नेपाल—(अध्याय—11)
विमान के धरती को छूने से पहले ही में नेपाल के जादू को महसूस कर रही थी। मैं धीरे से फुसफुसाई, ‘मैं घर लौट रही हूं।’ एयरपोर्ट अधिकारी भद्र व्यक्ति थे। उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी तथा सड़को पर आ जा रहे लोगों के चेहरे इतने सुंदर थे जो मैंने पूरे विश्व में कही नहीं देखे थे1 यद्यपि नेपाल भार से अधिक निर्धन है परंतु वहां के लोगों में एक गरिमा है। जो इस तथ्य का खंडन करती है।
पोखरा को जानेवाली घुमावदार सड़क पर हरे-भरे जंगल में से गुजरती थी। जब मैं लधु शंका के लिए बाहर निकली तो एक बनी की और सम्मोहित हो कर बढ़ती चली गई जहां एक जल प्रपात चट्टानों से घिरे एक ताल में गिर रहा था। आर्किड बड़े-बड़े मकड़ों की भांति पेड़ों से लिपटे हुए थे। एक छोटा सा नाला एक मोड़ लेकिर दृष्टि से ओझल एक रहस्मयी घाटी कीओर जा रहा था। ‘चेतना--चेतना।’ मेरा नाम पुकारा जा रहा था। अपना नाम की पुकार सुन कर मेरा जादू टूटा। जि गाड़ी में हम थे उसे दो संन्यासी जो हमें एअरपोर्ट पर मिले थे—उन पहाड़ों की चढ़ाई उतराई से होते हुए चले आ रहे थे। जहां से घान के परतदार खेत थे। बाँसों के झुरमुट और तीव्र गति से बहती नदियों वाली तंग घाटियाँ दिखाई दे रही थी।
चौदह घंटे के पश्चात जब हम पोखरा कम्यून पहुंचे तो अँधेरा हो चुका था। धना अँधेरा और वहां बिजली भी नहीं थी। हम भोजन कक्ष में पहुँचे तथा अपने साथ जो वोडका की बोतल लाए थे उसे फ्रिज में रखने का अनुरोध किय। शायद मदिरा इस गृह परिसर में पहली बार आई थी। मैंने चारों और देखा और पाया कि लगभग बीस संन्यासी जो वहां रहते थे, वे या तो भारतीय थे या नेपाली। उनमें अधिकतर पुरूष थे। भोजन कक्ष साठ फुट लम्बा था। जिसकी अनावृत सज्जा हीन दीवारे और फर्श कंकरीट के थे। पूरा कक्ष खाली था। एक कोने में भोजन परोसने के लिए बर्तन थे तथा न दूर, बहुत दूर दूसरी तरफ एक कुर्सी और एक मेज थी जहां स्वामी योग चिन्मय बैठता था। वह कम्यून का संचालक था। तथा वहां के संन्यासियों के लिए वह गुरु था। यह निश्चित था कि भोजन कक्ष में जिस द्वार से स्वामी योग चिन्मय जी आते थे। वहां से अन्य कोई सन्यासी प्रवेश नहीं करता था। हमें बताया गया कि स्वामी जी आदर करते हुए उनका यहां कोई नाम नहीं लेता है। लेकिन हमारे लिए वह चिन्मय था। जैसा पहले था वैसा अब भी था। उसे भी इस बात पर कोई आपत्ति न थी। वास्तव में हम जो भी करते उसमे उसे कोई आपत्ति न थी। उसे गुरु मानते उसके लिए भी हां थी। और जब हम आये और की भांति व्यवहार किया उन्हें ये भी मंजूर था। चिन्मय की उपस्थिति का अपना एक एहसास था। उनकी चाल सदा धीमी थी। वह हजार वर्ष पुराने साधु संन्यासियों का प्रतिनिधित्व करता था। वह ओशो का मुम्बई के समय का पुराना शिष्य था। उसने ओशो के सचिव के रूप में भी काम किया था। पूना में उसने और उसकी प्रेमिका ने एक साथ अपने सर के बाल मंडवा दिये थे। और ब्रह्मचारी हो जाने की घोषणा की थी।
ओशो के संन्यासी विश्व के सभी देशों में है। परंतु वहां के राष्ट्र नहीं है। विश्व के सभी धर्म उनके कदमों में आ गिरे है। कोई हिंदू नही, कोई ईसाई नही, मुसलमान नहीं। यहूदी नहीं। यहां हर प्रकार का व्यक्ति है। ब्रह्मांडीय देगची में सब खिचड़ी हो गए है। आधुनिक किशोरों से लेकिर पुराने साधु-संतों तक, युवा क्रांतिकारी से लेकिर प्राचीन अभिजात वर्ग तथा, साधारण व्यक्ति से लेकिन वैज्ञानिक तक, व्यावसायिक व्यक्ति से लेकर कलाकार तक.....इन्द्र धनुष से सभी रंग यहां आकर मिलते है और श्वेत प्रभुत्व के प्रिज्म में विलीन हो जाते है।
