प्रिय योग समाधि,
प्रेम। संन्यास गौरी-शंकर की यात्रा है।
चढ़ाई में कठिनाइयां तो है ही।
लेकिन दृढ़ संकल्प के मीठे फल भी है।
सब शांति और आनंद से झेलना।
लेकिन संकल्प नहीं छोड़ना।
मां की सेवा करना, पहले से भी ज्यादा।
संन्यास दायित्वों से भागने का नाम नहीं है।
परिवार नहीं छोड़ना है, वरन सारे संसार को ही परिवार बनाना है।
मां को भी संन्यास की दिशा में उन्मुख करना।
कहना उनसे : संसार की और बहुत देखा, अब प्रभु की और आंखे उठाओ।
और तेरी और से उन्हें कोई कष्ट न हो। इसका ध्यान रखना।
लेकिन इसका अर्थ झुकना या समझौता करना नहीं है।
संन्यास समझौता जानता ही नहीं है।
अडिग और अचल और अभय—यही संन्यास की आत्मा है।
रजनीश का प्रणाम
(प्रति : मां योग समाधि, राजकोट, गुजरात)
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