उपनिषद--कठोपनिषद--ओशो (चौथा--प्रवचन)

नास्‍तिक का सत्‍य, आस्‍तिक का असत्‍य : मृत्‍युचौथा प्रवचन




न साम्पराय: प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुन: पुनर्वशमापद्यते मे।। 6।।

श्रवणायपि बहुभियों न लभ्य: मृण्वन्तोsपि बहवो यं न विद्य:।
आश्चयों वक्ता कशलोडस्य लआऽऽस्वयों ज्ञाता कशलानशिष्ट:।। 7।।

न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिज्यमान:।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति अणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्।। 8।।

नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।
यां त्वमाप: सत्यमृतिर्बतासि त्वादृक् नो भूयान्नचिकेत: प्रष्टा।। 9।।

जानाम्‍यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यधुवै: प्राप्यते हि घ्रुव तत्।
ततो मया नाचिकेतस्वितोऽग्निरनित्यैर्द्रव्यै: प्राप्तवानस्मि नित्यम्।। 10।।

कामस्याप्ति जगत: प्रतिष्ठां क्रतोरनज्यमभयस्य पारम्।
स्तोमभहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा मृत्या धीरो नचिकेतोष्त्यस्राक्षी:।। 11।।

तं दुर्दर्श गूढमनुप्रविष्ट गुहाहित गहरेष्ठ पुराणम्।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति।। 12।।

एतच्‍छूत्वा सम्परिगृह्य मर्त्य: प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाष्य।
स मोदते मोदनीय हि लब्‍ध्‍वा विवृत सय नचिकेतसं मन्ये।। 13।।


इस प्रकार संपत्ति के मोह से मोहित निरंतर प्रमाद करने वाले अज्ञानी को परलोक नहीं सूझता। ( वह समझता है) कि यह प्रत्यक्ष दिखने वाला लोक ही सत्य हैइसके सिवा दूसरा (स्‍वर्ग-नर्क आदि लोक ) कुछ भी नहीं है। इस प्रकार मानने वाला अभिमानी मनुष्य बार—बार मुझ यमराज के वश में आता है।।6।।

जो ( आत्मतत्व ) बहुतों को तो सुनने के लिए भी नहीं मिलता जिसको बहुत से लोग सुनकर भी नहीं समझ सकते ऐसे इस गूढ़ आत्मतत्व का वर्णन करने वाला महापुरुष आश्चर्यमय है (बड़ा दुर्लभ है)। उसे प्राप्त करने वाला भी बड़ा कुशल कोई एक ही होता है। और जिसे तत्व की उपलब्धि हो गई है ऐसे ज्ञानी महापुरुष के द्वारा शिक्षा प्राप्‍त किया हुआ आत्मतत्व का ज्ञाता भी आश्चर्यमय है (परम दुर्लभ है)।। 7।।


अल्पज्ञ मनुष्य के द्वारा बतलाए जाने पर (और उनके अनुसार) बहुत प्रकार से चिंतन किए जाने पर भी यह आत्मतत्व सहज ही समझ में आ जाए ऐसा नहीं है। किसी दूसरे ज्ञानीपुरुष के द्वारा उपदेश न किए जाने पर इस विषय में मनुष्य का प्रवेश नहीं होता क्योंकि यह अत्यंत सूक्ष्म वस्तु से भी अधिक सूक्ष्म है; ( इसलिएतर्क से अतीत है।। 8।।

हे प्रियतम! जिसको तुमने पाया है यह बुद्धि तर्क से नहीं मिल सकती। यह तो दूसरे के द्वारा कही हुई ही आत्मज्ञान में निमित्त होती है। सचमुच ही तुम उत्तम धेंर्य वाले हो। हे नचिकेता! (हम चाहते हैं कि) तुम्हारे जैसे ही पूछने वाले हमें मिला करें।। 9।।

मैं जानता हूं कि कर्मफलरूप निधि अनित्य है। अनित्य ( विनाशशील) वस्तुओं से वह नित्य ( परमात्मा) नहीं मिल सकता इसलिए मेरे द्वारा (कर्तव्यबुद्धि से) अनित्य पदार्थों के द्वारा नाचिकेत नामक अग्नि का चयन किया गया  ( अनित्य भोगों की प्राप्ति के लिए नहीं)। (अत: उस निष्कामभाव की अपूर्व शक्ति से मैं) नित्य (परमात्मा) को प्राप्त हो गया है।।10।।

हे नचिकेता।
जिसमें सब प्रकार के भोग मिल सकते हैं जो जगत का आधार यह का चिरस्थाई फल, निर्भयता की अवधि (और) स्तुति करने योग्य एवं महत्वपूर्ण है ( तथा) वेदों में जिसके गुण नाना प्रकार से गाए गए हैं (और) जो दीर्घकाल तक की स्थिति से संपन्न है ऐसे स्वर्गलोक को देखकर भी तुमने धैर्यपूर्वक उसका त्याग कर दिया इसलिए ( मैं समझता हूं कि तुम) बहुत ही बुद्धिमान हो।। 11।।

जो योगमाया के पर्दे में छिपा हुआ सर्वव्यापी सबके हृदयरूप गुहा में स्थित संसाररूप गहन वन में रहने वाला सनातन है ऐसे उस कठिनता से देखे जाने वाले परमात्मदेव को शुद्ध बुद्धियुक्त साधक अध्यात्मयोग की प्राप्ति के द्वारा समझकर हर्ष और शोक को त्याग देता है।। 12।।

मनुष्य ( जब) इस धर्ममय ( उपदेश) को सुरकर भलीभांति ग्रहण करके ('और) उस पर विवेकपूर्वक विचार करके इस सूक्ष्म आत्मतत्व को जानकर ( अनुभव कर लेता है तब) वह आनंदस्वरूप परब्रह्म पुरुषोत्तम को पाकर आनंद में ही मग्न हो जाता है तुम नचिकेता के लिए ( मैं) परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूं।। 13।।


 नास्तिक का सत्यआस्तिक का असत्य :


