संभोग से समाधि की ओर--ओशो (सत्‍तहरवां-प्रवचन) दमन से मुक्‍ति—सत्‍तरवां प्रवचन


दमन से मुक्‍ति—सत्‍तरवां प्रवचन


मेरे प्रिय आत्मन

      'जीवन क्रांति के सूत्र' -इस परिचर्चा के तीसरे सूत्र पर आज चर्चा करनी है।
      पहला सूत्र था : सिद्धांत शाख और वाद से मुक्ति।
      दूसरा सूत्र था भीड़ सेसमाज से-दूसरों से मुक्ति।
      और आज तीसरे सूत्र पर चर्चा करनी है। इस तीसरे सूत्र को समझने वो लिए मन का एक अद्भुत राज समझ लेना आवश्यक है। मन की वह बड़ी अद्भुत प्रक्रिया हैजो साधारणत: पहचान में नहीं आती।
      और वह प्रक्रिया यह है कि मन को जिस ओर से बचाने की कोशिश की जायेमन उसी ओर जाना शुरू हो जाता हैजहां से मन को हटाया जायेमन वहीं पहुंच जाता हैजिस तरफ से पीठ की जायेमन उसी ओर उपस्थित हो जाता है।
      'निषेधमन के लिए निमंत्रण है, 'विरोधमन के लिए बुलावा है। और मनुष्य जाति इस मन को बिना समझे आज तक जीने की कोशिश करती रही है!

      फ्रायड ने अपनी जीवन कथा में एक छोटा-सा उल्लेख किया है। उसने लिखा है कि एक बार वह बगीचे में अपनी पली और छोटे बच्चे के साथ घूमने गया। देर तक वह पत्नी से बातचीत करता रहाटहलता रहा। फिर जब सांझ होने लगी और बगीचे के द्वार बंद होने का समय करीब हुआतो फ्रायड की पत्नी को खयाल आया कि 'उसका बेटा न-मालूम कहां छूट गया हैइतने बड़े बगीचे में वह पता नहीं कहां होगाद्वार बंद होने के करीब हैंउसे कहां खोजूं?'फ्रायड की पत्नी चिंतित हो गयीघबड़ा गयी।
      फ्रायड ने कहा, ‘‘घबड़ाओ मत! एक प्रश्र मैं पूछता है तुमने उसे कहीं जाने से मना तो नहीं कियाअगर मना किया है तो सौ में निन्यानबे मौके तुम्हारे बेटे के उसी जगह होने के हैंजहां जाने से तुमने उसे मना किया है।
      ''उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘मना तो किया था कि फव्वारे पर मत पहुंच जाना।'
      फ्रायड ने कहा, '' अगर तुम्हारे बेटे में थोड़ी भी बुद्धि हैतो वह फव्वारे पर ही मिलेगा। वह वहीं होगा। क्योंकि कई बेटे ऐसे भी होते हैंजिनमें बुद्धि नहीं होती। उनका हिसाब रखना फिजूल है। '' फ्रायड की पत्नी बहुत हैरान हो गयी। वे गये दोनों भागे हुए फव्वारे की ओर। उनका बेटा फव्वारे पर पानी में पैर लटकाए बैठा पानी से खिलवाड़ कर रहा था।
      फ्रायड की पत्नी ने कहा, ‘‘बड़ा आश्‍चर्य! तुमने कैसा पता लगा लिया कि हमारा बेटा यहां होगा      फ्रायड ने कहा, ''आश्रर्य इसमें कुछ भी नहीं है। मन को जहां जाने से रोका जायेमन वहीं जाने के लिए आकर्षित होता है। जहां के लिए कहा जायेमत जाना वहांएक छिपा हुआ रहस्य शुरू हो जाता है कि मन वहीं जाने को तत्‍पर हो जाता है।
      '' फ्रायड ने कहायह तो आश्‍चर्य नहीं है कि मैंने तुम्हारे बेटे का पता लगा लियाआश्‍चर्य यह है कि मनुष्य-जाति इस छोटे-से सूत्र का पता अब तक नहीं लगा पायी। और इस छोटे-से सूत्र को बिना जाने जीवन का कोई रहस्य कभी उदघाटित नहीं हो पाता। इस छोटे-से सूत्र का पता न होने के कारण मनुष्य-जाति ने अपना सारा धर्मसारी नीति,सारे समाज की व्यवस्था सप्रेशन परदमन पर खड़ी की हुई है।
      मनुष्य का जो व्यक्तित्व हमने खड़ा किया हैवह दमन पर खड़ा हैदमन उसकी नींव है।    और दमन पर खड़ा हुआ आदमी लाख उपाय करेजीवन की ऊर्जा का साक्षात्कार उसे कभी नहीं हो सकता है। क्योंकि जिस-जिस का उसने दमन किया हैमन में वह उसी से उलझा-उलझा नष्ट हो जाता है। थोड़ा सा प्रयोग करें और पता चल जायेगा। किसी बात से मन को हटाने की कोशिश करें और पायेंगे मन उसी बात के आसपास घूमने लगा है। किसी बात को भूलने की कोशिश करेंतो भूलने की वही कोशिश उस बात को स्मरण करने का आधार बन जाती है। किसी बात को,किसी विचार कोकिसी स्मृति कोकिसी इमेज कोकिसी प्रतिमा को मन से निकालने की कोशिश करेंऔर मन उसी को पकड़ लेता है।
      भीतरमन में लड़े और आप पायेंगे कि जिससे आप लड़ेगेंउसी से हार खायेंगेजिससे भागेंगेवही पीछा करेगा। जैसे छाया पीछा कर रही है। जितनी तेजी से भागते हैंछाया उतनी ही तेजी से पीछा करती है। 
      मन को हमने जहां-जहां से भगाया हैमन वहीं-वहीं हमें ले गया हैजहां-जहां जाने से हमने उसे इंकार किया है,जहां-जहां जाने से हमने द्वार बंद किये हैंमन वहीं-वहीं हमें ले गया है।
      क्रोध से लड़े-और मन क्रोध के पास ही खड़ा हो जायेगाहिंसा से लड़े-और मन हिंसक हो जायेगा। मोह से लड़े-और मन मोह मस्त हो जायेगा। लोभ से लड़े- और मन लोभ में गिर जायेगा। धन से लड़े-और मन धन के प्रति ही पागल हो उठेगा। काम से लड़ने वाला मनसेक्स से लड़ने वाला मनसेक्स में चला जायेगा। जिससे लड़ेंगे मन वही हो जायेगा। यह बड़ी अदभुत बात है। जिसको दुश्मन बनायेंगेमन पर उस दुश्मन की ही प्रतिच्छवि अंकित हो जायेगी।
      मित्रों को मन भूल जाता हैशत्रुओं को मन कभी नहीं भूल पाता।  
      लेकिन यह तथ्य है कि जिससे हम लड़ेमन उसके साथ ढल जायेलेकिन उसकी शक्ल बदल ले, नाम बदल ले।
      मैंने सुना हैएक गांव में एक बहुत क्रोधी आदमी रहता था। वह इतना क्रोधी था कि एक बार उसने अपनी पली को धक्का देकर कुएं में गिरा दिया था। जब उसकी पली मर गयी और उसकी लाश कुएं से निकाली गयी तो वह क्रोधी आदमी जैसे नींद से जग गया। उसे लगा कि उसने जिंदगी में सिवाय क्रोध के और कुछ भी नहीं किया। इस दुर्घटना से वह एकदम सचेत हो गया। उसे बहुत पश्‍चाताप हुआ।
      उस गांव में एक मुनि आये हुए थे। वह उनके दर्शन को गया और उनके चरणों में सिर रखकर बहुत रोया और उसने कहा, ‘‘मैं इस क्रोध से कैसे छुटकारा पाऊंक्या रास्ता हैमैं कैसे इस क्रोध से बचूं?'
