिंसा के बाने पहना लेने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। अहिंसा परम धर्म हे, ऐसा चिल्लाने से इसमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। हिंसा है, वह हमारे शरीर की प्रकृति से मिली हुई संभावना है।
उसका भी उपयोग है, जैसे कि सेक्स का उपयोग हे। वह प्रकृति से मिली हुई संभावना है। क्योंकि सेक्स के द्वारा ही दूसरे भौतिक शरीर को जन्म दिया जा सकता है। यह भौतिक शरीर मिटे, इसके पहले, दूसरें, भौतिक शरीरों को जन्म मिल सकें, इसलिए वह प्रकृति से दी हुई संभावना है।
भय, हिंसा, क्रोध, ये सब भी दूसरें तल पर अनिवार्य है। अन्यथा मनुष्य बच नहीं सकता, सुरक्षित नहीं रह सकता। भय उसे बचाता है; क्रोध उसे संघर्ष में उतारता है; हिंसा उसे साधन देती है; दूसरे कि हिंसा से बचने का। वह उसके दूसरे शरीर की संभावना है। लेकिन साधारणत: हम वहीं रूक जाते है, इन्हें अगर समझा जा सकें.....
अगर कोई भय को समझे तो अभय को उपलब्ध हो जाता है। अगर कोई हिंसा को समझे तो अहिंसा को उपलब्ध हो जाता है। और अगर कोई क्रोध को समझे तो अभय को उपलब्ध हो जाता है।
असल में क्रोध एक पहलू है और दूसरा पहलू क्षमा है; वह उसी के पीछे छिपा हुआ है। वह सिक्के का दूसरा हिस्सा है। लेकिन सिक्का उलटे,तब। लेकिन सिक्का उलट जाता है। अगर हम सिक्के के एक पहलु को समझ ले। तो अपने आप हमारी जिज्ञासा उलटा कर देखने कि हो जाती है। लेकिन हम उसे छुपा ले। और कहें, हमारे पास है ही नहीं,भय तो हममें है ही नहीं। हम जब अभय को कभी भी नहीं देख पायेंगे। जिसने भय को स्वीकार कर लिया। और कहां,कि भय है; और जिसने भय को पूरा जांचा पड़ताल, खोजा, वह जल्दी ही उस जगह पहुंच जायेगा, जहां वह जानना चाहेगा। भय के पीछे क्या है? जिज्ञासा उसे उलटने को कहेगी। कि सिक्के को उलटा के भी देख लो। और जिस दिन वह उलटायेगा। उस दिन वह अभय को उपलब्ध हो जायेगा।
ऐसे ही हिंसा करूणा में बदल जायेगी। वे दूसरे शरीर की साधक के लिए संभावनाएं है। इसलिए साधक को जो मिला है, प्रकृति से, उसका रूपांतरण करना है। और इसके लिए किसी से बहुत पूछने जाने कि जरूरत नहीं है। अपने ही भीतर निरंतर खोजने और पूछने की जरूरत है। हम सब जानते है कि क्रोध बाधा हे। हम सब जानते है भय बाधा है। क्योंकि जो भयभीत है वह सत्य को खोजने कैसे जायेगा। भयभीत मांगने चला जायेगा। वह चाहेगा कि बिना किसी अज्ञात, अंजान रास्ते पर जाये, कोई दे-दे तो अच्छा है।
--ओशो
जिन खोजा तिन पाइयां,
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