कूल्लू मनाली—(अध्याय--10)
हवाई जहाज़ ने दिल्ली से प्रात: दस बजे कूल्लू मनाली के लिए उड़ान भरी। वह सुबह पहल ही बहुत व्यस्त रही थी क्योंकि सात बजे हयात रिजेंसी होटल में एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाई थी। जिसमें ओशो ने अमरीका के प्रति अपने विचारों को निर्भीकता पूर्वक व्यक्त किया था।
इससे पहले कि दिल्ली की सड़कों पर हमारी लारी की रोंगटे खड़ी कर देनेवाली अराजक दौड़ शुरू होती, मैंने कुछ घंटों की नींद चुरा ली थी। लारी में वे संदूक थे जिनका वर्णन करते हुए भारतीय समाचार पत्रों ने उन्हें रजत और रत्न-जड़ित कहा था। ये वही संदूक थे जिन्हें मैंने रेडनेक्स प्रदेश के एक हाई वेयर स्टोर से खरीदा था और दो रातों पहले ही पैक किया था।
ओशो की माता जी अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ वहां हमारे पास पहुंच गई और पीछे-पीछे हरिदास भी आ गया जो रजनीशपुरम में हमारे साथ रहता था। आशु ओशो की दंत दर्श जिसके बालों का रंग लाल था। त्वचा चीनी मिट्टी जैसी थी और हंसी शरारत-भरी थी। मुक्ता और हरिदास के साथ वहां पहूंच गई।
ओशो के प्रथम पाश्चात्य शिष्यों में से एक हे। और ग्रीक मुक्ता के उस परिवार से है जिनका जलपोत-परिवहन का व्यापार है। सफ़ेद बालों की लटोवाली यह संन्यासिन कई वर्षों से ओशो के लिए बाग़वानी का काम करती है। मुझे इस बात की प्रसन्नता थी कि राफिया हमारे साथ यात्रा कर रहा था। पिछले दो वर्षों से लगातार वहीं विवेक का घनिष्ठ मित्र था। उसमे एक शक्ति झलकती है जो कहीं इसके भी गहरे में स्थित है और फिर भी वह एक प्रसन्न चित व्यक्ति हे जो सदा हंसने को तत्पर रहता हे। हम सब विमान में सवार हो गए। लेकिन संदूक उसमें नहीं आ रहे थे अत: वे बाद में पहुंचा दिए जाएंगे ऐसी आशा थी।
अहा, कितनी प्रसन्नता हो रही थी अन्ततः: उस विमान में बैठकर जो उड़ान भर रहा था—करने को कुछ भी नह था। मैंने देखा गलियारे के अंतिम छोर पर ओशो खिड़की के पास बैठे जूस पी रहे थे। ओशो ने हिमालय की बहुत चर्चा की थे और मैं रोमांचित हो रही थी कि वे उन्हें देखेंगे। और मैं उन्हें पर्वत श्रेणियों को निहारता हुए देख पाउंगी। यद्यपि वे हिमाच्छादित रोमानी चोटियां न थी, ‘यह हिमालय की पहाड़ियों में बसी एक घाटी मात्र थी। लेकिन फिर भी.....’
हास्या और आनन्दो को दिल्ली में ही रह कर कार्य करना था। ओशो को संदेह था कि सरकार पश्चिमी संन्यासियों के लिए मुश्किलें पैदा करेगी। और कम्यून के लिए सम्पति खरीदने के लिए रुकावटें डालेगी।
उड़ान केवल दो घंटे की थी और फिर हम पहाड़ों के घुमावदार रास्तों पर कार से यात्रा कर रहे थे। रास्ते में जो स्थानीय लोग हमने देखो वे बहुत गरीब थे परंतु उनकी अपनी एक गरिमा थी जो मुम्बई के अभावग्रस्त लोगो न दिख रही थी। उनके चेहरे खुबसूरत थे। जिससे उनकी मिश्रित नस्ल का आभास होता था। शायद तिब्बती रक्त हो। स्पेन रिसोर्ट नाम की वह सम्पति लगभग पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर थी। सड़क के पूरे रास्ते नदी के साथ-साथ चलती रहीं। फिर एक पुराने पुल से होते हुए मीलों दूर तक दिखाई देती है। पत्थरों की पुरातन सी दीवार और शीतकालीन प्राकृतिक दृश्य।
