परमात्मां से संबंध---


ध्‍यान रहे, इसे एक सुत्र, गहरा सुत्र समझ लें, कि जो मैं हूं, जैसा मैं हूँ, जहां में हूँ, उसी तरह के संबंध मेरे निर्मित हो सकते है। अगर मैं मानता हूँ मैं शरीर हूँ, तो मेरा संबंध केवल उनसे ही हो सकता है जो शरीर है। अगर मैं मानता हूँ कि मैं मन हूं, तो मेरा संबंध उनसे होंगे जो मानते है कि मैं मन हूं, अगर मैं मानता हूं कि मैं चेतना हूं, तो मेरा संबंध उनसे हो सकेंगे जो मानते है कि वे चैतन्‍य है। अगर मैं परमात्‍मा से संबंध जोड़ना चाहता हूं, तो मुझे परमात्‍मा कि तरह ही शून्‍य और निराकार हो जाना पड़ेगा, जहां मैं कि कोई ध्‍वनि भी न उठती हो, क्‍योंकि मैं आकार देता है। वहां सब शून्‍य होगा तो ही मैं शून्‍य से जुड़ पाऊंगा। निराकार भीतर मैं हो जाऊँ, तो ही बाहर के निराकार के जुड़ पाऊँ गा। जिससे जुड़ना हो, वैसे ही हो जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। जिसको खोजना हो, वैसे ही बन जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं

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