पहला प्रश्न :
धर्म क्या है? और आप कैसा धर्म पृथ्वी पर लाना चाहते हैं?
धर्म का अर्थ है : स्वभाव की स्फुरणा। जो छिपा है, उसका प्रकट हो जाना। जो गीत तुम्हारे हृदय में पड़ा है, वह गाया जा सके। जो तुम्हारी नियति है, वह पूरी हो सके।
और प्रत्येक की नियति थोड़ी— थोड़ी भिन्न है। इसलिए ऊपर से आरोपित कोई भी आचरण धर्म नहीं हो पाता। धर्म की आधारशिला यही है— अंतःस्फूर्त हो। और यही भूल हो गयी है। और इसी भूल को मैं सुधारना चाहता हूं। बहुत बार धार्मिक चेतना का जन्म हुआ है, लेकिन ज्योति खो—खो गयी। बुद्ध में जला दीया और बुझ गया। महावीर में जला और बुझ गया। कृष्य में और क्राइस्ट में, जरथुस्त्र और मुहम्मद में जला और बुझ गया। दीया जलता रहा है, बार—बार जलता रहा है। परमात्मा मनुष्य से हारा नहीं। मनुष्य हारता गया और परमात्मा की आशा नहीं टूटी है। परमात्मा ने फिर—फिर कोशिश की है—मनुष्य तक पहुंचने की, मनुष्य को खोज लेने की। मनुष्य कितने ही गहन अंधकार में हो,उसकी किरण आती रही है, उसका इशारा आता रहा है, उसके पैगंबर आते रहे, उसका पैगाम आता रहा है। लेकिन कहीं कोई एक बुनियादी भूल होती रही। उस भूल को समझोगे, तो मैं क्या करना चाहता हूं वह तुम्हें स्पष्ट हो जाएगा। उस भूल को सुधारने की ही तरफ सारा आयोजन है।
भूल ऐसी हुई—सहज है, होनी ही चाहिए थी, बचा नहीं जा सकता था; इसलिए जिनसे हुई उन्हें दोषी नहीं दे रहा हूं करार। होनी ही थी; अपरिहार्य थी। महावीर को ध्यान उपलब्ध हुआ। स्वभावत: ध्यान व्यक्ति के आचरण को बदल देता है। बदलेगा ही। अगर ध्यान आचरण को न बदलेगा तो कौन बदलेगा? सब बदल जाता है। ध्यान के साथ ही उठना—बैठना, सोना—जागना सब बदल जाता है। लेकिन हमें ध्यान दिखायी पड़ता नहीं—वह तो अंतर्तम में घटता है, वैसी तो आंख हमारे पास नहीं, वैसी गहरी तो परख हमारे पास नहीं—हमें दिखायी पड़ता है आचरण। आचरण बाहर है। आचरण ध्यान का बहिरंग है। ध्यान के साथ आचरण रूपातरित होता है, लेकिन हमें दिखायी पड़ा है आचरण रूपातरित होता हुआ। स्वाभाविक, हमारे अहंकार की भाषा में, जहां हम कर्ता बने बैठे हैं, यह प्रतिध्वनि उठती है कि हम भी ऐसा ही आचरण बना लें। हम भी महावीर जैसे हो जाएं। बस वहीं भूल हो जाती है।
महावीर की अहिंसा स्वतःस्फूर्त, तुम्हारी अहिंसा ऊपर से आरोपित। दोनों में जमीन— आसमान का भेद हो गया। महावीर की अहिंसा पैदा हो रही है भीतर जन्मे प्रेम के कारण। तुम्हारी अहिंसा पैदा हो रही है नरक के भय के कारण,स्वर्ग के लोभ के कारण। महावीर में न तो नर्क का भय है, न स्वर्ग का लोभ है। महावीर में कैसा नर्क का भय, कैसा स्वर्ग का लोभ? नर्क का भय और स्वर्ग का लोभ ही तो संसार की दशा है। सांसारिक चित्त की आकांक्षा है—कष्ट न हो,सुख हो। यही तो नर्क और स्वर्ग। दुख से बचूं और सुख को पा लूं; दुख कभी न आए और सुख ऐसा आए कि कभी न जाए, यही तो सांसारिक मन की मनोकांक्षा है, यही तो महत्त्वाकांक्षा है। कहो इसे वासना, तृष्णा, या और कोई नाम दो।
महावीर में कोई न तो नर्क का भय है, न स्वर्ग की कोई आकांक्षा है। चित्त शांत हो गया, चित्त मौन हो गया,तरंगें उठतीं नहीं अब, समाधि फलित हुई है, वहा केवल साक्षीभाव रह गया है, वहा केवल द्रष्टा विराजमान है। इस द्रष्टा में कोई तरंग नहीं है—कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं, कोई वासना नहीं, कोई तृष्णा नहीं। न कहीं जाना है, न कुछ होना है। कोई भविष्य नहीं, कोई अतीत नहीं। सब ठहर गया है। संसार ठहर गया है। इस ठहरेपन का नाम कृष्य ने कहा—स्थितप्रज्ञ, जिसकी प्रज्ञा थिर हो गयी है। 'स्थिर धी: ', जिसकी धी स्थिर हो गयी है। जैसे कोई दीया जलता हो,ऐसे स्थान में जहा वायु का कोई झोंका न आए, निर्वात भवन में दीया जलता हो, कोई कैप न उठता हो; लहर न उठती हो, ज्योति अकंप हो।