एकाएक कारें दाएं हाथ मुड़ गई। और हम बिल्कुल एक अलग से संसार में प्रविष्ट हो गए। यह एक सुंदर हॉलीडे रिसोर्ट थी जहां पत्थरों से बनी लगभग दस कॉटेज थी तथा बीच में पत्थरों से ही बनी एक भव्य इमारत थी जिसकी कांच की बनी दो दीवारों से नदी का दृश्य दिखाई देता था। छोटे बँगालों में से नदी के करीब वाला एक ओशो का निवास स्थान बनाया गया और बड़ी इमारत में हम भोजन करते, फिल्में देखते और फोन पर जोर-जोर से चिल्लाकर हास्या से सम् पर्क स्थापित करने का निष्फल प्रयास करते।
लेकिन इस स्थान में कुछ ऐसा था जो हमें अच्छा नहीं लगता था। बड़ी इमारत के प्रबन्धन हमसे इस प्रकार व्यवहार नहीं कर रहे थे जैसे कि सम्पति के मालिक के साथ होना चाहिए। मैं हैरान थी। हो सकता है उन्हें मालूम न हो कि हम उनके नए मालिक है।
अगली सुबह ओशो बाहर निकले और सम्पति का निरीक्षण करते हुए राफिया से कहा कि नदी के दूसरी और का पहाड़ हम खरीद लेंगे। और नदी पर एक पुल बनाएँगे अपनी कमर पर पीछे हाथ रखे वे पूरे परिसर में घूमे और राफिया को उस स्थान की सम्भावनाओं और अपनी योजनाओं के बारे में अवगत कराया। जब भी ओशो कहीं पहुंचते एक ह्रदयस्पर्शी और प्रेरक दृश्य पुनरावृत्त होता। उसी क्षण वे उस स्थान की कल्पना करते और भविष्य में बनने वाली इमारतें सरोवर तथा उद्यानों की और संकेत करते। ओशो जहां भी होते बस वही होते।
नदी का तल पत्थरों से पटा था इसलिए वहां से गुजरते हुए वह खुब शोर करती। वह एक छोटी सी नदी थी। कैसे कोई उसमे द्वीप की कल्पना कर सकता था। यह मेरी समझ से पार था। प्रतिदिन ओशो नदी के साथ-साथ विचरते और बंगलों में से होते हुए एक बेंच पर जा बैठते जहां से वे हिमालय को निहारते। प्रतिदिन नई बर्फ दिखाई देती जो पहाडों को ढक रही थी। ओशो के बहुत से पुराने मित्र एवं संन्यासी उन्हें मिलने आते और वे साथ बात चीत करते। कई बार मैं भी उनके साथ सैर करने जाती। कल-कल करती नदी बह रही होती ओर शीतकालीन पीत सूर्य पर्वत के शिखरों को स्वर्णिम कर रहा होता।
रजनीशपुरम के समाचार छन-छन कर हम तक पहुंचते रहते। हमें पता चला कि अमरीकन प्रशासन ने हमारी सम्पति पर रोक लगा दी है। और कम्यून को दिवालिया घोषित कर दिया है। सैंकड़ो संन्यासी कम्यून छोड़कर जा रहे थे और बिना पैसों के इधर-उधर भटक रहे थे। मुझे परिस्थिति युद्ध के समय जैसी लगी, जब प्रियजन और मित्र जन बिछुड़ जाते है या खो जाते है। मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि कम्यून सदा बना रहेगा। और अब मुझे स्मरण हो आए वे सब क्षण जब मैं केवल इसलिए पीड़ित हुई थी कि मेरे मित्र ने किसी और स्त्री के साथ रहने का निश्चय कर लिया था। काश मुझे जीवन की क्षणभंगुरता का आभास होता, तो मैं उस क्षण को भी आनंद पूर्वक जी लेती। मैंने सोचा कि अमरीकन सरकार की भांति मृत्यु भी एक दिन आएगी। और मैंने प्रतिज्ञा की कि मैं कभी पीछे लौटकर नहीं देखूँगा और न ही कभी पश्चाताप करूंगी। दुःखी होने के लिए समय ही कहां है।
एक संवाददाता ने ओशो से पूछा:
‘क्या आप उन संन्यासियों के प्रति किसी प्रकार का उतरदायित्व महसूस करते है जो आपके कम्यून में रहे। अपनी पूंजी, यहां तक कि विरासत में मिली अपनी सारी संपति ओर अपनी समस्त कार्य शक्ति की परियोजनाओं के लिए लगा दिया....’
