इधर मनुष्य के जीवन में निरंतर पीड़ा, दुःख और अशांति बढ़ती गई है। बढ़ती जा रही है। जीवन के रस का अनुभव,आनंद का अनुभव विलीन होता जा रहा है। जैसे एक भारी बोझ पत्थर की तरह हमारे मन और ह्रदय पर है, हम जीवन भर उसमें दबे-दबे जीते है। उसी बोझ के नीचे समाप्त हो जाते है। लेकिन किस लिए यह जीवन था। किसी लिए हम थे। कौन सा प्रयोजन था? इस सब को कोई अनुभव नहीं हो पाता है। यह कौन सा बोझा है जो हमारे चित पर बैठ कर हमारे जीवन का रस सोख लेता है। कौन साभार है, जो हमारे प्राणों पर पाषाण बन कर बोझिल हो जाता है?
यह भार क्या है। यह वेट क्या है, जो आपकी जान लिए लेता है। मेरी जान लिए लेता है। सारी दुनियां की जान लिए लेता है। यह कौन सा पाषाण-भार है, जो आपके कंघे पर है? कौन सी चीज है जो दबाए देती है। ऊपर नहीं उठने देता। आकांक्षाओं तो आकाश छूना चाहती है। लेकिन प्राण तो पृथ्वी से बंधे है। क्या है, कौन सी बात है? कौन रोक रहा है? कौन अटका रहा है? किसने यह सुझाव दिया है कि इस पत्थर को अपने सिर पर ले लेना? किसने समझाया?शायद हमारे अहंकार ने हमको भी फुसलाया है। शायद हमारी अस्मिता ने ईगो ने, हमको भी कहा है कि भर सिर ले लो। क्योंकि इस जगत में जिसके सिर पर जितना भार है, वह उतना बड़ा है। बड़े होने की दौड़ है, इसलिए भार को सहना पड़ता है।
लेकिन सारी दुनिया,सारे मनुष्य का मन कुछ ऐसी गलत धारणा में परिपक्व होता है, निर्मित होता है कि जिन पत्थरों को हम अपने ऊपर अपने हाथों से ही रखते है। कौन सी चीजें है, कौन सा केंद्र है जिस पर भर को रखने वाले हाथ मेरे ही है। कौन सी चीजें है,कौन सा केंद्र है जिस पर भार इकट्ठा होता है। कौन से तत्व है जिनसे पत्थर की तरह भार संग्रहीत होता है। उनकी ही मैं आपसे चर्चा करना चाहता हूं।
केंद्र है मनुष्य का अहंकार। केंद्र है मनुष्य की यह धारणा की मैं कुछ हूं। केंद्र है मैं का बोध। और यह मैं इस जगत में सबसे ज्यादा असत्य, सबसे ज्यादा भ्रामक, सबसे ज्यादा इलुजरीहै। यह मैं कहीं है नहीं। यह मैं कहीं है नहीं। इस शैडोई, इस अत्यंत भ्रामक,इस अत्यंत भ्रमपूर्ण मैं के लिए सारी दौड़ चलती है जो कह कहीं है ही नहीं।
--ओशो
स्वयं की सत्ता
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