भोजन कक्ष में स्वामी फर्श पर एक दूसरे के आमने सामने बीस फुट के फासले पर बैठकर भोजन करते;स्नानगृह खुले में थे। उनमें गर्म पानी की व्यवस्था न थी। जिन कमरों में हमारे सोने का प्रबंध किया था, वे बहुत छोटे थे। और खाली इंटो से बने थे और गद्दे फर्श पर बिछे हुए थे—यह सब देखकर लगा कि यह गाड़ी मेरी उस गाड़ी से सर्वथा भिन्न है जिस पर सवार होने की मुझे आदत है। और इसके लिए मुझे सारा ध्यान जुटाना पड़ेगा।
अगली सुबह घास वाले एक छोटे से टुकड़े को पार कर मुझे शौचालय का रास्ता मिल गया। में मुड़ी और हिमालय दिखाई दिया। जहां में खड़ी थी। वहां से एक तिहाई क्षितिज तो पर्वत चोटियां थी। वे न तो धरती की थी और न ही आकाश की थी। मध्य में कहीं दूर खड़ी बहुत सुंदर लग रही थी। बर्फ से ढकी चोटियां जैसे आकाश में किसी ने लटका रखी हो। कितनी सौम्य, गरिमा लिए....मन किया अभी उन कुंवारी चोटियों को छू लूं। जब सूर्य उदय हुआ तो उसने पहले उच्चतम पर्वत शिखर को छुआ और पहले उसे गुलाबी रंग में बदल दिया। दूसरे शिखर पर पहुंचने से पहले उसे सुनहरे रंग का हो गया। एक के पीछे एक कतार मे खड़ी वे धवन चोटियां जब सूर्य के रंगों से एक-एक कर नाह रही हो उन्हें देखना बहुत आलोकिक दृश्य था। कितना भावतित दृश्य था। इस के विषय में अभी तक किसी ने क्यों नहीं बताया। मुझे बस इतना ही मालूम था की हिमालय एक पर्वत माला है। परंतु जैसे-जैसे एक-एक करके इनके रंग बदल रहे थे। मानों दूर खड़े धवल किसी साधु को प्रकृति अपने रंग में रंग रही हो। ये दृश्य में जीवन में कभी नहीं भूल पाऊंगी। और सच में नेपाल में वो सब नहीं देखती तो जीवन मे कुछ रग जरूर पीछे छूट जाता। हिमालय का अपना सौंदर्य है, स्विटज़रलैंड अति सुंदर है। परंतु हिमालय की अपनी गरिमा है।
दिन बीतते गए और ओशो को कोई समाचार नहीं। मैं पर्वत श्रेणियां की ओर देखती और सोचती कि इनकी दूसरी और ओशो है। मैं मन-ही-मन एक कल्पना करती कि एक बस पर सवार होकर पर्वतों के बीच से होती हुई कूल्लू पहुंच जाऊं तथा ठीक उसी समय स्पेन पहुंचूं जब ओशो उद्यान में भ्रमण कर रहे हो। उन्हे प्रणाम करूं और पोखरा लौट आऊं। मैं और आशीष ओशो की सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित थे। यद्यपि हम इस बात से प्रसन्न थे कि नीलम के कोमल परंतु समर्थ हाथों में है। हमें केवल एक ही भय था। कहीं ऐसा न हो कि हम कभी उससे मिल ही न पाये।
सप्ताह बीत गया उनका कोई समाचार नहीं मिला परंतु उधर हम अपने तपोमय जीवन का आनंद ले रहे थे। कम्यून के आसपास की जगह बहुत आकर्षक थी और हम सैर करते हुए ऐसे स्थानों से गुजरते जहां नदिया भूमि को गहा ले गई थी। तथा पीछे तीन सो फुट उंची चट्टानें छोड़ गई थी। बड़ी सावधानी से किनारे पर पहुंचकर दूर नीचे दिखाई पड़ती घास धरती गौंए और वे चट्टानें, जिन्होंने कभी महान जल प्रपात को सहारा दिया था। वह चट्टानें आज भी किस गरिमा से सीधी खड़ी थी। जिन्होंने कभी महान जल प्रपातों को सहारा दिया था। सैंकड़ो फुट नीचे धरती की कटाई देखकर लगता है पानी निरंतर टपकता रहा होगा। उनमें से किसी खाई में गिर जाने पर कही नामोनिशान नहीं मिलता, कहते है एक जर्मन सैलानी के साथ ऐसा ही हुआ था।
हर सुबह खुले में कपड़े धोना व स्नान करना मुझे अच्छा सुहाना लगा और वहां के भोजन की भी आदत हो गई जिसमें नाश्ते में मिर्ची भी शामिल थी। कम्यून के सन्यासी बड़े सरल व सौम्य लोग थे। और कुछ के साथ अच्छी मित्रता भी हो गई थी। चिन्मय बहुत सौहार्दपूर्ण आतिथेय था। यद्यपि वह बहुत अधार्मिक व्यक्ति था, परंतु उसका सहयोगी कृष्ण नंद एक उच्छृंखल नेपाली था। जिसके काले बाल गर्दन तक लहराते थे। उसकी नायिकाएँ फूली रही थी। और मोटर साइकल तेज गति से चलाने का शौकीन था।
मैं कभी दोबारा ओशो को देख पाऊंगी या नहीं इस अज्ञात और अनिश्चित स्थिति के कारण में जिस चुनौती का सामना कर रही थी। उससे मुझे यह बोध दिया कि मुझे ओशो को ‘जीना’ होगा। मुझे ठीक उसी तरह जीना होगा जैसा वे सिखाते आ रहे थे। समग्रता पूर्वक, वर्तमान के पल में जीना। इससे स्वीकार और शांति का महान भाव भीतर जगा और सम्भवत: मैं उस गांव में चुपचाप अकेली शांति से जी रही होती। यदि ऐसा न हुआ होता:
