स्वामी देवातीत शास्ता--
स्वामी देवातीत शास्ता का असली नाम ईश्वर लाल प्रजापति है। वह गुजरात के एक गांव रुद्रा बीजा पूर में गरीब घर में पैदा हुए। किसी तरह से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें एक सरकारी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई। नौकरी के बाद परिवार ने उनकी शादी कर दी। परन्तु कुदरत को तो शायद कुछ और ही मंजूर था। पत्नी का स्वभाव बहुत दुष्ट था। वह बात-बात में लड़ने मरने के लिए तैयार हो जाती थी। लेकिन जिस तरह से स्वामी का स्वभाव आज है उसी तरह से वह बचपन से ही शांत प्रकृति के थे। समय गुजरता चला गया। लेकिन घर में कोई औलाद नहीं हुई। स्वामी देवातीत ने तो इसे भगवान का वरदान मान कर स्वीकार कर लिया परंतु पत्नी और-और हिंसक होती चली गई। और बात इतनी बढ़ी की एक दिन घर छोड़ कर मायके चली गई इस के बाद कभी नहीं लोटी। मिलने के लिए जितनी ही बार गये तो केवल स्वामी जी। ताकी उन्हें आर्थिक रूप से तंगी न हो। लेकिन वहां भी वह अपनी आदत नहीं छोड़ पाई। और वहां पर भी वह अपनी परिवार के साथ लड़ती झगड़ती रही।
तंग आकर परिवार ने उसे अलग रहने की जगह दे दी। स्वामी जब भी अपनी ससुराल जाते तो ससुराल वाले उनका सम्मान करते। वह वहां जाकर सब का हाल चाल पुछते। अपनी पत्नी के पास भी जाते परंतु वह सीधे मुहं बात भी नहीं करती। कई बार तो उनके दिये हुए पैसे उठा कर बहार फेंक देती और कहती की यहां कोई भिखारी नहीं बसते। मत आया करो यहां। हम जलील करने के लिए। शायद परिवार के लोग जानते थे कि इसमें स्वामी जी का कोई कसूर नहीं है ये सब हमारी अपनी लड़की की कारस्तानी है। लेकिन इस विषय में कोई कुछ नहीं कर सकता था। आदमी अपने को बदल सकता है। दूसरे के स्वभाव पर उसका कोई अधिकार नहीं है। धीरे-धीर स्वामी जी का वहां जाना कम से कम हो गया।
इस बीच स्वामी जी का झुकाव एक स्थाई धर्मगुरू से हो गया। गुरु ने अपने घर में मंदिर बना रखा था। और वहीं भजन कीर्तन करते थे। नियम कायदे भी बहुत थे। औरतों का धर्म में आना या साधना करना वर्जित था। सो वहां जो भी नियम संयम थे वह अति कठिन थे। गुरु भजन बनाता और सभी शिष्य मिल कर गाते थे। गुजराती में स्वामी ने एक भजन की पुस्तक दिखाई जो उनके गुरु द्वारा रचित थी। कितने ही सुंदर पद लिखे थे उनमें एक पद स्वामी देवातीत शास्ता जी का रचा हुआ था। जिसे उन्होंने गुजराती में पढ़ कर सुनाया। गुजराती कोई कठिन भाषा नहीं है। हिंदी और संस्कृत से उसके शब्द बहुत मेल खाते है। और सही मायने में भारत की प्रत्येक भाषा चाहे वह बंगाल,मलयाली, कन्नड़, तमिल हो पाली...ये सभी संस्कृत से ही अलग हुई हे। गुजराती के उन शब्दों को में एक या दो बार पढ़ने के बाद समझ गया।