      मुनि ने कहा, ‘‘तुम संन्यासी हो जाओ। छोड़ दो वह क्रोधजिसे कल तक पकड़े थे…..‘‘
      लेकिनमजा यह है कि जिसे छोड़ोवह और भी मजबूती से पकड़ लेता है। लेकिन यह थोड़ी गहरी बात है,एकदम से समझ में नहीं आती....।
      ‘‘क्रोध को छोड़ दोसंन्यासी हो जाओशान्त हो जाओ! अब तो इस क्रोध को छोड़ो! '
      वह आदमी संन्यासी हो गया। उसने अपने बस फेंक दिये और नंग हो गया! और उसने कहा, 'मुझे दिक्षा देंमैं शिष्य हुआ। ''
      मुनि बहुत हैरान हुए। बहुत लोग उन्होंने देखे थेपर ऐसा संकल्पवान आदमी नहीं देखा थाजो इतनी शीध्रता से संन्यासी हो जाये। उन्होंने कहा, ‘‘तू तो अदभुत है तेरा संकल्प महान है। तू इतना तीव्रता से संन्यासी होने को तैयार हो गया हैसब छोड्कर! ''
      लेकिनउन्हें भी पता नहीं कि यह भी क्रोध का ही दूसरा रूप है। वह आदमीजो कि अपनी पली को क्रोध में आकर एक क्षण में कुएं में धक्का दे सकता हैवह क्रोध में आकर एक क्षण में नंगा भी खड़ा हो सकता हैसंन्यासी भी हो सकता है। इन दोनों बातों में विरोध नहीं है। यह एक ही क्रोध के दो रूप हैं।
      तो वे मुनि बहुत प्रभावित हुए उससे। उन्होंने उसे दीक्षा दे दी और उसका नाम रखा दिया-मुनि शांतिनाथ। अब वह मुनि शांतिनाथ हो गया। और भी शिष्य थे मुनि केलेकिन उस शांतिनाथ का मुकाबला करना बहुत मुश्किल था,क्योंकि उतने क्रोध में उनमें से कोई भी नहीं था। दूसरे शिष्य दिन में अगर एक बार भोजन करते तो शांतिनाथ दो दिन तक भोजन ही नहीं करते थे....। क्रोधी आदमी कुछ भी कर सकता है!
      दूसरे अगर सीधे रास्ते से चलतेतो मुनि शांतिनाथ उलटे रास्तेकांटों से भरे रास्ते पर चलते! दूसरे शिष्‍य अगर छाया में बैठतेतो मुनि शांतिनाथ धूप में ही खड़े रहते! थोड़े ही दिनों में मुनि शांतिनाथ का शरीर सुख गया,कृश हो गयाकाला पड़ गयापैर में घाव पड़ गयेलेकिन उनकी कीर्ति फैलनी शुरू हो गयी चारों ओरकि मुनिशान्तिनाथ महान तपस्वी हैं....।
      वह सब क्रोध ही थाजो स्वयं पर लौट आया था। वह क्रोधजो दूसरों पर प्रगट होता रहा थाअब वह उत '। पर ही प्रगट हो रहा था।
      सौ में से निन्यानबे तपस्वी स्वयं पर लौटे हुए क्रोध का परिणाम होते हैं। दूसरों को सताने की चेष्टा रूपांतरित होकर खुद को सताने की चेष्टा भी बन सकती है। दूसरों को भी सताया जा सकता है और खुद को भी सताया जा सकता है। सताने में अगर रस होतो स्वयं को भी सताया जा सकता है।
      .,.. अब उसने दूसरों को सताना बन्द कर दिया थाअब वह अपने को ही सता रहा था। और पहली बार एक नयी घटना घटी थी : कि दूसरों को सताने पर लोग उसका अपमान करते थे और अब खुद को सताने से लोग उसका सम्मान करने लगे थे! अब लोग उसे महातपस्वी कहने लगे थे!
      मुनि की कीर्ति सब ओर फैलती गयी। जितनी उसकी कीर्ति फैलती गयीवह अपने को उतना ही सताने लगा,अपने साथ दुष्टता करने लगा। जितनी उसने स्वयं से दुष्टता कीउतना ही उसका सम्मान बढ़ता चला गया। दो-चार वर्षों में गुरु से ज्यादा उसकी प्रतिष्ठा हो गयी।
फिर वह देश की राजधानी में आया..। मुनियों को राजधानी में जाना बहुत जरूरी होता है। अगर आप मुनियों को देखना चाहते होतो हिमालय पर जाने की कोई जरूरत नहीं हैदेश की राजधानी में चले जाइए और वहां सब मुनि और सब संन्यासी अड्डा जमाये हुए मिल जायेंगे।
      ….. वे मुनि भी राजधानी की तरफ चले। राजधानी में पुराना एक मित्र रहता था। उसे खबर मिली तो वह बहुत हैरान हुआ कि जो आदमी इतना क्रोधी थावह शांतिनाथ हो गया! बड़ा समझदार हैजाऊं दर्शन कर आऊं।
      वह मित्र दर्शन करने आया। मुनि अपने तख्त पर सवार थे। उन्होंने मित्र को देख लियामित्र को पहचान भी गये-लेकिन जो लोग तख्त पर सवार हो जाते हैंवे कभी किसी को आसानी से नहीं पहचानतेक्योंकि पुराने दिनों के साथी को पहचानना ठीक भी नहीं होता। क्योंकि वह भी कभी वैसे ही रहे हैंइसका पता चल जाता है।
      देख लियापहचाना नहीं। मित्र भी समझ गया कि पहचान तो लिया हैलेकिन फिर भी पहचानने में गड़बड़ है। आदमी ऊपर चढ़ता ही इसलिए है कि जो पीछे छूट जायेउनको पहचाने न। और जब बहुत से लोग उसको पहचानने लगते हैंतो वह सबको पहचानना बंद कर देता है। पद के शिखर पर चढ़ने का रस ही यही है कि उसे सब पहचानें,लेकिन वह किसी को नहीं पहचाने।
      मित्र पास सरक आया और उसने पूछा कि ‘‘मुनि जी क्या मैं पूछ सकता हूं- आपका नाम क्या है?'' मुनि जी को क्रोध आ गया। ‘‘क्या अखबार नहीं पढ़ते होरेडियो नहीं सुनते होमेरा नाम पूछते होमेरा नाम जग-जाहिर हैमेरा नाम मुनि शांतिनाथ है। ''
      उनके बताने के ढंग से मित्र समझ गयाकि कोई बदलाहट नहीं हुई है। आदमी तो वही का वही हैसिर्फ नंगा खड़ा हो गया है।
      दो मिनट दूसरी बात चलती रही। मित्र ने फिर पूछा- ‘‘महाराजमैं भूल गया-आपका नाम क्या है?'' मुनि की आंखों से तो आग बरसने लगी। उन्होंने कहा- ‘‘छू! नासमझ! इतनी जल्दी भूल गया। अभी मैंने तुझसे कहा थामेरा नाम मुनि शांतिनाथ है।... मेरा नाम है-मुनि शांतिनाथ। ''