एक रात जब हम रात्रि भोजन कर रहे थे। तो कृष्णा नंद जी तेजी से कमरे में आये और हवा में छलांग लगाकर चिल्लाया कि ओशो नेपाल आ रहे है। कल। हमने अपना अगला कौर भी नहीं खाया बस सामान बांधने के लिए भागे। पूरा कम्यून दो छोटी बसों में सवार होकर काठमांडू चल पडा।
अगली सुबह हम सॉलटेची ओबराय होटल में पहूंच गये। जहां विवेक, राफिया तथा देवराज ओशो के लिए कोई घर या महल ढूंढने के लिए रुके थे। हम सभी एयरपोर्ट की और चल दिये। अरूण नेपाली संन्यासी जो काठमांडू में ध्यान केंद्र का संचालन करता था उसने ओशो का भव्य स्वागत करने का प्रबंध कर रखा था। नेपाली परम्परा के अनुसार किसी राजवंशीय व्यक्ति के स्वागत के लिए मार्ग के दोनों और स्थानीय फूलों से भरे पीतल के बड़े-बड़े फूलदान रखे जाते है। स्थानीय पुलिस इस बात से नाराज थी। उसका कहना था कि हमें वे फूलदान और फूल इस्तेमाल नहीं करने चाहिए। क्योंकि केवल किसी राजा के स्वागत में ही ऐसा किया जाता है। लाल वस्त्रों में सन्यासी और सैंकड़ों अन्य दर्शक एयरपोर्ट के प्रवेश द्वार और सड़को पर कतार बद्ध खड़े थे। विमान ने धरती को छुआ और एक सफेद मरसीडीज़ ओशो के लिए निकासद्वार पर आकर रुकी : भीड़ आगे बढ़ी सभी उल्लास से भरे थे और हवा में फूल बरसाने लगे। और तब ओशो एयरपोर्ट के शीशे के दरवाज़ों से निकले हाथ हिलाए और कार में ओझल हो गए।
हम शीध्रता से ओबराय की और भागे। जहां चौथी मंजिल पर कमरों के एक सेट में ओशो के ठहरने का प्रबंध किया गया था। विवेक और राफिया उनके सामने वाले कमरे में रुके थे। राफिया ने तारों के द्वारा ओशो के कमरे में अलार्म का एक ऐसा प्रबंध कर दिया था कि आवश्यकता पड़ने पर वे विवेक को बुला सकें। मध्य रात्रि का समय था। जब होटल का सुरक्षा गार्ड राफिया के पास घुटनों के बल आया। गलियारे में बिछे कालीन को उठाया और दोनों कमरों के बीच तारें जोड़ दी।
मुझे और मुक्ति को नीचे की मंजिल पर एक कमरा मिला जो आधा रसोई घर था और आधा धुलाई घर था। रसोई के सामान के तीन बड़े-बड़े ट्रंक थे। दाल और चावल की थैलियां, फल व सब्जियों की टोकरीया भरी थी। और कमरा केवल आधा था। बाकी का आधा धुलाई के साज सामान से भरा था।
हमने होटल के अति अनुग्रही कर्मचारियों के साथ मिलकर यह प्रबंध कर लिया कि मुक्ति ओशो के लिए भोजन होटल के रसोईघर में ही पका लेगी। रसोई धर में उसे एक अलग से कोना मिल गया जहां आस-पास कहीं मांस नहीं रखा जाएगा। और उसके लिए इस भाग को विशेष रूप से स्वच्छ रखा जायेगा। मैं होटल के कमरे में पचास नेपाली पुरूषों के साथ ओशो के कपड़े धोऊंगी। वे बहुत अच्छे थे। मेरे आने से पहले ही मशीन की सफाई कर देते और काम करने का समय समाप्त हो जाने से पहले ही मशीन की सफाई कर देते। और काम करने का समय समाप्त हो जाने के बाद भी प्रतीक्षा करते रहते और देखते कि सब ठीक है या नहीं। फिर मैं सागौन की लकड़ी के बने हैंगरों में ओशो के रोब टाँग कर लिफ्ट से ऊपर जाती। होटल में ठहरे लोग और कर्मचारी इस दृश्य का मजा लेते। अपने शयन कक्ष में मैं ये वस्त्र बिस्तरों पर ही इस्तिरी करती । और ओशो के लिए उपहार स्वरूप लाई गई फल व सब्जियों की टोकरियों से भरा रहता । नेपाल की धरती उर्वरक नहीं है। इसलिए खाद्यान्न का स्तर घटिया है। मुक्ति तथा आशु भारत से आयात करने की योजना बना रही थी। इस बीच नेपाली संन्यासी पौ फटने पर बड़े उत्साह से प्रतिदिन सब्जी मंडी जाते और ओशो के लिए श्रेष्ठ सब्जियों को खरीद कर लाते।
