स्‍वर्णीम बचपन - (सत्र-- 46) सत्‍य साईं बाबा तो अति साधारण जादूगर

ठीक है। मैं प्राइमरी स्‍कूल के दूसरे दिन से शुरूआत करता हूं। कितनी देर वह घटना इंतजार कर सकती है। पहले ही बहुत इंतजार कर चुकी है। सच मैं स्‍कूल में मेरा प्रवेश दूसरे दिन हुआ। क्‍योंकि काने मास्‍टर को निकाल दिया गया था। इसलिए सब लोग खुशी मना रहे थे। सब बच्‍चे खुशी से नाच रहे थे। मुझे तो विश्‍वास ही नहीं हो रहा था। किंतु उन्‍होंने मुझे बताया तुम्‍हें काने मास्‍टर के बारे में मालूम नहीं है। अगर वह मर जाए तो हम सारे शहर में मिठाई बांटें गे और अपने घरों में दिए जलाएंगे।
      और मेरा इस प्रकार स्‍वगत हुआ जैसे कि मैंने कोई महान कार्य किया हो। सच तो यह है कि मुझे काने मास्‍टर के लिए थोड़ी सहानुभूति भी हो रही थी। वह कितना ही बुरा था, हिंसक था किंतु था तो मनुष्‍य ही। और मनुष्‍य की सारी कमज़ोरियाँ स्‍वभाविक है। यह उसकी गलती ने थी कि उसकी एक आँख थी और चेहरा भी बहुत कुरूप था। और मैं जो कहना चाहता हूं। वह पहले कभी नहीं कहा किंतु अब कहता हूं—पहले तो मेरी बात को कोई विश्‍वास ही न करता—किंतु अब कोई विश्‍वास करे या न करे,मैं तो यही कहूंगा कि उसकी क्रूरता स्‍वाभाविक थी। जैसे उसकी एक आँख थी, वैसे ही उसका गुस्‍सा था। और बहुत हिंसक क्रोध था। कुछ भी किसी भी तरह उसके विरूद्ध हो उसे वह माफ क कर पाता। छोटी-छोटी बात पर वह क्रोधित हो जाता था। अगर बच्‍चे चुपचाप बैठते तो भी भड़क जाता ओर पूछता इतनी चुप्‍पी क्‍यों। क्‍या हो रहा है। जरूर कोई न कोई कारण होगा इतनी चुप्‍पी का । मैं तुम सबको सिखाऊंगा कि तुम जीवन भी याद रखोगे ओर दुबारा मेरे साथ ऐसा नहीं करोगे।
      बच्‍चों को बड़ा आश्‍चर्य होता। वे तो सिर्फ शांत इसलिए थे कि वह डिस्‍टर्व न हो, उसे परेशानी न हो। पर वह भी क्‍या करता। यह शांति भी परेशान कर देती। उसका इलाज जरूरी था। और सिर्फ शारीरिक ही नहीं। वास्‍तवमें वह रूग्ण चित वाला था। इसलिए उसका मानसिक इलाज होना चाहिए था। मुझे इस बात का बहुत अफसोस था कि मेरे कारण उसकी नौकरी छुट गई। परंतु उसके चले जाने से सब लोग खुशी मना रहे थे—यहां तक कि अध्‍यापक भी। मुझे तो विश्‍वास ही न हुआ जब हेड मास्टर ने भी मुझे कहा: धन्‍यवाद बेटे, तुमने अपने स्‍कूल जीवन का प्रारंभ एक अच्‍छे काम से किया है। वह आदमी एक प्रकार का सिरदर्द था।
      मैंने उनकी और देख कर कहा: तब तो मुझे सिर को भी हटा देना चाहिए।
      इतना सुनते ही हेड मास्टर गंभीर हो गए और उन्‍होंने कहा: जाओ और अपना काम करों।
      मैंने कहा: देखो, क्‍योंकि आपका एक सहयोगी नौकरी से निकाल दिया गया है इसलिए आप खुशी मना रहे हो, कैसे सहयोगी हो? यह कैसी मित्रता है। उसके सामने आपने कभी न कहा कि आपको कैसा लगता है। आप उसके सामने अपनी यह बात नहीं कहा सकते थे क्‍योंकि वह आपको बरबाद कर सकता था।
