’स्वार्थसंयमात्पुरूश ज्ञानम्--
पतंजलि कहते है, ‘’स्वार्थ परम ज्ञान ले आता है।‘’
स्वार्थ। स्वार्थी हो जाओ, यही है धर्म का वास्तविक मर्म, यह जानने का प्रयास करो कि तुम्हारा वास्तविक स्वार्थ क्या है। स्वयं को दूसरों से अलग पहचानने का प्रयास करो—परार्थ, दूसरों से अलग। और यह मत सोचना कि जो लोग तुम से अलग है, बहार है, वहीं दूसरे है। वे तो दूसरे है ही। लेकिन तुम्हारा शरीर भी दूसरा है। एक दिन तुम्हारा शरीर भी मिट्टी में मिल जायेगा। शरीर भी इस पृथ्वी का अंश है। तुम्हारी श्वास भी तुम्हारी नहीं है। वह भी दूसरों के द्वारा दी हुई है; वह हवा में वापस लौट जायेगी। बस कुछ थोड़े समय के लिए ही तुम्हें श्वास दी गयी है। वह श्वास उधार मिली हुई है। तुम्हें उसे लौटाना ही होगा। तुम यहां नहीं रहोगे। लेकिन तुम्हारी श्वास यहीं हवाओं में रहेगी। तुम यहां नहीं रहोगे, लेकिन तुम्हारा शरीर पृथ्वी में रहेगा। मिट्टी-मिट्टी में मिल जाएगी। जिसे अभी तुम अपना रक्त समझते हो, वह नदियों में प्रवाहित हो रहा होगा। सभी कुछ यहीं समाहित हो जाएगा।
लेकिन एक चीज तुमने किसी से उधार नहीं ली। और वह है तुम्हारा साक्षी भाव, वह है तुम्हारी जागरूकता। बुद्धि खो जायेगी, तर्क खो जाएगा। यह सभी ऐसे ही है जैसे आकाश में बादल आते है: वे आते है और फिर चले जाते है। लेकिन आकाश वहीं का वही रहता है। तुम विराट आकाश की भांति ही बने रहोगे। वहीं अनंत विराट आकाश पुरूष है—अंतर आकाश ही पुरूष है।
इस अंतर आकाश को कैसे जाना जा सकता है। इसके लिए स्वार्थ में संयम प्रतिष्ठित करना होता है। धारण, ध्यान और समाधि इन तीनों को आत्मा पर केंद्रित कर दो—भीतर की और मुड़ जाओ पश्चिम में लोग बाहर की और भाग रहे है। तुम हमेशा बाहर की और ही भागते हो। भीतर मुड़ो। अपनी चैतन्य को केंद्रीय बिंदू तक ले आने दो। विषय वस्तु के बीच की भिन्नता को पहचानना होगा। जब भूख लगे—भूख एक विषय है। फिर तुमने भोजन कर लिया और भोजन करके संतुष्ट हो गए, तो एक प्रकार का सुख मिलता है—यह सुख की प्राप्ति भी एक तरह का विषय है। सुबह होती है—यह भी एक विषय है, सांझ होती है, यह भी एक विषय है, तुम वैसे ही रहते हो—भूख हो या न हो, जीवन हो या मृत्यु हो, दुःख हो या सुख हो, तुम उसी भांति साक्षी बने रहते हो।
इसके पश्चात अंतर्बोध युक्त श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, आस्वाद और आध्राण की उपलब्धि चली आती है।
फिर से इस प्रतिभा शब्द को समझ लेना। जो व्यक्ति परिपूर्ण ध्यान को उपलब्ध हो जाता है, परिपूर्ण जागरूकता, होश को उपलब्ध हो जाता है, परिपूर्ण अंतर स्पष्टता, निर्दोषता को उपलब्ध हो जाता है, वह व्यक्ति प्रतिभा को उपलब्ध हो जाता है। प्रतिभा अंतर्बोध नहीं है। सूर्य; अंतर्बोध है चंद्र, प्रतिभा इन दोनों का अतिक्रमण है। पुरूष बौद्धिक होता है, स्त्री अंतर्बोध से जीती है। लेकिन बुद्ध पुरूष न तो पुरूष होता है और न स्त्री होता है।