ओशो: ‘मेरे अनुसार उत्तरदायित्व एक व्यक्तिगत मामला है। मैं केवल अपने कृत्य, अपने विचारों के लिए उत्तर दायी हो सकता हूं। मैं तुम्हारे कृत्यों या विचारों के लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता।’
‘कुछ लोग है जिन्होंने अपनी सारी जमा पूंजी दे दी। मैंने भी अपना सारा जीवन दे दिया है। कौन जिम्मेदार है। वे जिम्मेदार नहीं है क्योंकि मैंने अपना सारा जीवन उन्हें दे दिया है। और उनका धन मेरे जीवन से अधिक मूल्यवान नहीं है। अपना जीवन देकर मैं उन जैसे हजारों लोग खोज सकता हूं। वे अपने धन से मुझ जैसा दूसरा व्यक्ति नहीं खोज सकते।’
दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में सर्जनों एक पत्रिका के लिए ओशो का इंटरव्यू लेने आया। वह ओशो के उच्छृंखल इटालियन शिष्यों में से एक है। वह असाधारण व्यक्ति है। क्योंकि उसने अपनी लेखन कला और फोटोग्राफी की प्रतिभा के कारण पत्रिकाओं से निरंतर सम्बन्ध बनाए रखे है। उसने वर्षों ओशो के चरणों में समय बिताया है।
एक लेख के फिल्मांकन के लिए उसने एक टेलीविजन कम्पनी के साथ ओशो का एक वृत चित्र बनाने की व्यवस्था की थी। उसने एंजो बिआगी से सम्पर्क किया जो इटली के राष्ट्रीय टेलीविज़न का प्रतिनिधित्व करता था। बिआगी इटली का एक सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता था जिसका ‘स्पॉट लाईट’ नामक अपना एक शो भी था। भारतीय दूतावास ने उसे वीज़ा देने से इनकार कर दिया और मेरे लिए यह प्रथम संकेत था कि अन्य देशों की भांति भारत भी एक बुद्ध को पहचानने में असमर्थ था। अमरीकन अटर्नी, चार्ल्स टर्नर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि अमरीकन सरकार चाहती थी कि ओशो को अगल-थलग कर दिया जाये। विदेश संन्यासियों को उनसे न मिलने दिया जाये। विदेशी पत्रकारों से उन्हें सीमित रूप से मिलने की अनुमति हो और उनके विचारों की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध हो। स्पष्ट था कि ओशो के कार्य को समाप्त कर दिया जाये। उनकी देशना को विश्व तक पहुंचने न दिया जाये। यह एक षड्यन्त्र था। भंयकर षड्यन्त्र, अमरीका के प्रभावशाली दबाव से भारत भी बहार नहीं था।
इस बीच हम लोग दिन-प्रतिदिन के हिसाब से जी रहे थे। और मेरा पूरा दिन कपड़ों की धुलाई में ही बीत जाता था। यहां धुलाई की व्यवस्था मेरी रजनीशपुरम की व्यवस्था से सर्वथा भिन्न थी। मैं भारतीय ढंग के बाथरुम में एक बाल्टी में कपड़े धोती। बाथरुम में एक ही नल था और उसमें से भी जंग भरा पानी आता था। साथ वाले बेडरूम में मैं कपड़ों को सुखाने के लिए टाँगती और नीचे बाल्टी एवं कटोरे रखती ताकि टपकता पानी उनमें गिरे। वहीं बिस्तर पर मैं कपड़े इस्तिरी करती। ओशो के सुंदर चोगों का रूप रंग बिगड़ गया था। उनमें कूल्लू की सीलन की दुर्गंध आने लगी थी। सफेद चोगे भूरे रंग के होने लगे थे। लेकिन इतना ही नहीं, अभी तो कुछ ही सप्ताहों में बर्फ पिघलने का सहारा था।
ओशो प्रात: दिन में दो बार पत्रकारों से भेंट करते और उनके प्रश्नों के उत्तर देते। हम बाहर बैठकर उन्हें सुनते। पृष्ठभूमि में, नदी का कल-कल करता स्वर सुनाई देता और हमारे चेहरों पर सूर्य की पीली झीनी रोशनी पड़ रही होती। मैंने उन्हें कहते सूना, ‘चुनौती तुम्हें बल देगी।’ उनसे साक्षात्कार करने वालों के साथ उनका धैर्य असीम था। बहुत से भारतीय पत्रकार अपनी सहमति या असहमति प्रकट करने के लिए उन्हें बीच में ही टोक देते। मैंने ऐसा पहले कभी नहीं होते देखा था और कभी-कभी तो यह रोकटोक हास्य पद प्रतीत होती थी।
