बीइंग एंड टाईम-मार्टिन हाइडेगर—(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

कभी-कभार कोई ऐसी किताब प्रकाशित होती है। जो बुद्धिजीवियों की जमात पर टाइम-बम का काम करती है। पहले तो उसकी अपेक्षा की जाती है लेकिन जैसे-जैसे मत बदलते है वह लोगों का ध्‍यान आकर्षित करने लगती है। ऐसी किताब है जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर द्वारा लिखित ‘’बीइंग एंड टाईम’’

      इसका प्रभाव न केवल यूरोप और अमेरिका के दर्शन पर हुआ बल्‍कि वहां के साहित्‍य और मनोविज्ञान पर भी हुआ। इसके प्रशंसक तो यहां तक कहते है कि उसने आधुनिक विश्‍व का बौद्धिक नक्‍शा बदल दिया। सार्त्र, मार्टिन वूबर, और कामू जैसे अस्‍तित्‍ववादी दार्शनिक हाइडेगर से बहुत प्रभावित थे। यह किताब पहली बार 1927 में प्रकाशित हुई। चूंकि हाइडेगर जर्मन लोगों के लिए बेबूझ था। इस लिए इसका अनुवाद करना लगभग असंभव था। लेकिन हाइडेगर के प्रभाव शाली शिष्‍य जॉन मैकेरी और एडवर्ड रॉबिन्‍सन ने बड़ी मेहनत से यह किताब अंग्रेजी में उपलब्‍ध कराई। हाइडेगर की खूबी यह है कि वह प्रचलित शब्‍दों का सामान्‍य अर्थों में प्रयोग नहीं करता, वरन उन्‍हें अपने आशय देता है। इस करके उसका लेखन बेहद तरोताजा होता है। पाठक को पुलकित करता है लेकिन अनुवाद के लिए चुनौती बनता है। कभी-कभी वह शब्‍दों के पुराने धातुओं में जाकर उनके नए अर्थ गढ़ता है। हाइडेगर की प्रतिभा भाषा के साथ अभिसार करती है। यह किताब वाकई अनुवाद तथा पाठक, दोनों के लिए बुद्धि की कवायद है। न केवल इसकी भाषा बल्‍कि इसका विषय ‘’अंतस और समय’’ भी बड़ा ही दुर्बोध और अगम है। और इसे सुबोध करने में हाइडेगर की लेखनी कहीं भी सहयोग नहीं करती।
      पूरी किताब जीवन के दो बुनियादी गहन बिंदुओं का ऊहापोह है—स्‍वयं का होना और समय। और सचमुच गहराई से देखें तो मनुष्‍य को जीवन के ये ही दो प्रश्‍न बहुत परेशान करते है। मैं कौन हूं? और समय क्‍या है? हाइडेगर लिखता है कि हम जो कि समझते थे कि हम जानते है, कि अपना होना, बीइंग क्‍या है, अब बिबूचन में  पड़ गया है। क्‍या हमारे पास इसका कोई उत्‍तर है। कि बीइंग का वास्‍तविक अर्थ क्‍या है? जरा भी नहीं। इस ग्रंथ में हम इसका अनुसंधान करेंगे। कि बीइंग अर्थात होना क्‍या है? और इसका समय के साथ क्‍या रिश्‍ता है?
      अपने होने के भिन्‍न-भिन्‍न पहलूओं का बारीक विश्‍लेषण हाइडेगर इतनी प्रवीणता से करता है कि पढ़ने वाले को अपने-आप पर संदेह होने लगाता है। क्‍या सचमुच हम वह है जैसा कि हम मानते है? क्‍या यह विश्‍व वास्‍तव में है या हमने इसे मान लिया है? इस मोटी किताब का (488 पृष्‍ठ) तीसर परिच्‍छेद है: ‘’दि वर्ल्ड हुड ऑफ दि वर्ल्‍ड’’ विश्‍व का विश्‍वता। विश्‍व के संदर्भ में अपने होने का मतलब समझना हो तो पहले यह समझना जरूरी है कि यह विश्‍व क्‍या है। सतही तौर पर माना जायेगा कि विश्‍व को समझने की क्‍या जरूरत है? यह तो है ही। नहीं, हाइडेगर की नजरों से देखें तो आप जानेंगे कि आपने कभी विश्‍व को समझा ही नहीं है। क्‍या विश्‍व वे सारी वस्तुएँ है जो उसके भीतर है? जैसे मकान, लोग, वृक्ष पर्वत, सितारे..... ? यदि इन वस्‍तुओं का हटा लें तो विश्‍व क्‍या होगाहोगा या नहीं होगा? क्‍या बीइंग भी एक वस्‍तु है या वस्‍तुओं से पहले की घटना है? क्‍या वस्‍तुओं का अपना मूल्‍य है या वह मूल्‍य उनमें हमने डाला हुआ है? हमने—याने किसने?