जिस दिन ओशो वहां पहुंचे उन्होंने मिलने के लिए हमें अपने कमरे में बुलाया। उन्होंने हमारा हाल-चाल पूछा और कहा कि मैंने (उन्होंने) सुना है कि हम कुछ असन्तुष्ट है। मुक्ता और हरिदास एक दिन पहले अवकाश के लिए यूनान चले गये थे। उन्होंने ओशो के आने की आशा छोड़ दि थी। सच था कि आशु और निरूपा भी पोखरा की परिस्थतियों से अप्रसन्न थी। जब ओशो ने इन शब्दों को सुना, ‘ठीक है कि वह उस स्तर का नहीं था जिसमें मुझे रहने की आदत है।’ उन्होंने कहां कि वे भी वैसी परिस्थतियों में नहीं रह थे जैसी वे पसंद करते थे। उन्होंने स्मरण दिलाया कि वे जेल में भी रहे और स्पेन में भी रहे। जहां बहुत बार बिजली और पानी उपल्बध नहीं होता था। मैं बहुत लज्जित हुई यद्यपि मैंने स्वयं उनसे यह बात नहीं कही थी।
हमें पता चला की जयेश ओशो को सुरक्षित भारत से नेपाल लाने की एक जटिल योजना बना रहा था। चलने से दो दिन पूर्व ओशो स्पेन से बाहर आये, नीलम के साथ एक पुरानी अम्बैसेडर काम में बैठे और एयरपोर्ट पहुंच दिल्ली के लिए व्यावसायिक उड़ान पकड़ी। यह एक चमत्कार घटना थी कि उस दिन की हवाई उड़ान विशेष उड़ान थी तथा उसमें दो सीटें खाली थी।
ओशो के प्रसथान के कुछ ही घंटे पश्चात पुलिस उनका पासपोर्ट जब्त करने के लिए वहां पहुंची। यदि ओशो वहां होते तो उन्हें बंदी बना लिया जाता। और उस मुकदमे की सुनवाई की प्रतीक्षा में जेल में होते तो बेतुका था और सहसा प्रकट हो गया था आयकर विभाग। वह चाहता था कि ओशो अमरीका सरकार को दिए गए जुर्माने पर टैक्स भरे। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि दंड की राशि ओशो के मित्रों द्वारा दी गई थी। उन्होंने सोचा होगा कि लूट के माल का कुछ भाग भारत सरकार को भी मिलना चाहिए।
लक्ष्मी ने दिल्ली संन्यासियों में कुछ ऐसी अफवाहें फैलाकर परिस्थिति को और भी बिगाड़ दिया था कि हास्या तथा जयेश ओशो का अपहरण करने का प्रयास कर रहे है। अपने सदगुरू को बचाने के लिए दिल्ली के संन्यासियों ने ओशो को छीनने का बहुत साहसिक प्रयास किया परंतु आनंदों ने उसे व्यर्थ कर दिया। भारतीय पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए ओशो ने ठीक समय पर नेपाल के लिए उड़ान ली। स्पेन की जिस सम्पति के विषय में ओशो को बताते हुए मैंने लक्ष्मी को सुना था वह उसके द्वारा खरीदी ही नहीं गई थी। वह बिकने के लिए थी ही नहीं। कुछ ही दिनों के बाद दिल्ली के संन्यासी भारत में एक महल का प्रस्ताव लेकिर काठमांडू पहूंच गये। उन्हें यह समझ नहीं आया कि ओशो इस समय भारत वापस नहीं जा सकते। परंतु ओशो ने उन्हें बातचीत की। ओशो को दिखाने के लिए उस महल की एक वीडियो भी तैयार की गई थी। वे देखने के लिए मान गए तथा हैरानगी की बात थी कि हम सबको अपने साथ वीडियो देखने के लिए बुलाया।
हम ओशो के कमरे में उनके चरणों के पास बैठ गए। फिल्म शुरू हुई। महल के रास्ते में पेड़ो की क़तारों की दस मिनट देखते रहने के बाद हमने पत्थरों से बनी पाँच या छह झोपड़ियों को देखा। जिनकी छतें पूरी तरह से गिर चूकि थी। ये नौकरों के लिए क्वार्टर थे और उन पर बहुत काम करने की जरूरत थी। परंतु यह तो कुछ भी न था। हम तो इमारतों पर पहले भी काम कर चुके थे। फिर कैमरा कुछ और पेड़ों के उपर नीचे घूमता रहा। मैंने स्वयं से कहा कि किसी ने कैमरामैन से यह कहा होगा कि ओशो को पेड़ बहुत प्रिय हे।
ओशो ने महल में पानी के प्रबंध के विषय में पूछा। जी हां है, ओम प्रकाश—जो वीडियो लेकर आए थे। ने उत्तर दिया। पाँच मिनट और पेड़ों के तनों के बीच ऊपर नीचे घूमते रहने बाद हमें महल दिखाई दिया। इसमें चार कमरे थे। जीर्णता की अंतिम अवस्था में। क्या महल में पानी है। जी हां है। फिर उत्तर आया। पिछले पचास वर्षों में शायद ही इस महल में कोई रहा हो। पानी का क्या प्रबंध है। ओशो ने फिर से बात शुरू की। आहा, वह वहां था: बग़ीचे में काई से ढ़के पत्थरों के बीच बूंद-बूंद पानी टपक कर एक पतली धारा बना रहा था। क्या इस पानी पे हमारा अधिकार होगा। यह पानी पड़ोस की छात्र पाठशाला का है। ओमप्रकाश ने कहा, परंतु इस की कोई चिंता नहीं है। अब मुझे समझ आया कि ओशो हम सबके साथ ही उस वीडियो को क्यों देखना चाहते थे। ताकि हमें पता चल सके कि काम करवाने के प्रयत्न में कुछ संन्यासियों के साथ कितना कठिनाई आती है। इसमे कोई संदेह नहीं कि उनके ह्रदय में ओशो के साथ के लिए वे अवश्य पागल होंगे जो ओशो को वापस भारत ले जाना चाहते थे। लेकिन यह और भी ज्यादा पागलपन की बात थी। कि वे सोच रहे थे कि ओशो इस महल के खंडहरों में रह पाएंगे जहां पानी तक भी उपल्बध नहीं था।