अगर कोई व्यक्ति बुद्धि से जीता है तो वह आक्रामक होता है। बुद्धि आक्रामक होती है। सूर्य ऊर्जा आक्रामक होती है। इसीलिए हमने कभी नहीं सुना कि किसी स्त्री ने किसी पुरूष का बलात्कार किया हो। यह असंभव है। केवल पुरूष ही स्त्री का बलात्कार कर सकता है। सूर्य ऊर्जा आक्रामक होती है। चंद्र-ऊर्जा ग्राहक होती है। बुद्धि आक्रामक होती है; अंतर्बोध ग्राहक होती है। अगर तुममें ग्राहकता है, ग्रहण करने की क्षमता है, तो अंतर्बोध से जुड़ जाओगे। फिर वह चीजें दिखाई पड़ने लगती है। जिन्हें एक बुद्धि से जीने वाला व्यक्ति कभी नहीं देख सकता।, क्योंकि वह खुला हुआ नहीं है।
और मजेदार बात बुद्धि से जीने वाला व्यक्ति उन्हीं की खोज में होता है, और अंतर्बोध वाला आदमी उनकी तलाश में नहीं होता। लेकिन फिर भी उन्हें देख कसता है। सच तो यह है, सभी बड़े-बड़े आविष्कार बौद्धिक लोगों से ही संपन्न होते है। लेकिन वे आविष्कार तभी संभव हो सकते है जब वे अंतर्बोध की भाव दशाओं में होते है। बड़े-बड़े आविष्कार अंतर्बोध से संचालित लोगों के द्वारा नहीं हो पाते है। क्योंकि उन्हें उनकी खोज नहीं होती। अगर वे उसके निकट भी आ जाएं, अगर वे उनके ठीक सामने भी आ जाएं, तो भी वे उनको भूल जाते है।
इसी कारण तो स्त्रियां कभी कोई आविष्कार नहीं कर पाईं, ऐसा नहीं है कि उनके साथ उस तरह की घटनाएं कभी घटित नहीं हुई—पुरूषों की अपेक्षा वे घटनाएं उनके साथ अधिक घटित होती है। थोड़ा इस बात पर कभी गौर करना यहां तक कि पाक विज्ञान, भोजन-शास्त्र, भी पुरूषों द्वारा रचा गया है। स्त्रियों के द्वारा नहीं। सभी अच्छे रसोईए पुरूष है। कम से कम भोजन के क्षेत्र में तो ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन सभी बड़े-बड़े होटल, पाँच सितारा होटल, सब नये प्रयोग पाक-शास्त्र संबंधित सारी खोजें, सब नये प्रयोग पुरूषों ने किये है। ऐसा नहीं है कि वे आविष्कार नहीं कर सकती है—वह कर सकती है—लेकिन वे तो केवल ग्रहणशील होती है। कई बार ऐसी परिस्थिति आती है जब वे कुछ आविष्कार कर सकती है। लेकिन वह ऐसे ही चली जाती है। वे उस और ध्यान ही नहीं देती है।
जो बौद्धिक होते है, जो लोग बुद्धि से जीते है, वे निरंतर खोजबीन में लगे रहते है। हर जगह कुछ न कुछ खोजते रहते है; वे कोई सी भी बात ऐसी नहीं चाहते है, जो बिना प्रकट हुए बिना उधड़ रह जाए। वे हर कोने कातर को उघाड़ने की कोशिश में लगे रहते है। मनस्विदों का कहना है कि सभी वैज्ञानिक खोजों का कारण पुरूष की काम ऊर्जा है।
तुम किसी छोटे लड़के को कोई खिलौना पकड़ा दो: कुछ मिनट में ही वह खिलौना टूट-फूट जाएगा। वह बच्चा उस खिलौने से को खोलेगा, उसे देखेगा। वह उस खिलौने के भीतर देखना चाहता है कि वहां है क्या। तुम किसी छोटी लड़की के हाथ में खिलौना दे दो: वह वर्षों तक उसे सम्हालकर रखेगी। वह उसे अलमारी में रखकर ताला लगा देगी। या उस खिलौने को सजाएगी-संवारेगी। लेकिन अगर लड़का हुआ तो वह तुरंत उसे तोड़ फोड देगा। वह उसे खोलकर देखना चाहता है। कि खिलौना कैसे बना। वह जानना चाहता है कि यह खिलौना कैसे चलता है। वह उसे गहराई में उतरना चाहता है। वह पूरी खोज बीन कर लेना चाहता है।