सूत्र में प्रवेश के पहले थोड़ी प्रारंभिक बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बातहमें वही दिखता है जो हमारी वासना में छिपा होता है। जो मौजूद हैजरूरी नहीं कि हमें दिखे। हमारी आंख उसी को देख लेती हैजिसे हमारी वासना चाहती है। देखने में भी चुनाव हैसुनने में भी चुनाव है। हम वही सुन लेते हैं जो सुनना चाहते हैं। जो हम नहीं सुनना चाहते हैंवह हमारे कानों से चूक जाता है। और जो हम नहीं देखना चाहतेउसे हमारी आंखे नहीं देख पातीं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने ही जगत में रहता हैअपने ही वासना के जगत में।
यहां इतने लोग हैंमैं जो बोल रहा हूं र इसके उतने ही अर्थ हो जाएंगे जितने लोग यहां हैं। प्रत्येक वही सुन लेगा जो सुनना चाहता है। चुन लेगामतलब की बात निकाल लेगा। गैर—मतलब की बात अलग कर देगा। या ऐसे अर्थ निकाल लेगा जो उसकी वासना के अनुकूल हों।
जगत में हमें वही दिखाई पड़ता है जो हमने अपनी वासना में छिपा रखा है। लोग पूछते हैंपरमात्मा कहां है?यह पूछना ही गलत है। असली सवाल यह है कि परमात्मा को पाने की वासना कहा है? और जब तक परमात्मा को पाने की वासना न होवह गहन प्यास न होतब तक वह दिखाई नहीं पड़ेगा। नहीं दिखाई पड़ताइसलिए नहीं कि वह नहीं हैबल्कि इसलिए कि आपकी आंखे उसे देखना ही नहीं चाहतीं। अगर वह सामने भी हो तो आप बच जाएंगे। अगर वह आपके द्वार पर दस्तक भी देतो भी आप कुछ और ही अर्थ निकाल लेंगे। आप उसे पहचान न पाएंगे।
नदी बह रही हो लेकिन प्यास न होतो नदी दिखाई नहीं पड़ेगी। प्यास हो तो दिखाई पड़ती है। और जिस चीज की प्यास होवह दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। और इतनी जटिल है यह घटना कि बहुत बार प्यास अगर बहुत प्रबल होतो जो नहीं है वह भी दिखाई पड़ सकता है। और प्यास क्षीण होतो जो है वह भी दिखाई नहीं पड़ेगा।
हम अपनी वासना के जगत में जीते हैं। और उस वासना के फैलाव से हम चीजों को देखते और पहचानते हैं। पूरब का योग तो इस सत्य को बहुत दिनों से जानता रहा है। लेकिन पश्चिम के मनसविद अब इस सत्य को स्वीकार करते हैं।
पश्चिम में विगत पचास वर्षों में मनोविज्ञान ने जो खोजें की हैंउनमें एक खोज यह है कि सौ में से केवल दो प्रतिशत चीजें हमें दिखाई पड़ती हैं। सौ घटनाएं घटती हैंतो उसमें से दो हमें दिखाई पड़ती हैं। अट्ठान्नबे से हम चूक जाते हैं। हमारी आंख चुन रही हैकान चुन रहे हैंहाथ चुन रहे हैंमन चुन रहा है।
तो जो हम जानते हैंवह हमारी च्वाइस हैहमारा चुनाव है। हम वही नहीं जानते जो मौजूद है। और अगर हमारा चुनाव बहुत गहन होतो हम उस जगत का निर्माण कर लेंगे अपने आसपासकल्पनालोक काजो है ही नहीं। पागलखानों में बंद लोगों ने क्या किया है ई उन्होंने एक जगत निर्माण कर लिया हैजो कहीं भी नहीं है। लेकिन उनके मन के लिए है।
पागलखाने में जाएंअकेला आदमी बात कर रहा है किसी से। वह जिससे बात कर रहा है वह आपके लिए नहीं हैउसके लिए पूरी तरह है। वह जवाब भी पा रहा हैवह झगडू भी सकता है। और उसके लिए उस व्यक्ति की मौजूदगी में जरा भी संदेह नहीं है। वह व्यक्ति उसने खुद ही निर्मित किया है। किसी प्रबल कामना के वश मेंवह कल्पना प्रगाढ़ हो गई है।
तो इस जगत में दो घटनाएं घट रही हैं। लोग उन चीजों को देख रहे हैंजो नहीं हैं। और उन चीजों को चूक रहे हैंजो हैं। यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है।
अगर आपको परमात्मा दिखाई नहीं पड़तातो इससे केवल एक ही बात पता चलती है कि उसकी प्यास आपके भीतर नहीं है। अन्यथा परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और जिस दिन प्यास होगीउस दिन सब चीजें क्षीण पड़ जाएंगी। और सभी चीजें पारदर्शी हो जाएंगी। और उनके भीतर परमात्मा का ही दर्शन शुरू हो जाएगा। वृक्ष तब भी दिखाई पड़ेगालेकिन बस परमात्मा का एक आकार। आकाश में बदलिया तब भी बहेंगीचलेंगीलेकिन बस परमात्मा का एक रूप। चारों तरफ व्यक्ति भी होंगे—पत्नी होगीपति होंगेबच्चे होंगेमित्र होंगे—लेकिन बस परमात्मा की अनेक छबियां हैंउसके प्रतिबिंब। वह प्रमुख हो जाएगा। वह केंद्र पर हो जाएगा। और सभी उसकी छायाएं हो जाएंगी। सभी उसकी प्रतिलिपियां हो जाएंगी। वही दिखाई पड़ेगाशेष सब गौण होता चला जाएगा।
और इस घटना की सूचना के लिए ही शंकर जैसे ज्ञानियों ने जगत को माया कहा है। जिस दिन परमात्मा सत्य होता हैउस दिन जगत माया हो जाता है। लेकिन जब तक जगत सत्य हैतब तक परमात्मा माया है। और जिनके लिए जगत बहुत सत्य हैवे पूछते हैंपरमात्मा कहां हैउन्हें खयाल भी नहीं आता कि उनके देखने का ढंगउनके जीने का ढंगउनकी आंखेउनके विचार की पद्धतिमनोवैज्ञानिक जिसे गेस्टॉल्ट कहते हैं...। यह गेस्टॉल्ट की धारणा थोड़ी समझ लेने जैसी है।
जर्मनी में एक मनोवैशानिकों का स्कूल पैदा हुआ हैगेस्टॉल्ट साइकोलॉजी। आप आकाश की तरफ देखेंआकाश में बादल चल रहे होंफिर हर आदमी सोचे कि उसे क्या दिखाई पड़ता है बादलों में। वहा कोई भी नहीं है। लेकिन किसी को कृष्ण बांसुरी बजाते हुए दिखाई पड़ सकते हैं। वह गेस्टॉल्ट है। वह उस आदमी के भीतर छिपा हैजो वह बादलों पर आरोपित कर रहा है। किसी को कोई फिल्म अभिनेत्री दिखाई पड़ सकती है। वहां सिर्फ बादल हैं। किसी को हाथी—घोड़े—छोटे बच्चों को हाथी—घोड़े दिखाई पड़ सकते हैंराक्षस लड़ते हुए दिखाई पड़ सकते हैंपरियां उड़ती हुई दिखाई पड़ सकती हैं। और हर आदमी को अलग—अलग चीजें उन्हीं बादलों में दिखाई पड़ जाएंगी। हर आदमी अपने भीतर से प्रोजेक्ट कर रहा है। बादल तो परदे का काम कर रहे हैंऔर हर आदमी भीतर से अपनी कल्पना को आरोपित कर रहा है। यह जो कल्पना का आरोपण हैयह हमने अपने चारों तरफ किया हुआ है। कोई व्यक्ति आपको बहुत सुंदर दिखाई पड़ता हैऔर दूसरा कोई भी राजी नहीं होता कि वह व्यक्ति सुंदर है। पर आपके लिए सुंदर है। और कोई व्यक्ति आपको बहुत घृणित मालूम होता हैलेकिन किसी के लिए बहुत प्यारा है।
तो हम वस्तुओं केतथ्यों के जगत में नहीं जीते हैंहम कल्पनाओं के जगत में जीते हैं। और हम अपनी कल्पनाओं से अपने चारों तरफ एक संसार निर्मित कर लेते हैंवही संसार हमें घेरे रहता है। हम उसी के अनुसार चलतेउठतेबैठतेसोचते हैं। ऐसे अलग—अलग संसारों में घिरे हुए लोग पूछते हैंपरमात्मा कहा हैऔर उनके भीतर परमात्मा को पैदा करने का कोई भाव नहीं है।
ध्यान रहेपरमात्मा उस दिन होगाजिस दिन उसकी प्यास गहन होगी। उस दिन क्षणभर भी देर न लगेगी। उस दिन वही प्रगट हो जाएगा और शेष सब माया हो जाएगीशेष सब भ्रम हो जाएगा।
हम वही देख लेते हैं जो हम देखने के लिए आतुर हैं। तुम्हारी आतुरता परमात्मा का निर्माण करेगीनिर्माण कहना ठीक नहीं है—आविष्कार। वह छिपा हैउसे खोज लेगी।
परमात्मा आविष्कार है। वह मौजूद नहीं है कि तुम्हें मिल जाए। जब तक कि तुम उसे पाने को तैयार न हो जाओतब तक वह गैर—मौजूद हैतब तक वह सुनाई नहीं पड़ेगातब तक वह दिखाई नहीं पड़ेगातब तक उसका कोई स्पर्श नहीं होगा। यद्यपि सभी स्पर्श उसी के हैं। और सभी दर्शन उसी के हैं। और सभी ध्वनियां उसी की हैं। लेकिन यह पहचानने के लिए तुम्हारी गहन आतुरता और परम धैर्य अपेक्षित है। अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें।
यम ने कहा नचिकेता को— संपत्ति के मोह से निरंतर प्रमाद करने वाले अज्ञानी को परलोक नहीं सूझता। सूझ नहीं सकता। जिसको धन में अर्थ दिखाई पड़ रहा हैउसे आत्मा में कोई अर्थ दिखाई नहीं पड़ सकता। ये विपरीत अर्थ हैं। जिसको धन बहुत मूल्यवान मालूम पड़ता हैउसके लिए आत्मा मूल्यवान मालूम नहीं पड़ सकती है। जिसे संसार कीयश कीअभिमान कीअहंकार की यात्रा बहुत मूल्यवान मालूम पड़ती हैउसके लिए ध्यान व्यर्थ मालूम पड़ेगा। क्योंकि ध्यान की यात्रा बिलकुल विपरीत है। वह गणित बिलकुल दूसरा है।
जहा अहंकार में दूसरों के ऊपर मुझे छा जाना हैवहां ध्यान में मुझे इस भांति मिट जाना है कि मेरे होने का भी पता न चले। जहां अहंकार में मुझे वस्तुएं और वस्तुओं से मिलने वाली शक्ति को संगृहीत करना है—और उस संग्रह में मुझे तनाव से और चिंता और बेचैनी से भर जाना पड़ेगाअशांति मेरा भाग्य होगा—वहा ध्यान में मुझे सारी चिंताओं कोसारे तनावों कोसारी अशांति को छोड्कर इस भांति शांत हो जाना है कि जैसे मैं हूं ही नहींजैसे मेरी मौजूदगी समाप्त हो गई। न—होने की तरह होना हो जाए। यात्राएं विपरीत हैं।
तो जिसे अभी बाहर की यात्रा सार्थक मालूम पड़ रही हैउसे परलोक में कोई भी अर्थ मालूम नहीं पड़ेगा। अर्थ देखने की उसकी तैयारी नहीं है। और वह विपरीत अर्थ देख रहा है। आपने अगर बच्चों की किताबों में कभी खयाल किया हों—और आप भी कभी बच्चे रहे होंगेतो जरूर कहीं न कहीं किसी पत्रिका या किसी पुस्तक में आपने वे चित्र देखे होंगे—एक ही चित्र में दोप्रतीक होते हैं। एक की है और एक जवान औरत हैएक ही चित्र की रेखाओं में। लेकिन एक बड़ा मजा है कि अगर आपको की दिखाई पड़नी शुरू हो जाए तो फिर आपको जवान औरत दिखाई पड़नी नहीं संभव होगी। क्योंकि वह की का जो आकार हैवह आपकी आंखों को पकड़ लेगा। और उसके कारण आप उसी चित्र में उन्हीं रेखाओं में छिपी हुई जवान सूरत को नहीं पकड़ पाएंगे। और जिसको पहले जवान औरत दिखाई पड़ जाए उसे की दिखाई पड़ना मुश्किल हो जाएगी।