ओशो ने कहा कि आप मुझे भारत में चलने के लिए कह रहे है। यह आपका प्रेम है, परंतु इससे आप अपने और मेरे लिए कठिनाई पैदा कर लेंगे। आप लौट जाएं, फिर से सोचें और सात दिन के बाद वापस आएं। वे कभी वापस नहीं आये। और ओशो ने कहां कि वे समझ गए होंगे कि इसाक क्या परिणाम हो सकता था। उनका आग्रह प्रेमपूर्ण था परंतु तर्कपूर्ण नहीं था।
ओशो जहां भी होते है, वहां वे अपने मौन के अति विपरीत ऊर्जा के एक उन्मत चक्रवात से भी घिरे होते है। मैने इनसे पूछा कि क्या यह उनकी लीला है। या अस्तित्व एक संतुलन बना रहा है। उन्होंने कहा: ‘कि यह दोनों ही नहीं है। संसार पागल है। अराजक है और यह उनका मौन है जो उसे उघाड़ रहा है। उन्होंने कहा की पूर्ण मौन ही प्रकृति का पूर्ण संतुलन होगा।’
आज सुबह से ओशो अपने कमरे में लगभग दस लोगों के समूह को सम्बोधित करने लगे। पहले प्रश्न आशीष क और से था। उसने पूछा था क ‘ऐसा लग रहा है इन अनिश्चितता की घड़ियों में हम सब जो आपके साथ है उनके भीतर ऐ उत्कृष्ट तथा निकृष्ट प्रकट हो रहा है। क्या आप उसके बारे में कुछ कहेंगें।’
ओशो: ‘कोई घड़ी अनिश्चितता की घड़ी नहीं होती क्योंकि समय ही सदा अनिश्चित है। मन की यह कठिनाई है: मन निश्चितता चाहता है। और समय सदा अनिश्चित है।’
अत: जब भी संयोगवश मन को निश्चितता का आभास मिलता है तो वह आश्वस्त हो जाता है। इसे एक भ्रमात्मक स्थान का भाव घेर लेता है। वह अस्तित्व और जीवन के वास्तविक स्वभाव को भूलने लगता है। वह छाया को वास्तविक समझने लगता है। को यह अच्छा लगता है क्योंकि मन परिवर्तन से डरता है। उसका सीधा सा कारण है: क्या मालूम परिवर्तन दुःख लाता है या सुख। एक बात निश्चित है कि परिवर्तन तुम्हारे भ्रमों आकांक्षाओं वे सपनों के संसार को छिन्न-भिन्न कर देता है।
वे कहते गए कि, ‘जब भी समय तुम्हारे ह्रदय में संजोए किसी भ्रम को तोड़ डालता है तब हमारा मुखौटा उतर जाता है।’
उन्होंने इस बात की भी चर्चा कि की रजनीशपुरम के निर्माण के लिए लोगों ने कठोर परिश्रम किया और ठीक उस समय जब हम उसे अंतिम रूप दे रहे थे, सब कुछ नष्ट हो गया।
‘मुझे कोई विषाद नहीं है। मैंने एक पल के लिए भी कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे बड़े सुंदर वर्ष थे। हम बड़े आनंद से रहे। यह तो प्रकृति का नियम है। चीजें बदलती है। हम क्या कर सकते है। अत: हम कुछ और निर्मित करने का प्रयास कर रहे है—यह भी बदलेगा। यहां कुछ भी स्थायी नहीं है। सिवाय परिवर्तन के सब चीजें परिवर्तित होती है।’
अत: मुझे कोई शिकायत नहीं है। मैंने एक पल के लिए नहीं सोचा कि कुछ गलत हुआ है। क्योंकि यहां हर चीज गलत हो गई है परंतु मेरे लिए कुछ भी गलत नहीं हुआ है। यह तो केवल इतनी है कि हमने ताश के पत्तों से सुंदर महल बनाने का प्रयत्न किया था।
