प्यार और दुलार
पिरामिड ऊपर और ऊपर उठता चला जा रहा था। इतना ऊपर की मैं उसे देख भी नहीं सकता था। उपर सर करने से मुझे चक्कर आते थे और वह असमान के उस कोने का छूता सा प्रतीत होता था। जैसे-जैसे वह ऊपर जा रहा था चारों और से पतला होता जा रहा था। अंदर से खड़े होकर देखने पर तो और भी अधिक भय लगता था। क्योंकि बीच में चारों और से खाली होने के कारण चारों और की दीवारे ऐसे लग रही थी जैसे अभी अंदर गिर जायेगी। काम अंदर से ही हो रहा था। इस लिए पेड़ अंदर से ही बांधी गई थी। अंदर से चढ़ने के लिए जो पेड़ बंधी हुई थी,अब भी मैं मोका देख कर चढ़ जाता था। वह गिरने वाली बात तो न जाने में कब का भूल गया था। हमारे शरीर में कोई भय या सोच विचार इतनी देर तक थिर नहीं रह सकती। कोई पीड़ा या दुख हमारा पीछा मनुष्य की तरह नहीं करता जन्म-जन्म तक।
परंतु फिर भी उस के उपर और उपर चढ़ना मेरे बूते के बहार की बात थी। जब एक बार मैने दूसरी और झांक कर देखा तो मेरे प्राण ही निकल गये थे। बाप रे बाप कितना नीचा है। पहले में जहां से कूद कर भाग जाता था। वह तो नीचे धरातल पर ही रह गया। अब तो हम बादलों के पास आ गये है। एक मजेदार डर और लगता है। जब हम उचे पैड पर चढ़े होते और आसमान में बादल चल रहे होते तो ऐसा उड़ने का एहसास होता की बादल तो खड़े है और ये पिरामिड चल रहा है। कितना डर लगता होगा। कि पिरामिड न जाने कहा चला जाये और हम कभी अपने घर ही न पहूंच पाये। हर पेड़ के आखिर के रद्दे पर लोहे की पतली तारों का एक जाली बिछाया जाता और उस में रोड़ियां सीमेंट और डस्ट में मिला कर भर दी जाती। तब मैं समझ जाता की आज का काम इतना ही है। और कल यह पेड़ और उपर जाने वाली है। ऐसा अनेक बार हुआ था, इस लिए यह फार्मूला मेरी समझ में आ गया था।
आँगन में जो अमरूद और बेलपत्र के वृक्ष थे उन के लिए पापा जी ने पूरा आंगन खाली छोड़ दिया। उन भेल पत्र और अमरूद के पेड़ को जरा
भी काटा नहीं गया। पापा जी को पेड़ पौधों से बहुत प्रेम है। पास ही आडू का पेड़ है वह अब बूढ़ा हो गया था। जिस के जीने की उम्मीद न के बराबर है। परंतु उस पर भी न जाने कितनी चिड़ियाँ श्याम को आकर बैठती थी। पूरा अंगन उनकी मधुर नाद से गूंज उठता था। कितना लयवदिता से एक साथ मिल कर गाती थी वह चिड़ियों का झुंड। मानों हजारों-हजार महीन घंटिया कोई बजा रहा हो। फल लगने के समय तो न जाने कितने ही तोते आकर फलों को स्वाद लेते थे। और सामने पड़ोसी के घर जो जामुन का वृक्ष था उस पर एक कौवे का जोड़ा रहता था। वह इतना पाजी था कि जब वह अंडे देता तो हमारा जीना दूसवार कर देता। हम अपने घर में काम कर रहे होते परंतु उसे लगता की हम यहां क्यों है। और आकर वह चोंच से मुझे राम रतन को और पांचु को मारता परंतु पापा जी को कभी नहीं मारता था। मुझे यह देख कर बड़ा अचरज होता और खुशी भी होती की पापा जी से न जाने क्या दोस्ती हो गई है। इन पाजी कोवो की।
