परिशिष्ट प्रकरण—15 पहली सतोरी नदी तीर

पने बचपन के दिनों में मैं प्रात: काल जल्‍दी नदी पर जाया करता था। यह एक छोटा सा गांव का। नदी बहुत अधिक सुस्‍त थी। जैसे कि यह जरा भी प्रवाहित न हो रही हो। प्रति: काल जब सूर्योदय न हुआ हो। तुम देख ही नहीं सकते कि नदी प्रवाहित हो रही है या नहीं,यह इतनी मंद और शांत हुआ करती थी। और प्रात: काल मैं जब वहां कोई न हो,स्‍नान करने वाले अभी तक न आए हों।  वह आत्‍यंतिक रूप से शांत रहती थी। प्रात: काल जब पक्षी भी अभी गा रहे हो—ऊषा पूर्व, कोई ध्‍वनि नहीं, बस एक सन्‍नाटा व्‍याप्‍त रहता है। और नदी पर इधर से उधर तक आम के वृक्षों के सुगंध फैली रहती है।
      मैं नदी के दूरस्‍थ कोने तक बस बैठने के लिए,बस वहां होने के लिए जाया करता था। कुछ करने की अवश्‍यकता नहीं थी, वहां होना ही पर्याप्‍त था; वहां होना ही इतना सुंदर अनुभव था। मैं स्‍नान कर लेता, मैं तैर लेता और जब सूर्य उदय होता तो मैं दूसरे किनारे पर रेत के विराट विस्‍तार में चला जाता और वहां घुप में स्‍वय को सुखाता और वहां लेटा रहता। और जब कभी-कभी सो भी जाता।
      जब मैं लौट कर आता,तो मेरी मां पूछा करती, सुबह के पूरे समय तुम क्‍या करते हो?
      मैं कहता: कुछ भी नहीं,क्‍योंकि वास्‍तव में मैं कुछ भी नहीं करता था।
      और वे कहती: यह कैसे संभव है कि तुम कुछ नहीं कर रहे थे। तुम अवश्‍य ही कुछ न कुछ कर रहे होओगे। और वे सही थीं, और में भी गलत नहीं था।
      मैं कुछ भी नहीं कर रहा था। मैं बस नदी के साथ था। बिना कुछ करते हुए बातों को घटने दे रहा था। यदि तैरना भीतर से आता....याद रखें, यदि तैरना भीतर से आता, तो मैं तैरता,लेकिन यह मेरी और से कोई क्रिया नहीं थी। मैं कुछ कर नहीं रहा था। यदि मुझको सोने जैसा लगता तो मैं सो जाता। घटनाएं घट रही थी। लेकिन कोई कर्ता नहीं था। और सतोरी का पहला अनुभव नदी के किनारे से ही आरंभ हुआ था। मात्र वहां रहने से ही, लाखों चीजें घटित हो गई।
      लेकिन वे जोर देकर पूछती,तुम अवश्‍य ही कुछ कर रहे होओगे।
      तब मैं कहता,ठीक है, मैंने स्‍नान किया और मैंने स्‍वयं को धूप में सुखाया, और तब वे संतुष्‍ट हो जातीं। लेकिन मैं संतुष्‍ट न होता—क्‍योंकि वहां नदी पर जो कुछ भी घटित हुआ था उसे शब्‍दों से अभिव्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता है। मैंने स्‍नान कर लिया। कितना कमजोर और असमर्थ प्रतीत होता है। नदी के साथ खेलते रहना, नदी पर बहते जाना नदी में तैरना, यह इतना गहन अनुभव था बस यह कह देना: मैंने स्‍नान किया है, इससे कोई अर्थ नहीं निकलता। बस इतना भर कह देना: मैं वहां गया, तट पर टेहला,वहां बैठा कुछ भी नहीं बताता।

ओशो

No comments:

Post a Comment

Must Comment

Related Post

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...