इस अकंप ज्योति का परिणाम यह है कि महावीर के जीवन में अहिंसा है। प्रेम का प्रतिफल है। यह भीतर जो बोध हुआ है यह जो अनुभव हुआ है जीवन का, इस जीवन के अनुभव के साथ ही सारा जीवन सम्मानित हो गया है। यह मेरा ही जीवन है। इसमें कहीं भेद नहीं। जब भी तुम किसी को मारते हो, अपने को ही मारते हो। और जब भी किसी को दुख देते हो, अपने को ही दुख देते हो। ऐसा महावीर को दिखायी पड़ा है। क्योंकि मैं ही मैं हूं। पत्थर में, पहाड़ में, चांद— तारों में एक का ही विस्तार है। ऐसी प्रतीति का परिणाम है, अहिंसा।
लेकिन बाहर से जिन्होंने देखा, उन्हें तो यह प्रतीति दिखायी नहीं पड़ी कि प्रेम का आविर्भाव हुआ है, कि एकात्म—बोध हुआ है, कि परमात्मा की अनुभूति हुई है, कि समाधि फली है—यह तो कुछ भी न दिखा—उन्हें दिखा कि महावीर पैर फूंक— फूंक कर रखते हैं, चींटी भी न मर जाए। पानी छान कर पीते हैं। कच्चा फल नहीं खाते। पका फल जो वृक्ष से अपने से गिर जाए। कच्चे फल को तोड़ो तो पीड़ा तो होगी। कच्चा है, अभी जुड़ा है, अभी टूटने का क्षण नहीं पाया है। इसलिए महावीर पके फल का ही भोजन लेते हैं।
यह तो महावीर की अंतर्दशा का बहिर्प्रतिफलन है। हम जो बाहर से देखते हैं, उनको लगता है कि यह आदमी पैर फूंक—फूंक कर रखता है, रात करवट भी नहीं लेता है कि कहीं कोई कीड़ा— मकोड़ा न दब जाए, गीली भूमि में नहीं चलता—क्योंकि गीली भूमि में कीटाणु होते हैं—पानी छानकर पीता है, रात भोजन नहीं करता, हमें ये बातें दिखायी पड़ी। हमने इस पर सारा धर्म खड़ा कर लिया। बस धर्म झूठा हो गया। महावीर का धर्म पैदा हुआ था समाधि से, ध्यान से। हमारा धर्म पैदा हुआ है महावीर को बाहर से देखने से। हमने सोचा, चींटी पर पैर न पड़े, पानी छान कर पीओ, रात भोजन न करो, हिंसा न करो, मांसाहार मत करो—बस, हम भी उसी अवस्था को उपलब्ध हो जाएंगे जिसको महावीर हुए हैं। तुम इस तरह उपलब्ध न हो सकोगे।
ध्यान रहे यह सूत्र : भीतर के अनुसार बाहर को चलना पड़ता है; बाहर के अनुसार भीतर नहीं चलता है। भीतर मालिक बैठा है, बाहर तो सब छाया है।
ऐसा समझो, मैं जहा जाता हूं, मेरी छाया भी मेरे पीछे आती है। लेकिन इससे उलटा नहीं हो सकता कि मेरी छाया जहा जाएं, उसके पीछे मैं जाऊं। छाया तो जाएगी कहां? छाया छाया है। तुम मेरी छाया को कहीं ले जाओगे, उससे तुम मुझे न ले जा सकोगे। लेकिन अगर तुम मुझे ले जाओ तो छाया भी चली जाएगी। छाया को जाना ही होगा। महावीर के भीतर तो समाधि फली, आचरण में छाया झलकी। हमने छाया पकड़ी। वही धर्म झूठा हो गया।
फिर तुम महावीर जैसे नहीं हो। कोई महावीर जैसा नहीं। इसलिए तुम्हारे ऊपर आचरण जबर्दस्ती हो गया। उससे तुम्हारे भीतर तालमेल भी नहीं बैठा। जबर्दस्ती होने के कारण तुम दुखी और उदास हो गये। दुखी—उदास होने के कारण धर्म का उत्सव समाप्त हो गया। धर्म रुग्णचित्त लोगों कि बात हो गयी। धर्म ऐसे लोगों की बात हो गयी जो अपने को सताने में रस लेते हैं; या फिर ऐसे लोगों की बात हो गयी जो अपने को सता कर तुम्हारा सम्मान लेते हैं।
तुम्हारे मंदिर, गिरजों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में बैठे हुए लोग—जों तुम्हारे सम्मान के पात्र हो गये हैं—तुम खयाल रखना, वे सम्मान के पात्र होने के लिए ही सारा आयोजन किये हैं और कुछ भी नहीं हैं।
तुम चाहते हो, उपवास वाले को हम सम्मान देंगे—क्योंकि तुम्हारी धारणा है, जो उपवास करेगा, वह महावीर जैसा हो जाएगा। निश्चित महावीर ने उपवास किये थे; लेकिन किये थे, यह कहना महावीर के संदर्भ में ठीक नहीं, उपवास हुए थे। मुनि कर रहा है। बस वहीं फर्क हो गया। होने और करने में जमीन— आसमान का फर्क है। भीतर ऐसी तल्लीनता बंध गयी थी कि कभी—कभी उपवास हो गया था। याद ही न आयी थी। मुझसे भी हुए हैं, इसलिए तुमसे कहता हूं। मैंने कभी उपवास नहीं किया, लेकिन हुए जरूर। कभी ऐसी बंध गयी लौ भीतर कि याद ही न आयी बाहर भोजन करने की। मन ऐसा मुग्ध हुआ भीतर, कि बाहर के सारे द्वार—दरवाजे अपने से बंद हो गये! उपवास हुआ। पता भी नहीं चला कब हो गया। जब टूटा तभी पता चला। जब भीतर की चेतना फिर बाहर लौटी, तब याद आया कि दो दिन निकल गये हैं, भोजन नहीं हुआ।