उन दिनों पिरामिड के बनाने का काम नहीं चल रहा था। शायद राम रत्न मिश्री और पांचु अपने गांव चले गये थे। पिरामिड की अंदर से सफाई कर के उसे ध्यान करने के लिए तैयार कर लिया गया। अभी उस में कोई दरवाजा भी नहीं लगा था। और न ही प्लास्तर आदी ही हुआ था। बस किसी तरह से कम चलाऊ बिजली का ही प्रबन्ध किया गया। फिर भी एक बात तो है जिसे जिस चीज की चाह होती है वह उसके लिए राह निकाल ही लेता है। लेकिन जब बरसात होती तो उसके छेदों के अंदर से बरसात की बुंदे टपकती रहती थी। और एक वो पीले रंग की काबर चिड़ियाँ उन छेदों के अंदर बैठ कर क्या शेर मचाती थी। बस देखते ही बनता था। और एक उसे उड़ाया भी नहीं जा सकता था। क्योंकि पिरामिड अंदर से बहुत उँचा था। और अगर उस पर कोई कंकर फेंकी जाये तो वह फैंकने वाले को भी लग सकती थी। किसी तरह से ताली वगैरह बजा कर उसे डराया जाता पर वह थी बड़ी ढीठ। उड़ने का नाम ही नहीं लेती थी। उसकी की....की......की....पूरे ध्यान में चलती रहती थी।
मैं देख रहा था की इन दिनों मम्मी पापा को कुछ आराम मिल रहा है। एक तो रामरतन मित्र नहीं है। और एक कोई ध्यान करने वाला भी नहीं आता। शायद काम के चलने की वजह से सब समझ गये थे की अब ध्यान का कमरा तो टूट गया। जब बनेगा तो देखा जायेगा। पकी पकाई सब खाते है हाथ कौन जलाये। खेर चलो जैस भी हो। पर इन दिनों घर में बहुत शकुन था। खाना खाने के बाद मम्मी पापा जी के साथ दो घंटे मैं भी मजे से सो लेता था। लेकिन एक बात थी रह-रह कर मुझे अपनी मां की बहुत याद आती थी। क्या ऐसा नहीं हो सकता की मैं एक बार उस जगह और पहूंच जाऊं जहां मेरी मां मरी थी। परंतु वह जगह मेरी देखी भाली नहीं थी। पापा जी एक बार देख लेते तो जरूर उसे पहचान लेते। परंतु पापा जी तो कभी वहां गये नहीं थे। तो क्या किया जाये। बरसात ऋतु खत्म हो रही थी,और अभी भी मौसम में गर्मी थी। धूप निकलते ही सूर्य भगवान अपनी महिमा दिखानी शुरू कर देता था। पड़नी शुरू हुई थी। होली का त्योहार आने की तैयारी कर रहा था। चढ़ते बंसत का सुंदर मौसम थ। और यही दिन इतनी सुहाने होते है की आप कुछ देर के लिए धूप में बैठे और फिर कुछ देर छांव में धूप से जब हम छांव में बैठते है तो कैसी मीठी ठंडक महसूस होती है छांव में। और कुछ ही देर में आपको सीतलता चारों और से घेर लेती है ओर तब आपका मन करता है कि अब फिर घूप में बैठा जाये। और इन दिनों जंगल का तो आनंद ही अलग था।
पुराने पत्ते टूट कर गिर गये होत है। और नये आने की तैयारी कर रहे होते है। बस इन दिनों पलाश पर यौवन आया हुआ था। और भी जंगली पेड़ो पर फूल खिले थे। कुछ जंगली झाड़ियों पर मौसमी फल भी लगे थे। कुल मिला कर इन दिनों अगर जंगल में न जाया-जाये तो जरूर कुछ अधूरा रह जाता है। सो छुट्टी वाले दिन एक पंथ दो काम वाला दिन होता था। घर से खाना बना कर सब लो जंगल की और चल देते थे। शायद इन दिनों