शायद मेरे अतिरिक्त सभी लोग निराश है। और उन्हें मुझ पर क्रोध आता है। क्योंकि मैं निराश नहीं हूं। मैं उनके साथ नहीं हूं। इससे उन्हें और भी क्रोध आता है। यदि मैं भी क्रोधित होता, मैं भी बहुत क्षुब्ध होता तो उन्हें सान्त्वना मिलती। परंतु मैं नहीं हूं.......अब किसी दूसरे सपने को साकार होना कठिन लगता है। क्योंकि बहुत से लोग जिन्होंने एक सपने को सत्य करने के लिए परिश्रम किया था वे पराजयवाद की पद्धति में होंगे। वे पराजित हुए है। उन्हें ऐसा लगेगा कि सत्य या अस्तित्व निर्दोष लोगों का ध्यान नहीं रखता। जो किसी को हानि नहीं पहुंचा रहे थे वे कुछ सुंदर निर्मित करने जा रहे थे। आस्तित्व ने उनके साथ भी वही किया,उन्हें नियमों का पालन किया। यहां कोई उपवाद नहीं......मे समझता हूं कि यह दुखदायी है। लेकिन इस दुःख के जिम्मेदार हम है। लगता है कि इसमे न्याय नहीं है। जीवन पक्षपात रहित नहीं है। क्योंकि इसने हमारे हाथों से खिलौना छीन लिया है। किसी महान निर्णय पर पहुंचने के लिए इतनी शीध्रता नह करनी चाहिए। थोड़ा प्रतीक्षा करो। शायद यह सदा भले के लिए होता है—सभी परिवर्तन, तुम्हें थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। तुम्हें जीवन को थोड़ा और ढील देनी चाहिए।
मैं अपना पूरा जीवन एक स्थान से दूसरे स्थान जाता रहा। कुछ चूक हो गई, कुछ विफल हो गया। परंतु मैं असफल नहीं हुआ। हजारों सपने टूट सकते है। परंतु मैं निराश नहीं होता। इसके विपरीत प्रत्येक मिटता सपना मुझे और विजयी बना जाता है। क्योंकि वह मुझे विचलित नहीं करता, मुझे छूता तक नहीं। इसका मिटना एक लाभ है। एक अवसर है। और परिपक्व होने का । तब तुम्हारे भीतर से उत्कृष्ट प्रकट होगा और जो भी होगा उससे तुम्हें अंतर नहीं पड़ेगा। तुम्हारा उत्कृष्ट और ऊंचे शिखरों की और बढ़ता चला जाएगा—
महत्वपूर्ण तो यह है तुम उन टूटे सपनों से, उन महत्वाकांक्षाओं से बाहर कैसे आते हो जो सूक्ष्म हवाओं में विलीन हो गए है। तुम उनके पद चिन्ह भी नहीं पा सकते।
तुम उनमें से बाहर कब आते हो। यदि तुम बिना किसी खरोंच के उनमें से बाहर निकल आते हो तो तुमने गहरा भेद पा लिया है। तुम्हारे हाथ चाबी लग गई है। तब तुम्हें कोई हरा नहीं सकता। तब कुछ भी तुम्हें अशांत नहीं कर सकता तब तुम्हें कोई क्रोधित नहीं कर सकता। तुम्हें कोई पीछे नहीं खींच सकता। तुम नई चुनौतियों के लिए अज्ञात की और निरंतर अग्रसर होते हो। ये सभी चुनौतियों तुम्हारे भीतर जो श्रेष्ठ है उसे तराशती है।
अगला प्रश्न विवेक की और से था जो जीवन के प्रति उसकी यथार्थ वादी पूर्णता स्त्रैण चित वृति का प्रतीक है।
प्यारे सदगुरू घर क्या होता है?
घर होता ही नहीं केवल मकार होता है।
मनुष्य बेघर पैदा होता है। तथा पूरा जीवन बेघर ही रहता है। हां, वह बहुत से मकानों में घर बनाएगा तथा निराशा होती रहेगी। और वह बेघर ही मर जाता है।
इस सत्य को स्वीकार करने से बहुत रूपांतरण हो जाता है। फिर तुम घर की खोज नहीं करते—क्योंकि घर कहां है यहां वह तो अति दूर है, तुमसे पार जो तुम नहीं हो। और प्रत्येक व्यक्ति घर ढूंढ रहा है। जब तुम इसकी भ्रामकता को देख पाते हो, तो घर की खोज की बजाएं उसकी खोज प्रारम्भ करोगे जो जन्म से ही बेघर है, जिसका भाग्य ही बेघर होना है। (लाईट ऑन द पाथ)
आनंदों बिक्की ओबराय जो सभी ओबराय होटलों का स्वामी है—के साथ वहां पहुंची। दिल्ली में हास्या और आनंदों ने उसके साथ मित्रता बना ली थी और उस समय उसने ओशो की सहायता करने में अपनी रुचि प्रकट की थी। होटल के कर्मचारियों ने उनका भव्य स्वागत किया और खूब हो हल्ला मचा। मेरी आंखे खुली कि खुली रह गई जब मैंने देखा कि उस धूमधाम में आनंदों मेरी इस्तिरी करनेवाला बोर्ड अपनी बगल में दबाए बड़ी शान से चली आ रही है। उसने उसे छिपाया भी नहीं हुआ था। प्रत्येक व्यक्ति देख सकता था कि वह इस्तिरी करनेवाला बोर्ड है। उसे इस बात से काई शर्म अनुभव नही हो रही थी। मुझे उस बोर्ड की बहुत आवश्यकता थी। यह बात मेरे ह्रदय को छू गई थी। कि ऐसी परिस्थितियों में भी वह उस बोर्ड को हाथ के सामान के रूप में साथ लाई थी।