फिर उपवास करनेवाले लोग हैं। वे थोप लेते उपवास को। वे जबर्दस्ती शरीर को सता लेते हैं। फिर उनके सताने में एक ही रस हो सकता— भीतर का तो कोई रस नहीं है— अब उनके सताने में एक ही रस हो सकता है : उनके अहंकार को बाहर से आदर मिले, सम्मान मिले। कोई कहे कि तपस्वी हैं, कोई घोषणा करे कि महात्मा हैं।
तो धर्म, जो स्वभाव है, वह धीरे—धीरे आचरण का रूप ले लेता है। वह नीति बन जाता है। धर्म नीति का पतन,धर्म का पतन है—नीति। नीति धर्म नहीं है। और ध्यान रहे, धार्मिक व्यक्ति नैतिक होता है, लेकिन नैतिक व्यक्ति धार्मिक नहीं होता। अंतस के पीछे आचरण चलता है, आचरण के पीछे अंतस नहीं चलता।
धर्म का अर्थ है : स्वभाव। और प्रत्येक में थोड़ा— थोड़ा भेद है। इसलिए प्रत्येक की धर्म की यात्रा थोड़ी— थोड़ी भिन्न होगी। व्यक्ति को ध्यान में रखना। लेकिन जब बाहर से आचरण के नियम बनाये जाते हैं, तो फिर कोई ध्यान में नहीं रखा जाता। बाहर से जो नियम बनाये जाते हैं, वे तो सभी के लिए एक— से होंगे। उनमें फिर किसी का ध्यान न रखा जाएगा। वे व्यक्ति के अनुकूल नहीं होते, व्यक्ति को ध्यान में रखकर नहीं होते, सार्वजनीन होते हैं। सभी सार्वजनीन नियम घातक होते हैं। इसलिए मैं यहां किसी को कोई नियम नहीं दे रहा हूं सिर्फ बोध दे रहा हूं। आंख दे रहा हूं आचरण नहीं दे रहा हूं। इशारे दे रहा हूं जड़ मंतव्य, वक्तव्य नहीं दे रहा हूं। उपदेश दे रहा हूं आदेश नहीं दे रहा हूं। समझने की क्षमता दे रहा हूं, फिर जीना तुम अपने ढंग से। चंपा चंपा के ढंग से खिलेगी और कमल कमल के ढंग से खिलेगा। कमल पानी में खिलेगा और चंपा को पानी में खिलाना चाहोगे—मार डालोगे, सड़ा डालोगे। और कमल को चंपा की जगह खिलाना चाहोगे—कैसे खिलेगा?
इतने ही भेद हैं व्यक्तियों में। खिलना सब को है। खिलने का अर्थ एक ही है। परम अवस्था में जो खिलाव होता है, वह तो एक ही है; लेकिन उस तक पहुंचने की जो यात्राएं हैं, वे बड़ी भिन्न हैं। और फूलों के रंग अलग होंगे,फूलों के ढंग अलग होंगे, फूलों की गंध अलग होगी—खिलाव एक होगा। उस खिलाव का नाम परमात्मा है। लेकिन और सब अलग होगा।
जो लोग बाहर से नियम और आचरण बनाते हैं, उन्हें यह बात याद ही नहीं रह जाती। फिर आचरण के नियम इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि हर एक को उन नियमों के अनुसार होना चाहिए। ऐसा समझो कि दर्जी ने कपड़े पहले बना लिये। उसने एक हिसाब से कपड़े बना लिये। उसने पता लगा लिया कि पूना में औसत लंबाई कितनी है। सब आदमियों की लंबाई नाप ली गयी, औसत लंबाई पा ली उसने; औसत मोटाई पा ली उसने। अब इस औसत में बड़ा धोखा है। इसमें छोटे बच्चे भी हैं, इसमें बड़े बूढ़े भी हैं; इसमें लंबे आदमी भी हैं, इसमें ठिगने आदमी हैं; इसमें मोटे आदमी हैं, इसमें दुबले आदमी हैं—इसमें सब तरह के आदमी हैं। इन सबका हिसाब लगा लिया, सब का जोड़ लिया;सबकी लंबाई जोड़ ली, फिर सब का भाग दे दिया; सब की मोटाई जोड़ ली और सब का भाग दे दिया; फिर औसत आदमी के कपड़े बना लिये। अब औसत आदमी कहीं होता नहीं, खयाल रखना। औसत आदमी सिर्फ गणित में होता है,जीवन में नहीं होता। अब औसत आदमी आ गया। इस औसत आदमी की ऊंचाई चार फीट छह इंच। उसने कपड़े तैयार कर लिये। इस औसत आदमी की एक मोटाई है, उसने कपड़े तैयार कर लिये। अब तुम गये; तुम औसत आदमी नहीं हो। तुम छह फीट के लंबे आदमी हो। चार फीट छह इंच के कपड़े हैं। वह कहता है : तुम गलत हो। तुम औसत से भिन्न! तुम नियम के विपरीत! आओ तुम्हें मैं छांट दूं।