बच्चों के स्कूल के पेपर होने वाले हो इस लिए कुछ खेला नहीं जाता था। सब अपनी किताबें साथ ले लेते थे और धूप में बैठ कर खुब पढ़ाई की जाती थी। दीदी मम्मी के साथ पहले कपड़े धुलवाती। पापा जी भी उन लोगों की मदद करते। चलते पानी से आप बहुत जल्द कुछ भी काम कर सकते थे। और पानी इतना ठंडा होता था कि पैर सून हो जाते थे। परंतु एक आनंद इन दिनों और लिया जाता था। सब नहाते थे। मुझे भी नहलाया जाता था। मम्मी-और दीदी दूसरे घाट पर जाकर छुप कर नहाती थी। पापा जी के साथ मैं और बच्चों नहाता थे। बच्चे क्या एक मैं भी एक बार तो ठंड के मारे कांप जाता था। एक तो खुला स्थान और उपर से इन दिनों हवा जरूर चलती थी। दोनों मौसम परिवर्तनों के मध्य में हवा अपना उतर दाईत्व खुब निभा रही थी। परंतु एक बता थी घर पर जब नहाते तो पानी से डर लगता वह कम होता था। और ठंड भी लगती परंतु यहां अधिक पानी होने के कारण न जाने क्यों कुछ देर ही ठंड लगती फिर आप कितनी ही देर नाह सकते हो। पहले-पहल तो बच्चे कुछ कांपते। फिर मजे से गुप्ची लगा-लगा कर नहाते। पापा जी सब को साबुन लगा-लगा कर छोड़ देते। सब साबुन के बाद मजे से नहाते। और मैं पानी में छपाके मार- मार कर सब के साथ खूब मस्ती करता और कहने की कोशिश करता की देखो मुझे जरा ठंड नहीं लग रही हालांकि मुझे अधिक ठंड लगती थी कयोंकि मेरे बालों का कंबल तो पूरा का पूरा भीग जाता था जो सूखने में काफी समय लेता था। स्नान के बाद सब धूप में बैठ कर गरमा-गर्म चाय जो घर से बना कर लाई गई होती थी सब पीते थे। बस मैं और हिमांशु भैया चाय नहीं पीते थे हम तो दूध ही पीते थे। खेर मेरा तो क्या मुझे तो मीठा कुछ भी मिल जाये पी सकता हूं परंतु मुझे चाय दि ही नहीं जाती थी। और इस बीच मैं अपनी ठंड को कम करने के लिए या अपने गिले बदन को सुखाने के लिए अपने दिमाग का इस्तेमाल करता और पास ही नरम मुलायम रेत में खूब उपर टांगे कर के गधा लोट मारता। और मेरी इस हरकत पर सब अपना सर पीट लेते की देखो पोनी को और नहलाओ शैंपू से वह मिट्टी में सब खराब हो गया। परंतु यह प्राकृतिक स्नान था। जो कुछ ही देर में बालों से झड़ जाता और शरीर के अंदर किसी प्रकार के जीव जंतु भी उसके साथ गिर जाते देखा न मेरा दिमाग एक पंत दो काम।
खुली घास में चारों और कपड़े सूखी दिये जाते थे। जिनकी देख भाल करना मेरी जिम्मेदारी थी। सच बात तो यह थी कि मुझे लगता भी था कि मैं कुछ तो काम कर सकता हूं या मुझे कम से कम कुछ तो काम मिला। वहीं पर एक साफ सुथरी जगह देख कर एक बड़ी सी चादर बिछा दी जाती। जिस पर हम सब बैठ कर खाने का इंतजार करते थे। जगह भी वह खास चूनी जाती थी जहां पर सूर्य भगवान खूब चमक दे रहे होते थे। मैं जानता था कि अब कुछ ही देर में मम्मी जी खाने का पिटारा खोलेगी और मेरे मजे आ जायेगे। न जाने खाने का नाम सून कर ही मुझे क्या कुछ हो जाता है। पता नहीं मुझे ही होता है या हमारी मेरी पूरी जाती इस की दीवानी है। इतने सालों कितना स्वादिष्ट खाना खाने को मिला है, फिर भी हमारी नीयत नहीं भरती। शायद इस लिए ये गाली सिर्फ हमारे लिए ही बनी है। ‘’ खोने का कुत्ता‘’ कितनी बुरी बात है। परंतु इस समय ये सब बातें याद कर मैं अपने खाने के आनंद को कम नहीं करना चाहता। अरे खाना यानि खाना और क्या भला जिंदा रहना है कि नहीं।