      .....फंस गए न भंवर में। इसी भँवर का ना है मार्टिन हाइडेगर। बीसवीं सदी का मूर्धन्‍य अस्‍तित्‍ववादी दार्शनिक। ओशो ने इसकी किताब को अपनी मनपसंद किताबों में शामिल तो किया है लेकिन साथ में यह भी कहा है कि जो तीसरे दर्जे के पागल है वह ही इसे पढ़े।
      फिर भी, चल पड़े है तो थोड़ी दूर तो चलना चाहिए।
      मृत्‍यु के संबंध में हाइडेगर का चिंतन भी असामान्‍य है।
किताब की एक झलक--
      हम एक दूसरे के साथ रोजमर्रा की जिंदगी में जिस प्रकार की सार्वजनिकता में है उसमे मृत्‍यु को एक ऐसी दुर्घटना माना जाता है जो निरंतर घट रही है। कोई न कोई ‘’मरता’’ है—चाहे पड़ोसी हो या अजनबी। लोग, जिनका हमसे कोई परिचय नहीं है वे मर रहे है—प्रतिदिन, प्रति घंटे। मृत्‍यु एक जानी मानी घटना है जो विश्‍व के भीतर घटती है। लोगों ने  इस घटना की व्‍याख्‍या अपनी सुविधा के लिए की हुई है। जिसका सार इस प्रकार है....’’कभी न कभी हमें मरना होगा, अंत में, लेकिर अभी हमारा इससे कोई लेना देना नहीं है।‘’
      ‘’व्‍यक्‍ति मरता है’’ इस वाक्‍य का विश्‍लेषण असंदिग्‍ध रूप से ऐसा होने को प्रगट करता है जो मृत्‍यु की और उन्‍मुख है। इस प्रकार की वार्ता में मृत्‍यु को कुछ ऐसी अनिश्‍चिता समझा जाता है जो प्राथमिक रूप से अभी करीब नहीं है। और इसलिए उससे कोई खतरा नहीं है। यह वक्‍तव्‍य यह ख्‍याल प्रसारित करता है कि मृत्‍यु जिन तक पहूंचती है वे दूसरे लोग है। बीइंग या अपना ‘’होना’’ कभी यह नहीं सोच सकता की मरनेवालों में मैं भी शामिल है।
      सभी जीनियसों की तरह हाइडेगर भी रूढिवादिता और पिटी-पिटाई धारणाओं से संतुष्‍ट नहीं है। वह हर मान्‍यता की जड़ तर उतरता है। और अंतिम छोर तक पहुंचने के बाद उसे पता चलता है कि वह एक बेबूझ पहली है। सभी गहन चिंतक उस ‘’डेड एंड’’ पर पहुंचते है जो रहस्‍य का द्वार होता है। उसके आगे सोच-विचार संभव नहीं है। अज्ञेय और छलांग ही काम आती है।
      इस विशाल किताब का अंत दो प्रश्‍न वाचक वाक्‍यों से होता है—‘’क्‍या कोई रास्‍ता है जो आदिम समय से निकल कर बीइंग के, होने के अर्थ तक पहुँचाता है? क्‍या समय स्‍वयं को होने के क्षितिज पर प्रकट करता है?