स्वामी जी की इस समय आयु 78 वर्ष है। उन्हें सरकारी पेंशन मिलती है। 9,000/- जिसमें से वह आश्रम को 6,000/- रूपये रहने और खाने के दे देता है। और बाकी बचे 3000/- से साबुन तेल और दवाई का गुजर बसर हो जाता है। इसमें से भी कुछ हिस्सा पक्षियों के दाने के लिए निकाल लिया जाता हे। जो वह नित नियम से कबूतरों और पक्षियों को खिलाते है। स्वामी जी वह इच्छा से कार्य ध्यान करते है। उनके लिए कोई बंधन नहीं है। वहां पर रखे सभी पानी के बर्तन वह रोज साफ करके भरते है। उनके साथ आप ये तीन औजार जरूर पाओगे। एक छोटी बालटी, एक छलनी, एक बुरुश। किसी आनंद उत्सव से वह आश्रम में रहते और काम करते है वह देखते ही बनता है। आने वाले प्रत्येक आगंतुक से उसका परिचय लेते है। कितने दिन के लिए आये हो, कहां रहते, यहां पर किस जगह रहते हो, और यहां पर मैं इतने दिन से देख रहा हूं कि आज तक किसी भी सन्यासी को मधुमक्खियों ने नहीं काटा। और न ही किसी सांप ने। सच वहां पर बहुत बड़े-बड़े मधुमक्खियों के छत्ते लगे है। और मधुमक्खियाँ भी पहाड़ी है जो आकार में बहुत बड़ी और गुस्सैल होती है। इत्यादि—इत्यादि।
पहली ही झलक में स्वामी ने मुझे अपनी और अकृषित कर लिया। सच जीवन कैसा होना चाहिए उसे प्रत्येक सन्यासी को स्वामी देवातीत शास्ता से सीखना चाहिए। इस उम्र में उनका साहस उत्सव देखते ही बनता है। वह 14 वर्ष से लगातार यहीं पर रहते है। जिस लगन और जोश से आज भी वह नटराज ध्यान और संध्या सत्संग करते है वह देखते ही बनता है। संध्या सत्संग के लिए तो वह पाँच बजे ही तैयार होकर बुद्धा हाल में चले जाते है। और संध्या सत्संग के बाद खड़े होकर जिस मंद्र गति से वह नृत्य करते है। वह अति अभूतपूर्व है। सब सन्यासी उठ कर ध्यान मंदिर से बहार की और चल देते है। बुद्धा हाल में मधुर संगीत के साथ स्वामी देवातीत शास्ता अपने नृत्य में डूबे रहते है। आज भी कार्य ध्यान के अलावा वह अपना दैनिक कार्य खुद ही करते है। उनका कमरा सुदामा हाऊस की पहली मंजिल पर है। खुद अपने कपड़े धोते है। और अपने कमरे की सफाई करते है। और धुलाई के कपड़े स्टोर रूम में खूद उठा कर लाते है। वह शारीरक और मानसिक रूप से अति स्वास्थ है।
उनको काम करते देख कर मुझे ऐसा लगाता था मानों वह काम नहीं कोई पूजा हीं नही कर रहे, उससे भी कहीं अधिक। इस समय दुनियां में उनका कोई नहीं है। मात्र एक दूर के रिश्ते के उनके भतीजे है जो उनसे कभी-कभार मिलने के लिए आ जाते है। लेकिन जब किसी को कोई नहीं होता तो वह सब को हो जाता है। सब उसके हो जाते है। यह सच आप स्वामी देवातीत से मिलकर महसूस करेंगे। आप उनके पल भर में ही हो जायेंगे। और वह पल में आपको अपना कर लेंगे। आर्थिक तोर से वह न तो अपने भतीजों से कोई मदद लेते है। और न ही उनसे मिलने के लिए जाते है। जब मैने इस विषय पर पूछ तो वह हंस दिये की स्वामी जी मेरा पैसा भी मुझ से खर्च नहीं होता। वह भी बच जाता है। और उसे साल के अंत में आश्रम को दान के रूप में दे देता हूं। पैसे, पद, नाम और रिश्तों से जिस प्रकार स्वामी जी ने अपनी पकड़ छोड़ी है, यहीं तो है मुक्ति, जो आपको बांध रहा है....