पूरा का पूरा विज्ञान एक ढंग से पुरूष की काम भावना ही है—खोजते जाना, खोजते जाना।
पुरूषों के लिए बुद्धि से जीना आसान होता है, क्योंकि बुद्धि भी उसी दिशा में गति करती है। जिसमे आक्रामकता, तार्किकता गति करती है। स्त्रियां अधिक अंतर्बोध से जीती है। वे अपनी अंतस प्रेरणा से जीती है। स्त्रियां तुरंत निर्णय ले लेती है। इसी लिए किसी भी स्त्री के साथ तर्क करना बहुत कठिन है। वह पहले से ही निर्णय पर पहुंच जाती है। तर्क करने की कोई जगह ही नहीं बचती। स्त्री के साथ तर्क करना अपना समय नष्ट करना है। वह हमेशा पहले से ही जानती है कि अंतिम परिणाम क्या होने वाला है। वह तो केवल परिणाम की घोषणा की प्रतीक्षा में रहती है। तुम किसी भी ढंग से स्त्री से तर्क करो.....सब व्यर्थ वाला है। वह पहले से ही परिणाम के संबंध में सुनिश्चित होती है।
जादू-टोने की कला स्त्रियों की कला-कौशल रही है। इसीलिए इसे जादू-टोना कहते है। जादूगरनियों का सारा संसार अंतर्बोध से जुड़ा रहा है। पंडित पुरोहित इस जादू टोने की कला के विरोध में थे। क्योंकि उनका तो पूरा संसार ही बुद्धि से जुड़ा हुआ था। स्मरण रहे, जादू-टोने से संबंधित लगभग सभी स्त्रियां ही थी; और लगभग सभी पंडित पुरोहित पुरूष थे। पहले तो पंडित-पुरोहितों ने जादू-टोने वाली स्त्रियों को जला डालने की कोशिश की। मध्य युग में यूरोप में इसी कला के कारण हजारों स्त्रियों को जला दिया था। क्योंकि पंडित-पुरोहितों की समझ के बाहर था अंतर्बोध के जगत को समझना। उनका इसमें विश्वास ही न था। वह बात ही उन्हें खतरनाक लगती थी। वे जादू-टोने वाली स्त्रियों को पूरी तरह से मिटा देना चाहते थे।
और उन्होंने पूरी तरह से नष्ट भी कर दिया। उन्होंने संवेदनशीलता के सबसे सुंदर माध्यम, सूक्ष्म ज्ञान के सुंदरतम साधन बुद्धि के जगत से ऊपर के श्रेष्ठतम संभावनाओं के सबसे सुंदर जगत को नष्ट कर देने का प्रयास किया। जहां कहीं भी उन्हें कोई जादू-टोने वाली स्त्री मिली, उन्होंने उसकी हत्या कर दी। और पंडित-पुरोहितों ने स्त्रियों को इतना भयभीत कर दिया कि स्त्रियों ने भय के कारण उस क्षमता को ही खो दिया।
अब फिर वैसी ही स्थिति मौजूद हो गई है। मनोविश्लेषक अंत ज्ञान की कला के विरूद्ध है—वे सब पुरूष है। अब मनोविश्लेषकों ने पंडित-पुरोहितों का स्थान ले लिया है—वे सब पुरूष है। फ्रायड वादी, एडलर के पीछे चलने वाले, वे सभी पुरूष है। वे स्त्री के विरूद्ध है, स्त्री के खिलाफ है। और क्या तुम्हें मालूम है उनके यहां आने वाले अधिकांश रोगियों में स्त्रियां ही होती है। इसमें जरूर कुछ बात है।
और जब स्त्री जादूगरनियों हुआ करती थी। तो उनके अधिकांश रोगी पुरूष थे। बुद्धि अंतर्बोध का सहयोग चाह रही थी। पुरूष स्त्री की मदद चाह रहा था।
