आइंस्‍टीन का सापेक्षवाद-- ऊर्जा बह्मांड़—

आइंस्‍टीन का प्रसिद्ध कथन है, ‘’ऐसा क्‍यों है कि मुझे कोई नहीं समझता लेकिन प्रेम सभी करते है?
       इसका उत्‍तर भी आइंस्‍टीन को भली भांति ज्ञात था। कारण है उसका सापेक्षवाद का नियम। ई=एम सी2। उसके समकालीन सर्वाधिक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक और गणितज्ञ भी इस नियम को समझने में असमर्थ थे।
       सापेक्षवाद का यह नियम बताता है कि ऊर्जा क्‍या है। इसमे पहले ऊर्जा की व्‍याख्‍या करने के लिए बड़े विस्‍तृत और जटिल फ़ॉर्मूला उपयोग लिए जाते थे। पहली बार आइंस्‍टीन ने इसकी व्‍याख्‍या तीन वर्णों में कर डाली।

       समस्‍या यह थी कि जटिलता से गणित और भौतिकी की समस्‍याओं को हल करने वाले वैज्ञानिकों के लिए आइंस्‍टीन का यह सरल नियम समझ के पार था। शायद एक जटिल मस्‍तिष्‍क के लिए सरलता ही जटिलतम समस्‍या है।
       सापेक्षवाद के नियम का फ़ॉर्मूला है—ऊर्जा घनत्व में प्रकाश की गति के वर्ग का गुणत्‍व है। साधारण भाषा में कहें तो इसका अर्थ है—ऊर्जा=ब्रह्मांड। अब ब्रह्मांड से हमारा जगत है, जगत में हमारी पृथ्‍वी पर जीवित और जड़ पदार्थ। जीवित में जैव कोशिका और जड़ में कण। कोशिका और कण में अणु। अणु में परमाणु और परमाणु के विभाजन पर मिलती है शुद्ध ऊर्जा।
       सापेक्षवाद के अनुसार संपूर्ण ब्रह्मांड एक ही ऊर्जा है जो विविध रंग-रूपों में उपस्‍थित है। समय और स्‍थान का एक ताना-बाना है। जिससे सारा ब्रह्मांड बना है। एक जगह घटी छोटी सी घटना दूरतम तारों तक अपनी प्रतिध्‍वनि करती है।
       यह नियम इतिहास में घटी बहुत सी वास्‍तविक घटनाओं से स्‍पष्‍ट होती है। इनमें से एक घटना बीजली के बल्‍ब से जूड़ी है।
भविष्‍य का निर्माण--
       आज हम एक बटन दबाते है और बिजली का बल्‍ब हमारे घर को रोशनी से भर देता है। लेकिन क्‍या ऐसा करते समय हमारे जेहन में नायलोन के धागे से लटकता एक कोट का बटन आता है। बात अक्‍टूबर 1879 की है। प्रसिद्ध आविष्‍कार थॉमस अल्‍वा एडीसन अपनी प्रयोगशाला में गहन विचार में डूबा बैठा था। वह लंबे समय से एक बिजली के बल्‍ब के आविष्‍कार के प्रयासों में जुटा था। कुछ समझ नहीं आ रहा था। अचानक उसने उसे देखा कि उसके कोट का एक बटन ढीला होकर लटक गया था। बिजली की गति से एक विचार कौंधा और उसने बटन के साथ लटकते उस धागे को तोड़ लिया। सामने एक यंत्र के दो छोर थे। एक सकारात्‍मक और दूसरा नकारात्‍मक विद्युत वाला। एडीसन ने नायलोन के उस धागे को दोनों छोरों से जोड़ दिया। वह धागा तुरंत प्रकाश से जगमगा उठा और 13 घंटे तक जलता रहा। पहले बिजली के बल्‍ब का आविष्‍कार हुआ। 19 वीं शताब्‍दी में घटी उस घटना के कारण आज 21 वीं सदी का जगत प्रकाशमान है। भूतकाल में घटी एक घटना भविष्‍य को प्रभावित कर रही है।