दो मिनट तक फिर दूसरी बातें चलती रहीं। फिर उसने पूछा कि ‘‘महाराजमैं भूल गयाआपका नाम क्या है?'' मुनि ने डंडा उठा लिया और कहा, ‘‘चुप नासमझ! तुझे मेरा नाम समझ में नहीं आतामेरा नाम है मुनि शांतिनाथ। ''
      उस मित्र ने कहा, '' अब सब समझ गया हूं। सिर्फ वही समझ में नहीं आयाजो मैं पूछता हूं। अच्छा नमस्कार! आप वही के वही हैकोई फर्क नहीं पड़ा।
      दमन से कभी कोई फर्क नहीं आता हैलेकिन दमन से चीजें स्वप्‍न बन जाती हैं। और स्वप्‍न बन जाना बहुत खतरनाक हैक्योंकि बदली हुई शक्ल में उनको पहचानना भी मुश्किल हो जाता है।   आदमी के भीतर सेक्स हैकाम-वासना हैउसे पहचानना सरल हैऔर अगर आदमी ब्रह्मचर्य साधने की जबर्दस्ती कोशिश में लग जायेतो उस ब्रह्मचर्य के पीछे भी सेक्यूअलिटी होगीकामुकता होगी। लेकिन,उसको पहचानना बहुत मुश्किल हो जायेगाक्योंकि वह अब वस्त्र बदल कर आ जायेगी।       ब्रह्मचर्य तो वह हैजो चित्त के परिवर्तन से उपलब्ध होता हैजो जीवन के अनुभव से उपलब्ध होता है।     
      एक शांति वह हैजो जीवन की अनुभूति से छाया की तरह आती है और एक शांति वह हैजो क्रोध दबाकर ऊपर से थोप ली जाती है।
      जो भीतर वासना को दबाकरउसकी गर्दन को पकड कर खड़ा हो जाता हैऐसा ब्रह्मचर्य कामुकता से भी बदतर हैक्योंकि कामुकता तो पहचान में भी आती हैपर ऐसा ब्रह्मचर्य पहचान में भी नहीं आता।
      दुश्मन पहचान में आता हो तो उसके साथ बहुत कुछ किया भी जा सकता हैऔर यदि दुश्मन ही पहचान में न आ पायेतब बहुत कठिनाई हो जाती है।
मैं एक साध्वी के पास समुद्र के किनारे बैठा हुआ था। वह साध्वी मुझसे परमात्मा की और आआ की बातें कर रही थी....।
      हम सभी बातें आत्मा-परमात्मा की करते हैंजिससे हमारा कोई भी संबंध नहीं है। और जिन बातों से हमारा संबंध हैउनकी हम कोई बात नहीं करते। क्योंकि वे छोटी-छोटी और क्षुद्र बातें है। हम आकाश की बातें करते हैंपृथ्वी की बातें नहीं करते। जिस पृथ्वी पर चलना पडता है-और जिस पृथ्वी पर जीना पड़ता है- और जिस पृथ्वी पर जन्म होता है- और जिस पृथ्वी पर लाश गिरती है अंत मेंउसे पृथ्वी की हम बात नहीं करते! हम बात आकाश की करते है,जहां न हम जी रहे हैंन रह रहे है! हम दोनों आत्मा-परमात्मा की बात कर रहे थे....।
      आत्‍मा-परमात्मा की बात आकाश की बात है।
      ….. कि हवा का एक झोंका आया और मेरी चादर उड़ी और साध्वी को छू गयीतो वह एकदम घबड़ा गयी। मैंने पूछा, ‘‘क्या हुआ?''
      उसने कहा, ''पुरुष की चादर! पुरुष की चादर छूने का निषेध है।''
      मैं तो बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा, ‘‘क्या चादर भी पुरुष और सी हो सकती हैतब तो यह चमत्कार है! कि चादर भी सी और पुरुष हो सकती है..?.। ''
लेकिन ब्रह्मचर्य के साधकों ने चादर को भी स्री-पुरुष में परिवर्तित कर दिया है। यह सेक्सुअलिटी की अति हो गयी,कामुकता की अति हो गयी।
      .. मैंने कहा, '' अभी तो तुम आत्मा की बातें करती थींऔर अभी तुम शरीर हो गयीं! अभी तुम चादर छू जाने से चादर हो गयींअभीथोड़े समय पहले तो तुम आत्मा थींअब तुम शरीर हो गयी चादर हो गयीं ''! अब यह चादर भी सेक्स-सिम्बल बन गयीअब यह भी काम की प्रतीक बन गयी। हवाओं को क्या पता कि चादर भी पुरुष होती है,अन्यथा हवाएं भी चादरों के नियमों का ध्यान रखतीं। यह तो गलती हो गयी चादर के प्रति हवाओं से।
      वे कहने लगीं, ‘‘प्रायश्चित करना होगाउपवास करना होगा। ''
मैंने उसे कहा, ‘‘करो उपवास जितना करना होलेकिन चादर के स्पर्श से जिसको सी और पुरुष का भाव पैदा हो जाता होउसका चित्त ब्रह्मचर्य को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता..। ''
      लेकिन नहींहम इसी तरह के ब्रह्मचर्य को पकड़े रहेंगेइसी तरह की झूठी बातों कोइसी तरह की नैतिकता को। इस तरह का धर्म सब झूठा है। दमन जहां हैवहां सब झूठा है। भीतर कुछ और हो रहा हैबाहर कुछ और हो रहा है।
      ... अब इस साध्वी को दिखायी ही नहीं पड़ सकता कि यह अति कामुकता है। यह रुग्ण कामुकता हो गयीयह बीमार स्थिति हो गयी कि चादर भी सी और पुरुष होती है! जिस ब्रह्मचर्य में पुरुष और सी न मिट गये होंवह ब्रह्मचर्य नहीं है।
      कुछ युवा एक रात्रि एक वेश्या को साथ लेकर सागर तट पर आये। उस वेश्या के वस छीनकर उसे नंगा कर दिया और शराब पीकर वे नाचने-गाने लगे। उन्हें शराब के नशे में डूबा देखकर वह वेश्या भाग निकली। रात जब उन युवकों को होश आयातो वे उसे खोजने निकले। वेश्या तो उन्हें नहीं मिलीलेकिन एक झाड़ी के नीचे बुद्ध बैठे हुए उन्हें मिले। वे उनसे पूछने लगे ‘‘महाशययहां से एक नंगी सी कोएक वेश्या को भागते तो नहीं देखारास्ता तो यही है। यहीं से ही गुजरी होगी। आप यहां कब से बैठे हुए हैं?''