नीलम और उसकी बेटी प्रिया रजनीशपुरम से वहां पहुंच गई। वे ओशो के साथ पिछले पंद्रह वर्षों से थी। प्रिया तब नवजात बालिका थी। दोनों खूबसूरत है और बहिनें दिखती है। ओशो के बहुत से अन्य शिष्यों की भांति इन दोनों का जीवन भी पूर्व और पश्चिम का आदर्श मिश्रण है।
जिस दिन हम नौ के नौ अपने वीज़ा की अवधि बढ़ाने के लिए कूल्लू के पुलिस सुपरिनटैंडैंट मिस्टर नेगी से मिलने गए, नीलम ने ओशो को दोपहर का भोजन दिया और भ्रमण के लिए उनके साथ गई। मिस्टर नेगी के साथ हमारी भेट सौहार्दपूर्ण रही। उन्होंने हमें अनगिनत चाय के कप पिलाई हमे उत्सुक श्रोतागण देख उन पर्यटकों के किस्से सुनाए जिन्हे रीछ ने खा लिया था। उन्होंने हमे आश्वासन दिया कि कोई अड़चन नहीं आएगी। हमने हाथ मिलाया ओर खुशी-खुशी स्पेन लौट आए।
अगले दिन 10 दिसम्बर को, देवराज मेरे कमरे में आया और उसने मुझे बता या कि हमारे बीजा की अवधि आगे नहीं बढ़ाई गई। मेरी हालत वमन करने जैसी हो गई। और मैं वही बिस्तर पर बैठ गई। यह कैसे सम्भव था। भारतीय आप्रवास कार्यालय की कार्यकुशलता अपने में चिंतित करनेवाली थी। मैंने स्वयं को समझाया कि हो सकता है यह उनके लिए अत्यावश्यक और गम्भीर मामला हो—मेरा ऐसा कोई अनुभव नह था कि भारतीय अधिकारियों ने कभी किसी मामले में इतनी शीध्रता से निपटाया हो। उस समय फोन करना भी संभव नहीं थी। क्योंकि सर्दी का मौसम लगभग आ चूका था। मौसम की हालत बिगड़ती जा रही थी। और दिल्ली को जाने वाले विमानों की उड़ानें निरंतर रद्द होती जा रही थी। हास्या से दिल्ली में सम्पर्क करना इतना मुश्किल था कि एक अवसर पर उसने हमसे फोन पर बात करने की बजाय प्लेन से हमारे पास आना उचित समझा।
उसी दिन पुलिस स्पेन रिसोर्ट आई, सब विदेशियों को बुलाया और हमारे पासपोर्टों पर अंकित कर दिया। ‘भारत शीध्र छोड़ दो।’ विवेक, देवराज, राफिया, आशु, मुक्ता और हरिदास बच गए क्योंकि कुछ ही मिनट पहले वे अपने बीजा की अवधि बढ़ाने के हेतु पुन: आवेदन पत्र देने के लिए रवाना हो चुके थे। जि दिन विवेक दिल्ली गई। मैंने उसे नीलम को कहते सुना था कि ओशो ने कहा है कि यदि हम सबको निर्वासित किया गया तो वे भी हमारे साथ आएँगे। विवेक कह रही थी, ‘कृपया उन्हें हमारे पीछे मत आने दो। क्योंकि भारत में कम से कम वे सुरक्षित तो है।’
हास्या और आनंदों दिल्ली में अधिकारियों से भेंट वार्तालाप करने में व्यस्त थी। अरूण नेहरू उस समय आतंकित सुरक्षा के मंत्रि थे जो इस समस्या की जड़ थे। और उनसे मुलाकात निरंतर रद की जा रही थी। अंतत: जब एक अधिकारी से मुलाकात हुई तो उन्हें ‘गोपनीय’ रूप से बताया हम अपने ही गुप में पता लगाये कि समस्या कहा से शुरू हुई है। सम्भवत: लक्ष्मी ने गृह विभाग को सब विदेशी शिष्यों का विस्तृत ब्यौरा देते हुए एक पत्र लिखा था। और उनके ही शब्द हमारे सामने दोहराए गए है। कि यह अनिवार्य नहीं है कि ओशो कि देखभाल के लिए विदेशियों की आवश्यकता है। वास्तव में यह आवश्यक था क्योंकि ओशो को जीवन से भी अधिक महत्वपूर्ण था उनका कार्य और उसके लिए विदेशियों की आवश्यकता थी। ओशो का कहना था, ‘मेरे भारतीय शिष्य ध्यान करते है लेकिन मेरे लिए कुछ नहीं कर करेंगे।’ उस समय मैं यह समझ न पाई थी, लेकिन शीध्र ही मुझ मालूम हो गया।