या हो सकता है, तुम चार ही फीट के हो, ठिगने हो बहुत; तो वह कहता है : आओ तुम्हें जरा खींच—तान कर बड़ा कर दूं। कपड़े महत्वपूर्ण हो गये, आदमी का कोई ध्यान न रहा।
मेरे लिए व्यक्ति का मूल्य है। मेरा मन व्यक्ति के प्रति परम सम्मान से भरा है। मैं तुम्हारे लिए कोई कपड़े नहीं बनाता। तुम्हें बिना सिला कपड़ा दे रहा हूं। तुम अपने कपड़े बना लेना। वह बिना सिला कपड़ा समझ है। फिर समझ के अनुसार तुम अपने कपड़े बना लेना। कपड़े तुम्हीं बनाना! किसी और के आधार पर बनाये गये कपड़े कभी तुम्हें ठीक न आएगे—या तो ढीले होंगे, या चुस्त होंगे, या लंबे होंगे, या छोटे होंगे, कुछ न कुछ गड़बड़ रहेगी; और तुम हमेशा बेचैनी अनुभव करोगे।
इसलिए तुम्हारे तथाकथित धार्मिक आदमी बेचैन मालूम होते हैं। महावीर का कपड़ा पहने हुए हैं। महावीर जैसा व्यक्तित्व नहीं है। बैठे हैं—आंख बंद किये, आंख बंद नहीं होती। खड़े हैं—नग्न, और सकुचा रहे हैं, और भीतर बड़ी ग्लानि हो रही है, और बड़ी घबड़ाहट भी हो रही है कि यह मैं क्या कर रहा हूं! कोई देख न ले! कोई क्या कहेगा? पागल न समझे! या तुम मंदिर में पूजा कर रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो— और प्रार्थना में तुम्हारा हृदय नहीं है। लेकिन कर रहे हो;तुम्हारे परिवार में होती रही है। तुम सिर्फ औपचारिकता निभा रहे हो। धर्म झूठा हो जाता है औपचारिकता में।
धर्म होना चाहिए—तुम्हारे अंतःकरण से निष्पन्न। तुम अपना धर्म खोजो। न तो हिंदू धर्म तुम्हारा धर्म है, न ईसाई धर्म तुम्हारा धर्म है। ईसाई धर्म है जीसस के आधार से बनाये गये कपड़े। और हिंदू धर्म है कृष्ण के या राम के आधार से बनाये गये कपड़े। और जैन धर्म है महावीर के आधार से बनाये गये कपड़े। इसलिए तुम इतने बेहूदे और बेढंगे मालूम हो रहे हो। इसीलिए पृथ्वी धर्मशून्य हो गयी है। सब कपड़े पहने हैं, लेकिन सब गलत कपड़े पहने हुए हैं। तुम अपने कपड़े बनाओ!
समझ तुम्हें देता हूं—दृष्टि तुम्हें देता हूं ध्यान तुम्हें देता हूं भक्ति, प्रेम तुम्हें देता हूं—फिर तुम अपने जीवन का आचरण खुद ही निर्मित करो। और तब तुम्हारे भीतर एक उत्कुल्लता होगी। नहीं तो बड़ी छोटी—छोटी बातें बड़ा कष्ट देती हैं।
एक सज्जन मेरे पास आए। वह कहते हैं कि मुझसे क्या होगा? मैं बड़ा पापी हूं अपराधी हूं! मैंने कहा : तुम्हारा अपराध क्या? पाप क्या? आदमी भले मालूम पड़ते हो। तुम्हारी आंखें देखता हूं तो ऐसी कोई पापी की आंखें नहीं मालूम पड़ती। तुम्हारे चेहरे पर पाप का कोई निशान भी नहीं मालूम पड़ता। उन्होंने कहा, नहीं आपको साहब पता नहीं! आठ बजे सोकर उठता हूं।
अब इस व्यक्ति के किताबें पढ़ ली हैं, जिनमें लिखा है कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए; ब्रह्ममुहूर्त में उठना पुण्य है। अब आठ बजे सो कर उठता हूं इसलिए ग्लानि से भरा है। पांच बजे सोकर उठने में कोई ऐसी धार्मिकता नहीं है। क्या धार्मिकता होगी? सब समय समान है। अब इसकी अड़चन यह है कि इसको दो बजे रात तक तो नींद ही नहीं आती। अब जो आदमी दो बजे तक सो न सके, वह अगर आठ बजे तक सोए, तो कुछ हैरानी तो नहीं है। जिन गुरुओं के पास जाता रहा होगा, वे कहते हैं कि नौ बजे सो जाओ। वह कहता है मैंने कोशिश भी कर ली, मैं पड़ भी जाता हूं बिस्तर पर, मगर नींद जब आती है तब आती है। और वह दो बजे आती है नींद, और वह नौ बजे से लेकर दो बजे तक पड़े रहना और भी कष्टपूर्ण हो जाता है। करवटें बदलता हूं, परेशान होता हूं— और ग्लानि भरती है कि मुझ जैसा पापी कौन! नींद भी नहीं आती समय पर! सुबह उठता हूं तो आठ बजे, नौ बजे। तब चित्त प्रसन्न रहता है। अगर जल्दी उठ आता हूं तो दिन भर उदासी और तनाव और मस्तिष्क में बोझ बना रहता है।