      बुद्ध ने कहा, ‘‘यहां से कोई गुजरा जरूर हैलेकिन वह सी थी या पुरुषयह मुझे पता नहीं है। जब मेरे भीतर का पुरुष जागा हुआ थातब मुझे सी दिखायी पड़ती थी। न भी देखूं तो भी दिखायी पड़ती थी। बचना भी चाहूं तो भी दिखायी पड़ती थी। आंखें  किसी भी जगह और कहीं भी कर लूं तो भी ये आंखें  सी को ही देखती थीं। लेकिन जब से मेरे भीतर का पुरुष विदा हो गया हैतबसे बहुत खयाल करूं तो ही पता चलता है कि कौन सी हैकौन पुरुष है। वह कौन थाजो यहां से गुजरा हैयह कहना मुश्किल है। तुम पहले क्यों नहीं आयेपहले कह गये होते कि यहां से कोई निकले तो ध्यान रखनातो मैं ध्यान रख सकता था।
      और यह बताना तो और भी मुश्किल है कि जो निकला हैवह नंगा था या वस्त्र पहने हुए था। क्योंकिजब तक अपने नंगेपन को छिपाने की इच्छा थीतब तक दूसरे के नंगेपन को देखने की भी बड़ी इच्छा थी। लेकिनअब कुछ देखने की इच्छा नहीं रह गयी है। इसलिएखयाल में नहीं आता कि कौन क्या पहने हुए है....। '' दूसरे में हमें वही दिखायी देता हैजो हममें होता है। दूसरे में हमें वही दिखायी देता हैजो हममें है। और दूसरा आदमी एक दर्पण की तरह काम करता हैउसमें हम ही दिखायी पड़ते हैं।
      बुद्ध कहने लगे, '' अब तो मुझे याद नहीं आताक्योंकि किसी को नंगा देखने की कोई कामना नहीं है। मुझे पता नहीं कि वह कपड़े पहने थी या नहीं पहने थी। '' वे युवक कहने लगे, ‘‘हम उसे लाये थे अपने आनंद के लिए। लेकिनवह अचानक भाग गयी है। हम उसे खोज रहे हैं। ''
      बुद्ध ने कहा, ‘‘तुम जाओ और उसे खोजो। भगवान करेकिसी दिन तुम्हें यह खयाल आ जायेकि इतनी खूबसूरत और शांत रात में अगर तुम किसी और को न खोज कर अपने को खोजतेतो तुम्हें वास्तविक आनंद का पता चलता। लेकिनतुम जाओ और खोजो दूसरों को। मैंने भी बहुत दिन तक दूसरों को खोजालेकिन दूसरों को खोजकर मैंने कुछ भी नहीं पाया। और जब से अपने को खोजातब से वह सब पा लिया हैजिसे पाकर कोई भी कामना पाने की शेष नहीं रहती। '' यह बुद्ध ब्रह्मचर्य में रहे होंगे। लेकिनचादर पुरुष हो जाये तो ब्रह्मचर्य नहीं है।
      और यह दुर्भाग्य है कि दमन के कारण सारे देश का व्यक्तित्व कुरूपविकृतपरवटेंड हो गया है। एक-एक आदमी भीतर उलटा हैबाहर उल्टा है। भीतर आत्मा शीर्षासन कर रही है। भीतर हम सब सिर के बल खड़े हुए है। जो नहीं है भीतरवह हम बाहर दिखला रहे हैं। और दूसरे धोखे में आ जायेंइससे कोई बहुत हर्जा नहीं हैस्वयं ही धोखा खा जाते हैं। लम्बे अर्से में हम यह भूल ही जाते हैं कि हम यह क्या कर रहे हैं।
      दमनमनुष्य की आत्मा की असलियत को छिपा देता है और झूठा आवरण पैदा कर लेता है। औरफिर इस दमन में हमजिंदगी भर जिसे दमन किया हैउससे ही लड़कर गुजारते हैं।
      ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला आदमी चौबीस घंटे सेक्स सेंटर में ही जिंदगी व्यतीत करता है। उपवास करने वाला चौबीस घंटे भोजन करता है। आपने कभी उपवास किया हो तो आपको पता होगा।
      उपवास करें और चौबीस घंटे भोजन करना पड़ेगा। हांभोजन मानसिक होगाशारीरिक नहीं। लेकिनशारीरिक भोजन का कुछ फायदा भी हो सकता हैमानसिक भोजन का सिवाय नुकसान के और कोई भी फायदा नहीं है। जिसने दिन भर खाना नहीं खाया हैवह दिन भर खाने की इच्छा से भरा होयह स्वाभाविक है।
      नहींउपवास का यह अर्थ नहीं है कि आदमी खाना न खाये। उपवास का अर्थ अनाहार नहीं है। अनाहार करने वाला दिन भर आहार करता है। उपवास का अर्थ दूसरा है। दमन नहीं है उपवास का अर्थलेकिन दमन ही उसका अर्थ बन गया है। उपवास का अर्थ भोजन 'न-करनानहीं है।
उपवास का अर्थ है: आत्मा के निकट आवास।
      औरआत्मा के निकट कोई इतना पहुंच जाये कि उसे भोजन का खयाल ही न आयेतो वह बात ही दूसरी है;कोई इतने भीतर उतर जाये कि बाहर का पता भी न चले कि शरीर भूखा हैवह बात दूसरी हैकोई इतने गहरे में चला जाये कि शरीर को प्यास लगी है कि भूख लगी हैभीतर इसकी खबर ही न पहुंचती होतो यह बात दूसरी है। लेकिन कोई- भोजन नहीं छुऊंगा-ऐसा संकल्प करके बैठ जायेतो दिन भर उसको भोजन करना पड़ता हैवह उपवास में नहीं होता।
      दमनधोखा पैदा करता है।
      दमनवह जो असलियत है-उपलब्धि कीअनुभूति कीवह जो सत्य हैउसकी तरफ बिना ले जाये बाहर परिधि पर ही सब नष्ट करके जबर्दस्ती कुछ पैदा करने की कोशिश करता है। और यह कोशिश बहुत महंगी पड़ जाती है।
हिन्दुस्तान में ब्रह्मचर्य की बात चल रही है तीन-चार हजार वर्ष से। और इस बात को कहने में मुझे जरा भी अतिशयोक्ति नहीं मालूम पड़ती किं आज इस पृथ्वी पर हमसे ज्यादा कामुक कोई समाज नहीं है। चौबीस घंटे हम काम से लड़ रहे हैं। छोटे बच्चे से लेकर मरते हुए बूढ़े तक की सेक्स से लड़ाई चल रही है। और जिससे हम लड़ते हैंवही हमारे भीतर घाव की तरह हो जाता है।
      कोरिया में दो फकीर हुए हैंमैंने उनके जीवन के बारे में पढ़ा था। दो भिक्षु एक दिन शाम अपने आश्रम वापस रहे हैं। उनमें एक बूढ़ा भिक्षु हैएक युवा भिक्षु है। आश्रम के पहले ही एक छोटी-सी पहाड़ी नदी पड़ती है। सांझ हो गयी हैसूरज ढल रहा है। एक युवती खड़ी है उसी नदी के किनारे। उसे भी नदी पार होना है। लेकिन डरती हैक्योंकि नदी अनजान हैपरिचित नहीं हैपता नहींकितनी गहरी होइसलिए भयभीत है।
      वह बूढ़ा भिक्षु आगे-आगे आ रहा है। उसको भी समझ में पड़ गया है कि वह सी पार होने के लिएशायद किसी का सहारा चाहती है। बूढ़े भिक्षु का मन हुआ है कि हाथ से सहारा देकर उसे नदी पार करवा दे। लेकिन थ का सहारा देने का खयाल भर ही उसे आया है कि भीतर वर्षों की दबी हुई वासना एकदम खड़ी हो गयी है। युवती के हाथ को छूने की कल्पना से उसके भीतरजैसे उसकी नस-नस मेंरग-रग में बिजली दौड गयी है। तीस वर्ष से सी को नहीं छुआ है उसने। और अभी तो सिर्फ छूने का खयाल ही आया है उसेकि युवती को हाथ का सहारा 'दे देलेकिन सारे प्राण कंप गये हैं उसके। एक तरह के बुखार ने उसके सारे व्यक्तित्व को घेर लिया है। वह अपने मन को समझाया उसने कि, ‘‘यह कैसी गंदी बात सोचीकैसे पाप की बात सोची! मुझे क्या मतलब हैकोई नदी पार हो या न होमुझे क्या प्रयोजन हैमैं अपना जीवन क्यों बिगाडू अपनी साधना क्यों बिगाडूंइतनी कीमती साधनातीस वर्ष की साधनाइस लड़की पर लगा दूं..,। ''
      बड़ी बहुमूल्य साधना चल रही थीऔर ऐसी ही बहुमूल्य साधना के सहारे लोग मोक्ष तक पहुंचना चाहते हैं! 'ही कीमती और मजबूत साधना के पुण्य पर चढ़कर लोग परमात्मा की यात्रा करना चाहते हैं!