लेकिन अगर आप थोड़ी देर देखते ही रहेंतो आंखे भी परिवर्तनशील हैं—इस जगत में कुछ भी थिर नहीं है—अगर आप थोड़ी देर देखते रहेंतो जवान औरत खो जाएगी और की दिखाई पड़ने लगेगी। या पहले आपको की दिखाई पड़ रही थीतो वह खो जाएगी और जवान दिखाई पड़ने लगेगी। लेकिन एक नियम बहुत अदभुत है। दोनों एक साथ नहीं देखी जा सकतीं।
आप दोनों देख सकते हैंलेकिन एक के बाद एक। और आपने दोनों को देख लीं और आपको पता है कि इस चित्र में दोनों छिपी हैंफिर भी आप दोनों को एक साथ नहीं देख सकते हैं। क्योंकि जब आप एक को देखते हैंतो उस एक को देखने के चुनाव में दूसरे की रेखाएं खो जाती हैं। जब आप दूसरे को देखते हैंतो उस चुनाव में पहले की रेखाएं खो जाती हैं। और आपको पता है कि दूसरा रूप भी छिपा है। लेकिन फिर भी दोनों को एक साथ देखने का कोई उपाय नहीं है।
जिस व्यक्ति में आप मित्र को देखते हैंउसमें शत्रु को देखने का कोई उपाय नहीं। हालांकि कल आप उसमें शत्रु देख सकते हैंलेकिन तब मित्र को देखने का कोई उपाय नहीं रह जाएगा। और आप एक ही आदमी में सुबह मित्र और साझ शत्रु देख सकते हैं। और आपको यह बात पता भी चल गई कि इसमें दोनों छिपे हैंलेकिन किसी भी एक क्षण में आप दोनों को एक साथ नहीं देख सकते हैं। सुबह आप पत्नी से लड़ लिए हैंऔर लगा है कि दुश्मन हैजहर है। और सांझ फिर प्रेम वापस लौट आया है। तब आप बिलकुल भूल जाते हैं कि जहर है और दुश्मनतब अमृत हो जाती है। कल सुबह फिर जहर हो जाएगी। दोनों को एक साथ देखना बिलकुल असंभव है।
एक को ही देख पाते हैं। विपरीत को एक साथ देखना असंभव है। परलोक भी इस लोक में ही छिपा है। परमात्मा भी पदार्थ में मौजूद है। कण—कण में उसकी उपस्थिति है। लेकिन जब तक हम पदार्थ से मोहाविष्ट हैंजब तक हमने एक चित्र को पकड़ रखा हैतब तक दूसरा चित्र हमारी आंख में उभरकर नहीं आएगा।
और ऐसा आपके ही साथ हैऐसा नहीं हैज्ञानियों के साथ भी वही तकलीफ है। जब उनको ब्रह्म दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है तो संसार नहीं दिखाई पड़ता। वह दिखाई पड़ ही नहीं सकता। इसलिए वे कहते हैंमाया है। हमें भी दिक्कत होती है। शंकर जब कहते हैं कि संसार माया हैतो हमें लगता है यह सिद्धात की ही बात होगी। क्योंकि शंकर के पैर पर भी हम पत्थर पटक देंतो खून निकलता है। शंकर भी पैर खींच लेंगेपत्थर गिर रहा हो तो। शंकर को भी भूख लगती हैप्यास लगती हैपानी पीना पड़ता है। परमात्मा पीने से काम नहीं चलता। भोजन करना पड़ता है,परमात्मा के खाने से काम नहीं चलता।
तो हमें दिक्कत होती है देखकर कि यह आदमी कहता हैसब झूठ हैतो फिर इस झूठ का उपयोग क्यों कर रहा हैफिर इस झूठ के साथ खड़ा क्यों है? और अगर संसार असत्य हैतो किसको समझा रहा है? वहां कोई है ही नहीं समझने वाला।
हमारी भी तकलीफ है। हमें संसार वास्तविक दिखाई पड़ रहा हैपरमात्मा वास्तविक दिखाई नहीं पड़ रहा है। शंकर की भी तकलीफ है। उन्हें परमात्मा वास्तविक दिखाई पड़ रहा हैसंसार खो गया। जब हम पत्थर पटक रहे हैंतो शंकर को परमात्मा ही गिरता हुआ मालूम पड़ रहा है। लेकिन हमें बड़ी अड़चन है। और जब शंकर पैर को हटा रहे हैं,तो पत्थर से बचने के लिए नहीं हटा रहे हैंपत्थर में जो परमात्मा गिर रहा हैउससे ही बचने को —हटा रहे हैं।
एक बहुत पुरानी बौद्ध कथा है।
एक बौद्ध भिक्षु ने अपने शिष्य को कहा कि सभी जगह एक का ही निवास है। उस युवक को बात जमीतर्क से पकड़ में आई। गुरु प्रभावी था। सम्मोहित था युवक उससे। उसने उसकी बात मान ली।
उसी दिन वह जा रहा था मार्ग से और एक हाथी पागल हो गया। और महावत ने चिल्लाया कि हट जाओ। लेकिन उस युवक ने कहा कि जब एक ही है सबतो पागल हाथी में भी वही ब्रह्म विराजमान है। वह नहीं हटा। हाथी पागल था। पागल हाथी को तत्वज्ञान का कोई भी पता नहीं। पागल हाथी को दर्शनशास्त्र का कोई अध्ययन नहीं। और पागल हाथी को यह भी पता नहीं कि तुम किसी ज्ञानी के शिष्य हो। उसने
उठाया उस आदमी को सूंड मेंऔर उठाकर रास्ते के किनारे फेंक दिया। हड्डी—पसली टूट गई।
पिटा—कुटारोता हुआ वापस गुरु के पास आया। और कहा कि यह तुमने क्या सिखाया मुझेवह तुम्हारे ब्रह्म ने जरा भी मेरी चिंता न की! उसके गुरु ने कहा कि हाथी—ब्रह्म पागल था। लेकिन वह महावत का ब्रह्म चिल्ला रहा थाउसको तुमने क्यों न सुनाकि हट जाओ! और तुमने अपने भीतर के ब्रह्म की आवाज क्यों न सुनीजो कह रहा था कि हट जाओ!
हमें कठिन है। क्योंकि एक जगत जिनको दिखाई पड़ रहा हैउन्हें दूसरे जगत की भाषा को समझना बड़ा कठिन है। और गलत समझने की संभावना हमेशा ज्यादा है।
शंकर के लिए परमात्मा ही गिर रहा है पत्थर मेंऔर परमात्मा ही हट रहा है। चोट लग रही है तो भी परमात्मा को लग रही हैऔर जिससे लग रही है वह भी परमात्मा है। जैसे हमारे लिए सब पदार्थ हैपत्थर पदार्थ है और पैर भी पदार्थ हैपदार्थ-पदार्थ को चोट पहुंचा रहा हैवैसे शंकर को दोनों परमात्मा है। वहा पदार्थ खो गया है। परमात्मा परमात्मा को चोट पहुंचा रहा है। और अगर पदार्थ-पदार्थ को चोट पहुंचा सकता हैतो कोई कारण नहीं है कि परमात्मा-परमात्मा को चोट क्यों न पहुंचा सके!
सारी व्याख्या बदल गइ। सब जगह जहा पदार्थ थावहां परमात्मा हो गया। पदार्थ का नाम खो गया और परमात्मा का नाम शेष रह गया।
अज्ञानी की दिक्कत और ज्ञानी की दिक्कत में बहुत फर्क नहीं है। दिक्कत तो एक ही है। अशानी की आंखे जकड़ी हुई हैं संसार सेउसे परलोक नहीं दिखाई पड़तापरमात्मा नहीं दिखाई पड़ता। शानी की आंखे रुक जाती हैं परलोक परपरमात्मा परउसे संसार दिखाई नहीं पड़ता।
इसलिए संसारी कहता है कि परमात्मा असत्य है। नास्तिक की यही घोषणा है। नास्तिक परम संसारी है। वह ब्रह्मज्ञानी का ठीक विपरीत है। वह कह रहा हैपरमात्मा असत्य हैमाया है।
ब्रह्मज्ञानी ठीक नास्तिक के विपरीत है। वह कह रहा हैसंसार माया हैपरमात्मा सत्य है। और सत्य एक ही हो सकता है। क्योंकि एक ही दिखाई पड़ सकता है।
यह यम ने नचिकेता को कहा— संपत्ति के मोह से मोहित निरंतर प्रमाद करने वाले अज्ञानी को परलोक नहीं दिखता। वह समझता है कि यह प्रत्यक्ष दिखने वाला लोक ही सत्य है। इसके सिवाय दूसरा स्वर्ग— नर्क आदि  'लोक कुछ भी नहीं है। इस प्रकार मानने वाला अभिमानी मनुष्य बार— बार मुझ यमराज के वश में आता है। ऐसा संसार से जो ग्रसित हैवह मृत्यु के हाथों में बार—बार पड़ता है। वह बार—बार मरता हैबार—बार जन्मता है। क्योंकि उसकी सारी पकड़ उस पर हैजो दिखाई पड़ता है।
शरीर दिखाई पड़ता हैआत्मा तो दिखाई नहीं पड़ती। और आत्मा कभी दिखाई पड़ नहीं सकती। क्योंकि आत्मा का अर्थ ही हैदेखने वाली। वह दिखाई पड़ने वाली नहीं हैवह सदा देखने वाली है। उसको दिखाई पड़ता है। लेकिन वह स्वयं दिखाई नहीं पड़ सकती। शरीर देखने वाला नहीं हैवह दिखाई पड़ता है। शरीर ऑब्जेक्ट हैवह वस्तु हैपदार्थ है,विषय है। आत्मा बोध हैशान हैजागरूकता हैचैतन्य है। द्रष्टा को देखने का कोई उपाय नहीं है।
तो हमें शरीर दिखाई पड़ता है। और जो व्यक्ति मानता है कि जो दिखाई पड़ता हैवही सत्य हैप्रत्यक्ष ही आंख के सामने जो है वही सत्य हैतो आंख के पीछे जो हैवह असत्य हो गया। लेकिन आंख बीच में हैध्यान रहे। आंख के बाहर संसार है और आंख के भीतर परमात्मा है। लेकिन जो कहता हैप्रत्यक्ष...। प्रत्यक्ष शब्द का अर्थ है : आंख के सामने। जिसका भरोसा आंख के सामने जो है उस पर हैउसे आंख के पीछे जो छिपा है वह दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा। और ऐसा आदमी सब चीजों पर भरोसा कर लेगाअपने पर ही भरोसा नहीं कर पाएगा!
विज्ञान इसी भूल में पड़ा हैकि जो भी दिखाई पड़ता है वह सत्य है। लेकिन जो नहीं दिखाई पड़ता हैजो भीतर छिपा हैजिसको सब दिखाई पड़ता हैवह असत्य है। बडा मजा है! विज्ञान की पूरी निष्पत्ति यह है कि विज्ञान सत्य है और वैज्ञानिक असत्य! वह जो वैज्ञानिक हैवह असत्य है। यह आश्चर्यजनक है! हमआइंस्टीन जो कहते हैं,उसको मानते हैं। वे जो प्रयोग करते हैंउनको मानते हैं। आइंस्टीन टेबिल पर रखकर जो—जो जांच—पड़ताल कर लेता हैउसको मानता है। लेकिन जो जांच—पड़ताल कर रहा हैवह जो भीतर से बैठकर सारी खोज कर रहा हैउससे धीरे— धीरे संबंध विच्छिन्न हो जाता है। आंखे बाहर जकड़ जाती हैंफिक्स हो जाती हैं। फिक्सेसन की बीमारी है। रुक जाती हैंआदत उनकी बाहर देखने की हो जाती है। और फिर आंख बंद करना भूल जाते है—कि भीतर भी कुछ था।
यम ने नचिकेता को कहा कि जो व्यक्ति पदार्थ कोप्रत्यक्ष को सब कुछ मानता है.। वह जो अप्रत्यक्ष हैछिपा है—गढ़ हैसूक्ष्म है—जो है लेकिन दिखाई नहीं पड़ताक्योंकि वह स्वयं देखने वाला हैइसलिए दिखाई पड़ने का कोई उपाय नहीं है. ऐसा अभिमानी मनुष्य मेरे हाथों में बार—बार पड़ता है।