अब इसको पापी करार दे दिया। वह शिवानंद का शिष्य था। शिवानंद के पास गया, उन्होंने कहा, यह नहीं चलेगा। ब्रह्ममुहूर्त में तो उठना ही चाहिए। अब कुछ लोग ऐसे हैं जिनको तीन बजे के बाद नींद नहीं आती। जिनको दो बजे के पहले नींद नहीं आती, उनको तुम पापी बना देते हो; और जिनको तीन बजे के बाद नींद नहीं आती, उनको तुम पुण्यात्मा बना देते हो! ऐसे लोग हैं, जो तीन बजे के बाद तड़पते हैं, उठने के लिए। उन्हीं कोई बहाना मिल जाए तो वे जल्दी से उठ आएं। उनकी नींद पूरी हो गयी है।
मेरे हिसाब में कोई पापी नहीं, कोई पुण्यात्मा नहीं। यह भी कोई बात है! आठ बजे उठे तो आठ बजे उठे। जो सुगम मालूम होता है, जो शरीर को स्वाभाविक मालूम होता है, जो तुम्हारी प्रकृति को अनुकूल आता है, वही धर्म है। और यही हर चीज के संबंध में मैं तुमसे कहना चाहता हूं। जीवन में किसी भी चीज से अकारण पाप इत्यादि की धारणाएं मत पकड़ लेना। क्षुद्र बातों में मत उलझ जाना। यहां बड़ा विराट कुछ करने को तुम्हारा होना हुआ है। तुम छोटी—छोटी बातों में मत उलझ जाना।
दुनिया के सारे धर्म छोटी—छोटी बातों के विस्तार में उलझ गये हैं। विस्तार इतना हो गया है कि मूल खो गया है। मुझे जैन मुनियों ने कहा कि हमें फुरसत ही नहीं ध्यान करने की। क्योंकि और सब नियम का पालन करते—करते समय कहां बचता है? यह तो हद हो गयी! ध्यान करने को आदमी मुनि होता है। मुनि का अर्थ होता है, जो मौन सीखने गया, जो मौन होने गया। वह ध्यानी का ही एक रूप है। लेकिन ध्यानी होने गये थे, और दूसरी चीजों में उलझ गये। 'गये थे राम— भजन को, ओटन लगे कपास' और वे कहते हैं : फुरसत नहीं मिलती! यही तो दुकानदार कहता है—फुरसत नहीं मिलती। और यही अगर मुनि कहे कि फुरसत नहीं मिलती ध्यान को...! क्योंकि और नियम ऐसे हैं। उन नियमों में ही झंझट खड़ी हो जाती है। उन नियमों में ही सारा समय चला जाता है। थोड़ा—बहुत समय बचता है, वह उपदेश में लगाना पड़ता है।
खुद पाया नहीं है, उपदेश क्या दे रहे हो, किसको दे रहे हो? खुद भटके हो, औरों को भटकाओगे? यह तो सुनिश्चित पाप है। यह बड़े से बड़ा पाप है कि तुमने न जाना हो और किसी को तुम उपदेश दो। इससे बड़ा पाप और क्या होगा? एकाध दिन अगर रात पानी पी लो, तो मैं नहीं समझता इतना बड़ा पाप है; कि एकाध दिन भूख लग आए और रात एकाध फल खा लो, तो कोई इतना बड़ा पाप है! मगर बिना जाने, बिना अनुभव किये तुम सैकड़ों लोगों को समझा रहे हो, मार्ग दे रहे हो, चला रहे हो—जिन मार्गों पर तुम कभी चले नहीं—इससे बड़ा पाप क्या होगा?
तुम देखते हो, जिस आदमी के पास डाँक्टर का प्रमाणपत्र नहीं है और वह दवाइयां बांटता हो, तो खतरनाक है तुम। मगर उसकी दवाइयां तो ज्यादा से ज्यादा शरीर को नुकसान पहुंचा सकती हैं। लेकिन जिन्होंने ध्यान नहीं जाना है, ये मार्गदर्शन दे रहे हैं। इनकी औषधियां जन्मों—जन्मों तक तुम्हें भटका सकती हैं। भटका रही हैं। और इन्हें ग्लानि भी नहीं पकड़ती, इन्हें अपराध का भाव भी नहीं पकड़ता—क्योंकि ये सिर्फ नियम का पालन कर रहे हैं। साधु को कहा गया है कि उसे इतना उपदेश देना चाहिए; उसे इतने नियम तो पालन करने ही चाहिए; उसे इतने बजे उठ आना चाहिए; उसे इतने बजे मलमूत्र विसर्जन को जाना चाहिए; उसे इतना अध्ययन करना चाहिए; उसे इतना शास्त्र का पाठ करना चाहिए। इसी सबमें उलझा डाला है। मैं तुम्हें कोई आचरण नहीं देना चाहता।
मैं तुम्हें कोई अनुशासन नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें स्वतंत्रता देना चाहता हूं। मैं तुम्हें समस्त सिद्धातों से स्वतंत्रता देना चाहता हूं। मैं तुम्हें उत्तरदायी बनाना चाहता हूं।
तुम मेरा बात समझना।