उसे जीते जी ही देखना है। बच्चों की पकड़ प्रकृति ने दी ये हमनें हमारे मोह ने हमारे भय ने हम दी है। प्रकृति की पकड़ तो सेक्स से उत्पती उसे का काम है, बीज आगे-आगे बढ़ता है। और जब उसकी जरूरत नहीं होती तो वह मनुष्य का फूल पौधों पशु पक्षियों को छोड़ देती है। अगर सही मायने में मनुष्य विकसित हो तो वह सैक्स से इस कदर पागल ने हो। क्या पूरी प्रकृति में मनुष्य की तरह और कोई प्राणी है जो चौबीसों घंटे केवल यही सोचता है। वह विकृत हो गया है। सैक्स मन पर फैल गया है। जिस का कोई इलाज अगर है तो वह है। केवल ध्यान है।
दिन के समय खाना खाने के बाद मैं और अदवीता नित नियम से स्वामी जी से एक पेड़ की छाव में बैठ कर उनके जीवन की यादों को कुरेदते थे। इसी बीच एक दिन एक जल गांव के स्वामी जी भी हमारे पास आकर बैठ गये। जो शायद आयु में 50 वर्ष के रहे होंगे। ध्यान की बात चलती रही। जीवन की अनुभव का आदान-प्रदान होता रहा। बातों-बातों में वह जल गांव वाले स्वामी जी कहने लगे की हम पहले स्वामी देवातीत जी के चलने का, उनके बोलने का, उनके नाचने का, बहुत मजाक उड़ते थे। लेकिन वह कभी किसी बात का बुरा नहीं मानते थे केवल हंस भर देते थे। मैं तो उन जल गांव वाले स्वामी जी के चेहरे को ही देखता रह गया। लंबे बाल और लंबी दाढ़ी उनके परिपक्व संन्यासी होने का संकेत दे रही थी। और उनका इस उम्र के संन्यासी के साथ इस तरह से मजाक करना। मैं तो सोच भी नहीं सकता। मैंने उन्हें तो क्या कहना था अपना सर पीट कर रह गया.....कि भाला हो तुम्हारा....लोग किसी-किसी उम्र में भी किस-किस मार्ग पर भी क्या-क्या करते है। इनका क्या इलाज। कुछ नहीं किया जा सकता।
स्वामी देवातीत को देख कर लगाता प्रत्येक मनुष्य के जीवन मैं बुढ़ापा आता है। शरीर जरजर होता है। लेकिन इस बुढ़ापे का कितने ही लोग उपयोग कर पाते है। शायद कम ही। लेकिन सदउपयोग तो कोई विरल ही कर पाता है। कम से कम सन्यासी को तो ऐसा होना चाहिए। ये हम सब के लिए एक सीख है। की जीवन में कम-से कम दूसरों पर निर्भर रहे। और धीरे-धीरे संसार के प्रत्येक काम से मुख मोड़ लो। बच्चे अब बड़े हो गये है। आपके पास समय है। आप छोड़ सकते है। और ये बच्चों के लिए भी उतना ही आनंदित होगा। जितना की आपके लिए।
क्योंकि वह भी स्वतंत्रता चाहता है। और दूसरे को स्वतंत्रता देने के लिए कम से हमे तो स्वतंत्र होना ही होगा।
14 साल से एक मनुष्य एक ही जगह रह कर ध्यान कर रहा है। और उसकी श्रद्धा देखते ही बनती है। उसकी लगन ही उसकी उमंग है। उनका खाना, चलना, घूमना, काम करना, नाचना देखते ही बनता है। स्वामी जी को मेरा सत-सत नमन। उन्होंने मुझे जीने की कला का एक जीता जागता मार्ग दिखा दिया। सिखा दिया जीवन के झरने का बहाव। जो बिना किसी रूकावट के सतत बह जाना चाहिए। न विरोध न आग्रह एक सम भाव। ध्यान के साथ-साथ अपने जीवन को इतना कम क्रिया शील करे, दूसरों को आपका पता भी नहीं रहे की आप