सारे विश्‍व का एक ताना-बान--
       डरावने उपन्‍यास लिखने के लिए जगत प्रसिद्ध लेखक एड़गर एलेन पो ने एक उपन्‍यास लिखा ‘’दि नेरेटिव ऑफ गॉर्डन’’ इस कहानी में एक समुद्री जहाज डूब जाता है। और बचते है मात्र चार लोग। तीन जहाज के वरिष्‍ठ नाविक थे और एक रिचर्ड पार्कर नामक युवा सहायक। एक खुली नाव में वे चारों भूखे प्‍यासे कई दिनों तक समुद्र में भटकते रहे। अंत में भूख से तंग आकर तीनों नाविक रिचर्ड पार्कर को मार कर खा लेते है। एक उपन्‍यास 1880 में प्रकाशित हुआ।
       वर्ष 1884 में मायोनेट नामक एक समुद्री जहाज डूब गया और केवल चार लोग बचे। जब कई दिनों बाद उनकी समुद्र में तैरती नाव मिली। तीन नाविक अपने एक सहायक को मार कर खा चुके थे। इस सहायक का नाम था—रिचर्ड पार्कर।
       यह कैसा संयोग है? एलेन पो कोई ज्‍योतिष या चमत्‍कारी संत नहीं था। फिर चार साल बाद घटने वाली उस घटना का जिक्र उसने अपने उपन्‍यास में कैसे कर दिया? क्‍या उसकी कल्‍पना ने भविष्‍य का निर्माण किया? अथवा भविष्‍य में घटने वाली उस घटना की अदृश्‍य तरंगें उसकी कल्‍पना में उतर आई?
       सापेक्षवाद के अनुसार भूत, भविष्‍य और वर्तमान सभी एक दूसरे से जूड़े हुए है। सारे विश्‍व का एक ही ताना-बाना है। पूरा जगत अंर्तसंबद्ध है।
एक ऊर्जा एक विश्‍व---
       21 मार्च 2012 को जब मुंबई वासी उठे और सड़कों पर आये तो वे हैरान रह गये। ये देखकर कि मुंबई का आकाश एक गहरी धूल की परत से पटा हुआ है। सड़कों पर दौड़ते वाहन चालकों को रास्‍ता देखना दूभर हो गया। दमे और श्‍वास के रोगों से पीड़ित लोगों के लिए सांस लेना मुश्‍किल हो गया। दो दिन तक यह धूल छाई रही और इसका प्रभाव दिल्‍ली जयपुर और अहमदाबाद में भी देखा गया। दो दिन पश्‍चात वातावरण विशेषज्ञों ने बताया कि इसका कारण था ओमान की खाड़ी में आया तूफान।
       70 के दशक में अफ्रीका के एक प्रदेश साहेल में आकाल पडा। विश्‍व भर के लोग इस सूखे के भयावह प्रभाव से दहल गए। वर्षों तक इस प्रदेश में वर्षा नहीं हुई और दस लाख से अधिक लोगों ने भूख प्‍यास से दम तोड़ दिया। समाचार पत्रों और वैज्ञानिकों ने कहा कि साहेल के पर्यावरण पर बहुत अधिक लोग निर्भर है। वहां की धरती इतने लोगों का बोझ उठाने में असमर्थ है। वहां के प्रशासन को भी दोषी ठहराया गया। लेकिन इस सबके लिए वास्‍तविक दोषियों का किसी को भान नहीं था।
       कुछ ही समय पहले हुई वैज्ञानिक जाँच पड़ताल से पता चला था कि 70 के दशक में यूरोप और अमरीका में औद्योगिक क्रांति अपनी चरम पर थी। उनके कल कारखाने से निकलने वाली गैसों सल्फ़ेट और अन्‍य प्रदूषित पदार्थों के साथ उतरी अटलांटिक के ऊपर उड़ रही थी। और समुद्र की सतह को ठंडा कर रही थी। इसके कारण मानसून पैदा करने की प्रक्रिया ठप्‍प हो गई। और साहेल में होने वाली बरसात रूक गई। यह इस जगत की अतर्संवद्धता का एक जीता जागता उदाहरण है।