स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं होता कि मैं तुम्हें उच्छृंखल बनाना चाहता हूं। मैं तुम्हें उत्तरदायी बनाना चाहता हूं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुम्हारा जीवन मूल्यवान है। इसको ऐसे मत गंवा देना। इसे हर किसी की बात मानकर मत गंवा देना। इसे हर किसी के कपड़े पहन कर मत गंवा देना। तुम्हारा जीवन कीमती है। परमात्मा तुमसे पूछेगा : क्या किया जीवन का? तो तुम उत्तरदायी होओगे, तुम्हारे मुनि महाराज नहीं; और न तुम्हारे साधु, और न तुम्हारे महात्मा;कोई उत्तर नहीं देगा, तुम्हें उत्तर देना पड़ेगा। तुम्हारे लिए तुम्हीं जी रहे हो, तुम्हारे लिए तुम्हीं मरोगे, और तुम्हारे लिए तुम्हीं उत्तरदायी हो। इसलिए अपने जीवन को इस ढंग से जीना कि तुम उत्तर दे सको।
और कौन निर्णय करेगा कि तुम कैसे जीओ? तुम कब उठो, क्या खाओ, क्या पीओ? कौन निर्णय करेगा? किसी को हक भी नहीं है। यह गुलामी छूटनी चाहिए।
मेरे लिए धर्म है : स्वभाव और स्वभाव की परम स्वतंत्रता। तू अपना छंद स्वयं बनो। मुक्ति पहले कदम से शुरू हो जानी चाहिए। यह पहला कदम है। और यही मुक्ति बढ़ते—बढ़ते मोक्ष बन जाएगी। फिर, जो अब तक दुनिया में धर्म के नाम पर समझा गया, पकडा गया, वह अनिवार्य रूपेण जीवन—विरोधी था। हो ही गया जीवन—विरोधी। महावीर नहीं थे जीवन विरोधी, न बुद्ध थे जीवन—विरोधी। कोई तानी कभी जीवन—विरोधी नहीं हो सकता। क्योंकि इसी जीवन से तो परम जीवन पाया जाता है। यह जीवन तो परम जीवन का द्वार है। इस संसार से ही तो हम सत्य की तरफ जाते हैं। इस संसार में अगर काटे भी गड़ते हैं तो वे काटे भी तुम्हारे मित्र हैं; अगर न गड़ते तो तुम कभी सत्य की तरफ न जाते। इस संसार के दुख भी ऐसे है कि तुम उनके प्रति जिस दिन जागोगे, उस दिन आभार प्रकट करोगे। क्योंकि उन्हीं के द्वारा तो तुम परमात्मा तक पहुंचे। उन्हीं के द्वारा तो तुम समाधि तक पहुंचे।
जरा थोड़ा सोचो! इस जगत में कोई दुख न हो, कोई पीड़ा न हो, कोई परेशानी न हों—तुम सोचोगे समाधि की बात? समाधि की तुम्हें याद कौन दिलाएगा? ये काटे जो चारों तरफ से चुभते हैं, तुम्हें सजग रखते हैं। ये तुम्हें समाधि की तरफ ले जाते हैं। इन कांटो का प्रयोजन है। इस जगत के दुख सिर्फ दुख नहीं हैं, उन दुखों के भीतर बड़ा आयोजन है, उन दुखों में बड़े इशारे छिपे हैं। वे दुख तुम्हें याददाश्त दिलाने के लिए हैं। वे दुख अभिशाप नहीं, वरदान हैं।
इसलिए मैं एक ऐसा धर्म पृथ्वी पर देखना चाहता हूं जो जीवन—विरोधी न हो। क्योंकि इस लोक में ही परलोक छिपा है। इन्हीं वृक्षों, पौधों, पत्थरों, पहाड़ों में परमात्मा छिपा है। इन्हीं लोगों में, जो तुम्हारे पास बैठे हैं, परमात्मा का आवास है। पड़ोसी में परमात्मा छिपा है। तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है। तुम्हारी पत्नी में, तुम्हारे पति में, तुम्हारे बेटे में, तुम्हारे पिता में परमात्मा छिपा है। तुम ऊपर—ऊपर से देखते हो, इसलिए चूक जाते हो। लेकिन ऊपर—ऊपर से देखने के कारण चूक जाओ, तो इस फल को फेंक मत देना, क्योंकि इस फल के भीतर रस छिपा है, जो तुम्हें तृप्त कर सकता था।
लेकिन अड़चन इसलिए आ गयी, महावीर समाधि को उपलब्ध हुए, बुद्ध समाधि कों—लोगों ने आचरण पकड़ा,लोग आचरण के अनुसार चले। उन्हें भीतर का तो कुछ पता न चला, थोथे हो गये। बाह्य क्रियाकांड़ में उलझ गये। यत्न में उलझ गये, भजन का पता नहीं चला। उसी क्रियाकांड़ में डूब गये। उससे अहंकार और बढ़ा। उससे अहंकार और सूक्ष्म हुआ। और उस अहंकार के कारण उन्हें कुछ भी दिखायी न पड़ा सब अंधापन छा गया; और अंधेरा हो गया।
मेरे देखे, संसारी इतने अंधे नहीं हैं जितने तुम्हारे तथाकथित संन्यासी। और न संसारी इतने दंभी हैं, जितने तुम्हारे महात्मा।