      मार्टिन हाइडेगर जर्मनी में 1989 में पैदा हुआ। फ्रेबर्ग विश्‍वविद्यालय में वह प्राध्‍यापक रहा। हाइडेगर के माता-पिता निम्न 8मध्येवर्गीय परिवार के थे। उसकी मां किसान की बेटी थी। और पिता मजदूर थे। लेकिन वह खुद बहुत मेधावी था इसलिए शिष्‍य वृति पाकर उच्‍च शिक्षा ले सका। उसके जीते जी उसके जीवन का एक पहलू अज्ञात रहा। जो 1987 में उसके एक विद्यार्थी ने उजागर किया। वह पहलू यह था कि हाइडेगर नाझी पार्टी का सदस्‍य था। 1933 में वह नाझी पार्टी में शामिल हुआ। वह हिटलर से इतना प्रभावित कि फ्रेबर्ग विश्‍वविद्यालय में वह नाझी वाद की नीतियों का लागू करना चाहता था। न जाने कैसे, अब तक उसका यह हिटलर प्रेम दुनिया की नजरों से छिपा रहा। मन की जटिलता का कोई क्‍या कहे। हो सकता है हिटलर की और आकर्षित होने का कारण उसका गरीब, सुकड़ता बचपन रहा हो।
      जो भी हो, इस काली छाया के बावजूद या हो सकता है इसकी वजह से, हाइडेगर का मौलिक योगदान दर्शन के क्षितिज पर चंद्रमा की तरह चमकता है। वह बीसवीं सदी की पाश्‍चात्‍य दर्शन धाराओं की गंगोत्री था। 1976 में उसका देहांत हुआ और तब तक वह बीइंग एंड टाइम’’ का दूसरा भाग प्रकाशित न कर सका।

ओशो का नज़रिया--
      दूसरी किताब है, मार्टिन हाइडेगर की ‘’बीइंग एंड टाइम’’ मुझे यह आदमी बिलकुल पसंद नहीं है। वह न केवल कम्युनिस्ट था बल्‍कि फासिस्‍ट भी था। एडोल्फ हिटलर को मानने वाला। जर्मन लोग क्‍या कर सकते है। उस पर भरोसा नहीं होता। वह इतना प्रतिभाशाली आदमी था, जीनियस था, और फिर भी उस विक्षिप्‍त, मूढ़ एडोल्फ हिटलर का समर्थक था। मैं वाकई हैरान हूं।
      लेकिन उसकी किताब अच्‍छी है—मेरे शिष्‍यों के लिए नहीं वरन जो अपने पागलपन में बहुत आगे निकल गये है उनके लिए। यदि तुम्‍हारा पागलपन बहुत बढ़ चुका है तो बीइंग एंड टाइम पढ़ो। यह समझने से बिलकुल परे है। वह तुम्‍हारे सिर पर हथौड़े की तरह चोट करेगी। लेकिन उसमें कुछ सुदंर झलकें है। जब कोई तुम्‍हारे सिर के ऊपर हथौड़े से चोट करता है तो दिन में तारे नजर आते है। यह किताब ऐसी ही है, उसमे कुछ तारे है।
      यह किताब अधूरी है। मार्टिन हाइडेगर ने दूसरा भाग प्रकाशित करने का वादा किया था। वह जिंदगी भर, बार-बार दूसरा भाग प्रकाशित करने का वादा करता रहा लेकिन कभी उसने उसे लिख नहीं। शुक्र है। मैं सोचता हूं कि उसे खुद समझ में नहीं आया होगा कि उसने क्‍या लिखा है? तो आगे क्‍या लिखता? दूसरा भाग कैसे छापता? और दूसरा भाग उसके दर्शन की पराकाष्‍ठा होने वाली थी। उसे न लिखना ही बेहतर था। कम से कम मज़ाक का विषय तो न बना।  वह दूसरा भाग लिखे बगैर ही मर गया। लेकिन पहला भी  अंतिम दर्जे के पागलों के लिए अच्‍छा है। और ऐसे कई लोग है। इसलिए मैं इन किताबों पर बोल कर उन्‍हें अपनी सूची में सम्‍मिलित कर रहा हूं।
ओशो
बुक्‍स आय हैव लव्‍ड

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