मरता है केवल नास्तिकआस्तिक मर नहीं सकता। यह सुनकर थोड़ी हैरानी होगी। क्योंकि हम आस्तिक को भी मरते देखते हैं। उसकी भी लाश को मरघट ले जाते हैं। लेकिन आस्तिक मर नहीं सकताक्योंकि आस्तिक उसको जानता है जो देखने वाला है। उसकी कोई मृत्यु नहीं है। आस्तिक का सिर्फ शरीर मरता हैनास्तिक पूरा का पूरा मरता हुआ अनुभव करता है। मर तो वह भी नहीं सकतालेकिन उसे लगता हैशरीर ही सब कुछ हैतो जब शरीर मिटता है तो वह सोचता है—मैं मिटा।
मृत्यु सिर्फ नास्तिक की है। और अगर आपको मृत्यु का डर लगता होतो आप समझना कि आप नास्तिक हैं। आप क्या कहते हैंइससे पता नहीं चलता। आप कितना ही चिल्लाकर कहें कि मैं आस्तिक हूं इससे कुछ नहीं होता। आप कितना ही कहेंमेरा आत्मा में भरोसा हैश्रद्धा है परमात्मा मेंइससे कुछ भी नहीं होता। आप मंदिरों में,मस्जिदों में पूजा और प्रार्थना करेंइससे कुछ भी नहीं होता। मौत अगर डराती हैतो आप नास्तिक हैं। वह ठीक—ठीक पकड वहां है। आस्तिक मौत से नहीं डरेगा। डर का सवाल ही नहीं हैक्योंकि मौत है ही नहीं।
रामकृष्ण मरते थेपत्नी रोने लगी। तो रामकृष्ण ने कहा कि रोना बंद कर। मौत निश्चित थी। चिकित्सकों ने कहा कि कैंसर है और बचने का कोई उपाय नहीं है। और उन दिनों तो कैंसर की कोई चिकित्सा भी न थी। तो रामकृष्ण ने कहातू रो मत। पर शारदाउनकी पत्नी कहने लगी कि मैं विधवा हुई जा रही हूं तुम मुझे छोड़े जा रहे होतुम मिटे जा रहे होऔर मैं रोऊं भी न! तो रामकृष्ण ने कहातू सधवा ही रहेगी। विधवा होने का कोई उपाय नहींक्योंकि मैं मर नहीं सकता हूं। सिर्फ शरीर जा रहा है। अगर शरीर की ही तू पत्नी थीअगर शरीर से ही तेरा नाता थातो ठीकतू रो। लेकिन अगर मुझसे तेरा कोई नाता थातो मैं सिर्फ कपड़े बदल रहा हूं।
भारत में शायद कोई दूसरी स्त्री पति के मरने के बाद सधवा नहीं रहीशारदा रही। और जब स्त्रियां इकट्ठी हुईं और उन्होंने कहा कि चूड़ियां फोड़ डालो और वस्त्र बदल लो विधवा केतो शारदा ने इंकार कर दिया। उसने कहा कि रामकृष्ण कह गए हैं कि वे मरेंगे नहीं। ये चूइड्यां मेरे हाथ पर रहेंगी और मैं सधवा के ही वेश में रहूंगी।
रामकृष्ण ने कहा कि मैं केवल वस्त्र बदल रहा हूं। आस्तिक के लिए मौत वस्त्र का परिवर्तन हैएक पुराने घर सेजो जराजीर्ण हो गया हैएक नए घर में यात्रा है। पुराने कपड़ों को उतारकर नए कपड़ों का पहन लेना है। या सारे कपड़ों को उतारकर बिना कपड़ों के रह जाना है।
लेकिन जो नास्तिक हैवह तो मृत्यु की पकड़ में बार—बार आएगा। मृत्यु के कारण नहींअपने ही कारण। आप मृत्यु से नहीं डर रहे हैंअपनी हो नासमझी के कारण मृत्यु से डर रहे हैं।
तो यम बड़ी महत्वपूर्ण बात कह रहा है। वह कह रहा है कि मेरी पकड़ में केवल नास्तिक ही आ पाते हैं,आस्तिक मेरी पकड़ से छूट जाते हैं। उसे पकड़ने का कोई उपाय नहीं हैक्योंकि आस्तिक की श्रद्धा उसमें है जो मरता ही नहीं। और नास्तिक की श्रद्धा उसमें है जो मरता है।
जो आत्मतत्व बहुतों को तो सुनने के लिए भी नहीं मिलता और जिसको बहुत से लोग सुनकर भी समझ नहीं सकते ऐसे इस गूढ़ आत्मतत्व का वर्णन करने वाला महापुरुष आश्चर्यमय तथा बड़ा दुर्लभ है। उसे प्राप्त करने वाला भी बड़ा कुशल कोई एक ही होता है। और जिसे तत्व की उपलब्धि हो गई ऐसे ज्ञानी महापुरुष के द्वारा शिक्षा प्राप्त किया हुआ आत्मतत्व का ज्ञाता भी आश्चर्यमय है परम दुर्लभ है।
यम कह रहा है कि जो आत्मतत्व बहुतों को सुनने के लिए भी नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि सुनने के लिए नहीं मिलता। लेकिन वे सुन नहीं पाते। बुद्ध के पास से भी गुजरते हैं तो अपने को बचाकर निकल आते है। महावीर की भी उपस्थिति मौजूद हो तो भी उनके कानों तक वाणी नहीं पहुंच पाती है। उनके कानों पर सख्त पर्दे हैं।
जीसस ने बार—बार बाइबिल में कहा है कि जिनके पास आंखे हों वे मुझे देखेंऔर जिनके पास कान हों वे मुझे सुनें। आंखे और कान तो सभी के पास हैं। उनका बार—बार ऐसा दोहराने से ऐसा लगता है कि क्या वे अंधे और बहरों के बीच बोल रहे थे निरंतर—कि जिनके पास आंखे हों वे मुझे देखेंऔर जिनके पास कान हों वे मुझे सुनें?
नहींवह आप ही जैसे आंख—कान वाले लोगों के बीच बोल रहे थे। कोई अंधे—बहरों के समूह में नहीं बोल रहे थे। पर हम सभी का समूह अंधे—बहरों का समूह है।
जीसस को देखना मुश्किल है। एक तो जीसस की देह हैवह तो सभी को दिखाई पड़ती है। और एक जीसस की आत्मा हैवह केवल उनको दिखाई पड़ती है जो परम शांतजो परम शून्यजो परम ध्यान में लीन होकर देखते हैं। उनके लिए जीसस का बाह्य—रूप मिट जाता है। और उनके लिए जीसस का तेजस रूपउनका प्रज्ञा रूपउनका ज्योतिर्मय रूप प्रगट हो जाता है। इसीलिए तो जीसस के संबंध में दोहरे मत होंगे। एक तो अंधों का मत होगाजिन्होंने सूली लगाई। क्योंकि उन्होंने कहासाधारण—सा आदमी और दावा करता है कि ईश्वर का पुत्र है! जहां तक उन्हें दिखाई पड़ रहा थाउनकी बात भी गलत नहीं थी। जो उन्हें दिखाई पड़ रहा थावहां तक उनकी बात बिलकुल सही थी। उनको पता था कि यह जोसफ का बेटा हैमरियम का बेटा है। यह कैसे ईश्वर का पुत्र है! लेकिन जीसस जिसकी बात कर रहे थेवह ईश्वर का पुत्र ही है। और वह कोई जीसस में समाप्त नहीं हो जाता। वह आपके भीतर भी ईश्वर का पुत्र वैसा ही मौजूद है।
एक ईसाई पादरी मुझे मिलने आए थे। वे कहने लगे कि जीसस ईश्वर का इकलौता बेटा है। मैंने उनसे कहा कि सभी ईश्वर के इकलौते बेटे हैं। उन्होंने कहा कि सभी कैसे इकलौते बेटे हो सकते हैं?
जब भी उसका अनुभव होता हैतो हर एक को ऐसा लगेगा कि मैं उसी धारा से आया हूं। वही बेटा होने का अर्थ है। मैं उसी का स्फुल्लिंग हूं। मैं उसी महाज्योति की एक किरण हूं। और जिसको भी ऐसा अनुभव होगावह ऐसा ही अनुभव करेगा कि मैं इकलौता हूं मैं अकेला हूं। क्योंकि अपनी ही प्रतीति होगीदूसरे की कोई प्रतीति नहीं होगीउस क्षण में सब जगत मिट जाएगा। आप अकेले ही रह जाएंगे। आपका परमात्मा और आप। और आप दोनों के बीच का फासला भी गिर जाएगा। वह है महासूर्यतो आप उसकी ही किरण हैं। और आप अकेली किरण होंगे उस अनुभव के क्षण में।
लेकिन यह जीसस का रूप सब को दिखाई नहीं पड़ा। थोड़े—से लोगों को दिखाई पड़ा। और बड़ी हैरानी की बात है कि जिनको दिखाई पड़ावे बेपढ़े—लिखे गंवार लोग थे। पंडितो को दिखाई नहीं पड़ा। पंडितो ने तो सूली लगवाई। पंडित,जो कि ज्ञानी थे! पंडितजो कि शास्त्रों के ज्ञाता थे! पंडितजो कि शास्त्रों की व्याख्या करते थे! पंडितजो पुरोहित थे,मंदिरों के अधिकारी थे! जो बड़ा मंदिर था जेरूसलम मेंउसके महापुरोहित ने भी और महापुरोहित के पुरोहितो की कौंसिल ने भी जीसस को सूली देने की सहमति दी। असल में उन्होंने ही पूरी चेष्टा की कि जीसस को सूली लगा दी जाए।
जिनको जीसस का ज्योतिर्मय रूप दिखाई पड़ावे थे जुलाहेमछुवेग्रामीण किसानभोले— भाले लोगजिन्हें शब्दों का और शास्त्रों का कोई भी पता नहीं था। उनको जीसस पर भरोसा आया। वे देख सके। ऐसा बहुत बार होता है,आपकी बुद्धि पर जितनी ज्ञान की पर्त होउतनी देखने की क्षमता कम हो जाती है। संसार अगर आज अधार्मिक ज्यादा हैतो इसलिए नहीं कि दुनिया में अधार्मिक लोग बढ़ गए हैंपांडित्य बढ़ गया है। और जितना पांडित्य बढ़ जाता हैउतना परमात्मा से संबंध मुश्किल होने लगता है।
यम कह रहा है कि जो आत्मतत्व बहुतों को सुनने के लिए भी नहीं मिलता...।
सुनाई भी पड़े तो भी सुनाई नहीं पड़ता। उनके कान पर भी चोट पड़ जाए तो व्यर्थ हो जाती है।
जिसको बहुत से लोग सुनकर भी समझ नहीं सकते
सुन भी लेते हैंलेकिन सुन लेना और समझ लेना बड़ी अलग—अलग बात है। कुछ लोग सुनने को ही समझना समझ लेते हैं। कुछ ने गीता पढ़ ली हैउन्होंने पढ़ने को ज्ञान समझ लिया है। उन्होंने गीता कंठस्थ भी कर ली होतो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। समझ बड़ी और बात है।
समझ का अर्थ हैअनुभव। समझ का अर्थ हैप्रतीतिजो सुना है उसकी प्रतीति भी हो जाए। जैसा आपने सुना कि गुलाब के फूल में सुगंध है। सुन लियाकंठस्थ कर लिया। और कोई भी पूछे आपकोनींद में उठाकर भी पूछेतो आप कह सकते हैं. कि गुलाब के फूल में सुगंध है। लेकिन कभी वह सुगंध आपके नासापुटों को न छुईकभी वह सुगंध आपके हृदय में प्रवेश न कीकभी उस सुगंध ने आपकी श्वास को सुवासित न कियाकभी उस सुगंध का कोई अनुभव न हुआतो ये शब्द—कि गुलाब के फूल में सुगंध है—ज्ञान तो बन जाएंगेसमझ नहीं बन पाएंगे।
नॉलेज और अंडरस्टैंडिंगज्ञान और समझ। समझ बड़ी और बात है। समझ का अर्थ है कि जो सुना हैउसे अपने अनुभव से पहचान भी लिया हैउसे जी लिया। वह हमारी प्रतीति हो गईहमारा अनुभव हो गयाहमारी अनुभूति बन गई।
ज्ञान छीना जा सकता है। ज्ञान खंडित किया जा सकता है। ज्ञान के विपरीत तर्क दिए जा सकते हैं। समझ को छीनने का कोई उपाय नहीं है। समझ को कोई तर्क खंडित नहीं करता। समझ सब तर्कों के पार उठ जाती है।
आपने आग को छूकर देखा और पाया कि हाथ जल जातेहैं। दुनिया के कितने ही पंडित आपको समझाएं कि आग ठंडी हैऔर तर्क देंआप कहेंगे कि तर्क रखो सम्हालकरक्योंकि मैंने आग को छूकर देखा हैहाथ जल जाते हैं।