आज का खाना बहुत मजेदार था चाऊमिंग न्यूडल लाई गई थी। क्या मजेदार चीज थी। मुहं से पकड़ कर अंदर करते जाओ खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी। परंतु होती बड़ी लजीज थी। और वह भी मम्मी जी के हाथ की। मम्मी जी के हाथों में कुछ जादू था वह जिस खाने को हाथ लगा देती वह कितनी स्वादिष्ट हो जाती थी। खाना खाने के बाद मम्मी पापा कुछ देर के लिए धूप में लेट गये और बच्चे थे कि उन्हें कहां आराम करना था। वह इधर उधर झाड़ियों में कुछ जंगली फल तोड़-तोड़ कर खाने लगे। अब मेरी डयूटी अधिक हो गई एक तरफ तो कपड़े का ध्यान रखना मम्मी पापा भी आंखें बद कर धूप में लेटे है। और दूसरी और इन बच्चों को देखना इस लिए मैं जंगल में खाना खाने के बाद आराम नही करता था। कभी बच्चों के पास कभी मम्मी पापा के पास। बच्चे जंगली फल तोड़ रहे होते तो मैं उनके पास जाकर खड़ा हो जाता। वह समझते की मैं भी मांगने के लिए आया हूं। और एक दो फल मुझे भी खिला दिये जाते कभी-कभी तो मैं उन्हें लेता भी नहीं था। कि ये सब मुझे नहीं चाहिए तुम ज्यादा दूर मत जाओ। जानते हो जंगल कितनी खतरनाक है। परंतु वह मेरी एक नहीं सुनते थे। काश उन्होंने मेरी मां का हाल देखा होता तो उन्हे पता चल जाता। और मैं इस बीच वह जगह देखने की कोशिश भी कर रहा था जहां पर मेरी मां मरी थी। क्योंकि पानी तो में इसी नाले से लेकर के गया था।
इसी बीच क्या देखता हूं कि एक गीदड़ दूर झाड़ी की ओट से हमे देख रहा है। अब मेरी समझ में आया कि मम्मी पापा जब भी जंगल में आते तो दो बड़ी ब्रेड क्यों लेकिन आते थे। इन पाजियों के लिए लेकिन इन्होंने तो मेरी मां.......तभी अचानक मेरे दिमाग में एक शैतानियत आई में चुप चाप धीरे-धीरे उस गीदड़ की और बढ़ने लगा। मैं अब उस गीदड़ के एक दम पास था। हवा का रूख भी गीदड़ की तरफ से मेरी और आ रहा था। इस लिए वह मेरी खुशबु भी नहीं ले पाया। उसे क्या पता है कि अब मेरी उपर हमला होने वाला है। मैंने मन ही मन कल्पना कर ली कि इन्हीं लोगों ने मेरी मां को मार है....इन्हें में जीवित नहीं छोडूंगा। बस फिर क्या मैं बीजली की तेजी से उस पर झपटा। वह इस हमले के लिए कतई तैयार नहीं था। वह बचाव के लिए दो कदम पीछे की और हटा। तभी मैंने उसे पीछे से पकड़ लिया उसने भी पलक झपकते ही अपने छरहरा बदन को पल में छुड़ा लिया और सुरक्षा के लिए अकड़ कर खड़ा ओ गया। उसके दो और झाड़ीया थी और सामने में खड़ा था। बच्चे भी इस लड़ाई की आवाज सून कर इधर ही देखने