ओशो ने ईश्वरवादी और ईश्वर-विरोधी दोनों की आंखें खोल दी है। ईश्वर वादी मंदिर में जाकर प्रभु से चूक गया और ईश्वर विरोधी मंदिरों से लड़कर चूक गया। बात अजीब है लेकिन यह सत्य है। ओशो ने हजार-हजार स्थानों पर ईश्वर को, उसके अस्तित्व को, उसकी अधिसत्ता को नकारा है।
ईश्वर के साथ जूड़ी हुई पाप-पुण्य, स्वर्ग नरक,अवतारवाद और पाखंड जैसी धारणाओं को उन्होंने अस्वीकृत कर दिया है। क्या मनुष्य मंदिरों के बगैर, धर्मग्रंथों के बगैर धार्मिक नहीं हो सकता। यह केसी लंगड़ी धार्मिकता है। जिसे मंदिरों और मूर्तियों की बैसाखी के सहारे चलना पड़े। यह तो जीवन को बोझिल बनाना हुआ। रूग्ण ही बनना हुआ। उसे तो फूल की तरह प्रसन्न होना चाहिए। उन्हीं के शब्दों में,‘मंदिर की मूर्ति उन्होंने ईजाद की है जो सब तरफ से परमात्मा से बचना चाहते है।’ इसलिए आदमियों के बनाये उस भगवान के संबंध में वे कुछ नहीं कहते। मूर्तिपूजा का ऐसा अत्यंत मर्मग्राही एवं ह्रदय-स्पर्शी खंडन उन्होंने किया है। साथ ही भगवान, निगुर्ण, निराकार,परमात्मा, संसार, ध्यान आदि संकल्पनाओं, प्रतीकों को उन्होंने अपनी जीवंत प्रतिभा की नयी रोशनी प्रदान की है।
ईश्वर के साथ जूड़ी हुई पाप-पुण्य, स्वर्ग नरक,अवतारवाद और पाखंड जैसी धारणाओं को उन्होंने अस्वीकृत कर दिया है। क्या मनुष्य मंदिरों के बगैर, धर्मग्रंथों के बगैर धार्मिक नहीं हो सकता। यह केसी लंगड़ी धार्मिकता है। जिसे मंदिरों और मूर्तियों की बैसाखी के सहारे चलना पड़े। यह तो जीवन को बोझिल बनाना हुआ। रूग्ण ही बनना हुआ। उसे तो फूल की तरह प्रसन्न होना चाहिए। उन्हीं के शब्दों में,‘मंदिर की मूर्ति उन्होंने ईजाद की है जो सब तरफ से परमात्मा से बचना चाहते है।’ इसलिए आदमियों के बनाये उस भगवान के संबंध में वे कुछ नहीं कहते। मूर्तिपूजा का ऐसा अत्यंत मर्मग्राही एवं ह्रदय-स्पर्शी खंडन उन्होंने किया है। साथ ही भगवान, निगुर्ण, निराकार,परमात्मा, संसार, ध्यान आदि संकल्पनाओं, प्रतीकों को उन्होंने अपनी जीवंत प्रतिभा की नयी रोशनी प्रदान की है।
वे मनुष्यता को निर्दोष,निर्विकल्प बनाने का मार्ग प्रशस्त करते है। जीवन के तमाम क्रिया-कलापों को विशुद्ध होश से भर देना चाहते है। ताकि मनुष्य जाति में महत क्रांति फलित हो। उन्होंने तथ्यगत तर्क हमें उनकी स्वीकृति के लिए बाध्य नहीं करते अपितु अंतर्मन से तैयार ही कर देते है। उनका प्रयास अहंकार को स्वीकार में घृणा को प्रेम में,बेहोशी को होश में परिणत करने का प्रयास है।
बी. भालेकर, लेखक एवं वक्ता
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