आपको आपके अनुभव से कोई भी डिगा नहीं सकता। आपके शान से तो कोई भी डिगा सकता है। ज्ञान की कोई जड़ें नहीं होतीं। जंगलों में पीले रंग की अमरबेल फैल जाती हैज्ञान वैसे ही है। उसमें कोई जड़ें नहीं होतीं। वह दूसरे वृक्षों के सहारे है। और दूसरे वृक्षों का शोषण करने लगती है। उसके अपने कोई प्राण नहीं होते हैं। भूमि से उसका कोई संबंध नहीं होता है। तो जिसको हम पाडित्य कहते हैं वह अमरबेल की तरह है। उसकी कोई जड़ें नहीं हैं। जीवन की भूमि में उसका कोई विस्तार नहीं है। अनुभव में उसका कोई प्रवेश नहीं है।
समझ वैसे है जैसे वृक्ष की जड़ें जमीन में गहरे पहुंच गईं। और जमीन के गहरे में छिपे हुए जलस्रोतो को उन्होंने खोज लिया है। और वृक्ष अपने तईं जी रहा है—दूसरे के आधार पर नहीं।
पंडित सदा दूसरे के आधार पर जीता है। वह कहता हैगीता में ऐसा लिखा हैइसलिए सच है। वह कहता है,कुरान में ऐसा लिखा हैइसलिए सच है। वह कहता हैमुहम्मद ने कहा हैइसलिए सच है। लेकिन उसके पास अपनी कोई संपदा नहीं है।
ज्ञानी कहता हैमैंने जाना हैइसलिए सच है। और अगर मेरे जानने के विपरीत कुरानबाइबिलगीता और वेद जाते होंतो वे ही गलत होंगे। मेरे जानने के गलत होने का कोई उपाय नहीं है। मेरा अपना निजी अनुभव सारे शास्त्रों से श्रेष्ठ है।
इसलिए परम वेद तो भीतर छिपा है। बाहर के वेद पर तो वे ही भरोसा करते हैंजिनको भीतर के वेद का कोई अनुभव नहींकोई पता नहीं। परम गुरु भीतर छिपा है। बाहर के गुरु पर भरोसा तो तभी तक हैजब तक उस परम गुरु के साथ सान्निध्य नहीं बनासत्संग नहीं बना।
बहुत से हैं जो सुनकर भी समझ नहीं पाते। ऐसे इस मूड तत्व का वर्णन करने वाला महापुरुष आश्चर्यमय है तथा बड़ा दुर्लभ है।
यम की यह बात समझ में न आएगी। क्योंकि गुरुओं की कोई कमी नहीं है। समझाने वालों का कोई अभाव नहीं है। सच तो यह है कि शिष्य कम पड़ते हैंगुरु ज्यादा हैं। इसलिए तो गुरुओं में इतना उपद्रव चलता है। एक—दूसरे के शिष्यों की खींचातानी की कोशिश चलती है। और एक गुरु के पास पहुंच जाएं तो वह कहता है कि अब कहीं और मत जाना भूलकर भीनहीं तो भटक जाओगे। क्योंकि शिष्य इतने कम हैं कि बड़ा द्वंद्व है और बड़ी प्रतियोगिता है। जैसे बाजार में ग्राहक कम हों और दुकानें ज्यादा हों। तो हर दुकानदार दूसरे दुकानदार के खिलाफ हो जाएगा।
सब चीजों की कमी हो गई है। शिष्यों की बड़ी कमी है। गुरु काफी संख्या में हैं। सच तो यह है कि शिष्य कोई बनना ही नहीं चाहता। असल में शिष्य बनने की झंझट में कोई नहीं पड़तासीधा गुरु बन जाता है। शिष्य बनने की झंझट है बडी! क्योंकि शिष्य बनने का अर्थ है मिटनाअपने को खोनासमर्पित करनानिवेदित करनाअपने को पोंछना और मिटा देना। तभी तो कोई सीखने में समर्थ हो पाता है।
गुरु बनने में बड़ा मजा है। मिटने का कोई सवाल नहीं हैबल्कि दूसरों को मिटाने का मजा है। गुरु अपने अहंकार को बचा सकता है। और शिष्यों का समर्पण उसके अहंकार में बढ़ती बन सकता है। जितने—जितने शिष्य बढ़ते चले जाएं.. तो गुरु अपने शिष्यों की संख्या याद रखते हैं कि कितने उनके शिष्य हैंकितने लाख तक संख्या पहुंच गई! हर आता हुआ शिष्‍य भोजन है अहंकार के लिए। तो गुरु तो सभी बनना चाहते हैंशिष्य कोई भी नहीं बनना चाहता है। 
लेकिन जो परम शिष्यत्व से नहीं गुजराउसके गुरु बनने का कोई उपाय नहीं है। वह धोखा है। जिसने अपने को मिटाया नहींदूसरों को मिटाने में वह सहायता नहीं पहुंचा सकता है। वह हत्या कर सकता हैसमर्पण नहीं। समर्पण नहीं करवा सकता। वह दूसरों को तोड़ सकता हैशून्य नहीं कर सकता।
इसलिए गुरुओं के पास अक्सर शिष्य अपंग हो जाते हैं। उनके हाथ—पैर कट जाते हैं। उनकी बुद्धिप्रतिभा टूट जाती है। वे जड़बुद्धि हो जाते हैंमंदबुद्धि हो जाते हैं। मूढ़ता गहन हो जाती है। लेकिन कोई परम प्रकाश की तरफ खुलाव नहीं होता।
समर्पण अपंग हो जाने का नाम नहीं हैपंगु हो जाने का नाम नहीं है। लकवा लग जाएइसका नाम समर्पण नहीं है। लेकिन जिस गुरु का अहंकार शेष होवह यही कर सकता है।
गुरु का अर्थ ही है कि जो अब नहीं है। उसके ही सान्निध्य में आपका भी नहीं—होना हो सकता है। अन्यथा नहीं हो सकता।
यम ठीक ही कहते हैं। यम कहते हैं कि बहुत दुर्लभ है वह व्यक्तिजो समझा सके उस सत्य को। दुर्लभ दो कारणों से। एक तो ऐसा व्यक्ति खोजना बहुत मुश्किल हैजो मिट गया हो। और अगर ऐसा व्यक्ति मिल भी जाएतो ऐसे सौ व्यक्तियों में जो मिट गए होंएक ही समर्थ होता है समझाने में कि क्या हुआ। जानीप्रबुद्धपुरुष बहुत होते हैं। बहुतअज्ञानियों की संख्या की तुलना में नहीं। बहुत कम होते हैं उस अर्थ में तो। करोड़ों में कभी एक व्यक्ति प्रबुद्ध हो पाता हैबुद्धत्व को उपलब्ध होता है 1 और सैकड़ों बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्तियों में कभी कोई एक व्यक्ति गुरु हो पाता है। सभी बुद्ध गुरु नहीं होते।
जैनों ने इसकी व्याख्या बड़ी व्यवस्था से की है। सभी केवल—ज्ञानी तीर्थंकर नहीं होते हैं। तीर्थंकर वह है जो गुरु है। केवल—ज्ञान पा लेना एक बात हैलेकिन उसे दूसरे को समझा देना और भी कठिन बात है। क्योंकि शब्दों की पकड़ में नहीं आता सत्य। और जो जाना है भीतरउसे दूसरे को जनानाउसे दूसरे को समझानाउसे दूसरे को भी उसकी प्रत्यभिज्ञा करा देनीबड़ी कुशलता की बात है।
तो जिन्होंने जन्मों—जन्मों गुरु होने का संस्कार संगृहीत किया है—जैनों की भाषा में जिन्होंने तीर्थंकर—बंध,जिन्होंने तीर्थंकर होने का बंध किया हैजन्मों—जन्मों में संस्कार किया है—समझाने की कला जिन्होंने सीखी हैजब वे समझ पाते हैं भीतर के सत्य कोतो उनमें से कोई एक दुर्लभ व्यक्ति उसे प्रकट कर पाता है।
सदियों में कभी कोई एक व्यक्तिउस भीतर के अनुभव को शब्द दे पाता हैरूप दे पाता हैआकार दे पाता है। सदियों में कभी कोई एक व्यक्ति अपने अनुभव को शास्त्र बना पाता है।
कठिन तो है। सुबह का सूरज उगा होपहले तो उसको देखना ही कठिन है। क्योंकि कोई अपनी फैक्टरी जा रहा हैकोई अपने दफ्तर जा रहा हैकोई अपने बच्चों को स्कूल छोड़ने जा रहा है। सुबह के सूरज को एक तो देखना ही कठिन है। और ऐसा भी नहीं है कि आंख में पड़ जाए तो आपने देख लिया। क्योंकि अगर आपका मन कहीं और हैतो सूरज दिख भी जाए उगता हुआतो भी सूरज के उगने का जो सौंदर्य हैवह आपके भीतर नहीं खिल पाता। आप देखते—न देखते हुए से गुजर जाते हैं।
कभी हजारों में कोई एक आदमी रुकता है और सूरज के उगने के सौंदर्य को देखता है। कभी हजारों में एक आदमी के भीतर सूरज के उगने के साथ कोई चीज उगती है और सूरज के उस उगते सौंदर्य का अनुभव करती है। ऐसे हजारों आदमी सूरज के उगने का अनुभव करेंतो उनमें से कोई एक ही उस चित्र का निर्माण कर पाएगा। कोई एक ही चित्रकार होगा। या कोई एक कवि होगाजो सूरज के उगने के सौंदर्य को शब्दों में बांध ले।
लेकिन सूरज का सौंदर्य तो बहुत पार्थिव है। परमात्मा का सौंदर्य तो बहुत अपार्थिव है। उसका तो कोई चित्र बन नहीं सकता। उसकी तो कोई कविता भी निर्मित नहीं हो सकती। उसको तो आकार कैसे दिया जाए! निराकार की जब अनुभूति होती हैतो कभी लाखों अनुभवसिद्ध व्यक्तियों में कोई एक व्यक्ति गुरु हो पाता है।
तो गुरुओं की इतनी बड़ी भीड़ इसीलिए चल पाती है। चलने का कारण है। सदगुरु तो सदियों में कभी एक होता है। यह बड़े मजे की बात है। और जब भी कोई सदगुरु होगातो सभी तथाकथित गुरु उसके विपरीत हो जाएंगे।
जीसस पैदा होंगेतो सभी गुरु विपरीत हो जाएंगे। महावीर पैदा होंगेसभी गुरु विपरीत हो जाएंगे। बुद्ध पैदा होंगेसभी गुरु विपरीत हो जाएंगे। बुद्ध के समय के सभी गुरु बुद्ध के विपरीत होंगे। क्योंकि ऐसा व्यक्ति जो सत्य की खबर ला रहा हैउन सारे लोगों का रोजी— धंधाउपाय छीन लेगाजो उधार जी रहे थे। जब किसी एक गुरु के विपरीत सारे गुरु हो जाएंतो थोड़ा विचार करना।
सारै गुरु और किसी बात में सहमत नहीं होतेआपस में लड़ते हैंलेकिन सदगुरु के विपरीत होते हैं। एक बात में वे सहमत हो जाते हैं। आपस में उनके कितने ही झगड़े होंवे सब झगड़े छोड़ देते हैं। इस संबंध में एकदम राजी हो जाते हैं। क्योंकि यह व्यक्ति सामूहिक रूप से उनकी जड़ें काट देगा।
दुर्लभ हैआश्चर्यमय है वह व्यक्तिजो इस गढ़ आत्मतत्व का वर्णन कर सके। और उसे प्राप्त करने वाला भी कुछ कम कुशल नहीं है।
क्योंकि जितना यह कहना कठिन हैउससे कम कठिन इसे सुनना नहीं है। और जितनी कठिनाई इसको बताने में हैउससे भी ज्यादा कठिनाई इसे सुनकर समझ लेने में है। तो कोई गुरु ही दुर्लभ होता है ऐसा नहींसदगुरु ही कठिन होता है ऐसा नहींसदशिष्य भी उतना ही दुर्लभ है। और जब कभी कोई सदशिष्य और सदगुरु का मिलन होता हैतो वहां अमृत की वर्षा हो जाती है।
इसलिए यम ने कहा कि सचमुच ही हे नचिकेता! हम चाहते हैं कि तुम्हारे जैसे पूछने वाले हमें मिला करें। यह घड़ी नचिकेता के लिए ही परम आनंद की थी ऐसा नहींयह घड़ी यम के लिए भीगुरु के लिए भी परम आनंद की थी। बुद्ध को जब कोई सारिपुत्र मिलता हैया महावीर को जब कोई गौतम मिलता हैया जीसस को जब कोई पीटर और जीन मिलता हैतो एक अमृत की वर्षा हो जाती है।