उस दोपहर जब ओशो नदी किनारे सैर के लिए जानेवाले थे, स्पेन रिसोर्ट के मुख्य द्वार पर कुछ शोरगुल सुनाई दिया। मैं पता करने गई तो देखा कि स्पेन रिज़ार्ट के कर्मचारी एक बस में भरक आए शराबी सिक्खों के साथ जूझ रहे है। जो आक्रामक ढंग से चिल्ला रहे थे और ओशो को मिलना चाहते थे।
मैं लॉन मैं से दौड़ती हुई बंगलों के बीच से होती हुई वहां पहुंची जहां ओशो पहले ही पोर्च में सैर को जाने के लिए तैयार खड़े थे। सड़क से वे दिखाई पड़ रहे थे। और मैंने उनसे भीतर चलने का आग्रह किया, क्योंकि बस में भरकर आए शराबी सिक्ख हिंसात्मक हो रहे थे। हम भीतर चले गये। और मैंने बैकर के पर्दे बंद कर दिए। बाहर वर्षा होने लगी। कमरे में अँधेरा हो गया। जैसे ही मैंने ओशो की और देखा वे बोले, ‘सिक्ख, लेकिन सिक्खों के विरूद्ध तो मैं कभी कुछ नहीं बोला। ऐसी मूर्खता। ये लोग क्या चाहते है। वे सोफे पर बैठ गये। और बोले ‘ये संसार पागल है, यहां रहने क्या सार।’
मैंने ओशो को सदा परमानंद की अवस्था में ही देखा था। जेल में पूरा समय और कम्यून के उजड़ने के समय तक भी वे अछूते रहे। अब भी वे न तो उदास थे, न क्रोधित थे, सब थक गए थे। वहां बैठे शुन्य में देखते हुए वे थके हुए से प्रतीत हो रहे थे। और मैं उनसे कुछ दूरी पर बिना हिले-डुले खड़ी थी। मैं कुछ भी कहती वह छिछला ही लगाता। मैं कछ करती वह अर्थहीन होता। मैंने अपने मन में सोचा कि ऐसा महसूस करना उनकी स्वतन्त्रता है। और मुझे किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हम उस मुद्रा में ही जड़वत हो गए और वर्षा गिरने का स्वर कमरे में भरता गया। मुझे लगा मानों मैं एक चट्टान के किनारे खड़ी नीचे अंधेरी खाई में देख रही होऊं।
ज्ञान नह कितनी देर बाद—मैं कभी जान न पाऊंगी—मैंने अपनी आँख के कोने से देखा कि पर्दे में से धूप का एक टुकड़ा अंदर प्रवेश कर गया था। मैं कमरे में से होती हुई खिड़कियों के पास गई और पर्दे हटा दिये। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। मैं बाहर गई, वहां सब शांत हो चुका था। सिक्ख जा चुके के।
‘ओशो, क्या आप अपनी सैर के लिए जाना पसंद करेंगे।’ मैंने पूछा।
जैसे हम नदी के साथ-साथ चल रहे थे मैं इतनी प्रसन्न थी कि प्रसन्नता ह्रदय म समा न पा रह थी। मेरा मन हो रहा था कि जैसे-जैसे वे चल रहे है मैं छोटे पिल्ले की भांति उनके आस-पास नाचूं। बड़ी कठिनाई से स्वयं को रोक रही थी। वे मुस्कुरा रहे थे। लॉन के पास कुछ संन्यासी उनका अभिवादन करने के लिए खड़े थे। वहां ओशो के पुराने मित्र कपिल और कुसुम भी खड़े थे। वे उन लोगों में से एक थे जिन्होंने सर्वप्रथम संन्यास लिया था। उनके साथ उनका बैटा भी था। जो अब बड़ा हो गया था। जन्म के बाद ओशो ने उसे अभी तक नहीं देखा था। उन्होंने उस बच्चे को प्रेम से स्पर्श किया और उनके साथ बहुत देर तक हिन्दी में बातें की। मैं तो हवा में उड़ रही थी। सब कुछ इतना नया और ताजा था मानो मेरे जीवन का प्रथम दिवस हो। और उस दिन से जब भी मैं अंधेरे और निराशा से घिर जाती हूं तो मैं शांत भाव से प्रतीक्षा करने लगती हूं। मैं बस प्रतीक्षा करती हूं।
रात्रि समय मैं ओशो को कुछ पढ़कर सुनाती थी। मैंने उन्हें बाइबिल बढ़कर सुनाई, यूं कहिए बेन एडवर्ड एकरले द्वारा लिखित ‘एक्स रिटेल बाइबिल’ पढ़कर सुनाई। यह तीन सौ पृष्ठों की नव प्रकाशित पुस्तक है। बिना किसी रदोबदल के सीधा बाईबिल से ली गई है। इसके सारे पृष्ठ शुद्ध अश्लील साहित्य है और मेरे लिए यह एक सबसे बड़ा मजाक है कि शायद पोप भी बाइबिल नहीं पढ़ता, नहीं तो वह भड़क जाता।