      वह हेड़ मास्टर छोटे कद का आदमी था। उसकी ऊँचाई शायद पाँच फीट की थी या उससे भी कम। किंतु वह काना मास्‍टर तो सात फीट ऊँचा था और उसका वज़न चार सौ पौंड था—साक्षात राक्षस दिखाई देता था। वह तो इस हेड मास्टर को बिना किसी हथियार के अपनी उंगलियों से ही मसल देता। इसलिए मैंने हेड मास्टर से पूछा कि उसके सामने तो तुम भीगी बिल्‍ली बन जाते थे। ऐसे व्‍यवहार करते थे जैसे पति अपनी पत्‍नी के सामने करता है। हां, यही शब्‍द मैंने कहे थे।
      मुझे याद है कि मैंने कहा कि तुम जोरू के गुलाम की तरह व्‍यवहार करते हो। मैंने कहा: भले ही मैं उसके हटाए जाने का कारण हूं परंतु मैं उसके विरूद्ध को ई षडयंत्र नहीं कर रहा। मैं तो स्‍कूल में अभी भर्ती हुआ था। किंतु आप तो जीवन भर उसके विरूद्ध योजनाएं बनाते रहे हो। उसको किसी दूसरे स्‍कूल मैं भी भेजा जा सकता था। शहर में ऐसे चार स्‍कूल थे।
      परंतु काने मास्‍टर शक्‍तिशाली व्‍यक्‍ति थे, और उस शहर का सभापति उसके हाथ में था। वह सभापति किसी के भी हाथ के नीचे होने को तैयार था। शायद उसे हाथ के नीचे होना पसंद था। इस सभापति ने शहर के लिए कभी कुछ नहीं किया था। जल्‍दी ही शहर के लोगों को समझ आ गया कि यह गोबर गणेश कुछ करने वाला नहीं है। बीस हजार जनसंख्‍या वाले लोगों के शहर में न सड़कें थी, न बिजली ही थी, न बाग़-बग़ीचे ही थे। जल्‍दी ही लोगों की समझ में आ गया कि इस गोबरगणेश सभापति के कारण ही ऐसा है। इसलिए उसे अपने पद से त्‍यागपत्र देना पडा। और तब ढाई साल के लिए, उप सभापति, शंभु दुबे ने उसका पद ग्रहण कर लिया। उन्‍होंने उस शहर का नक्‍शा ही बदल दिया, बहुत सुंदर बना दिया।      
      एक बात मैं आपसे कहना चाहता हूं कि मेरे द्वारा उन्‍हें मालूम हो गया कि एक छोटा एक अध्यापक को हटा सकता है। साथ ही वह ऐसी परिस्थिति का भी निमार्ण कर सकता है। जिससे विवश हो कर एक सभापति को त्‍याग पत्र भी देना पड़ सकता है।
      वे हंसते हुए मुझसे कहते: तुमने मुझे सभापति बना दिया है। किंतु बाद में कई बार हम एक दूसरे से असहमत भी हुए। शंभु बाबू कई बरसों तक सभापति पद पर रहे। एक बार जब लोगों ने ढाई साल में किए गए उनके काम देखा तो उन्‍हें बार-बार एकमत से निर्वाचित किया। शहर को बदलने में उन्‍होंने करीब-करीब चमत्‍कार कर दिया।
      उस जिले में पहली बार उन्‍होंने पक्‍की सड़कें बनवाई। सड़को के दोनों और पेड़ लगाए और शहर में बिजली लाए। उतनी आबादी वाले किसी दूसरे शहर में बिजली न थी। उससे कोई संदेह नहीं कि उस शहर के लिए उन्‍होंने बहुत कुछ किया परंतु फिर भी कभी-कभी मैं उनकी नीतियों से सहमत नहीं होता था। इसलिए मुझे उनका विरोध भी करना पड़ता था। तूम भरोसा नहीं कर सकते कि एक छोटा सा बच्‍चा, शायद बारह साल का, कैसे विरोधी हो सकता है। मेरे अपने तरीके थे। बहुत आसानी से मैं लोगों को अपने साथ सहमत कर लेता था। सिर्फ इसलिए कि मैं छोटा सा बच्‍चा था। और राजनीति में क्‍या उत्सुकता होगी। और सच में मुझे कोई उत्‍सुकता न थी।