      .... आंख बंद कर लीं थी उसनेलेकिन वह सी तो आंख बंद करने पर भी दिखायी पड़ने लगीबहुत जोर से दिखाई पड़ने लगी। क्योंकि मन जाग गया थासोयी हुई वासना जाग गयी थी। आं  ंद करके ही वह नदी में उतरा...।
      अब यह आपको पता होगा कि जिस चीज से आंख  बंद कर ली जायेवह उतनी सुंदर कभी नहीं होतीजितनी आंख बंद होने पर होती है। आंख  बंद करने से वह ज्यादा सुंदर प्रतीत होती है।
      आंख बंद की उसने और वह सी अप्सरा हो गयी.?.!
      अप्सराएं इसी तरह पैदा होती हैं। बंद आंख  से वे पैदा हो जाती है।
      दुनिया में सिर्फ स्त्रियां हैंआंख  बंद करो कि वे ही अप्सराएं हो जाती है।
      अप्सराएं कहीं भी नहीं हैंलेकिन आंख  बंद होते ही सी अप्सरा हो जाती है! मन में एकदम से कामुकता पैदा हो जाती हैफूल खिल जाते हैंचांदनी फैल जाती है। एक ऐसी सुगंध फैल जाती है मन मेंजो सी में कहीं भी नहीं है;जो सिर्फ आदमी की काम-वासना के सपने में होती है। आंखें  बंद करते ही सपना शुरू हो जाता है।
      .... अब वह भिक्षु उस सी को ही देख रहा है। अब एक ड्रीमएक सपना शुरू हो गया है। अब वह सी उसे बुला रही है। उसका मन कभी कहता है कि यह तो बड़ी बुरी बात है कि किसी असहाय सी को सहारा न दो। फिर तत्काल उसका दूसरा मन कहता है कि यह सब बेईमानी हैअपने को धोखा देने की तरकीब कर रहे हो। यह सेवा वगैरह नहीं हैतुम सी को छूना चाहते हो...।
      बड़ी मुश्किल है स्‍त्री। साधुओं की बड़ी मुश्किल होती है। काम है भीतरतनाव है भीतर। सारा प्राण पीछे लौट जाना चाहता हैऔर वह दमन करने वाला मन आगे चले आना चाहता है।
      नदी के छोटे-से घाट पर वह आदमी भीतर दो हिस्सों में बंट गया हैएक हिस्सा आगे जा रहा हैएक हिस्सा पीछे जा रहा है। उसकी अशांतिउसका टेंशनउसकी तकलीफभारी हो गयी है। आधा हिस्सा इस तरफ जा रहा है,आधा हिस्सा उस तरफ जा रहा है। किसी तरह खींच-तान कर वह पार हुआ है। आंख खोलकर देखना चाहता हैलेकिन बहुत डरा हुआ है। भगवान का नाम लेता हैजोर-जोर से भगवान का नाम लेता है-नमो: बुद्धायनमो: बुद्धाय...! भगवान का नाम आदमी जब भी जोर-जोर से लेतब समझ लेना कि भीतर कुछ गड़बड़ है। भीतर की गड़बड़ को दबाने के लिए आदमी जोर-जोर से भगवान का नाम लेता है।
      आदमी को ठंड लग रही हैनदी में नहाते वक्ततो 'सीता-रामसीता-राम का जाप करने लगता है। बेचारे सीता-राम को क्यों तकलीफ दे रहे हो! पर वह ठंड जो लग रही है। सीता-राम उस ठंड को भुलाने की तरकीब है। अंधेरी गली में आदमी जाता है और कहता है, ' अल्लाह ईश्वर तेरे नाम'! वह अंधेरे की घबड़ाहट से बचने की कोशिश है।
      जो आदमी परमात्मा के निकट जाता हैवह चिल्ल-पों नहीं करता है भगवान के नाम कीवह चुप हो जाता है। जितने भी चिल्ल-पों और शोर गुल मचाने वाले लोग हैंसमझ लेना कि उनके भीतर कुछ और चल रहा हैभीतर काम चल रहा हैऔर ऊपर राम का नाम चल रहा है।
      ... भीतर उसे औरत खींच रही है और वह किसी तरह भगवान का सहारा लेकर आगे बढ़ा जा रहा है-कि कहीं ऐसा न हो कि औरत मजबूत हो जाये और नीचे खींच ले।
      और उस बेचारी को पता भी नहीं कि साधु किस मुसीबत में पड़ गया है। वह अपने रास्ते पर खड़ी है। तभी उस साधु को खयाल आया कि पीछे उसका जवान साधु कहां है। लौटकर उसने देखाकि उसको सचेत कर देकि वह कहीं उस पर दया करने की भूल में न पड जाये। लेकिन लौटकर उसने देखा तो भूल हो चुकी थी। वह जवान भिक्षु उस औरत को कंधे पर लिए नदी पार कर रहा था। वह देखकर आग लग गयी उस बूढ़े साधु को। न-मालूम कैसा-कैसा मन होने लगा उसका। कई बार उसके मन में होने लगा कि कितना अच्छा होताअगर मैं भी उसे कंधा लगाये होता! फिर उसने स्वयं को झिड्का, 'यह क्या पागलपन की बातमैं और उस औरत को कंधे पर ले सकता हूंतीस साल की साधना नष्ट करूंगागंदगी का ढेर है औरत का शरीरतो उसको कंधे पर लूंगा?
      नर्क का द्वार है सीऔर उसको कंधे पर लिया है?'