होटल की चौथी मंजिल अब संन्यासियों के अधिकार में थी। एक शयन कक्ष को कार्यालय बनाया गया तथा वहाँ हमेशा गतिविधियों का एक तूफ़ान सा रहता था। कुछ कमरों को छोड़कर थोड़ी दूरी पर एक कमरे में देवराज और मनीषा दिन-रात ओशो के प्रवचनों का प्रति लेखन करते रहते थे। उनके कमरे में सदा भीड़ लगी रहती। क्योंकि कुछ लोग उनकी सहायता के लिए आते रहते थे। ओशो का नेत्र-चिकित्सक, खूबसूरत रूढ़ीवादी जर्मन, टेनिस के मैदान में बुरी तरह पीटने वाला खिलाड़ी भी उनमें से एक था। वह छोटा सा कमरा हमेशा नाश्ते की ट्रॉलियों से भरा दिखाई देता था। जर्मन ओशो टाइम्स के लोग मनीषा के सहयोग से अपने लिए प्रश्न छांटने के लिए आ गए थे। संन्यासियों के पत्र और प्रश्न भी पहुंचते थे। टेप से प्रति लिखित ओशो के प्रवचनों को टाइप की हुई पांडुलिपियों को सुधारने में जितने लोग समा सकते थे, उनका वहां स्वागत था।
यद्यपि ओशो ने कुछ दिन विश्राम कर लिया था लेकिन वे पहले जैसे स्वस्थ तथा सबल दिखाई नहीं दे रहे थे। हमें उस समय तक कुछ मालूम न था परंतु थैलीयम विषाक्ती करण के निदान सूचक लक्षण प्रकट होने लगे थे। प्रेमदा,ओशो के नेत्र चिकित्सक को जर्मनी से बुला लिया था। क्योंकि ओशो में ये लक्षण प्रकट होने लगे थे। जैसे, आँख का फड़कना, आंखों का फोकस बिगड़ना। आँख की मांस-पेशियों का दुर्बल हो जाना। नजर कमजोर हो जाना। प्रेमदा ने इन लक्षणों का उपचार तो किया परंतु यह न जान पाया कि इसका कारण क्या हो सकता है।
मैं एक नेपाली परिचारिका राधा के पास ओशो के कमरे की सफ़ाई करने में सहायता करती थी। ठीक सात बजे प्रात: हम उनके कमरे में भागती पहुँचती, जब वे स्नान, गृह में होते और बड़ी बारीकी से नक्काशी किए हुए लकड़ी के काले फर्नीचर को साफ करती। स्पष्ट था कि इससे पहले किसी ने इसे साफ करने की कोशिश ही नहीं की थी। यद्यपि वैक्यूम क्लीनर था फिर भी लाल कालीन को गीले कपड़े से पोंछना और भी ठीक था। राफिया और निष्क्रिय हमारे पीछे ही रहते बल्कि यूं कहिए कि हमारे सिर पर सवार रहते क्योंकि उन्हें क्योंकि उन्हें 7-30 (प्रात:) के प्रवचन के लिए बैठक को स्टूडियों की भांति व्यवस्थित करना होता था।
सायं ओशो पत्रकारों और दर्शनार्थियों को होटल के बॉल रूम में सम्बोधित करते। प्रारम्भ मे मुख्यत: नेपाली लोग थे, लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गये, श्रोता गणों का रंग काले से सुरमई में बदलकर गैरिक होता गया। गैरिक वस्त्र धारी एक बौद्ध भिक्षु जिसका कद छोटा और सिर मुंडा हुआ था—प्रतिदिन प्रवचन सुनने के लिए आने लगा। एकदिन वह प्रथम पंक्ति में बैठा था और उसने ओशो से प्रश्न पूछा। ओशो ने यह कहते हुए बात शुरू की कि बुद्ध होना सुंदर है। परंतु बौद्ध होना असुंदर हे। बौद्ध भिक्षु की अच्छी धुलाई हुई और मैं हैरान थी। वह अगली रात भी आया और उससे अगली रात भी। यह देखकर उसके प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। वास्तव में वह निरंतर कई सप्ताह तक आता रहा। फिर एक दिन ओशो को उसका एक पत्र मिला कि उसके मठ ने उसे वहां आने के लिए मना कर दिया है।
ओशो के कमरे में हर सुबह अति अंतरंग प्रवचन चलते रहे। पूना से लेकर अब तक के सात वर्षों में पहली बार ओशो से दूर रहने पर मुझे यह अनुभव हुआ कि मेरा एक-एक पल बहुमूल्य है। मैं अतिशय प्रेम व आनंद में जी रही थी सदगुरू की संगति में,मार्ग की खाज के उत्साह में जी रही थी।
मुझे सह समझ में आने लगा था कि सत्य की खोज, अपने भीतर उस बिंदु की खोज—जो मेरे व्यक्तित्व से प्रदूषित नहीं है—की खोज एक बहुत ही साहसिक कार्य है। मुझे इसमें काई संशय नहीं है कि एक ऐसा अवस्था भी होती है जिसमे व्यक्ति बिना किसी इच्छा या अधिकाधिक पाने की आकांक्षा से रहित परितृप्त, पूर्ण रूप से शांत हो सकता है। फिर बाहर से उसे कुछ भी विचलित नहीं कर सकता। में जानती हूं कि यह ऐसा ही है। क्योंकि मैंने कुछ क्षणों के लिए इसकी झलक देखी है। और मैंने देखा है कि ओशो में यह स्थिति स्थाई हे।