      उदाहरण के लिए, शंभु बाबू ने चुंगी-कर लगा दिया। मैं समझ सकता था। मुझे मालूम था कि इसके बिना शहर के रख-रखाव का खर्च नहीं चल सकता। स्‍वभावत: उन्‍हें पैसों की जरूरत थी। किसी तरह का कर लगाना जरूरी था। मैं कर के खिलाफ नहीं था। परंतु मैं इस चुंगी कर के विरोध में था कयोंकि मुझे मालूम था कि इससे गरीबों को बहुत परेशानी होगी। अमीर और अमीर होता जाता है। और गरीब और गरीब होत जाता है। मैं अमीर के और अमीर बनने के खिलाफ नहीं हूं। परंतु मैं गरीब के और गरीब होने के निश्‍चित विरोध में हूं। तुम्हे भरोसा न आएगा और उन्‍हें भी आश्‍चर्य हुआ जब मैंने उससे कहा कि मैं घर-घर जाकर कहूंगा कि शंभु बाबू को फिर वोट मत देना। अगर शंभु बाबू रहते है तो उन्‍हें इस चुंगी कर को हटाना पड़ेगा और अगर  चुंगी-कर रहता है तो शंभु बाबू को हटना पड़ेगा। हम दोनों एकसाथ नहीं रहने देने।
      तो मैंने ऐसा ही किया, घर-घर तो गया ही इसके अतिरिक्‍त मैंने अपनी पहली सार्वजनिक सभी को भी संबोधित किया। लोगों को यह देख कर बड़ा मजा आया कि एक छोटा सा लड़का इतना तर्क पर्ण बोल रहा है। शंभु बाबू उस समय नजदीक ही एक दुकान में बैठे हुए मेरा भाषण सुन रहे थे। मैं अभी भी उन्‍हें वहां बैठे देख सकता हूं। वे वहां पर रोज बैठते थे। वह अजीब जगह थी उनके बैठने के लिए, पर वह दुकान शहर के बीचो बीच थी इसीलिए सब मीटिंग उसी स्‍थान पर होती थी। वे उस दुकान में बैठने का बहाना करते और दिखाते के वह तो सिर्फ अपने दोस्‍त की दुकान पर बैठे हैं, मीटिंग से कूद लेना-देना नहीं है।
      उन्‍होंने मुझे भी बोलते हुए सुना। और तुम जानते हो, मैं सदा से ऐसा ही हूं। मैंने उस दुकान में बैठे शंभु बाबू की और इशारा करते हुए कहा: ये देखो, ये वहां पर बैठे है, ये मुझे सुनने आए है। कि मैं क्‍या कहता हूं किंतु शंभु बाबू, याद रखना,मित्रता अलग बात है पर मैं आपके चुंगी-कर का समर्थन नहीं करूंगा। मैं चुंगी-कर का विरोध अवश्‍य करूंगा—भेल नहीं था। कुछ मुद्दों पर एकमत न होते हुए भी या सार्वजनिक मतभेद पर आ जाएं तब भी अगर हमारी मित्रता का कोई मूल्‍य नहीं है।
      शंभु बाबू सचमुच बहुत अच्‍छे आदमी थे। वे दुकान से बाहर आए और मेरी पीठ को थपथपाते हुए उन्‍होंने कहा: तुम्‍हारे तर्कों पर अवश्‍य विचार किया जाएगा। और जहां तक हमारी मित्रता का सवाल है उसका इस विरोध से कोई लेना-देना नहीं है। इसके बाद उन्‍होंने दुबारा इस विषय पर बात नहीं की। मेरा खयाल था कि वे एक न एक दिन जरूर कहेंगे कि तुम तो मेरी कड़ी आलोचना कर रहे थे। यह तुमने ठीक नहीं किया। परंतु उन्‍होंने इसका कभी जिक्र भी नहीं किया और सबसे आश्‍चर्यजनक बात यह भी कि उन्‍होंने उस चुंगी-कर को भी हटा दिया।