अल्पज्ञ मनुष्य के द्वारा बतलाए जाने पर और उनके अनुसार बहुत प्रकार से चिंतन किए जाने पर भी यह आत्मतत्व सहज ही समझ में आ जाए ऐसा नहीं है। किसी दूसरे ज्ञानीपुरुष के द्वारा उपदेश न किए जाने पर इस विषय में मनुष्य का प्रवेश नहीं होता क्योंकि यह अत्यंत सूक्ष्म वस्तु से भी अति सूक्ष्म हैइसलिए तर्क से अतीत है।
इस सूत्र में बड़ी गहन बात और बहुत विचारणीय बात छिपी है। यम कह रहा है नचिकेता को कि बिना गुरु के ज्ञान नहीं है। यबड़ी विवादास्पद बात है। बड़ी परंपरा यही कहती है कि बिना गुरु के ज्ञान नहीं है। लेकिन कुछ परंपरा में अनूठे ऐसे व्यक्ति भी हुए हैंजो कहते हैं कि गुरु से ज्ञान हो ही नहीं सकता। बुद्ध उनमें प्रथम हैं। और बुद्ध ने मरते समय भी कहा आनंद को—अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनो। कोई दूसरा तुम्हें शान नहीं दे सकता।
इस सदी में कृष्णमूर्ति निरंतर इस बात की घोषणा करते. रहे हैं कि गुरु ज्ञान में बाधा हैगुरु के द्वारा ज्ञान नहीं हो सकता। पिछले चालीस वर्ष निरंतर वे एक ही सूत्र के आसपास लोगों को समझाते रहे हैं कि गुरु से बचो। और सारी परंपरा—उपनिषद के ऋषि हैंसारे चौरासी सिद्धसंतो की बड़ी परंपरानानक कबीरदादू—सारे जगत में इस बात की घोषणा करते रहे हैं कि गुरु के बिना ज्ञान असंभव है।
और बड़े मजे की बात यह है कि दोनों सही हैं। और जो एक को सही मानेगावह भटक जाएगा। इन दो में से जो एक को सही मानेगावह भटक जाएगायह मैं कहता हूं। क्योंकि ये दोनों एक साथ सही हैं। और इनमें से एक को जिसने सही मानावह भटकेगा। जिसने पकड लिया जोर से कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं हैवह गुरु के पीछे भटक जाएगा। और जिसने यह पकड़ लिया कि गुरु बाधा हैवह भी भटक जाएगा। गुरु को पकडना और गुरु को छोड़नाये दोनों एक ही सूत्र हैं। एक क्षण है जब गुरु को पकड़ना होता हैउसके बिना कोई शुरुआत नहीं होती। और एक क्षण है जब गुरु को छोड़ना होता हैक्योंकि फिर उसके साथ कोई यात्रा नहीं होती। गुरु सीढ़ी की तरह हैजिस पर हमें चढ़ना भी होता और फिर जिसे छोड़ भी देना होता है।
लेकिन कुछ ऐसे हैंजो कहते हैं कि सीडी से ही पहुंचना होगासीढ़ी के बिना पहुंचना नहीं हो सकता। वे ठीक कह रहे हैं। क्योंकि सीढ़ी के बिना आप कैसे ऊपर चढ़कर जाइएगा? लेकिन वे इतना जोर डालते हैं कि सीढ़ी के बिन पहुंचानहीं हो सकता कि सीडी से ऐसा मोह बन जाता हैकि जब आप सीढ़ी के आखिरी चरण पर पहुंच जाते हैं,आखिरी सोपान परतो आप सीढ़ी को छोड़ते नहीं। आप कहते हैंजिस सीढ़ी ने यहां तक पहुंचायाउसको छोड़ने की बात ही गलत है। तो आप सीढ़ी पर ही रह जाते हैं। और सीढ़ी पर रह जाना कोई उपलब्धि नहीं है। सीढ़ी को जैसा पहले सोपान पर पकड़ा थावैसा आखिरी सोपान पर छोड़ना पड़ेगा।
लेकिन कुछ हैंजो कहते हैं कि जब सीडी को छोड़ना ही पड़ेगा तो पकड़े ही क्यों? वे नीचे ही खड़े रह जाते हैं।
सीडी पकड़नी भी पड़ती है और छोड़नी भी पड़ती है। गुरु के पास भी आना होता है और गुरु से दूर भी हटना होता है। और सदगुरु वही हैजो उसी समय तक पास रखेजब तक सीढ़ी पर यात्रा है। और इसके पहले कि सीढ़ी को पकड़ने का मोह बनने लगेसीढ़ी को तोड़ देहटा दे बीच के सेतु को।
बुद्ध ने आनंद को कहा था कि तू अपना दीया बेन। यह आनंद को कहा था। आनंदजो कि सीडी के आखिरी सोपान पर खड़ा था। इस बात को बिलकुल भुला दिया गया है। क्योंकि बुद्ध के मरने के एक दिन बाद ही आनंद परमज्ञान को उपलब्ध हुआठीक दूसरे दिन। आखिरी सीढ़ी पर खड़ा था। और वह सीढ़ी ही बाधा हो रही थी अब। तो आनंद बुद्ध से कहता है कि आपके रहते—रहते मैं मुक्त न हो पायाऔर अब आप मुझे छोड्कर जा रहे हैंमेरा क्‍या होगातो बुद्ध कहते हैंशायद मेरे कारण ही तू मुक्त नहीं हो पा रहा है। अब मेरा हट जाना ही ठीक है। वह दूसरे दिन ही मुक्त हो गया!
महावीर के परम शिष्य गौतम के साथ भी ऐसा ही घटा। महावीर के जीते—जी गौतम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए। क्यौंकि गुरु को एक तो पकड़ना मुश्किल है। और पकड़कर छोडना और भी मुश्किल है। पकड़ना ही मुश्किल है पहले तो। क्योंकि पकड़ने का मतलब हैअहंकार का त्याग। बड़ा कठिन हैपीड़ादायी है। अहंकार हजार उपाय खोजता है गुरु से बचने के।
कृष्णमूर्ति के पास सुनने वालों में अधिक संख्या ऐसे अंहकारियों की हैजो गुरु से बचने के लिए कोई रेशनलाइजेशनकोई तर्क चाहते थे। उनको कृष्णमूर्ति से बड़ी तृप्ति मिली। वे सीढ़ी से बचना ही चाहते थेक्योंकि सीढ़ी पर अपने को तोड़ना पड़ता था। कृष्णमूर्ति को सुनकर उन्हें बड़ा भरोसा आयाकि ठीक हैगुरु की कोई जरूरत नहीं है,हम काफी हैं। हम ही पहुंच जाएंगे। कृष्णमूर्ति के कारणएक सच्ची बात के कारण भी—जो यम ने कहा है कि अज्ञानी बडा उपद्रव खड़ा करता है —एक सच्ची बात के कारण भी हजारों लोगों को हानि हुई है।
लेकिन कोई कृष्णमूर्ति के कारण ऐसा हुआ हैऐसा नहीं है। नानककबीर और दादू जिन्होंने कहा—गुरु बिन शान नहींउनके कारण भी करोड़ों लोगों की हानि हुई है। पर उनके कारण नहींवे हानि लेने वाले लोग हानि पैदा कर ही लेते हैं। तुम कुछ भी करो।
तो उन्होंने गुरुओं को पकड लिया। उन्होंने कहाअब हमें कुछ करने की जरूरत नहीं है। जब गुरु बिन ज्ञान नहीं हैतो गुरु के चरण पकड़ लिए। वे गुरु के चरणों में जंजीर होकर पड़ रहे। फिर उन्होंने गुरु को ऐसा कसकर पकड़ लिया कि जैसे गुरु ही अंत है।
गुरु अंत नहीं हैसिर्फ मार्ग हैसिर्फ इशारा है। जैसे मैं अपनी अंगुली दिखाऊं चांद की तरफ कि वह रहा चांद,और आप मेरी अंगुली पकड़ लें। अंगुली चांद नहीं है। और जो अंगुली को पकड लिया वह चांद तक कभी भी नहीं पहुंच पाया। वह इस अंगुली को पकड़ने में उलझा रहेगा। अंगुली तो भूल जाओ। इशारा तो हट जाने दो। चांद पर आंख चली जाएइतना अंगुली का काम था। इसके बाद अंगुली बीच में न आए। तो लोग गुरु को पकड़कर अटके हुए हैं।
मेरे पास एक मित्र कई वर्षों से आते हैं—वे मेहरबाबा के परम भक्त हैं। कोई तीस साल से मेहरबाबा को उन्होंने सब समर्पण किया हुआ है। बसउसके बाद उन्होंने फिर कुछ नहीं किया। वे मुझसे कहते कि कुछ करने का सवाल ही नहीं है। अब जब बाबा की इच्छा होगी?. जो उनकी मर्जी।
यह बात तो बड़ी अच्छी है। लेकिन वे मित्र शराब पीना जारी रखेबेईमानी करना जारी रखे! सब जैसी जिंदगी थीउसको उन्होंने वैसे ही जारी रखा। और उसको छिपाने के लिए बहाना मिल गया कि अब बाबा की मर्जी! जब गुरु पर सब छोड़ ही दिया! छोड़ा कुछ नहींसिर्फ इतनी बात कि गुरु को सब छोड दिया और यह बहाना बन गयायह ओट बन गई। अब जो भी करना हैवह जारी रखा उन्होंने। उसमें कोई रत्तीभर फर्क नहीं किया। जीवन कहीं बदला नहीं। क्योंकि गुरु पर अगर सब छोड़ दियातो जीवन पूरा का पूरा बदल जाएगा। बदल ही जाना चाहिए। जीवन तो वैसा ही रहाजैसा तब था जब अहंकार के साथ जुड़े थेउसमें रत्तीभर फर्क न पड़ातो अहंकार तो गया नहीं।
निरअंहकारी ने कभी शराब पी ही नहीं है। पी नहीं सकता। क्योंकि अहंकार को भुलाने के लिए ही शराब पीनी पड़ती है। निरअंहकारी के पास भुलाने को कुछ नहीं बचतातो शराब का क्या सवाल हैनिरअंहकारी ने कभी क्रोध नहीं किया है। क्योंकि अहंकार को चोट लगती हैतो ही क्रोध होता है।
तो मैं उन मित्र को कहता कि तुम क्रोध भी करते होशराब भी पीते होचोरीबेईमानीधोखासब करते हो,जैसे तुम थे वैसे ही हो! वे कहतेसब गुरु पर छोड़ दियाअब जो उनकी मर्जी!
तो गुरु पर छोड़ने वाले लोग भी हैं। गुरु से बचने वाले लोग भी हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं गुरु को पकड़ना भीऔर छोड़ना भी स्मरण रखना है। एक रास्ते के प्राथमिक चरण पर गुरु बहुत बड़ा सहारा है। और अंतिम घड़ी में बड़ी बाधा है। पहले चरण पर बड़ा अनिवार्य है।
वही यम कह रहा है— दूसरे ज्ञानीपुरुष के द्वारा उपदेश न किए जाने पर इस विषय में मनुष्य का प्रवेश नहीं होता
इसे ध्यान रखना। वह भी नहीं कह रहा है इससे ज्यादाप्रवेश नहीं होता। इनीशिएशन दूसरे ज्ञानीपुरुष के बिना नहीं होता। लेकिन अंत हमेशा स्वयं अकेले में होता हैकिसी के साथ नहीं होता।
प्राथमिक चरण पर जो पहला धक्का हैजो पहली स्फुरणा हैएक बुझे दीए के पास जले हुए दीए का आना है,और एक लपटएक लौ की लपट और बुझे दीए का जल जाना है। फिर पहले दीए की—जिससे दीक्षा हुई—कोई जरूरत नहीं है। अब दीया अपनी ताकत से जलेगा। दीया जल उठाअब अपनी रोशनी चलेगी। अब अपनी यात्रा शुरू हो गई।
जब तक शिष्य का दीया नहीं जल जातातब तक गुरु जरूरी है। और जैसे ही दीया जल जाता हैवैसे ही गुरु बिलकुल गैरजरूरी है।
इसे हम ऐसा समझे—कि कोई भी व्यक्ति अपने को जन्म नहीं दे सकताउसके लिए मां जरूरी है। लेकिन कोई भी व्यक्ति सदा गर्भ में नहीं रह सकता। एक आदमी तय कर ले कि अब जब मां ने ही जन्म दिया हैतो गर्भ में ही रहेंगे! तो फिर मां भी मरेगी और वह खुद भी मरेगा।
लेकिन नौ महीने तक इनीशिएशननौ महीने तक दीक्षा चल रही है। नौ महीने तक मां के दीए से बेटे का दीया जल रहा है। नौ महीने तक मां की श्वास बेटे की श्वास बन रही है। नौ महीने तक मां का खून बेटे का खून बन रहा है। नौ महीने तक बेटा अलग नहीं है। वह मां की ही धड़कन है। लेकिन जैसे ही वह तैयार हो जाएगाउसका दीया जलने के योग्य हो जाएगातेल जुट जाएगाबाती आ जाएगीजैसे ही पक्का हो जाएगा कि यंत्र पूरा हो गया और अब बेटा खुद अपने फेफड़े से श्वास ले सकता हैवैसे ही बेटे को गर्भ के बाहर आ जाना होगा।