      लेकिन वह दूसरा भिक्षु लिए आ रहा है। आग लग गयी उसे! आज जाकर गुरु को कहूंगा कि यह युवकभ्रष्ट हो गयापतित हो गयाइसे निकालो आश्रम के बाहर। उस भिक्षु ने उस युवती को किनारे पर छोड़ दिया और अपने रास्ते चल पड़ा। फिर वे दोनों चलते रहेलेकिन बूढ़े ने कोई बात न की। जब वे आश्रम के द्वार की ओर बढ़ रहे थे तो उस बूढे भिक्षु ने सीढ़ियों पर खड़े होकर कहा, ‘‘याद रखोमैं चलकर गुरु को कहूंगा कि तुम पतित हो चुके हो। तुमने उस स्‍त्री को कंधे पर क्यों उठाया न: ‘‘ वह भिक्षु एकदम से चौंका। उसने कहा, ‘‘स्‍त्री! उसे मैने उठाया था और नदी पार छोड़ भी दिया। लेकिन ऐसा मालूम होता है कि आप उसे अभी भी कंधे पर लिए हुए हैं!'‘‘ 'यु आर स्टिल कैरिग हर आन योर शोल्डर। आप अभी भी ढो रहे हैं उसे कंधे पर! मैं तो उसे उतार भी आया। और आपने तो उसे कंधे पर कभी लिया भी नहीं थाआप अभी तक ढो रहे हैंमैं तो घंटे भर से सोचता था कि आप किसी ध्यान में लीन हैं। मुझे यह खबर भी न थी कि आप ध्यान कर रहे हैं उस युवती का-कि उस स्‍त्री को नदी के पार करा रहे हैअब तक! ''
      यह तो मैंने कहानी सुनी थी। ठीक ऐसी ही कहानी अभी मेरे साथ हो गयी है दिल्ली मेंवह आप लोगों को बताऊं।
      एक महिला आयी और मुझसे उसने पूछा, ‘‘मैं यहां ठहर जाऊं आपके पास?'' मैंने कहा, ‘‘बिलकुल ठहर जाओ।
      मुझे पता नहीं था कि मनु भाई पटेल को बड़ी तकलीफ हो जायेगी इस बात से। अगर मुझे पता होता तो संसद-सदस्य को मैं तकलीफ नहीं देता। मैं किसी को तकलीफ नहीं देना चाहता। कहता, ‘‘देवीतुम्हारे ठहरने से मुझे तकलीफ नहीं हैंलेकिन मनु भाई पटेल कोबड़ौदा वालों को तकलीफ हो जायेगी। और किसी को तकलीफ देना अच्छा नहीं है। तो तुम्हें ठहरना है तो जाओमनु भाई के कमरे में ठहर जाओयहां मेरे पास किस लिए ठहरती हो। ''
      लेकिन मुझे पता ही नहीं था। पता होता तो यह भूल न होती। यह भूल हो गयी अज्ञान में। वह आकर सो गई मेरे कमरे मेंलेकिन दूसरे दिन बड़ी तकलीफ हो गयी। मुझे पता चला कि मनु भाई को और उनके मित्रों को बहुत कष्ट हो गया है इस बात से कि मेरे कमरे में वह सो गयी। मैं तो हैरान हुआ कि वह मेरे कमरे में सोयीतकलीफ उनको हो गयी!
      लेकिन आदमी कंधे पर उन चीजों को ढोने लगता हैजिनको लेकर उसके भीतर कोई लड़ाई जारी रहती है। पता नहीं चलताखयाल में नहीं आता कि यह सब भीतर क्या हो रहा है। तो मैंने सोचा कि वह मनु भाई मुझे मिलें तो उनसे कहूं कि 'सरयू आर स्टिल कैरिग हर आन योर शोल्डर?' अभी भी ढो रहे हैं उस औरत को अपने कंधों परमैने उनको वहीं दिल्ली में कहा कि मनु भाईपीछे तकलीफ होगी। पीछे यह बात चलेगीमिटने वाली नहीं है। तो यह बात अभी कर लें सबके सामने। तो उन्होंने कहा, ‘‘क्या बात करनी हैकुछ हर्जा नहींजो हो गयाहो गया।''
      लेकिन मैं जानता थाबात तो उठेगीबात तो करनी ही पड़ेगी। फिर वे संसद-सदस्य हैं। संसद-सदस्य को मुझ जैसे फकीरों के आचरण का ध्यान रखना चाहिएनहीं तो मुल्क का आचरण बिगाड़ देंगे।
      और फिर ऐसे संसद-सदस्य हैंइसलिए तो मुल्क का आचरण इतना अच्छा हैनहीं तो कभी भी बिगड़ जाता! धन्य भाग हैहमारे मुल्क का आचरण कितना अच्छा हैअच्छे संसद-सदस्यों के कारण! जो पता लगाते हैं कि किसके कमरे में कौन सो रहा है! इसका हिसाब रखते हैं! ये लोक-सेवक हैं! लोक-सेवक ऐसा ही होना चाहिए। मुझे तो जैसे खबर मिलीमैंने सोचा कि इस बार इलेक्ट्रान के वक्त अगर मुझे वक्त मिला तो जाऊंगा बड़ौदा मेंलोगों से कहूंगा कि मनु भाई को ही वोट देनाइस तरह के लोगों की वजह से देश का चरित्र ऊंचा है। लेकिनयह जो दिमाग हैयह दिमाग कहां से पैदा होता हैयह दिमाग कहां से आता हैयह भीतर क्या छिपा हुआ है...?
      यह भीतर हैदमन की लम्बी परम्परा। यह एक आदमी का सवाल नहीं है। यह हमारे पूरे जातीय संस्कार का सवाल हैयह मनु भाई का सवाल नहीं है। वह तो प्रतिनिधि हैं-हमारे और आपकेहमारी सब बीमारियों के-वह जो हमारे भीतर छिपा हैउसके। हमारे भीतर क्या छिपा है...?
      हमने एक अजीब सप्रेशन की धारा में अपने को जोड़ रखा है! दबा रहे हैंसब! वह दबाया हुआ घाव हो जाता है। वह घाव पीड़ा देता है। उस घाव की वजह से हमें बाहर वही-वही दिखायी पड़ने लगता हैजो-जो हमारे भीतर है। सारा जगत एक दर्पण बन जाता है।
      यह सप्रेशन की लम्बी धारायह दमन की लम्बी यात्रा व्यक्तित्व को नष्ट करती है। इसने जीवन के स्रोतों कोपॉयजन से भर दिया हैजहर से भर दिया है। जीवन के सारे स्रोत विकृत और कुरूप हो गये हैं। इसलिए यतीसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं कि दमन से बचना।
      अगर जीवन को और सत्य को जानना होऔर कभी प्रभु केपरमात्मा के द्वार पर दस्तक देनी होतो दमन से बचना।
      क्योंकि दमन करने वाला चित्त परमात्मा तक कभी नहीं पहुंचता। वह वहीं रुक जाता हैजहां दमन करता है। उसको वहीं ठहरना पड़ता हैक्योंकि जरा-सा भी हटा कि दमन उखड़ जायेगा और जिसको दबाया हैवह प्रकट होना शुरू हो जायेगा।
      अगर आप एक आदमी की छाती पर सवार हो गये हैं तो फिर आप उसको छोड्कर नहीं जा सकतेक्योंकि छोड्कर आप जैसे ही गये कि वह आपके ऊपर हमला कर देगा। अगर किसी आदमी की छाती पर आप सवार हो गये तो आप समझना कि जितना आपने उसे दबा रखा हैउससे भी ज्यादा आप उससे दब गये हैं! क्योंकि आप छोड्कर उससे नहीं हट सकते।
      मनुष्य जिन चीजों को दबा लेता हैउन्हीं के साथ बंध जाता है। वह उनको छोड्कर हट नहीं सकता और कहीं भी नहीं जा सकता। इसलिए दमन से अक्सर साधक को सावधान रहना चाहिए।
दमनपैदा करेगा-पागलपन विक्षिप्तताएं इन्‍फिरिअरिटी
      जितने मनस-चिकित्सक हैंउनसे पूछिएवे क्या कहते हैं। वे कहते हैंसारी दुनिया पागल हुई जा रही ३ दमन के कारण। पागलखाने में सौ आदमी बंद हैंउनमें अट्ठानबे आदमी दमन के कारण बंद हैं जिन्होंने बहुत जोर से दबा लिया है। एक विस्फोट की आग को भीतर रख लिया है। वह विस्फोट फूटना चाहता हैवह सारक व्यक्तित्व को किसी दिन तोड़ देता हैकिसी दिन खंड़-खंड़ बिखेर देता है सारे मकान को। एक दिन आदमी बिखर करटूट कर खड़ा हो जाता है।
      इसलिएजितना आदमी सभ्य होता चला जा रहा हैउतना ही पागल होता जा रहा हैक्योंकि सभ्यता का सूत्र दमन है।
      नहींस्वभाव को अगर जानना हैतो दमन से वह नहीं जाना जा सकता।
      लेकिनतब आप पूछेंगे कि जब क्रोध आये तो क्रोध करना चाहिएवासना आये तो वासना भोगनी चाहिए क्या आप लोगों को वासना में डूब जाने के लिए कहते हैं..?