जीवन का एक अपूर्व अवसर है। इस अपूर्व अवसर का उपयोग करो—चुनौती की तरह। इससे भागना नहीं है। इस अग्नि में खड़े होना है। यही अग्नि तुम्हें निखारेगी। इसी अग्नि में निखरकर तुम कुंदन बनोगे। तुम्हारा कचरा भर जलेगा, और कुछ जलनेवाला नहीं है। इसलिए भागो मत, भागे तो कचरा बच जाएगा।
पूछा तुमने, कैसा धर्म इस पृथ्वी पर आप लाना चाहता हैं? जीवन—स्वीकार का धर्म। परम स्वीकार का धर्म। चूंकि जीवन— अस्वीकार की बातें बहुत प्रचलित रही हैं, इसलिए स्वभावत: लोग देह के विपरीत हो गये। अपने शरीर को ही सताने में संलग्न हो गये। और यह देह परमात्मा का मंदिर है। मैं इस देह की प्रतिष्ठा करना चाहता हूं। और चूंकि लोग संसार के विपरीत हो गये, देह के विपरीत हो गये, इसलिए देह के सारे संबंधों के विपरीत हो गये। भूल हो गयी।
देह के ऐसे संबंध हैं, जिनसे मुक्त होना है। और देह के ऐसे संबंध हैं, जिनमें और गहरे जाना है। प्रेम ऐसा ही संबंध है। प्रेम में गहराई बढ़नी चाहिए। घृणा में गहराई घटनी चाहिए। घृणा से तुम मुक्त हो सको, तो सौभाग्य। लेकिन अगर प्रेम से मुक्त हो गये तो दुर्भाग्य।
और मजा यह है कि अगर तुम्हें घृणा से मुक्त होना हो तो सरल रास्ता यह है कि प्रेम से भी मुक्त हो जाओ। और तुम्हारे अब तक के साधु—संन्यासियों ने सरल रास्ता पकड़ लिया। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी! लेकिन बांस और बांसुरी में बड़ा फर्क है। बांसुरी बजनी चाहिए। बांस से बांसुरी बनती है, लेकिन बांसुरी बड़ा रूपांतरण है। बांसुरी सिर्फ बौस नहीं है। बांसुरी में क्रांति घट गयी। तुम अभी बांस जैसे हो, बांसुरी बन सकते हो।
घृणा से भयभीत हो गये लोग। क्रोध से भयभीत हो गये भाग गये जंगलों में। जब कोई रहेगा ही नहीं पास, तो न घृणा होगी, न क्रोध होगा। यह तो ठीक, लेकिन प्रेम का क्या होगा? प्रेम भी नहीं होगा। इसलिए तुम्हारे तथाकथित महात्मा प्रेमशून्य हो गये, प्रेमरिक्त हो गये। उनके प्रेम की रसधार सूख गयी। वे मरुस्थल की भांति हो गये। और वहीं चूक हो गयी। परमात्मा तो मिला नहीं, संसार जरूर खो गया। सत्य तो मिला नहीं, इतना ही हुआ कि जहा सत्य मिल सकता था, जहा सत्य को खोजा जा सकता था, जहां चुनौती थी पाने की, उस चुनौती से बच गये। एक तरह की शांति मिली—लेकिन वह मुर्दा, मरघट की। एक और शांति है—उत्सव की, जीवंत उपवन की। मैं उसी शांति के धर्म को लाना चाहता हूं।
तुम जीवन को अंगीकार करो, देह को अंगीकार करो। परमात्मा ने जो दिया है, सब अंगीकार करो। उसने दिया है तो कुछ उसमें राज छिपा होगा ही! इस वीणा को फेंक मत देना, इसमें संगीत छिपा है। इसे बांस मत समझ लेना,इसमें बांसुरी बनने की क्षमता है। जल्दी छोड़—छाड़कर भाग मत जाना। तलाश करना। हालाकि तलाश कठिन है। होनी ही चाहिए। क्योंकि तलाश के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। जो खोजेगा, वह पाएगा। इसी जीवन में खोजना है।
परमात्मा ने संसार बनाया कभी, ऐसा मत सोचो। परमात्मा संसार रोज बना रहा है, प्रतिपल बना रहा है। ऐसा कोई बना दिया एक दफा और खत्म हो गया काम! तो फिर नये पत्ते कैसे आ रहे हैं? फिर नये फूल कैसे खिल रहे हैं?फिर चांद—तारे कैसे चल रहे हैं? फिर नये बच्चे कैसे पैदा हो रहे हैं? रोज नये का जन्म हो रहा है।
तो यह धारणा तुम्हारी गलत है कि परमात्मा ने सृष्टि की। परमात्मा सृष्टि कर रहा है। और अगर तुम मेरी बात और भी ठीक से पकड़ना चाहो, तो मैं कहता हूं : परमात्मा सृष्टि की प्रक्रिया है। परमात्मा कोई अलग व्यक्ति नहीं है कि बैठा है और बना रहा है चीजों को। कुम्हार नहीं है कि घड़े बना रहा है। नर्तक है—नाच रहा है। उसका नाच उसका अंग है। इन सब फूलों में, पत्तों में, सागरों में, सरोवरों में—उसका नाच है। तुम में, मुझ में, बुद्ध—महावीर में—उसका नाच है। उसकी भावभगिमाए हैं। उसकी अलग— अलग मुद्राएं हैं। इनमें पहचानो!