अब इसके ठीक विपरीत हो रहा है। सभी मनोविश्लेषक पुरूष है और उनकी सभी रोगी स्त्रियां है। अब अंतर्बोध इतना अपंग और विनष्ट हो चुका है कि उसे बुद्धि की मदद लेनी ही पड़ रही है। श्रेष्ठ निम्न का सहयोग खोज रहा है। यह तो मनुष्य जाति का ह्रास है, मनुष्य जाति की दुर्दशा है। यह बहुत ही दुःख की बात है। ऐसा नहीं होना चाहिए।
विज्ञान का पूरा इतिहास इसे प्रमाणित भी करता है। जब अंतर्बोध का उपयोग विधि की भांति किया जाता था। तो उसकी कीमिया भी मौजूद थी। जब बुद्धि की शक्ति बढ़ गयी, तो वह कीमिया, वह अल्केमी भी खो गई, और तब रसायन का, केमिस्ट्री का जन्म हुआ। अल्केमी या कीमिया का संबंध अंतर्बोध से है, कैमिस्ट या रसायन का संबंध बुद्धि से है। अल्केमी चंद्र था; केमिस्ट्री सूर्य है। जब चंद्र प्रमुख था, तब अंतर्बोध प्रवल था। ज्योतिष विज्ञान का आस्तित्व था। अब तो गणित खगोल-विज्ञान का अस्तित्व है। ज्योतिष तो खो गया है। ज्योतिष है चंद्र, खगोल है सूर्य। और इस कारण संसार बहुत दरिद्र हो गया है।
जैसे पुरूष को उसके सूर्य केंद्र पर खिलना है, ऐसे ही स्त्री को उसके चंद्र-तल पर खिलना है, लेकिन प्रतिभा उन दोनों के पार है। बुद्धि मनोविज्ञान है, अंतर्बोध परा मनोविज्ञान है, प्रतिभा उन दोनों के पार का मनोविज्ञान है।
‘’इसके पश्चात अंतर्बोध युक्त श्रवण स्पर्श, दृष्टि, आस्वाद और आध्राण की उपलब्धि चली आती है।
स्मरण रहे, यह बात दो स्तर पर घट सकती है। अगर तुम चंद्र-केंद्रित व्यक्ति हो, स्त्री तत्व से जुड़े हुए हो—पुरूष हो या स्त्री हो उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है—अगर तुम चंद्र-केंद्र से क्रियाशील होते हो, तो तुम बहुत कुछ ऐसा सुन सकोगे, जिसे दूसरे लोग नहीं सुन सकेत। और तुम ऐसा बहुत कुछ देख सकोगे जिसे दूसरे लोग नहीं देख सकते है। तुम्हारे भीतर छिपे हुए अज्ञान तत्व की अनुभूति पाने की क्षमता तुममें आ जायेगी। तब अज्ञात का आयाम तुम्हारे लिए अपरिचित और अनजाना न रह जाएगा। अज्ञान तुम्हारे सामने थोड़ा अपना पर्दा उठाने लगेगा।
आज परा-मनोविज्ञान के द्वारा मनोवैज्ञानिक इसी बात को अध्ययन कर रहे है। अब यह बात और जोर पकड़ रही है। अब कुछ विश्वविद्यालयों ने परा-मनोवैज्ञिक के विभाग भी खोले है। परा मनोविज्ञान पर आजकल बहुत अन्वेषण कार्य चल रहा है। यहां तक कि सोवियत रूस में भी। क्योंकि पुरूष तो एक ढंग से असफल हो गया है; सूर्य केंद्र असफल हो गया है। हम हजारों वर्षों से इसी सूर्य केंद्र के द्वारा जीते आए है; और वे लोग केवल हिंसा, युद्ध और दुःख में ही ले गए है। अब दूसरे केंद्र से जुड़ना है।
सोवियत रूस तक में भी, जो कि पूरी तरह से सूर्य-केंद्रित है। कम्युनिस्टों का शासन है, जो किसी धर्म में, परमात्मा में विश्वास नहीं करता। वे भी इसके लिए प्रयास कर रहे है। और उन्होंने इस पर बहुत कार्य किया है। और बहुत खोज भी की है। हालांकि वे इसकी व्याख्या बुद्धि की भाषा में ही करते है—वे इसे अति संवेदन कहते है। वे इसे परा मनोविज्ञान नहीं कहते है। वे कहते है, यह भी एक तरह का संवेदना है, बस केवल सूक्ष्म है।