      मैंने उनसे पूछा कि ऐसा आपने क्‍यों किया? मैं भले ही विरोध करूं, पर में तो अभी बोट भी नहीं दे सकता। यह तो जनता है जिसने आपको चुना है। उन्‍होंने कहा कि इसका सवाल नहीं है। अगर तुम ति इसका विरोध कर रहे हो तो इसका मतलब है कि जो कर रहा हूं वह अवश्‍य गलत है। मैं इसे हटा देता हूं। मैं लोगों से नहीं डरता। लेकिन जब तुम जैसा व्‍यक्ति विरोध करता है.....हालांकि तुम उम्र में छोटे हो किंतु मैं तुम्‍हारा आदर करता हूं। और तुम्‍हारा तर्क बिलकुल ठीक था कि हर प्रकार का कर गरीब आदमी को ही प्रभावित करता है—अमीर तो अपनी चालाकी से उससे बच जाता है। चुंगी कर ऐसा कर है जो शहर के भीतर आने वाली हर चीज पर लगाया जाता है। और जब ये चीजें बेची जाती है तो दुकानदार उनको अधिक कीमत पर बेचता है। अब इसको नहीं रोका जा सकता कि दुकानदार ने  जो कर भरा है वह गरीब किसान की जेब से वापस ले रहा है। दुकानदार इसे कर की तरह नहीं लेता, यह तो कीमत में जोड़ दिया जाता है।
      शंभु बाबू ने कहा: मैं तुम्‍हारी इस बात को समझ गया हुं इसलिए मैंने इस कर को हटा दिया है। जब तक वे प्रेसीडेंट रहे तब यह कर दुबारा नहीं  लगाया गया और इसकी बात भी नहीं की गई। मेरे इस विरोध के कारण शंभु बाबू मुझसे नाराज नहीं हुए। इससे मेरे प्रति उनका आदर और भी बढ़ गया। मुझे थोड़ा सा बुरा लगा कि उस शहर में मैं जिस व्‍यक्‍ति को सबसे अधिक चाहता था उसी का मुझे विरोध करना पडा।
      मेरे पिताजी को भी यह जान कर बहुत आश्‍चर्य हुआ। उन्‍होंने मुझसे कहा: तुम तो अजीब हरकतें करते हो। मैंने तुम्‍हें सार्वजनिक सभा में बोलते सुना था। मुझे पता था कि तुम ऐसा कुछ करोगे, पर इतने जल्‍दी नहीं और तुम इतने अच्‍छे ढंग से अपने ही मित्र के विरोध में भाषण दे रहे थे। यह देख कर सबको आश्‍चर्य हो रहा था। कि तुम शंभु बाबू के खिलाफ बोल रहे है।
      सारे शहर को मालूम था कि बुजुर्ग आदमी,शंभु बाबू के सिवाय मेरा और कोई मित्र न था। जब हम मित्र थे उस समय वे पचास के आस पास रहे होगें। उनका भी और कोई मित्र नहीं था। हम दोनों की आयु में बहुत अंतर था किंतु हमको इसका खयाल कभी नहीं आया। न ही वे इस मित्रता को गंवा सकते थे और न ही मैं। पिताजी ने मुझसे कहा:  विश्‍वास ही नहीं हो रहा कि तुम उनके विरूद्ध बोल सकते हो। मैंने कहा: मैंने एक शब्‍द भी उनके खिलाफ नहीं बोला। मैं तो केवल उस चुंगी-कर का विरोध कर रहा था। चुंगी-कर से मेरी मित्रता का कोई संबंध नहीं है। और शंभु बाबू से मैंने पहले से ही कह रखा है कि अगर मुझे उनकी कोई बात पसंद न आई तो मैं उनसे भी लडूंगा। इसीलिए वे उस दुकान में मौजूद थे, ताकि सुन सकें कि मैं क्‍या बोल रहा हूं। लेकिन मैंने शंभु बाबू के विरूद्ध एक शब्‍द भी नहीं बोला।
      स्‍कूल में दूसरा दिन ऐसे था जैसे मैंने कुछ महान काम किया हो। मैं तो भरोसा ही न कर सका कि लोग काने मास्‍टर से इतने पीड़ित थे। ऐसा नहीं था कि वे मेरे लिए खुशी मना रहे थे। तब भी मैं अंतर को साफ देख सकता था। आज भी अच्‍छी तरह से याद है। कि वे अब काने मास्‍टर उनके सिर पर नहीं होंगे इसकी खुशी मना रहे थे।
      उन्‍हें मुझ से कुछ लेन-देना नहीं था, हालांकि वे ऐसा दिखा रहे थे। जैसे कि मेरे लिए खुशी मना रहे हो। पर मैं एक दिन पहले  भी स्‍कूल आया था और किसी ने ‘’हलों’’ तक नहीं कहा था। और अब सारा स्‍कूल ही  हाथी दरवाजे पर मुझे लेने मेरे स्‍वागत के लिए इक्‍कठा हो गया था। मैं सिर्फ अपने दूसरे दिन ही करीब-करीब हीरो बन गया था।