ओशो होटल के मैदानों (टेनिस-कोट के पार) स्विमिंग पूल लॉन और बग़ीचों में सैर के लिए जाने लगे। वे मैदानों को अधिक न देख पाते क्योंकि उनका रास्ता उन दर्शनार्थियों और शिष्यों से भरा रहता जो उनका अभिवादन करने आए थे। उनमें से कुछ केवल मुस्कराते तथा हाथ हिलाते। लेकिन कुछ ऐसे भी होते जो उनके चरणों में पड़ते। इससे स्थिति कष्ट प्रद हो जाती। ओशो को लॉन से आते ओर बाहर बग़ीचे में घूमते देखना एक अति सुंदर दृश्य था। भीड़ भरे स्थान में भी ओशो के इर्द-गिर्द स्पेस होता था। मैंने देखा कि बहुत से पर्यटक विस्मय-विमुग्ध से उन्हें देखते रहते। कुछ यूरोपियन लोगों को भी मैंने ओशो को नमस्कार करते देखा। मुझे विश्वास है कि उन्हें पता नहीं था कि वे क्या कर रहे है। क्योंकि ओशो के वहां से गुजर जाने के बाद वे स्तब्ध से खड़े रह जाते। उन्हें ओशो का कोई अनुभव नहीं था।
उनसे काई अपेक्षा न थी। फिर भी कहीं कुछ छू जाता और वे आंदोलित हो उठते। कुछ अमेरिकन और इटालियन पर्यटकों को मैंने ओशो को वास्तव म देखते हुए देखा। परंतु पता नहीं कि बाद में उनके मन ने इसे किस रूप से लिया।
कुछ शिष्य पश्चिम से वहां आ पहुँचे, उनमें से एक था निष्क्रिय जो अपने साथ अपना विडियो कैमरा भी लाया था। एक दिन सहसा वह वास्तविक अर्थों में कमरे की दहलीज़ पर अपने कैमरे के साथ आकर खड़ा हो गया। उसे कोई नहीं जानता था। परंतु उसके पास अच्छी पहचान थी। उसे रजनीशपुरम से दो बार निकाला गया था। और शीला द्वारा उसकी माला भी छीन ली गई थी। उसके बिना इन सुंदर प्रवचनों में से एक भी रिकॉडिंग संभव न होती। निष्क्रय एक सनकी जर्मन फिल्म मैन है। जब वह पहली बार आया था तो वह 3डी (थ्री डायमेंशनल) फिल्म पर प्रयोग कर रहा था। एक दिन उसने हमे 3 डी के प्रभाव देखने के लिए अपने कमरे में बुलाया। कमरे में एक शीशे के यंत्र को दो टेलिविजन के मध्य में संतुलित करके रखा। वह अपने प्रयोग से इतना से इतना रोमांचित था कि हममें से किसी का मन यह कहने को तैयार नहीं हुआ कि वास्तव में हमे कुछ दिखाई ही नहीं दिया। लेकिन एक दिन ओशो ने अपने प्रवचन में तीन चला ही दिया और उसका खूब मजाक उड़ाया।
ओशो जब बोलते तो सदा भय लगता रहता क्योंकि यह जानने का कोई उपाय नहीं था कि ओशो अब आगे क्या बोलने वाले हे। नेपाल में प्रवेश करते ही हास्या ने ओशो से कहा था कि कानूनी तौर पर नेपाल एक हिंदू देश है, अंत: कृपया....हिंदू धर्म के विरूद्ध कुछ मत कहिए। सन्ध्या के प्रवचन में सभी पत्रकारों और प्रतिष्ठित व्यक्तियों के सम्मुख उन्होंने कहा कि उनके मित्रों उन्हें हिंदू धर्म के विरूद्ध बोलने से मना किया हे। परंतु वे क्या कर सकते हे। यहीं तो वह स्थान है जहां हिंदू धर्म के विरूद्ध बोला जा सकता है। क्या वे यह अपेक्षा करते है कि वे वहां पर ईसाइयत के विरूद्ध बोले। नहीं ऐसा वे इटली में जाकर बोलेंगे। उस समय तक इटली के एक फिल्म समूह को नेपाल आने का बीजा मिल गया था। और सर्जनों वहां पहूंच गया था। ओशो के इटली जाने के लिए दिए गए आवेदन पत्रों का कार्य जारी था। और काफ़ी आशा पूर्ण था। कुछ भी हो यह उचित नहीं था कि सब प्रबंध होने से पहले ही समाचार पत्रों में यह छप जाये। कि ओशो इटली जा रहे है। अत: हमें इस बात को गुप्त ही रखना था। रात्रि के उस प्रवचन में सर्जनों ओशो के चित्र खींच रहा था। अत: वह श्रोताओं की और मुंह किए ओशो के समीप ही था। जब ओशो ने यह घोषणा कि मैंने सर्जनों की और देखा तथा (जोर से हंस पड़ी) जब उसने अपनी आंखें घूमाकर ऊपर चढ़ा ली और ‘इटालियन वीजा’बड़बड़ाते हुए कागजात फाड़कर अपने कंधों पर फेंकने क क्रियाएं की। अभिनय किया मै जोर से हंस पड़ी।
मां प्रेम शुन्यों
(माई डायमंड डे विद ओशो) हीरा पायो गांठ गठियायो)
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