रजनीशपुरम छोडते समय हमारे छोटे से ग्रुप के सभी लोगों ने अपने गहने बेचने के लिए वहां छोड़ दिए थे। ओशो ने मुझे एक हार, एक अंगूठी और एक घड़ी दी थी। कूल्लू में एक दिन मेरी सूनी कलाई देखकर उनहोंने पूछा कि मेरी घड़ी कहां है। कुछ ही दिन पहले कुसुम और कपिल ने उन्हें एक कंगन भेट में दिया था। उन्होंने मुझे उसे उनके बेडरूम की मेज से लाने को कहा। अब वह मेरा था। मैं भावुक हो गई क्योंकि उनके पास भी कुछ नहीं था। अमरीका में सब कुछ छोड़कर आने के बाद यह उनकी पहली भेट थी। उन्होंने कहा: ‘कृपया ध्यान रखना कि कुसुम इसे न देखे। क्योंकि हो सकता है, इससे वह अप्रसन्न हो जाये।’ मेरी आंखों में आंसू भर गए जब वह कहते गए कि ‘एक दिन जब हम पुन: स्थापित हो जाएंगे मैं प्रत्येक व्यक्ति को उपहार दे पाऊंगा।’
एक दिन प्रात: मैंने पुलिस को आते देखा, और जैसे ही वे मैनेजर की और बिल्डिंग में प्रविष्ट हुए मैं ओशो को बताने के लिए भागी और शोर मचाते हुए उनके आगमन की घोषणा की।
‘वे यहां क्यों आए है?’ उन्होंने पूछा।
ओशो; वे नाटक के केवल कुछ सो पात्र है, ‘मैंने बाजू हिलाते हुए नाटकीय अंदाज में कहा। जिस तरह से उन्होंने मुझे देखा उससे यह स्पष्ट था कि निश्चित ही उन्हें मुझसे ऐसे गूढ़ उत्तर की आवश्यकता नहीं थी। वे जानना चाहते थे कि वास्तव में वहां क्या हो रहा है। अत: स्वयं को मूर्ख –सा समझते मैं नीलम के पास भागी यह बुरा समाचार पाने के लिए कि हमे उस स्थान को छोड़ना था, उसी समय।’
पुलिसवाले चले गए। आशीष निरूपा, और मैंने अपना सामान बांधा ताकि हम दिल्ली जाने वाले हवाई जहाज के समय तक वहां पहूंच सकें। मैं ओशो की माता जी, तरू और पूरे परिवार से विदाई लेने गई। मैं इतना रोई कि मुझे लगा कि शायद मैं जरूरत से ज्यादा रो रही थी। ओशो जी की माता जी को भी मैंने दुःखी कर दिया। मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं सदा-सदा के लिए जा रही हूं।
ओशो के समझ जाने से पहले मैंने उन्हें कुछ क्षण के लिए निहारा। वे पोर्च में बैठे थे, पीछे दिखाई दे रहे थे हिमालय पर्वत ओर बर्फ से ढकी चोटियां। उन्होंने मेरा सबसे मनपसंद गहरे नीचे रंग का रोब पहने हुआ था। और यह उन कुछ रोब्स में से एक था जो अच्छी तरह धुले हुए थे। उनकी आंखें बंद थी और ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे की वे कहीं दूर बहुत दूर देख रहे है। मुझे लगा मैं पहले भी यहां थी—यह घटना पहले भी घट चुकी थी—हिमालय में गुरु को छोड़कर शिष्य का जाना—यह सब इतना जाना पहचाना लगा जब मैंने उनके चरण छुए और अपना मस्तिष्क धरती पर टिकाया। वे झुके और उन्होंने मेरे सर को स्पर्श किया। मेरी आँखो से अश्रु-धारा बह रही थी। जब मैंने उन्हें उस सबके लिए धन्यवाद दिया जो उन्होंने मुझे दिया था। मैंने उनसे विदाई ली और अपने जड़वत शरीर को घसीटती कार तक ले गई और हम चल दिये। जैसे ही कार द्वार से बाहर निकली मैंने अपना सर घुमाया और देखा।
दो घंटे पश्चात हम कूल्लू हवाई अड्डे पर थे। तथा ओर भी भरी आंखों से अपने सूटकेस सहित विमान की और प्रस्थान किया। दिल्ली कूल्लू उड़ान के विमान चालक ने हमें एक पत्र दिया जो विवेक ने उसे दिया था। उसने लिखा था कि वीज़ा की अवधि बढ़ाई नहीं जा सकती। क्योंकि यह सप्हांत था (आज शुक्रवार था) हम सोमवार तक ओशो के साथ रह सकते है। कुछ भी हो देश छोड़ने से पहले हम मंगलवार तक सरकारी तौर से यहां रह सकते है। हम सीधे स्पेन पहुंचे और ओशो की बैठक मैं थे। मरा कुछ घंटे पूर्व वाला नाटक प्रकाश वर्षों दूर था। वे अपनी दोपहर के भोजन के बाद झपकी से उठे और बाहर आये। हेलो चेतना, उन्होंने मुस्कराते हुए कहां।