      पर मैंने उसी समय उनसे कहा: कृपया यहां से चले जाओ। अगर तुम लोगों को खुशी मनानी है तो काने मास्‍टर के यहाँ जाओ। उनके घर के सामने नाचो, वहां खुशी मनाओ। या शंभु बाबू के यहां जाओ जिन्‍होंने उन्‍हें निकाला था। मैं तो कोई नहीं हूं। मैं तो किसी अपेक्षा से न गया था परंतु जीवन में ऐसी चीजें होती है। जिनकी तुमने कभी उपेक्षा न की थी और न ही तुम जिनके योग्‍य थे। यह उन्‍ही में ऐ एक चीज है। कृपया इसके बारे में भूल जाओ।
      पर मेरे पूर स्‍कूल जीवन में इसे कभी नहीं भुलाया गया। मुझे कभी भी किसी दूसरे बच्‍चे की तरह स्‍वीकार नहीं किया गया। निशचित ही स्‍कूल में मुझे कोई खास दिलचस्‍पी नहीं थी। नब्‍बे प्रतिशत तो मैं गैर-हाजिर रहता था। और कभी-कभी ही अपने कुछ कारणों से मैं वहां दिखाई देता था। पर क्‍लास में हाजिर होने के लिए नहीं।
      मैं बहुत चीजें सीख रहा था, पर स्‍कूल में नहीं। मैं अजीब-अजीब बातें सीख रहा था। मेरे शौक भी विचित्र थे। उदाहरण के लिए, मैं सांप को पकड़ना सीख रहा था। उन दिनों सँपेरे गांव में बहुत सुंदर-सुदंर सांप लेकर आते थे और जब वे बीन बजाते थे तो ये सांप नाचने लगते थे। यह देख कर मुझे बहुत की मजा आता था। इस दृश्‍य से मैं बहुत ही प्रभावित था। 
      वे सारे लोग अब खो गए है। साधारण सा कारण है कि वे सब मुसलमान थे। या तो वे पाकिस्‍तान चले गए या हिंदुओं द्वारा मार दिए और या फिर उन्हेांने अपना धंधा बदल लिया, क्‍योंकि यह बहुत ही साफ तरह से जनता को बताना था। कि वे मुसलमान है। कोई हिंदू उस कला का उपयोग नहीं करता था।
      मैं दिन भर किसी न किसी सँपेरे के पीछे घूमता रहता और उससे कहता कि मुझ बताओ कि तुम सांप कैसे पकड़ते हो। और धीरे-धीरे उन्‍हें समझ आ गया कि मैं उनमें से नहीं है। जिन्‍हें कुछ भी करने से रोका जा सके। उन्‍होंने आपस में बात की कि अगर हम उसे नहीं बताएँगे तो वह अपने आप कोशिश करेगा।
      जब मैंने एक सँपेरे से कहा कि अगर तुम लोग मुझे यह नहीं बताओ गे तो मैं अपने आप ही सांप को पकड़ने की कोशिश करूंगा और अगर मैं मर गया तो मेरी मृत्‍यु के लिए तुम लोग जिम्‍मेवार होओ गे। वह मुझे जानता था क्‍योंकि कई दिनों से मैं उसे परेशान कर रहा था। उसने कहा कि रुको, मैं तुम्‍हें सिखाऊंगा।
      वह मुझे शहर से बाहर ले गया और मुझे सांप पकड़ना और बीन की घुन पर उन्‍हें कैसे नचाना सिखाने लगा। प्राय: सब लोग यह समझते है कि बीन को सुन कर सांप मस्‍त होकर नाचने लगता है। लेकिन पहली बार मुझे इस सँपेरे ने बताया कि सांप के तो कान ही नहीं होते और वह सुन नहीं सकता।
      उसने कहा: सत्‍य यह है कि सांप बिलकुल नहीं सुन सकते।
      इस पर मैंने उससे यहीं पूछा कि अगर सांप सुन नहीं सकता तो तुम्‍हारे बीन बजाने पर वह डोलने क्‍यों लगता है।
      उसने उतर दिया, ऐसा करने के लिए सांप को प्रशिक्षित किया जाता है। जब मैं बीन बजाता हूं तो मैं अपने सिर को डुलाता हुं। यह देख कर सांप भी डोलने लगता है। यहीं हमारी चालाकी है। जब तक वह डोलेगा नहीं तब तक उसे भूखा रहना पड़ेगा। इसलिए उससे डोलने का कारण बीन नहीं बल्‍कि भूख है। 