भी हो। एक तटस्थता जो अपने अंदर एक पूर्णता समय हो। जिससे कोई वासना कोई पकड़ रोक न सके। फिर शायद स्वंय के भीतर जाना और भी आसान रहे। कम से कम पकड़ बने। आध्यात्मिकता का मार्ग एक अति संवेदन शीलता का मार्ग है। ये स्नेह-स्नेह इतना गुह्म होता जाता है। खोजने वाला भी इस तरह से उस में विलुप्त हो जाता है। जैसे एक नमक की डली जब समुंदर की खोज में तो जाती दिखती है। लेकिन जैसे-जैसे गहराई बढ़ती जाती है। वह उसमें घुलती चली जाती है। ये समझ की बात है की उसने खोजा, पाया या उसने आप को गंवाया। उस में विलीन कर दिया।
किसी रूढ़ीवादिता से निकल कर स्वामी जी ओशो से जूड़े। ये भी एक प्रज्ञा की, एक प्यास की ही बात है। मंदिर में आरती गाना। भजन गान। लेकिन कही अंदर एक तृप्ति नहीं हो पा रही थी। प्यास बुझ नहीं पा रही थी। सच्चे सत्य के खोजी को एक न एक दिन ऐसा जरूर लगता है। जो थोड़े भी प्रज्ञावान होते है। वह चेत जाते है, हम कहां जा रहे है। ओशो की एक पुस्तक ‘’अंतर यात्रा’’, पढ़ने के बाद ही उन्हें लगा की मेरी मंजिल यहां है। ये है वे सागर जो मेरा इंतजार कर रहा है। और फिर किसी तरह से उस कुएँ से निकलना भी था। वह अपने गुरु के प्रधान शिष्य थे उन्होंने गुरु से आज्ञा मांगी। परंतु गुरू नाराज हो गया। स्वामी जी के मन को बहुत ठेस लगी। लेकिन मन ने एक संकल्प कर लिया था। कि नहीं जो सत्य है उसी के मार्ग पर चलना है। फिर एक रात चुप से आश्रम छोड़ कर चले आये गुरु नाराज हुआ। संदेश पर संदेश भेजे। परंतु स्वामी देवातीत शास्ता ने क्षमा मांग ली। की मैं नहीं आ सकता। मेरी मंजिल मुझे मिल गई। और डूब गये ओशो में। सन्यास लिया। और ध्यान शुरू कर दिया। जो आज भी अविरल चहल रहा है।
जब मैंने पूछा की ओशो के ध्यान में ऐसा क्या लगा जो आपको अपनी और खींच सका। तब स्वामी जी कुछ सोच में पड़ गये और फिर धीरे से कहा। पहले जिस मार्ग पर हम चल रहे थे वह हठ योग था। प्रणायाम आसन, शरीर को कष्ट देना। ये करो, वो न करो। लेकिन ओशो के ध्यान तो एक सरिता न होकर एक सागर है। आप स्वछंद है। आप नाच सकते है आप हंस सकते है। आप रो सकते है, आप चीख सकते है। आप अपने बालपन में लोट सकते है। मुझे ओशो की विधियां ये चमत्कारी लगी। कितने दूर दृष्टा थे ओशो। जो आज के मनुष्य को जान सके और ध्यान को उनके अनुरूप ढल गये। वह भी किस सरलता और सहजता से। मुझे नटराज ध्यान में नाचना इतना अच्छा लगता है। और मजेदार बात की मेरी कमर में जो दर्द होता है वह नटराज ध्यान में नाचने के बाद एक दम से ठीक हो जाता है।
78 वर्ष के इस युवा साधक से एक प्ररेणा और साहस लेकर आ रहा हूं। जो मुझे इस उम्र के पड़ाव पर साहस और धैर्य और संकल्प देगा। और ध्यान की धारा पर यूहीं चलते रहने के लिए प्रेरित करता रहेगा। सतत अविरल...एक अंतहीन यात्रा की और..... जय ओशो।
स्वामी आनंद प्रसाद ‘मनसा’
मां अदवीता नियति
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