      बिलकुल नहींजरा भी नहीं कहता हूं। दमन से बचने को कह रहा हूं अभी भोग करने को नहीं कह रहा हूं।
      अभी एक सूत्र समझ लेंकल दूसरे सूत्र की बात करेंगे।
      दमन से बचने का अर्थ : भोग में कूद जाना नहीं है। अनिवार्यरूपेण वही एक आल्टरनेटिव नहीं है। और विकल्प भी है। उस विकल्प पर हम कल बात करेंगे। इसलिए जल्दी से नतीजा लेकर घर मत लौट जाना। मेरी बातों से जल्दी नतीजा नहीं लेना चाहिएनहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती है।
      दमन नहींखुद के व्यक्तित्व से संघर्ष नहींखुद के व्यक्तित्व से द्वंद्व नहीं-क्योंकि खुद के व्यक्तित्व से द्वंद्व का अर्थ हैजैसे मैं अपने दोनों हाथों को आपस में लड़ाने लग। कौन जीतेकौन हारेदोनों हाथ मेरे हैं! दोनों हाथों के पीछे लड़ने वाली शक्ति मेरी है! दोनों हाथों के पीछे मैं हूं। कौन जीतेगा...?
      कोई नहीं जीत सकता। मेरे ही दोनों हाथों की लड़ाई में कोई नहीं जीत सकताक्योंकि जीतने वाले दो है ही नहीं। लेकिनएक अदभुत घटना घट जायेगी। जीतेगा तो कोई नहीं-न बायांन दायांलेकिन मैं हार जाऊंगा दोनों की लड़ाई मेंक्योंकि मेरी शक्ति दोनों के साथ नष्ट होगी।
      औरमैं हार जाऊं या शक्ति को क्षीण होने दूं-जों भी दमन कर रहा हैवह किसका दमन कर रहा है...अपना हीअपने ही चित्त के खंडों को दबा रहा है। किससे दबा रहा है...चित्त के दूसरे खंडों से दबा रहा है। चित्त के एक खंड से चित्त के दूसरे खंड को दबा रहा है। खुद को हीखुद से दबा रहा है!
      ऐसा आदमी अगर पागल हो जाये अंततःतो आश्‍चर्य ही क्या है। वह तो आदमी पागल नहीं हो पाताक्योंकि दमन सिखाने वालों की बात पूरी तरह से कोई भी नहीं मानता है। नहीं तो सारी मनुष्यता पागल हो जाती। वह दमन सिखाने वालों की बात पूरी तरह से कोई नहीं मानता है। और न मानने की वजह से थोड़ा-सा रास्ता बचा रहता है कि आदमी बच जाता है।
      और न मानने की वजह सेऊपर से दिखलाता है कि मानता हूंभीतर से पूरा मानता नहींऊपर से दिखलाता है कि मानता हूंइसलिए पाखंड और हिपॉक्रिसी पैदा होती है। हिपॉक्रिसी दमन की सगी बहन है। वह जो पाखंड हैवह दमन का चचेरा भाई है। दमन चलेगातो पाखंड पैदा होगा। अगर पाखंड पैदा न होगातो पागलपन पैदा होगा। पागलपन से बचना हो तो पाखण्डी हो जाना पड़ेगा। दुनिया को दिखाना पड़ेगा। दुनिया को दिखाना पड़ेगा ब्रह्मचर्य और पीछे से वासना के रास्ते खोजने पड़ेंगे। दुनिया को दिखाना पड़ेगा कि मेरे लिए तो धन मिट्टी है और भीतर गुप्त मार्गों से तिजोरियां बंद करनी पड़ेगी। वह भीतर से चलेगा।
      लेकिनयह पाखंड बचा रहा है आदमी कोनहीं तो आदमी पागल हो जाये। अगर सीधा-सादा आदमी दमन के चक्कर में पड जाये तो पागल हो जाए।
      ये साधु-संन्यासी बहुत बड़े अंश में पागल होते देखे जाते हैंइसका कारण आपको मालूम है?
लोग समझते हैंभगवान का उन्माद छा गया है। भगवान का कोई उन्माद नहीं होतासब उन्माद भीतर के दमन से पैदा होते है। भीतर दमन बहुत हो तो रोग पैदा हो जाता हैउन्माद पैदा हो जाता हैपागलपन पैदा हो जाता  लेकिन उसको हम कहते है-हर्षोन्मादएक्सटेसी! वह एक्सटेसी वगैरह नहीं हैमैडनेस है।
      या तो आदमी पूरा दमन करे तो पागल होता हैया फिर पाखंड का रास्ता निकाल ले तो बच जाता है। 
      और पाखंडी होनापागल होने से अच्छा नहीं है। पागल में फिर भी एक सिन्सेरिटि हैपागल की फिर भी एक निष्ठा हैपाखंडी की तो कोई निष्ठा नहीं होतीकोई नैतिकताकोई ईमानदारी नहीं होती। अपने से नहीं लड़ना है। आप अपने से लड़े कि आप गलत रास्ते पर गये। अपने से लड़ना अधार्मिक है।
      दमन, 'मात्र अधार्मिकहै। दमन मात्र ने मनुष्य को जितना नुकसान पहुंचाया हैउतना दुनिया में और किसी शत्रु ने कभी नहीं पहुंचाया। उस दिन ही मनुष्य पूरी तरह स्वस्थ होता हैजिस दिन सारे दमन से मुक्त हो जाता है;जिस दिन उसके भीतर कोई कान्‍पिलक्टकोई द्वंद्व नहीं होता। जिस दिन भीतर द्वंद्व नहीं होता हैउस दिन एक दर्शन होता हैजो भीतर है।
      अगर ठीक से समझेंतो दमन मनुष्य को विभक्त करता हैडिव्हाइड करता है। दमन जिस व्यक्ति के भीतर होगावह इनडिवीजुअल नहीं रह जायेगावह व्यक्ति नहीं रह जायेगावह विभक्त हो जायेगाउसके कई टुकड़े हो जायेंगेवह स्कीजोफ्रेनिक हो जायेगा। दमन न हो व्यक्ति में तो योग की स्थिति उपलब्ध होती है।
      योग का अर्थ है-जोड़योग का अर्थ है-इन्टिग्रेट योग का अर्थ है- अखण्डताएक।
      लेकिन एक कौन हो सकता हैएक व्यक्तित्व किसका हो सकता है..?