      मैंने इस सँपेरों से सीख लिया कि सांप को कैसे पकड़ा जाता है। पहली तो बात कि सत्तानवे प्रतिशत सांप तो ज़हरीले  नहीं होते। उनको आसानी से पकड़ा जा सकता है। पकड़ने के समय वे काटते तो है किंतु उनके काटने से कोई मरता नहीं है। क्‍योंकि उनमें जहर ही नहीं होता। सत्तानवे प्रतिशत साँपों को जहर की ग्रंथि ही नहीं होती। और तीन प्रतिशत सांप जो विषैले है उनकी आदत यह है कि वह उतना गहरा ही काटते है जितना उनके विष को रखने के लिए जरूरी होता है—काटने के बाद वे उलटे जाते है। विषैली ग्रंथि उनके गले के भीतर उलटी होती है। इसलिए पहले वे घाव बनाते है, फिर उलटा होकर अपना विष उगलते है। उनके घाव बनने से पहले ही उनको पकड़ा जाए, सबसे पहले उनके मुहँ को ही जोर से पकड़ना चाहिए। अगर उसमें जरा सी भी ढील हुई तो वे घाव बना देंगे किंतु इससे भी घबड़ाना नहीं चाहिए। उसको इतना जोर से पकड़ना चाहिए कि वह उलट न सके। इस धाव से कोई नुकसान नहीं होता। इससे कोई नहीं मरता। थोडे ही दिन में यह घाव ठीक हो जाता है। बस यहीं मैं सीख रहा था। और यह सिर्फ एक उदाहरण है। यह सब सँपेरे मुसलमान थे और दु भाग्य से इन सबको भारत छोड़ कर जाना पडा। फिर कुछ जादूगर थे जो आश्‍चर्य जनक खेल दिखाते थे। मुझे स्‍कूल में इतिहास और भूगोल पढ़ाने वाले अध्‍यापक के पाठ से कही अधिक दिलचस्‍पी थी इन जादूगरों में। बस मैं तो इनके लिए दीवाना हो गया और दिन भर इनके पीछे लगा रहता।
      जब तक वे मुझे उस जादू का रहस्‍य न बता देते मैं उनका पीछा न छोड़ता और मुझे यह जान कर बड़ा आश्‍चर्य होता कि उनका जादू जो इतना आश्‍चर्यजनक लगता है वह वास्‍तव में केवल हाथ की सफाई या हाथ की चालकी थी। पर जब तक तुम्‍हें ट्रिक का पता न हो तब तक तो उस बात की महानता को स्‍वीकार करना ही पड़ेगा। एक बार उसकी चालाकी का पता लग जाने के बाद ऐसे था जैसे गुब्‍बारे में से हवा निकलने लगी है। चह छोटे से छोटा होता है। सिर्फ ऐसे जैसे गुब्‍बारे में छेद हो गया हो। जल्‍दी ही तुम्‍हारे हाथ में सिर्फ रबर का छोटा सा टुकडा होगा और कुछ नहीं। वह बड़ा गुब्‍बारा सिर्फ गर्म हवा था। मैं अपने तरीके से यह सब बातें सीख रहा था। जो बाद में मेरे काम आने वाली थी। इसीलिए आज मैं यह कहा सकता हूं कि सत्‍य साई बाबा और उन जैसे लोग बहुत ही साधारण जादूगर है। किंतु यह जादूगर भी अब भारत में नहीं रहे क्‍योंकि यह भी मुसलमान थे। तुम्‍हें एक बात समझनी होगी की भारत में हजारों सालों से लोग एक खास तरह के ढांचे पर चल रहे है। व्‍यक्‍ति का काम-धंधा उसे अपने माता-पिता से मिलता है, वह परंपरा में मिलता है। उसे तुम बदल नहीं सकते। पाश्चात्य व्‍यक्‍ति को यह बात समझाना कठिन होगा। इसीलिए पूर्वी व्‍यक्‍ति को समझने में उन्‍हें इतनी दिक्‍कत होती है।