पुलिसवाले फिर आ धमके और हम पर बहुत गर्म हुए। उन्होंने हमें हवाई अड्डे पर देखा था। और जानना चाहते थे कि विमान क्यों नहीं पकड़ा। क्या हम उन्हें धोखा देने का प्रयत्न कर रहे थे। नीलम जिसमें इतनी सम्मोहिनी शक्ति है कि तूफान को रोक सके। ने उन्हें परिस्थिति से अवगत कराया। यह सप्ताह का अंत था। विमान जा चुका था। सड़कों बर्फ से भरी थी। किसी भी तरह आज हम भारत नहीं छोड़ सकते थे। वे अपने पैर पटकते हुए चले गये। और जाते-जाते धमकी दे गये कि कुछ घंटों बाद वे फिर आएँगे। लेकिन वे फिर लौटकर नहीं आये।
ओशो ने नेपाल जाने की बात की क्योंकि भारतीयों को नेपाल जाने के लिए वीज़ा नहीं लेना पड़ता। इस लिए आसानी होगी। कुछ थोड़े से शिष्यों के साथ उनका कार्य आगे नहीं बढ़ पायेगा। वे उनकी प्रेमपूर्वक देखभाल तो कर पाएंगे लेकिन कुछ शिष्यों के साथ पूरा जीवन सुख शांति से जीने का उनका ध्येय नहीं था। उनका संदेश विश्व भर में हजारों लाखों लोगों तक पहुंचना था। कुछ माह पश्चात उन्होंने क्रीट में कहा:
‘भारत में मैंने अपने संन्यासियों को कूल्लू मनाली आने से मना किया था क्योंकि वहां हम जमीन खरीदना चाहते थे; और यदि हजारों संन्यासी आना प्रारम्भ कर देते तो शीध्र ही पुराने विचारों के रूढ़ीवादी लोग भड़क उठते। और राजनीतिज्ञ तो सदैव अवसर की तलाश में रहते है......।’
वे कुछ दिन जब मैं अपने संन्यासियों के साथ नहीं था; उनसे बातें नहीं कर रहा था; उनकी आंखों मे नहीं देख रहा था; उनकी हंसी नही सून रहा था; मैं थक हुआ अनुभव करता था। (साक्रेटीज़ पॉजज़ंडआगेल आफ्टर 25 सैंचरीज़)
फिर शुरू हुए थे कुछ दिन जिन्हें, मुझे विश्वास है, आशीष कभी नहीं भूल पाएगा। हास्या,आनंदों और जयेश। जो दिल्ली उनके पास पहुंच चुके थे। को संदेश पहुंचाना था। उन्हें ओशो के लिए नेपाल जाने की व्यवस्था करनी थी। टेलीफ़ोन की तारें टूटी हुई थी। सप्ताह के अंत में कोई जहाज़ जाता नहीं था और इसका अर्थ था आशीष का टैक्सी द्वारा बारह घंटे की यात्रा पर दिल्ली जाना, संदेश पहुंचा कर उसका जवाब लेना ओर फिर सीधे लौट आना। सड़कें जोखिम भरी थी और बर्फ की इतनी मोटी तहे जम गई थी कि जिसके कारण रास्ते बंद थे। कूल्लू सात सौ किलोमीटर है।
पहली रात आशीष कार द्वारा यह निर्देश लेकिन निकला कि ‘नेपाल के कैबिनेट-मंत्रियों से सम्पर्क करो।’ वास्तव एक संन्यासी था, और ऐसा भी सुनने में आया था कि नेपाल नरेश ओशो की पुस्तकें पढ़ते है। लेकिन उस समय हमें परिस्थिति का ठीक ज्ञान नहीं था। सुना था कि नेपाल नरेश का एक भाई बड़ा कुटिल है। और सेना, उद्योग तथा पुलिस पर उसका अधिकार है। आशीष प्रात: छह बजे दिल्ली पहुंचा। नाश्ता किया और संध्या तक कूल्लू लौट आया। और यह लो एक और संदेश। नेपाल में एक घर की तलाश करो—महल झील के किनारे स्थित हो।
आशीष ने जल्दी संध्या का भोजन किया और हमें बताया कि रास्ते में सड़क पर इतना घना कोहरा था कि कार से उतर कर उसके आगे-आगे चलना अनिवार्य हो जाता था। ताकि ड्राइवर कार को कहीं गड्ढे में न गिरा दे। उसने फिर दिल्ली के लिए दूसरी टैक्सी ली और अगले दिन उत्तर लेकिर लौट आया। इस यात्रा में उसकी कार कोहरे में कही खो गई थी और आशीष ने अपना आस-पास खोज की तो पाया कि वह एक सूखी नदी के तल पर चल रहा था। कुछ क्षणों के लिए बादलों में से निकले चंद्रमा के पीछे थे तीन ऊँटों के छाया चित्र।