तो मैं भगोड़े धर्म से छुटकारा दिलाना चाहता हूं। देह स्वीकृत हों—देह मंदिर बने। प्रेम स्वीकृत हो—प्रेम पूजा बने। संसार का सम्मान हो, क्योंकि उसमें स्रष्टा छिपा है। अभी भी उसके हाथ काम कर रहे हैं। अगर तुम जरा संसार में गहरा प्रवेश करोगे तो उसके हाथ का स्पर्श तुम्हें मिल जाएगा, उसका हाथ तुम्हारे हाथ में आ जाएगा। किसी फूल में कभी उतरे हो गहरे? तुम्हें उसका हाथ पकड़ में आ जाएगा। किसी आंख में उतरे हो गहरे? तुम्हें उसकी झलक पकड़ में आ जाएगी। किसी हृदय में गये हो गहरे? तुम्हें उसका घर मिल जाएगा वह कहां छिपा है।
तो मूल्यों का एक पुनर्मूल्याकन करना है। सारे मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन करना है। और पृथ्वी आज तैयार हो गयी है इस घटना के लिए। क्योंकि पांच हजार साल के दमनकारी धर्मों ने, पलायनवादी धर्मों ने मनुष्य को काफी सजग कर दिया है। मनुष्य तैयार है अब कि कुछ नया आविर्भाव होना चाहिए। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं, लोग आतुरता से राह देख रहे हैं, कि परमात्मा का कोई नया अवतरण होना चाहिए। कोई नयी भाषा मिलनी चाहिए धर्म को। और चूंकि ऐसी भाषा नहीं मिल पा रही है, और ऐसा नया अवतरण नहीं हो पा रहा है, और लोगों को ?? नहीं पड़ रहा है कि कैसे धार्मिक हों, तो गलत धर्म पैदा हो रहे हैं। वे भी खोज की वजह से पैदा हो रहे है।
आदमी और धर्म के बीच कोई सांयोगिक संबंध नहीं है, जैसा कि मार्क्स और कम्यूनिस्ट सोचते हैं। अनिवार्य संबंध है। आदमी बिना धर्म के हो ही नहीं सकता। आदमी और धार्मिक न हो, यह असंभव है! फिर एक ही उपाय बचता है : ठीक ढंग से धार्मिक हो कि गलत ढंग से धार्मिक हो। तुम चकित होओगे जानकर कि रूस में जहा कि क्रांति कम्यूनिस्टों के हाथ से घटी और मंदिर—मस्जिद और गिरजे करीब—करीब समाप्त कर दिये गये, वहा भी लोग धर्म से मुक्त नहीं हो गये हैं। धर्म की आकांक्षा इतनी प्रबल है कि अगर असली धर्म न मिलेगा तो लोग नकली से चलाएंगे। वे जाकर लेनिन की कब्र पर ही फूल चढ़ाने लगे। लेनिन ही अवतार मालूम होने लगे। क्रेमलिन मंदिर बन गया। मार्क्स की किताब 'दास कैपिटल ' उनकी कुरान, उनकी बाइबिल बन गयी। उनकी नयी त्रिमूर्ति पैदा हो गयी—मार्क्स, एंजिल्स,लेनिन। ब्रह्मा, विष्णु, महेश गये, मगर ये नये...! जर्मनी में हिटलर करीब—करीब लोगों के लिए ऐसा हो गया जैसे वही पूजनीय है।
लोग पूजा का कोई स्थल चाहते हैं। अगर तुम सब स्थल छीन लोगे, तो वे अपने ही स्थल बना लेंगे—कुछ भी बना लेंगे, कुछ भी खड़ा कर लेंगे, जो मिल जाएगा उसी की पूजा करेंगे। लेकिन पूजा, प्रार्थना, प्रेम मनुष्य के भीतर छिपी हुई कोई अनिवार्य आवश्यकता है।
मेरे पास पत्र आते हैं। कल ही एक पत्र आया है रूस से एक महिला का, कि वह आना चाहती है, लेकिन सरकार आज्ञा नहीं देती। तो उसने लिखा है, यहां से मैं निमंत्रण दिलवाऊं। कोई यहां से 'गारंटी' लेने को हो तीन महीने के लिए,तो शायद स्वीकृति मिल जाए। लेकिन उसका पत्र इतना प्यारा है कि 'लक्ष्मी' डरी! किसी से स्वीकृति तो दिलवा दे,लेकिन वह फिर न जाए तो क्या करें? उसके पत्र से ऐसा लगता है कि फिर वह जानेवाली नहीं। तो जो स्वीकृति लेगा,वह झंझट में पड़ जाएगा; जो निमंत्रण देगा, वह झंझट में पड़ जाएगा। उसके पत्र से लगता नहीं कि एक दफा वह आ जाए रूस के बाहर से, तो फिर भीतर जाएगी।
आदमी के भीतर अनिवार्य तड़प है। और तड़प गहरी हो गयी है। क्योंकि सब पुराने धर्म फीके पड़ गये हैं। और सब नये तथाकथित कम्यूनिस्ट और फॉसिस्ट धर्म झूठे हैं, थोथे हैं, उनसे आत्मा तृप्त नहीं होती। तो मनुष्य बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है : कोई नयी किरण उतरे।
इसलिए मैंने कहा कि यह गैरिक आग फैलती जाए सारी दुनिया में तो नयी किरण उतर सकती है। और इस तरह का संन्यास ही अब भविष्य का संन्यास हो सकता है। भगोड़ा संन्यास नहीं हो सकता। जीवन को अंगीकार करनेवाला संन्यास ही भविष्य में स्वीकृत हो सकता है।
और मैं कोई कारण नहीं देखता हूं कि कहीं भागकर जाने की जरूरत है। तुम जहा हो, वहीं अगर तुमने हृदयपूर्वक पुकारा तो परमात्मा आता है। असली बात हृदयपूर्वक पुकारने की है। असली बात न तो पवित्रता की है, न शुद्धता की है, न योग की है, न त्याग की है, असली बात इतनी ही है, कि तुम परिपूर्ण असहाय होकर, निर— अहंकार होकर, उसके चरणों में गिर जाओ। तुम थोड़े भी बचे तो रुकावट रहेगी। तुम बिलकुल चले गये, उसी क्षण रुकावट टूट जाती है।
ओशो
अथातो भक्ति जिज्ञासा भाग-2
बारहवां प्रवचन, 22 मार्च 1978
श्री रजनीशआश्रम पूना।
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