और इस तरह से वे ठीक भी है। अंतर्बोध इंद्रियों से पार या बाहर की बात नहीं है, वह इंद्रियों का ही सूक्ष्म रूप है। प्रतिभा इंद्रियातीत है। इंद्रियों के पार है—उसमें किसी प्रकार की कोई संवेदना नहीं होती है। वे सीधी या प्रत्यक्ष होती है। प्रतिभा में इंद्रियाँ गिर चुकी होती है।
यह योग की दृष्टि से व्यक्ति अपने भीतर सर्वज्ञातता है—सर्व ज्ञान व्यक्ति का वास्तविक स्वभाव ही है। असल में तो हम सोचते है कि हम आंखों के द्वारा देखते है; योग का कहना है कि तुम आंखों द्वारा नहीं देखते हो—तुम्हारी आंखें धोखा देती है। इसे थोड़ा समझ लें।
तुम एक कमरे में खड़े होकर एक छोटे से छेद में से बहार देख रहे हो। निस्संदेह, कमरे में रहते समय तो यह अनुभव होता है कि वह छोटा से छेद तुम्हें बाहर के जगत की कुछ खबरें दे रहा है। तुम उसी छोटे से छेद को सब कुछ समझकर उसी पर केंद्रित हो सकते हो। ऐसा भी सोच सकते हो कि इस छोटे से छेद के बिना बाहर देखना असंभव है। योग का कहना है कि तब तुम एक भ्रांति में पड़ गये हो। इस छेद से देखा जा सकता है, लेकिन यह छेद ही देखने का कारण नहीं है। देखना तुम्हारी गुणवता है। तुम छेद से देख रहे हो; छेद स्वयं नहीं देख रहा। तुम्हीं द्रष्टा हो। आंखों के द्वारा जगत को देख जा सकता है। आँख से तुम मुझे देख रहे हो, आँख शरीर में छेद की तरह से है। लेकिन भीतर तुम द्रष्टा हो। अगर शरीर के बाहर आकर देख सको, तो ठीक वैसा ही होगा जैसा कि अगर द्वार खोलकर बाहर आ जाओं तो तुम अपने को विराट आकाश के नीचे खड़ा हुआ पाओगे।
ऐसा नहीं है कि होल के सुराख के गायब होने से तुम अंधे हो जाओगे। या तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं रहेगा। सच तो यह है कि तब तुम्हें अहसास होगा। तब तुम समझोगे कि सुराख तुम्हें अंधा बना रहा है। वह तुम्हें बहुत सी सीमित दृष्टि दे रहा है। और जब संपूर्ण खुले आकाश के नीचे खड़े होगें ; तो संपूर्ण आस्तित्व को एक अलग ही दृष्टि से देख सकते हो। अब दृष्टि सीमित नहीं रही। किन्हीं सीमित दायरों में बंधी हुई नहीं रहीं। क्योंकि अब आंखे किसी छोटे छेद से या खिड़की से नहीं देख रही है। अब तुम आकाश के नीचे खड़े होकर चारों और देख सकते हो।
यही तो योग की दृष्टि है, और ठीक भी है। शरीर में जो इंद्रियाँ है, वह और कुछ नहीं केवल छोटे-छोटे सुराख है; कानों से सुना जा सकता है—यह छोटे-छोटे सुराख है। होल्स है, और व्यक्ति उनके पीछे छिपा हुआ है। योग का कहना है, इनके बाहर आ जाओ, इनसे बाहर निकल आओ, इनके पार चले जाओ। अगर व्यक्ति इन सुराखों से इन इंद्रियों से बाहर आ जाए ता वह सर्वज्ञात, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी हो जाता है। और यही है प्रतिभा।
ओशो
पतंजलि को योग सूत्र
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