लेकिन मां भी बेटे को गर्भ में ही रखना चाहती हैनासमझी के कारणऔर बेटा भी गर्भ में रहना चाहता है। इसीलिए प्रसव में इतनी पीड़ा होती है। नहीं तो प्रसव में पीड़ा नहीं होनी चाहिए। प्रसव में पीड़ा का कोई भी कारण नहीं है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रसव की घटना इतने आनंद की घटना हो सकती है—जितनी पीड़ा की हैउतने ही आनंद की। और फ्रांस में कुछ प्रयोग हुए हैंकाफी बड़ी मात्रा मेंजिनसे सिद्ध होता है कि प्रसव से दुख तो बिलकुल जा सकता है। तरकीब बड़ी आसान है : मां की राजी होना चाहिए कि बच्चा बाहर जाए। वह उसे रोकती हैसिकोड़ती है। वह अपने पूरे यंत्र को खींचती है। उस खींचने और प्रकृति के धक्के में—कि बेटे को बाहर तो जाना पड़ेगा...। और बेटा भी रुकना चाहता हैक्योंकि गर्भ बडा शांतिदायी हैमोक्ष जैसा है। कोई चिंता नहींकोई काम नहीं,, कोई कर्तव्य नहीं,कोई जिम्मेदारी नहींकोई पीड़ाकोई दुखकोई असुविधा नहीं।
इतना वितान विकसित हुआ हैफिर भी गर्भ जैसा कंफर्टेबलसुविधापूर्ण हम कोई स्थान बना नहीं पाए। गर्भ में बेटा ठीक वैसा ही हैजैसे विष्णु क्षीरसागर में होंगे। उससे जरा भी फर्क नहीं है। और ऐसे भी गर्भ में जिस जल में बेटा होता हैउसमें उतना हो नमक होता है जितना सागर के पानी में। ठीक सागर का पानी ही होता है गर्भ मेंउसी अनुपात के केमिकल्स होते हैं उसमें।
वैज्ञानिक कहते हैंचूंकि आदमी का पहला जन्म मछली की तरह हुआइसलिए अब भी जब वह पहला जन्म लेता है तो उसे मछली की ही पूरी व्यवस्था चाहिए। इसलिए गर्भ में पूरा सागर का वातावरण होता है। इसलिए स्त्रियां मिट्टी खाने लगती हैंनमक खाने लगती हैं। नमक की कमी पड जाती है शरीर में सारा नमक गर्भ खींच लेता है। क्योंकि गर्भ में ठीक सागर के जल की स्थिति होनी चाहिए। उसमें तैरता है बच्चा। वह क्षीरसागर में ही है।
लेकिन नौ महीने के बीच वह तैयार हो जाएगा। उससे जल्दी भी अगर बाहर निकल आएतो भी खतरनाक है। क्योंकि अधूरा होगाऔर आधा मरा हुआ जीएगा। असमय में पैदा हो जाएतो भी घातक है। वह ठीक नौ महीने पूरे करे।
बच्चा भी भीतर रहना चाहता है। इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चा जब पैदा होता है तो जीवन का सबसे बड़ा दुखउसको वे ट्रॉमा कहते हैंवह घटित होता है। बच्चे को इतना बड़ा शॉक लगता है—कि जिंदगी इतनी सुखद थी और वहां से एकदम दुख में आ जाता है। खुद श्वास लेना पहला काम उसका होता हैजो कि काफी कष्टपूर्ण है। जिसने कभी श्वास न ली होउसे पहली श्वास लेना! और जिंदगी में अधूराअलग छूट जाता है—असहाय।
तो बच्चा भी भीतर रुकना चाहता है और मां भी भीतर रोकना चाहती हैऔर पूरी प्रकृति बाहर ठेलती है। इसलिए दुख होता हैइसलिए पीड़ा होती है, —प्रसव की पीडा होती है।
सम्मोहन करने वाले वैज्ञानिकों ने हजारों स्त्रियों को सम्मोहित करके यह समझाया कि प्रसव में कोई पीडा नहीं हैयह बड़ा आनंद का कृत्य है। लेकिन तुम बच्चे को जाने दोछोड़ दोरिलैक्सविश्राम की अवस्था में बच्चे को बाहर जाने दोउसे रोको मतसिकोड़ो मतअपने को खोलो—और बच्चा जाए—तो पीड़ा नहीं हुई।
फ्रांस में एक अलग विधि ही विकसित हो गईऔर लाखों स्त्रियां बिना पीड़ा के बच्चों को जन्म दे रही हैं। कोई पीडा नहीं।
और अभी नई जो खोज हैवह यह है कि यह तो पहला कदम है। जब ठीक से यह कदम आगे बढ़ जाएगातो स्त्री को बच्चा पैदा करने में जैसे आनंद का अनुभव हो सकता हैवैसा उसे किसी चीज में कभी भी नहीं हो सकता। क्योंकि इतने बड़े सृजन की घटना हैऔर नौ महीने का बोझ और नौ महीने का तनाव जब एक क्षण में मुक्त होगा,तो जो हलकापन और जो शाति तूफान के बाद भीतर आ जाएगी!
लेकिन स्त्री उससे वंचित है। और ऐसा नहीं है कि मां गर्भ में ही बच्चे को रोकना चाहती हैबाद में भी पूरी कोशिश करती है। जब तक बहू घर में न आ जाएतब तक वह कोशिश...।
और इसलिए सास और बहू में जो कलह हैवह गर्भ से शुरू हो गई। यह बहू लड़के को पूरा स्वतंत्र करने की कोशिश कर रही है। गर्भ से जो घटना शुरू हुई थी प्रसव मेंयह बहू उसको पूरा कर रही है। यह उसको मां से पूरी तरह मुक्त कर रही है और मां की तरफ से सारा ध्यान अपने पर केंद्रित कर रही है। इसलिए सास और बहू में दुश्मनी को कम करना मुश्किल हैवह गर्भ से ही उपद्रव शुरू हो गया है। अगर कोई मां बच्चे को जन्म दे सके सहजता से,आनंद सेतो बहू से संघर्ष उसका पैदा नहीं होगा। क्योंकि वह खुश होगी कि बच्चा जितना मुक्त होता जाएजितना स्वतंत्र होता जाए..।
साधारण अज्ञानी मां की तरह गुरुओं की भी जमात है। वे ठीक गुरु नहीं हैं जो शिष्य को रोक लेना चाहते हैं। वे साधारण माताओं की तरह हैं। तो शिष्य का जाना दुखपूर्ण होता है—उनको भी और शिष्य को भी—और वे सब तरह के कष्ट खड़े करते हैं। सब तरह के भयप्रलोभन खड़े करते हैं।
सच उनको कोई ज्ञान नहीं हुआ। अगर ज्ञान होतो गुरु का यह पहला काम है कि जैसे ही गर्भ के दिन पूरे हो जाएं और जैसे ही बच्चा राजी हो जाए—शिष्य राजी हो जाए अपनी यात्रा पर—तो वह बुद्ध की तरह कह दे : अप्प दीपो भव। तू अपना दीया अब हो जा। अब तू जा अपनी यात्रा पर। अब तू मुझे छोड़ देमुझे भूल जा। अब जैसे मैं था ही नहीं।
ठीक मां और ठीक गुरु गर्भ के बाद व्यक्ति को पूरी तरह स्वतंत्र करने की कोशिश में लग जाएंगे। गुरु के गर्भ में जाना जरूरी है। शिष्य होने का अर्थ हैगुरु के गर्भ में प्रवेश। यह कोई शरीर में प्रवेश नहीं हैलेकिन गुरु की चेतना के दायरे में प्रवेश है। और जब यह गर्भ पूरा हो जाए तो इस गर्भ के बाहर जाने का साहस।
हे प्रियतम! जिसको तुमने पाया है यह बुद्धि तर्क से नहीं मिल सकती। यह तो दूसरे के द्वारा कही हुई ही आत्मज्ञान में निमित्त होती है। सचमुच ही तुम धैर्य वाले हो उत्तम धैर्य वाले हो। हे नचिकेता। हम चाहते हैं कि तुम्हारे जैसे ही पूछने वाले हमें मिला करें।
यह जो श्रद्धा है नचिकेता कीयह श्रद्धा तर्क से उपलब्ध नहीं होती। यह कोई कितना ही विचार करेकितना ही सोचेसोचने और विचार करने से सरल नहीं होता। सोचने और विचार करने से चालाक होता हैहोशियार होता है,सरल नहीं होता। सरल तो कोई तभी होता है जब सोचने—विचारने से थक जाता है और समझ लेता है कि सोचने—विचारने से सिवाय विक्षिप्तता के और कुछ हाथ नहीं आता। और सारे सोचने—विचारने को उतारकर रख देता है। उस दिन कोई सरल होता है और श्रद्धा पैदा होती है।
और ध्यान रहेअगर जगत को जानना हो तो तर्क जरूरी है। पदार्थ की खोज तर्क से होती है। और अगर परमात्मा को जानना है तो खोज श्रद्धा से होती है। ये यात्राएं विपरीत हैं। पदार्थ को जानना हो तो बाहर जाना पड़ता है। और बाहर जाने के लिए जितना विचार होउतना उपयोगी है। स्वयं को जानना हो तो भीतर जाना होता हैयात्रा बदल जाती है। और भीतर जाने के लिए जितना तर्क छूटता चला जाए उतना उपयोगी है। भीतर तो सरलता ले जाएगी,बाहर जटिलता ले जाएगी।
इसलिए वैज्ञानिक का चिंतन बहुत जटिल हो जाता है। और जितनी विज्ञान की शिक्षा बढ़ती जाती हैउतनी ही लोगों के चित्त की शाति समाप्त होती चली जाती हैऔर उनके आत्मा से संबंध विच्छिन्न होते चले जाते हैं।
यम ने कहा कि हे प्रियतम! तुमने जो पाया हैयह बुद्धि तर्क से नहीं मिल सकती। लेकिन बुद्धि भी एक काम कर सकती हैवह ज्ञानी के द्वारा कहे हुए वचनों को समझने में निमित्त हो सकती है। बसइतना ही उसका उपयोग हो सकता है। और जैसे ही समझ आ जाएउसे हटा देना जरूरी है।
मैं जानता हूं कि कर्मफलरूप निधि अनित्य है क्योंकि अनित्य विनाशशील वस्तुओं से वह नित्य परमात्मा नहीं मिल सकता इसलिए मेरे द्वारा कर्तव्यबुद्धि से अनित्य पदार्थों के द्वारा नाचिकेत नामक अग्नि का चयन किया गया अनित्य भोगों की प्राप्ति के लिए नहीं। अत: उस निष्कामभाव की अपूर्व शक्ति से मैं नित्य परमात्मा को प्राप्त हो गया हूं।
यम ने कहा कि मैं परमात्मा को प्राप्त हो गया हूं। एक विशेष अग्नि की प्रक्रिया सेएक विशेष अग्नि में जलकर मैं परमात्मा को प्राप्त हो गया हूं। इस अग्नि को नचिकेता के स्मरण में उसने नाचिकेत अग्नि नाम दिया है।
इस अग्नि के संबंध में दो—तीन बातें समझ लेनी चाहिए।
पहली बातजैसा यम ने कहाकि यह अग्नि हृदय की गुफा में छिपी हैयह आपके भीतर है। सच तो यह है कि उसी अग्नि के कारण आप जी रहे हैं। इसलिए अगर आपके शरीर का तापमान नीचे गिर जाए अट्ठान्नबे डिग्री से,तो मौत करीब आने लगती है। एक सौ दस डिग्री के पास पहुंचने लगेतो मौत करीब आने लगती है। अट्ठानबे और एक सौ दस—बारह डिग्री के भीतर आपका तापमान बना रहेतो ही आप शरीर में रह सकते हैंअन्यथा आपका शरीर से संबंध छूट जाएगा।
आपके हृदय में जो अग्नि जल रही हैउसकी एक खास मात्रा इस शरीर को मिल रही है। उस खास मात्रा में ही यह शरीर जी रहा हैजीवंत है। जरा ही ठंडी हो जाए अग्निआप शरीर से टूटने लगे। जरा ज्यादा हो जाएतो भी टूटने लगे। यह अग्नि आपके भीतर है।