वह टैक्सी में सो नहीं पाया था। और अब वह दो रातों से सोया नहीं था। एक और संदेश, अत्यंत महत्वपूर्ण। आशीष की हालत पागलों जैसी हो रही थी। वह पत्र लेकर लड़खड़ाता हुआ ठिठुरती रात में बाहर निकल गया। लेकिन वह ठीक समय पर वापस आ गया। निरूपा, उसने ओर मैंने विमान से दिल्ली के लिए उड़ान भरी।
जब भी ऐसी कठिन लेकिन आवश्यक परिस्थिति आती आशीष को और निखार जाती। पूना में एक बार ओशो की नई कुर्सी बनाने के लिए उसने सारा दिन और सारी रात काम किया था और ओशो ने बताया था कि कुर्सी के बन जाने पर आशीष को आलोकिक अनुभव हुआ था।
आशीष, निरूपा और मैंने ओशो के चरण छुए, उन्हें अलविदा कहा और एक बार फिर हमने स्पेन छोड़ दिया।
पुलिसवाले जहाज़ तक हमारे साथ-साथ गए। दिल्ली पहुंचने पर एक छोटे से होटल में हमारी मुलाकात बाक़ी सब लोगों से हुई। विवेक, देवराज और राफिया को पहले नेपाल के लिए रवानाहोना था। और महल की तलाश करनी थी। हमें अगले दिन जाना था और काठमांडू से लगभग एक सौ आठ किलोमीटर दूर पोखरा कम्यून में रहना था।
कुछ ही सप्ताह पहले हास्या के वीज़ा की जो अवधि निर्विध्न बढ़ा दी गई थी। उसे रद्द कर दिया गया और पुलिस उसके होटल में आई और बंदूक की नोक पर उसे एयरपोर्ट ले गई।
कलकता से प्रकाशित होनेवाले समाचार—पत्र, ‘द टेलीग्राफ़िक’ ने 26 दिसम्बर 1985 को लिखा: ‘सरकार ने भगवान श्री रजनीश के विदेशी शिष्यों के देश में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है।’ उसने आगे लिखा कि यह निर्णय संघीय गृह एवं विदेश मंत्रालय के मंत्री अरूण नेहरू, द्वारा लिया गया है। साथ ही भारतीय दूतावासों एंव प्रांतीय रजिस्ट्रेशन कार्यालयों को ये निर्देश दिए गए है कि किसी भी उस विदेशी के वीज़े की अवधि न बढ़ाई जाए, जो भगवान श्री रजनीश के शिष्य की तरह जाना जाता हो। ऐसे व्यक्ति को पर्यटक बीजा भी द दिया जाये। सरकार के इस निर्णय को तर्क संगत बनाने के लिए कहा गया की भगवान सी. आई. ए. के जासूस है।
अत्यंत थके मांदे आशीष, निरूपा आशु, मुक्ता और मैं दिल्ली हवाई अड्डे पर जहाज़ पर सवार होने की प्रतीक्षा कर रहे थे जब एक अधिकारी ने देखा कि मेरे बहुत से दस्तावेज़ों में एक गुम नाम है। उसने बताया कि मैं देश से बाहर नहीं जा सकती। मैंने पासपोर्ट पर अंकित उस निर्देश की और इशारा किया जिसमें लिखा था: ‘भारत को शीघ्र छोड़ देने का आदेश।’ और उससे पूछा की वह क्या निरर्थक बात कर रहा है। और यदि वह इसी तरह परेशानी खड़ी करता रहेगा तो में जहाज नहीं पकड़ पाऊंगी। उसने फिर सबको निर्गम द्वार से वापस बुलाया, हम सबके नाम लिखे, सबको जाने दिया गया। लेकिन मुझे रोके रखा। अब तक उसने तीन और अधिकारियों को भी वहां बुला लिया था। और परिस्थिति के इस पागलपन से मेरा सिर चकरा रहा था।
मैंने अपने हाथ में एक गुलाब का फूल लिया हुआ था जो मैं नेपाल की धरती को एक प्रतीक रूप में भेट करना चाहती थी। मैंने वह गुलाब उसे भेंट कर दिया, उसने उसे लिया, लज्जित हो शीध्र अपनी मेज़ पर रख लिया ओर मुझे जाने दिया।
मां प्रेम शुन्यों
(माई डायमंड डे विद ओशो) हीरा पायो गांठ गठियायो)
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