नालंदा विश्वनविद्यालय—भारत एक सनातन यात्रा
बड़ा विश्वविद्यालय था, नालंदा। दस हजार विद्यार्थी थे। चीन और लंका और कंबोदिया और जापन और दूर-दूर से लोग, मध्य एशिया और इजिप्त, सब तरफ से विद्यार्थी आते थे। पैदल यात्रा थी। जो चल पड़ा,वह लोट कर भी आएगा घर वापस, इसका पक्का न था। लोग रो लेते अरे गांव के बाहर जाकर विदा कर आते कि गया यह आदमी, अब क्या लोटेगा, घने जंगल थे, पहाड़-पर्वत थे, भंयकर खाई या थी। डाकू थे। जंगली जानवर थे। और फिर जो गया है ऐसी खोज में वह कहीं लौटता है यह खोज ही ऐसी है।
नालंदा जैसी जगह में, जहां ज्ञानी यों का वास था, वहां वर्षों लग जाते। जवान आते लोग और बूढे हो जाते। और जब तक गुरु कह न दे कि हां,पुरी हो गई बात....
तीन विद्यार्थी आखिरी परीक्षा पार कर लिए थे। लेकिन गुरु जाने के लिए नहीं कह रहा था। आखिर एक दिन एक ने पूछा कि हम सुनते है कि आखिरी परीक्षा भी हमारी हो गयीं , लेकिन लगता है हुई नहीं, क्योंकि हत से जाने के लिए नहीं कहां गया। बीस वर्ष हो गए हमें आए, घर के लोग जीवित हैं या नहीं; जिनको पीछे छोड़ आए है। वे बचे भी या नहीं; मां-बाप बूढे है। अब हम जाएं अगर हमारी परीक्षा पूरी हो गयी हो।
तो गुरु ने कहा, आज सांझ तुम जा सकते हो।
लेकिन आखिरी परीक्षा शेष रह गयी थी। पर आखिरी परीक्षा ऐसी थी कि वह ली नहीं जा सकती थी; वह तो एक तरह की कसौटी थी, जिसमें से गुजरना पड़ता था।
सांझ को तीनों विद्यार्थी विदा हुए। दूर नगर है, जहां रात जाकर टिकेंगे। सांझ होने लगी, सूरज ढल गया। एक झाड़ी के पास आए। गुरु झाड़ी में छिपा बैठा है। उसने झाड़ी के बाहर कांटे बिछा दिए है। छोटी-सी पगडंडी है। कांटे बिछे हुए है। एक विद्यार्थी पगडंडी से नीचे उतर कर, कांटों को पार करके आगे बढ़ गया। दूसरे विद्यार्थी ने छलांग लगा ली। तीसरा रूक गया और कांटों को बीन कर झाड़ी में डालने लगा।
उन दो ने कहा, यह क्या कर रहे हो, जल्दी ही रात हो जाएगी। दूर हमें जाना है; जंगल है, बीहड़ है, खतरा है। ये कांटे-वांटे बीनने में मत समय खराब करो।
पर उस तीसरे विद्यार्थी ने कहा कि सूरज डूब गया है। रात होने के करीब है। हमारे बाद जो भी आएगा, उसे दिखाई नहीं देगा कि कांटे है रास्ते में। हम ही आखरी है इस पगडंडी पर आज की रात, जिनको कि दिखाई पड़ रहा है। बस, अब ढला सूरज,तब ढला। रात उतर रही है। इन्हें बीनना ही पड़ेगा। तुम चलो, में थोड़े पीछे हो लुंगा।
और तभी वे चौके कि झाड़ी से गुरु बाहर आ गया उसने कहा,दो जो चले गए है। वापस लौट आएं। वह परीक्षा में असफल हो गए है। अभी उन्हें कुछ वर्ष और रूकना पड़ेगा। और तीसरा जो रूक गया हे। कांटे बीनने, वह उत्तीर्ण हो गया है। वह अब जा सकता हे।
क्योंकि अंतिम परीक्षा शब्दों की नहीं है; अंतिम परीक्षा तो प्रेम की है। अंतिम परीक्षा पांडित्य की नहीं है; अंतिम परीक्षा तो करूणा की है।
गुरु के चरणों में बैठकर लोग सीखते थे, वर्षो लग जाते थे। अजीब-अजीब परीक्षाएं थी। लेकिन खोज ही लेते थे उन चरणों को, जहां घूँघट उठ जाते हे।
देर लगती थी, कठिनाई होती थी। लेकिन कठिनाई की भी अपनी खूबी है। कठिनाई भी निखारती है; भीतर की राख को अलग करके झाड़ देती है। कुडा-करकट को जला देती है।
--ओशो,
No comments:
Post a Comment
Must Comment