      मैं सीख रहा था, पर स्‍कूल में नहीं,और इसका मुझे कोई पछतावा नहीं हुआ। मैंने सभी तरह के अजीबो गरीब लोगों से सीखा। तुम उन्‍हें स्‍कूल में शिक्षक का काम करते हुए नहीं पाओगें। वह संभव नहीं है। मैं जैन मुनियों, हिंदू साधुओं, और बौद्ध भिक्षुओं के साथ भी रहा। मैंने ऐसे सब लोगों के साथ संपर्क रखा जिनसे लोग दूर रहते है।
      जैसे ही मुझे पता लगता कि मेरे लिए इस व्‍यक्‍ति से मिलना वर्जित है, मैं उससे मिलने के लिए उत्‍सुक हो जाता। वह जरूर बाहर का व्‍यक्‍ति होगा। क्‍योंकि वह समाज के बाहर का है इसलिए उससे मिलने के लिए रोका जाता है। और मैं ऐसे बाहर के लोगों को बहुत पंसद करता हूं।
      मैं अंदर के लोगेां को पसंद नहीं करता। उन्‍होंने बहुत नुकसान किया है और अब समय आ गया है कि उस खेल को बंद किया जाए। ये वर्जित लोग कुछ सनकी जरूर होते थे किंतु थे ये बहुत प्रतिभाशाली और बहुत सुंदर, बहुत प्‍यारे। महात्‍मा गांधी जैसी बुद्धिमता नहीं,वे तो भीतरी ही थे और नहीं तथाकथित बुद्धिजीवियों जैसी बुद्धि—ज्याँ पाल सार्त्र, बर्ट्रेंड रसल, कार्ल मार्क, और ह्यू बाग जैसे बुद्धिजीवियों जैसी बुद्धि। उनकी लिस्‍ट अंतहीन है।
      पहला बुद्धिजीवी तो वह सांप था जिसने यह सब आरंभ किया—नहीं तो कोई मुसीबत खड़ी न होती। वह पहला बुद्धिजीवी था। मैं उसको शैतान हीं कहता—मैं तो तुम लोगों को शैतान कहता हूं। इस शब्‍द को मैंने जो अर्थ दिया है वह तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा। मेरे लिए डे विल का अर्थ है: डिवइन यह संस्‍कृत के मूल शब्‍द ‘’देव’’ से बना है। इसका अर्थ है: ‘’दिव्‍य’’। इसीलिए मैं तुम लोगों को डे विल कहता हूं।      
      परंतु वह सांप अवश्‍य बुद्धिजीवी था। और उसने बुद्धिजीवियों जैसी ही चालाकी की। उसने उस औरत को कुछ खरीदने के लिए उस समय राज़ी कर लिया जब उसका पति दफ्तर गया हुआ था या कहीं और क्‍योंकि आफिस तो बाद में बने। वह या तो शिकार करने गया होगा या मछली पकड़ने या कुछ और कर रहा होगा। कम से कम किसी के साथ छेड़खानी तो नहीं कर रहा होगा इतना तो पक्‍का है। क्‍योंकि उस समय दूसरा कोई तो था ही नहीं जिसके साथ छेड़खानी कर सके। ये सब तो बाद की बातें है।
      सांप ने उससे बहस करते हुए कहां: भगवान ने तुमसे कहा है कि जीवन के वृक्ष का फल मत खाना....ओर वह तो सिर्फ एक सेव का पेड़ था। कभी-कभी तो मैं सोचता हूं कि मुझसे अधिक पाप इस दुनियां में और कोई किसी ने नहीं किया,क्‍योंकि शायद मैं सबसे अधिक सेव खाता हूं। और बेचारे सेव तो इतने सीधे और इतने निर्दोष होते है। कि आश्‍चर्य होता है कि सेव को क्‍यों चुना गया—अब सेव ने परमात्‍मा का क्‍या बिगाडा था—मेरी समझ में नहीं आया कि सेव खाने के लिए क्‍यों मना किया गया।
      हां, मैं यह कह सकता हूं कि ‘’सांप’’ नाम का व्‍यक्‍ति बहुत बड़ा बुद्धिजीवी रहा होगा, क्‍योंकि उसने प्रमाणित कर दिया कि सेव खाना पाप है। 
      किंतु मेरे लिए तो बुद्धि मानी की बात नहीं है......
--ओशो
      

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