इस अग्नि का अभी आप एक ही उपयोग जानते हैंशरीर में जीना। इस अग्नि का एक और उपयोग भी हैइस शरीर के पार उठना। यह अग्नि ऊर्जा है। इस ऊर्जा का वाहन बन सकता है और इससे बाहर जाया जा सकता है। यह अग्नि जैसा शरीर में लाती हैऐसा ही शरीर के भीतर भी ले जा सकती है।
एक बात सदा स्मरण रखेंजिस रास्ते से आप आते हैंउसी रास्ते से वापस लौटना पड़ता है। रास्ता वही होता हैसिर्फ दिशा बदल जाती है। यह अग्नि अभी शरीर की तरफ बह रही है। इस अग्नि को शरीर से आत्मा की तरफ बहाने की कला सीखनी पड़ती है।
नाचिकेत अग्नि का पहला सूत्र है कि अग्नि की धारा बदलनी है। अभी यह धारा बाहर की तरफ और नीचे की तरफ है। यह धारा ऊपर की तरफ और भीतर की तरफ होनी चाहिएपहली बात।
दूसरी बातइस अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए आपको श्वास लेनी पड़ रही है। इससे विज्ञान भी राजी है,क्योंकि ऑक्सीडायजेशन के बिना आप जी नहीं सकते।
एक दीया जलता है। दीया जलकर क्या कर रहा हैअग्नि है क्याजब एक दीया जल रहा हैतो दीया नहीं जल रहाआसपास हवा में जो ऑक्सीजन हैअक्षजन है वह जल रही है। तूफान आ जाए आप डर जाएं कि कहीं दीया बुझ न जाए तो आप एक बर्तन दीए के ऊपर ढांक देंबचाने के लिए। हो सकता था तूफान दीए को न बुझा पाता,लेकिन आपका ढंका हुआ बर्तन बहुत जल्दी बुझा देगा। क्योंकि ढंके हुए बर्तन के भीतर की थोड़ी—सी जो ऑक्सीजन है,उसके जल जाने के बाद दीया नहीं जल सकता। दीया बुझ जाएगा।
आपको चौबीस घंटे श्वास लेनी पड़ रही है। एक क्षण भी श्वास रुक जाए कि आप समाप्त हुए। क्योंकि श्वास ऑक्सीजन को भीतर ले जाकर अग्नि को प्रज्वलित कर रही है। आपके जीवन में उतनी ही गति होगी जितनी गहरी आपकी श्वास होगी। आप उतने ही जीवंत और स्वस्थ होंगेजितनी गहरी श्वास होगी। जितनी उथली श्वास होगी,आपका जीवन मुर्दा —मुर्दा हो जाएगा। क्योंकि अग्नि कम जल रही है।
और हम सब बहुत उथली श्वास ले रहे हैं। कुछ कारण हैंजिनके कारण हम उथली श्वास ले रहे हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि जब तक मनुष्य को गहरी श्वास लेना न सिखाया जाए—योग तो बहुत सदियों से कह रहा है —तब तक आदमी पूरी तरह जी ही नहीं पाता। और जो पूरी तरह जी नहीं पाताउसके पास इतनी ऊर्जा होती ही नहीं कि भीतर की तरफ जा सके।
इसलिए योग ने प्राणायाम की कलाएं खोजीं। प्राणायाम की कलाएं भीतर की अग्नि को ज्यादा प्रज्वलित करने की हैंताकि अतिरिक्त अग्नि भीतर होजिसको हम अंतर्यात्रा में उपयोग कर सकें। वह स्थूल हैईंधन है। पेट्रोल डाल देते हैं गाड़ी मेंवह चलती है। पेट्रोल छिपी हुई आग है।
आप भी बिना आग के नहीं जी सकते। सारा जीवन आग से जी रहा है। ये वृक्ष हवा से ऑक्सीजन ले रहे हैं और जी रहे हैं। पशु—पक्षी ऑक्सीजन ले रहे हैं और जी रहे हैं। सारा जीवन आग है। इस आग की गति और मात्रा उतनी ही होगीजितनी गहरी आपकी श्वास होगी।
लेकिन आदमी..बच्चे सिर्फ गहरी श्वास लेते हैं। बच्चे को सोता हुआ देखेंतो उसका पेट ऊपर उठता है और नीचे गिरता है। उसकी श्वास ठीक नाभि तक जाती है।
एक बड़े आदमी को सोया हुआ देखेंउसका सीना ऊपर उठता है और गिरता हैउसकी श्वास नाभि तक नहीं जाती। बस ऊपर—ऊपर चली जाती है। और उसके फेफड़ों में कोई तीन हजार छिद्र हैंजिनमें कोई पाच सौसात सौ छिद्रों तक ऑक्सीजन पहुंचती है। बाकी ढाई हजार छिद्रों में कार्बन डाइ ऑक्साइड भरी रह जाती है। वह मृत्यु का लक्षण है। वह मरी हुई गैस हैजिसमें कोई आग नहीं रह गई। हमारे जीवन की हजारों बीमारियां उस मरी हुई गैस के कारण पैदा होती हैं। गहरी श्वास अग्नि को प्रज्वलित करती है।
तो दूसरा सूत्र समझ लें। नाचिकेत अग्नि को प्रज्वलित करना होतो जितनी गहरी श्वास हो उतना उपयोगी है। उतने आप भभककर जीएंगे। इसलिए हम ध्यान के इस पहले चरण में दस मिनट तक गहरी से गहरी श्वास की कोशिश करते हैं। इस कोशिश में आपकी अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। इस प्रज्वलित अग्नि को फिर भीतर ले जाया जा सकता है। नहीं तो आपके पास शक्ति ही नहीं होती कि जो आप भीतर जा सकें।
तीसरी बातयह जो अग्नि है भीतरयह साधारणतया बाहर की तरफ बह रही हैशरीर की तरफ बह रही है। इसे भीतर की तरफ मोड़ना है। इसको भीतर की तरफ मोड़ने में दो बाधाएं हैं। एक तो आपने जो—जो दमित किया है,सप्रेस किया हैवह पत्थरों की तरह बीच में पड़ा हैउसकी वजह से धारा पीछे नहीं जा सकती। वे पत्थर हटने जरूरी हैं। वे बीच की बाधाएं हटनी जरूरी हैं। अन्यथा उनसे टकराकर फिर बाहर आ जाती है।
इसलिए दूसरा चरण है ध्यान काजिसमें आपको अपने मन के समस्त दबे वेग बाहर फेंक देने हैं पूरे निःसंकोच भाव से। सारी बुद्धिमत्ता छोड्करसब जो दबा हुआ है बाहर फेंक देना है। रोए नहीं जिंदगी सेकितनी बार रोने को दबा लिया हैवह पत्थर की तरह पड़ा हुआ है। वह हटता नहीं है। और जब तक आप रो न लेंगे भरपूरतब तक वह बाधा हटेगी नहीं।
जिंदगी हो गई खिलखिलाकर हंसे नहींक्योंकि सभ्यता खिलखिलाकर हंसने नहीं देती। जब आप पूरा खिलखिलाकर हंस लेंगेअचानक पाएंगे कि भीतर कोई अड़चन थीवह टूटकर बिखर गई। नाचे नहींकूदे नहींक्योंकि बचपन से ही हम बच्चों को कह रहे हैं—शांत बैठो। उसकी वजह से इतनी अशांति है दुनिया में। बच्चा अगर बचपन से ही नाच लेकूद लेआनंदित होतो इतनी अशांति न हो।
लेकिन बच्चे को हम कह रहे हैंबैठो शांत। वह बैठ तो गया हैलेकिन भीतर अशांति चल रही हैक्योंकि बच्चा अभी सजीव है। मरने पर लोग शांत बैठते हैंवह अभी जिंदा है। अभी जिंदगी आई है। अभी जिंदगी नाचना चाहती है,कूदना चाहती हैहिरनों की तरह उछलना चाहती है। उसको हमने कह दियाशांत बैठो! वह बैठा है शांतलेकिन भीतर ऊर्जा कंपित हो रही है।
वह कंपित ऊर्जा रुक जाएगी। जड़ हो जाएगी। उसके पत्थर बन जाएंगे। वह पड़ी है मार्ग में। आप जब तक फिर से अपने बचपन को नहीं पा लेते...। जिस दिन आपके बाप ने आपको कहा था—शांत बैठोउस दिन आपको वापस लौटना पड़ेगा। और उस पत्थर को तोड़ना पड़ेगा। उस पत्थर के टूटते ही आपका बचपन फिर से लौट आएगा। ऊर्जा सघन होगीतेज होगी।
इसलिए दूसरा चरण हैवह बाधाएं हटाने के लिए।
और तीसरा चरण है चोट मारने के लिएताकि ऊर्जा भीतर की तरफ और ऊपर की तरफ बहने लगे। ध्यान रहे,पानी नीचे की तरफ बहता है। वह स्वभाव है। पानी को ऊपर ले जाना होतो पंप करना पड़ता है। उसे धक्के देने पड़ते हैं ऊपर की तरफतब वह ऊपर की तरफ जाता है। आपकी ऊर्जा भी सहज नीचे की तरफ बह रही है। यह हुंकारयह हू—हू कों आवाजयह सिर्फ आवाज नहीं है। जब आप हू कहते हैंतो आपकी नाभि के नीचे जोर से चोट पड़ती है। वह जगह वही है जहा से काम—ऊर्जा पैदा होती है। जहां से ऊर्जा नीचे की तरफ बहती है।
यह हू की चोट—बाधाओं के हट जाने परअग्नि के जल जाने पर—ऊर्जा को कुंडलिनी के मार्ग सेआपकी रीढ़ के मार्ग से ऊपर की तरफ गतिमान कर देती है। जितने जोर से यह चोट होगीउतनी ही ऊर्जाआग आपकी नाभि से उठकरआपके कामकेंद्र से उठकरएक सर्प की तरह फन फैलाकर रीढ़ से ऊपर उठनी शुरू हो जाएगी। उसको ही योग ने कुंडलिनी कहा है।
और जिस दिन यह ऊर्जा आपके अंतिम चक्र सहस्रार में पहुंचती हैतो जीवन का कमल खिल जाता है। नाचिकेत अग्नि के ये सूत्र हैं।
हे नचिकेता! जिसमें सब प्रकार के भोग मिल सकते हैं जो जगत का आधार यज्ञ का चिरस्थायी फल निर्भयता की अवधि और स्तुति करने योग्य एवं महत्वपूर्ण है तथा वेदों में जिसके गुण नाना प्रकार से गाए गए हैं और जो दीर्घकाल तक की स्थिति से संपन्‍न हैऐसे स्वर्गलोक को देखकर भी तुमने धैर्यपूर्वक उसका त्याग कर दिया इसलिए मैं समझता हूं कि तुम बुद्धिमान हो।
जो योगमाया के पर्दे में छिपा हुआ सर्वव्यापी सत्य हृदयरूप गुहा में स्थित संसाररूप गहन वन में रहने वाला सनातन है ऐसे उस कठिनता से देखे जाने वाले परमात्मदेव को शुद्ध बुद्धियुक्त साधक अध्यात्मयोग की प्राप्ति के द्वारा समझकर हर्ष और शोक को त्याग कर देता है।
मनुष्य जब इस धर्ममय उपदेश को सुनकर भलीभांति ग्रहण करके और उस पर विवेकपूर्वक विचार करके इस सूक्ष्म आत्मतत्व को जानकर अनुभव कर लेता है तब वह आनंदस्वरूप परब्रह्म पुरुषोत्तम को पाकर आनंद में ही मग्न हो जाता है। तुम नचिकेता के लिए मैं परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूं। जहां श्रद्धा हैजहा धैर्य हैजहां समझपूर्वक अनुभव करने की तैयारी हैवहांयम कहता है— नचिकेता! तेरे लिए मैं परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूं।
वह द्वार आपके लिए भी खुला हो सकता है। उस द्वार के बंद होने में आपके अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है। धैर्यपूर्वकदृढ़ता सेवैराग्यभाव से ऊर्जा को भीतर की तरफ ले जाने की चेष्टा करनी है। वह द्वार शायद खुला ही हुआ है। आप उस द्वार की तरफ बढ़े नहीं कि मंदिर में प्रवेश हो जाता है। अब सुबह के ध्यान के लिए तैयार हो जाएं।

ध्‍यान योग शिविर,
माउंट आबू, राजस्‍थान।
नास्‍तिक का सत्‍य, आस्‍तिक का असत्‍य : मृत्‍यु

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