      उसकाजो लड़ नहीं रहा हैउसका जो अपने को खंड-खंड नहीं तोड़ रहा हैजो अपने भीतर नहीं कह रहा है-यह बुरा हैयह अच्छा हैइसको बचाऊंगाउसको छोडूंगा। जिसने भी अपने भीतर बुरे -अच्छे का भेद कियावह दमन में पड़ जायेगा।
      दमन से बचने का सूत्र हैअपने भीतर जो भी हैउसकी पूर्ण स्वीकृतिटोटल एक्सऐबिलिटी
जो भी हैसेक्स हैलोभ हैक्रोध हैमान है-जो भी है भीतरउसकी सर्वांगीण स्वीकृति प्राथमिक बात है। तो व्यक्ति आत्मज्ञान की तरफ विकसित होगा।
      अगर उसने अस्वीकार किया-कि मैं अस्वीकार करता हूं -उसने कहा कि मैं लोभ को फेंक दूंगा -उसने कहा कि मैं क्रोध को फेंक दूंगा -तो फिर वह कभी भी शान्त नहीं हो पायेगाइस फेंकने में ही अशान्त हो जायेगा।
औरइसलिए तो संन्यासी जितने क्रोधी और अहंकारी देखे जाते हैंउतने साधारण लोग क्रोधी नहीं होते! संन्यासी का क्रोध और अहंकार बहुत अदभुत है। दुर्वासा की कथाएं तो हम जानते हैं।
      संन्यासी में इतना अहंकार कि दो संन्यासी एक दूसरे को मिल नहीं सकतेक्योंकि कौन किसको पहले नमस्कार करेगा! दो संन्यासी एक साथ बैठ नहीं सकतेक्योंकि किसका तख्त ऊंचा होगा और किसका नीचा होगा! ये संन्यासी नहींपागल हैं। जो तख्त की ऊंचाई नापने में लगे हुए हैंउन्हें परमात्मा की ऊंचाई का पता भी क्या होगा।
      मैं कलकत्ते में एक सर्व-धर्म सम्मेलन में बोलने गया था। वहां कई तरह के संन्यासीकई धर्मो के उन्होंने आमंत्रित किये थे। उन संयोजकों को क्या पता बेचारों को कि सब संन्यासी एक मंच पर नहीं बैठेंगे। कोई उसमे शंकराचार्य हो सकते हैंवे अपने सिंहासन पर बैठेंगे। और शंकराचार्य सिंहासन पर बैठे तो दूसरा आदमी कैसे नीचे बैठ सकता है! संयोजकों ने मुझे आकर कहा कि सबकी खबरें आ रही हैं कि हमारे बैठने का इंतजाम क्या हे? बच्चों-जैसी बात मालूम पड़ती है। जैसेछोटे-छोटे बच्चे कुर्सी पर खड़े हो जाते है और अपने बाप से कहते हैं, 'तुम मुझसे नीचे हो।'बच्चों से ज्यादा बुद्धि इनकी नहीं मालूम पड़ती है। तख्त ऊंचा-नीचा रखने से ज्यादा उनकी बुद्धि नहीं हैकि तख्त नीचा हो जायेगा तो हम नीचे हो जायेंगे। हद हो गयीइस भांति से ऊंचा होना बहुत आसान हो गया!
      लेकिन दबा रहे हैं अहंकार को। तो अहंकार दूसरे रास्ते खोज रहा है निकलने के लिए। अहंकार को दबा रहे हैं,इधर कह रहे हैं, 'मैं कुछ भी नहीं हूं! हे परमात्मामैं तो तेरी शरण में हूं। 'उधर अहंकार कह रहा है-अच्छा ठीक है बेटे,उधर तुम शरण में जाओइधर हम दूसरा रास्ता खोजते है। हम कहते हैं कि सोने का सिंहासन चाहिए क्योंकि हमसे ज्यादा भगवान की शरण में और कोई भी नहीं गया है!
      तो इनको सोने का सिंहासन चाहिए। इधर- 'मैं कुछ भी नहीं हूंआदमी तो कुछ भी नहीं हैसब संसार माया है! और उधर? -उधरअगर जगतगुरु न लिखें उनके नाम के आगे तो वे नाराज हो जाते हैं कि मुझे जगतगुरु नहीं लिखा!'
      ….. और मजा यह है कि जगत से पूछे बिना ही गुरु हो गये हैंजगत से भी तो पूछ लिया होतायह जगत बहुत बड़ा है...!
      एक गांव में मैं गया था। वहां भी एक जगतगुरु थे!
      .. जगतगुरुओं की कोई कमी है! जिसको भी खयाल पैदा हो जायवह जगतगुरु हो सकता है! इस वक्त सबसे सस्ता काम यही है...!
      गांव में जगतगुरु थे। मैंने पूछा, ‘‘इतना छोटा-सा गांवजगतगुरु कहां से आये?'' उन्होंने कहा, ‘‘वे यहां ही रहते हैं सदा से। '' मैंने कहा, ‘‘जगत से पूछ लिया है उन्होंने?'' उन्होंने कहा, ‘‘जगत से नहीं पूछा। लेकिन वे बहुत होशियार आदमी हैं। उनका एक शिष्य है। '' मैंने कहा, '' और कितने हैं?'' उन्होंने कहा ‘‘बसएक ही है। लेकिन उसका नाम उन्होंने जगत रख लिया है। तो वे जगतगुरु हो गये है। ''
      बिलकुल ठीक बात है। अब और कोई कमी नहीं रह गई है। अदालत में मुकादम नहीं चला सकते हैं इस आदमी पर। यह जगतगुरु है। सारे जगतगुरु इसी तरह के है। किसी का एक शिष्य होगाकिसी के दस होंगे लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। इधर वे कहते हैं, 'मैं तो कुछ भी नहींआदमी तो माया हैअसली तो ब्रह्म है-एक ही ब्रह्म है-और उधरजगतगुरु होने का लोभ सवार हो जाता है! वह अहंकारइधर से बचाओउधर से रास्ता खोजता है।
      आदमी जिस-जिस को दबायेगावही-वही नये-नये मार्गों से प्रकट होगा।
      दमन करके कभी कोई किसी चीज को नही समझ सका। इसलिए दमन से बचना हैदमन से सावधान रहना है। दमन ही मनुष्य को तोड़ता है। और,अगर जुड़ना हैऔर एक हो जाना हैतो दमन से बच जाना चाहिए।
      चौथे सूत्र पर मैं आपसे कल बात करूंगा कि जब हम दमन से बचेंगे तो फिर भोग एकदम से निमंत्रण देगा कि आओअब तो क्रोध से बचना नहीं हैइसलिए आओक्रोध करोअब तो सेक्स से बचना नहीं हैइसलिए आओ और सेक्स में डूबोअब तो लोभ से बचना नहीं हैइसलिए दौडो और रुपये इकट्ठे करो। जैसे ही हम इस दमन से बचेंगे,वैसे ही भतो निमंत्रण देगा कि आ जाओ।
      उस भोग से बचने के लिए भी क्या करना हैउसकी कल के सूत्र में आपसे बात करूंगा।
      मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुनाउससे बहुत-बहुत अनुग्रहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्‍मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें। 
'जीवन-क्रांति के सूत्र',
बड़ौदा 
14 फरवरी 1969

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