       ऐसी ही परिस्‍थिति इस विश्‍व में एक बार फिर निर्मित हो रही है। भारत और चीन में विश्‍व की 40 प्रतिशत जनसंख्‍या रहती है। यह विश्‍व की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थ व्‍यवस्‍थाएं है। विशेषकर चीन को पूरी दूनिया का कारखाना कहा जाता है। भारत विश्‍व का कार्यालय कहलाता है। मात्र इन दो देशों द्वारा उत्‍पन्‍न प्रदूषण सारे विश्‍व में कहन बरसा सकता है।
       निकट भविष्‍य में ही यह स्‍थिति आ सकती है। और इस बार इसका शिकार होंगे यूरोप और अमरीका। यह प्रदूषण भारत और चीन के लिए तो खतरनाक है ही लेकिन इसका सर्वाधिक दुष्‍प्रभाव यूरोप, जापान और अमरीका पर होगा। जहां बढ़ते हुए वृद्ध लोग इसे सहन नहीं कर पाएंगे। प्रदूषण यदि इसी गति से बढ़ता रहा तो ऑर्गनाइजेशन फॉर इकॉनामिक को आपरेशन एंड डैवलपमेंट के अनुसार 2050 में विश्‍व के हर वर्ष 36 लाख लोग मात्र प्रदूषण से मरने लगेंगे।
जटिल समस्‍या—सरल समाधान
       13 अप्रैल 2012 को कनाडा के कॉंकॉडियां विश्‍वविद्यालय से प्रकाशित होने वाली एक रिसर्च पत्र में वहां के वैज्ञानिकों की एक अनोखी खोज प्रकाशित की गई। इस खोज में संभवत: विश्‍व के बढ़ते हुए तापमान और कार्बन डायऑक्साइड के स्‍तरों से मुक्‍ति की कुंजी है।
       सूर्य के प्रकाश को चमका कर लौटा देने की प्रक्रिया को अल्‍बीडो कहा जाता है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार यदि पृथ्‍वी के शहरी हिस्‍सों की सड़को और इमारतों की छतों की सतह पर एक नई अल्‍बीडो की सतह का निर्माण कर दिया जाए तो पृथ्‍वी सूर्य की बहुत सारी चमक को वातावरण से लोटा देगी।
       इसका प्रभाव इतना घना होगा कि पृथ्‍वी से 150 अरब टन कार्बन डायऑक्साइड सामाप्‍त हो जाएगी।
       बढ़ती कार्बनडाइऑक्साइड से होने वाली आर्थिक हानि का मूल्‍य 25 डॉलर प्रति टन है। यह प्रक्रिया वैश्‍विक अर्थव्‍यवस्‍था के 3300 से 3800 अरब डॉलर बचा सकती है।
       यह उपाय उतना ही कारगर होगा जितना 50 वर्षों के लिए विश्‍व की हर कार को सड़कों से हटा लेना।
       यह एक असंभव महा प्रयास प्रतीत होता है लेकिन है नहीं। इन वैज्ञानिकों के अनुसार वैसे भी छतों का हर 20 से 30 वर्षों में और सड़कों का हर 10 साल में पुन: निर्माण किया जाता है। यदि हर देश हर नगर का प्रशासन यह कदम उठाए तो सारा विश्‍व एक महा संकट से बच सकता है। एक प्रदूषण रहित पृथ्‍वी का निर्माण हो सकता है।
स्‍वामी अनिल सरस्‍वती

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