लगे। कुछ देर हम इसी अवस्था में खड़े रहे। परंतु मुझ में सब्र नही था। मैंने उस पर उछल का हमला किया आरे उसकी गर्दन पकड़ ली इस सब के लिए वह तैयार नहीं था वह तो भाग जाने का रास्ता देख रहा था। कि किसी तरफ से भागू। अब वह छटपटाने लगा। मैंने उसे नीचे गिरा लिया और उसे अच्छी तरह से रगड़ने लगा। मैं आज उसका कचूमर निकाल देना चाहता था। इस आवाज को सून कर पापा जी डंडा लेकिर भागे। और वह पल में ही हमारे पास आ गये। मैं उसकी गर्दन को पूरे जोर से पकड़े हुए था। वह छुड़ाने के लिए जी जान से कोशिश कर रहा था। परंतु छुड़ा नहीं पा रहा था। उसके मुंह से खाऊ.....खाऊ की आवाज आ रही थी, शायद उसका दंग घुट रहा था और उसे स्वास लेने में तकलीफ हो रही थी। पापा जी समझ गये की उसकी जान खतरे में है। उन्होंने दो तीन बार आवाज दे कर मुझे हटने के लिए कहा। परंतु मैं कहां उन की बात सुनने वाला था। तब उन्होंने वह डंडा मेरे ओर उसके बीच इस तरह से डाला की डंडा मेरी गर्दन में चुबने लगा। इस से मेरे दांतों की पकड़ ढीली पड़ गई और मेरा ध्यान भी पापा जी की और चला गया की उन्होंने मुझे डंडा क्यों मार मारना था तो इस गीदड़ के बच्चे को मारते जो। बच्चों पर भी हमला कर सकता था। इस सब के बीच गीदड़ अपनी जान बचा का झाड़ियों की और भागा में भी उसके पीछे भागा परंतु वह छोटे कद का था इस लिए झाड़ियों के नीचे से बड़े मजे से निकल कर भाग गया। आखिर वह यहां का चप्पा-चप्पा जानता होगा। और मैं अनाड़ी वह खिलाड़ी परंतु आज तो में उस खिलाडी का खेल खत्म कर ही देता। मेरे जलते बदन को कुछ तो शांति मिल जाती । और में पछताता और गुस्से में पापा जी के पास आ गया। हालांकि वह भी मेरे पीछे दस बीस कदम भागे थे। कि ऐसा न हो की गीदड़ों का झुंड मुझ पर हमला न कर दे।
परंतु मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही थी की आखिर पापा जी ने मुझ हमला क्यों किया। वह मेरी दुश्मन था। और बच्चों के इतने पास था। जो इस बात को जानते भी नहीं थी। कि खतरा उनके इतनी पास है। फिर उनमें से किसी ने मेरी मां को भी मारा था। उस घायल किया था....मेरे मुंह से तेज सांस के साथ लार भी टपक रही थी। मैं मम्मी जी के पास जाकर बैठ गया। इस सब के बीच मम्मी जी भी पूछ रही थी कि क्या हो गया मुझे भी तो पता चले। पापा जी और बच्चे बाद में वहां पर आये। मम्मी जी मुझे प्यार कर रही थी और मुझे पीने के लिए पानी भी दिया। परंतु में नीची गर्दन किये पास ही बैठा रहा। इतनी देर में बच्चे ओर पापा जी आ गये और वह कहने लगे की देखो मम्मी जी आज पोनी ने एक गीदड़ को पकड़ कर नीचे गिरा लिया और अगर पापा जी नहीं आते तो वह उसे जान से मार देता। पोनी कितना ताकत वर हो गया है। पापा जी मेरे पास आकर बैठ गये और मेरे बदन पर हाथ फैर कर देखने लगे की कहीं मुझे भी तो एक आध दाँत का घाव तो नहीं हो गया है। क्योंकि वह जानते थे की ये जंगली जानवरों के थूक में हम पालतू जानवरों से अधिक जहर होता है। परंतु मैं तो इस सब से अनभिग था और अपना गुस्सा पाप पर दर्शाने के लिए दूर जाकर बैठ गया। पापा जी समझ गये कि मैं उनसे नाराज हूं।
पापा जी ने मुझे देखते हुए कहां की इसे देखो जंगल में आकर तो यह अपना रूप रंग ही बदल लेता है। ये हो न हो किसी भेड़िया की औलाद होगा। तभी तो इतना खतरनाक है। देखा तुम लोगों ने गीदड़ को क्या गांव के पालतू कुत्ते पकड़ सकते है। इतनी चपलता और चालकी उन में कहा है वह तो देख कर भौंकना शुरू कर देते। और यह इतना चालाक है कि शिकार को देख कर उस पर धात लगाता है। उसे डरा कर भगता नहीं। ये परवर्ती जंगली जनावरों में ही होती हे। मेरी तारीफ के क़सीदे पढ़े जा रहे थे। जिस में मुझे जरा भी मजा नहीं आ रहा था मजा तो तब आता जब मैं उस गीदड़ को फाड़ देता। मेरे दाँत कुल मूला रहे थे।
और ये बात सत्य भी की मैं जंगल में जाकर अपनी ताकत भी अधिक महसूस करता था। गांव के कुत्तों के साथ एक प्रकार का भय बना रहता था मेरी मन में। एक अकेला पन का कि यहां पर मेरा कोई नहीं है। परंतु यहां भी तो मेरा कोई नहीं है। फिर भी ऐसा क्यों महसूस नहीं हुआ। खेर पापा जी की बात में दम जरूर था। ये जंगल ये हवा मुझे एक अपने पन का अजीब सा साहस देती है। परंतु अब तो मेरा यहां कोई भी नहीं है। मेरी मां भी मेरी आंखों के सामने दम तोड़ कर मर गई। भाई बहनों का क्या पता कहां पर है। हैं या नहीं है। और उन के व्यवहार के बारे में मैं क्या जानू वह भी मुझे अपना दुश्मन समझ सकते है। नहीं यहां मेरा अपना कोई नहीं है। अब यही मनुष्य का परिवार ही मेरा अपना परिवार है। ये मुझे कितने प्यार दुलार से अपने पास रखता है। मेरे नाज नखरे भी उठता है। मुझे खाने को देता है। देते ही नहीं, जो खुद खाता है वही खाना मुझे देता है। और मां तो सच यही है जिस ने मुझे पाला है। वह तो प्रकृति की एक पकड़ है और ये तो यशोदा है पाला पोसा और प्यार इसी ने दिया है। यही जननी से भी महान है। और मैं पल में सब भूल भाल गया और मम्मी जी के पास जाकर उनके हाथ चाटनें लगा। उन्होंने मुझे प्यार किया मेरे बदन पर प्यार से हाथ फेरा परंतु आज तो मैं उन्हें अपने में समा लेना चाहता था और मैंने आने दोनों पैर मम्मी जी के कंधे पर रख लिये और प्यार से उसका मुख चाट गया.......सब जोर-जोर से हंसने लगे। कि पौनी मम्मी को बैटा बन गया हिमांशु भैया रह गया। और इस हंसी खुशी के माहोल में घर चलने की तैयारी होने लगी। सब कपड़े उठा कर एक जग बाँध लिए गये। और हम नाचते कूदते अपने घर की और चल दिए। उस मुलायम रेत पर मैं आज भी सबसे तेज भाग रहा था........परंतु कभी-कभी रूक कर वहां पर छपे पैरों के निशान सूँघने लग जाता था। उस समय मुझे कानून मंत्रि की संज्ञा दी जाती थी।
क्रमश: अगले अंक में.......
स्वामी आनंद प्रसाद ‘ मनसा’
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