अन्तिम स्पर्श—
वे कुछ सप्ताह ही अस्वस्थ रहे और मार्च में फिर प्रवचन के लिए आने लगे। मैने उनसे अंतिम प्रश्न पूछा और पहली बार हमने अपने प्रश्न बिना हस्ताक्षर के भेजे। यद्यपि मैंने पुनर्जन्म के सम्बंध में कुछ नहीं पूछा था, ओशो ने उत्तर दिया।
.....पुनर्जन्म की धारणा जो पूर्व के सभी धर्मों में है, कहती है कि आत्मा एक शरीर से दूसरे में, एक जीवन से दूसरे जीवन में प्रवेश करती है। यह धारणा उन धर्मों में नहीं है जो यहूदी धर्म से निकले है। जैसे ईसाई और मुस्लिम धर्म। अब तो मनोवैज्ञानिकों को भी यह बात सत्य प्रतीत होती है, क्योंकि लोगों की लोगो की अपने पूर्व जन्म की स्मृति रहती है। पुनर्जन्म की धारणा जड़ पकड़ रही है। परंतु मैं तुम से एक बात कहना चाहूंगा: ‘पुनर्जन्म की धारणा मिथ्या है। यह सच है कि जब व्यक्ति मरता है उसका जीवन पूर्ण का भाग हो जाता है। चाहे वह पापी हो या पुण्यात्मा इससे कोई अंतर नहीं पड़ता,परंतु उसके पास कुछ होता है उसे मन कहो या स्मृति। प्राचीनकाल में कोई ऐसी जानकारी उपलब्ध नहीं थी जो यह स्पष्ट कर सके कि स्मृति विचारों को, विचार तरंगों का समूह है, परंतु अब सरल है।’
‘और मैं यही देखता हूं कि कई बातों में बुद्ध अपने समय से बहुत आगे है। केवल वे ही है जो मेरी इस बात से सहमत होते। उन्होंने संकेत तो दिए है परंतु उनके पास इसे सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं था। उन्होंने कहा कि जब व्यक्ति मरता है तो उसकी स्मृति नए गर्भ में प्रवेश कर जाती है। आत्मा नहीं। और अब हम इस बात को समझ सकते है कि जब तुम मर रहे होगे,तुम चारों और वायु में अपने स्मृतियां छोड़ जाओगे। और यदि तुम दुःखी रहे हो तो तुम्हारे सारे दुःख कोई स्थान ढूंढ लेंगे। वे किसी दूसरे स्मृति-तंत्र में प्रविष्ट हो जाएंगे, इसी प्रकार कसी को अपना पूर्व जन्म याद रह जाता है। यह तुम्हारा पूर्व जन्म नहीं है। यह किसी और का मन है जो तुम्हें विरासत में मिला है।’
‘अधिकतर लोगों को स्मरण नहीं रहता क्योंकि उन्हें किसी स्मृति तंत्र की सम्पूर्ण सम्पति उपलब्ध नहीं हुई है। उन्हें यहां-वहां से कुछ खंड मिल गए है। वही खंड तुम्हारे दुःख तंत्र को निर्मित करते है। वे सभी लोग जो इस धरती पर मृत्यु को प्राप्त हुए है, वे दुःख में मरे है। बहुत कम लोग सूख में मरे है। बहुत कम लोग है जो अ-मन की अवस्था में मरे है। ये अपने पीछे कोई चिन्ह नहीं छोड़ जाते: वे अपनी स्मृति को बोझ किसी पर डालकर नहीं जाते। वे तो बस ब्रह्मांड में बिखर जाते है। उनका मन नहीं होता। कोई स्मृति नहीं होती। उसे उन्होंने पहले ही ध्यान में विलीन कर दिया था। तभी तो बुद्ध पुरूष पुन: जन्म नहीं लेते।’
परंतु जो लोग बुद्धत्व को उपल्बध नहीं हुए वे प्रत्येक मृत्यु के साथ सभी प्रकार के दुखों के ढांचे को फेंकते चले जोते है। जैसे धन-धन को खींचता है उसी तरह दुःख और दुखों को अपनी और आकर्षित करते है। यदि तुम दुःखी हो तो दुःख मीलों दूर से तुम्हारी और चला आएगा। तुम उसके लिए एक अच्छा वाहन सिद्ध होते हो। और यह एक अति अदृश्य घटना है, रेडियों-तरंगों की भांति। वे तुम्हारे आसपास संचरण करती है। वे तुम्हें सुनाई नहीं देती। एक बार तुम्हारे पास उन्हें प्राप्त करने का उपयुक्त उपकरण हो तो वे शीध्र तुम्हें उपलब्ध हो जाती है। रेडियों के आविष्कार से पहले भी वे तुम्हारे आसपास घूम रही थी।
कहीं कोई पूर्वजन्म नहीं है। केवल दुखों का पुनर्जन्म होता है। लाखों लोगों के घाव तुम्हारे आसपास घूम रहे है। किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में जो दुःखी होने को तैयार है। निश्चित ही आनंदपूर्ण व्यक्ति कोई चिन्ह पीछे छोड़ कर नहीं जाता। जाग्रत व्यक्ति ऐसे मर जाता है। जैसे कोई पक्षी आकाश में बिना किसी पगडंडी या पथ बनाए उड़ जाता है। इसी कारण बुद्धों से तुम्हें कोई धरोहर नहीं मिलती; वे बस मिट जाते है। और सभी प्रकार के मूढ़ तथा मंद बुद्धि लोग अपनी स्मृतियों को लेकर पुन: जन्म लेते है और यह दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है।
‘अपनी इच्छाओं आकांक्षाओं के प्रति सचेत रहो क्योंकि वे तुम्हारे नए रूप को निर्मित कर रही है। तुम्हें उसका पता भी नहीं चलता।’
‘द झेन मेनिफेस्टो’ ओशो की अंतिम पुस्तक है। 10 अप्रैल को जब प्रवचन पूरा हुआ ओशो ने स्पष्ट यह शब्द कहे:
‘बुद्ध का अंतिम शब्द था सम्मा सित।’
स्मरण रहे कि तुम बुद्ध हो-सम्मासित।
जिस समय उन्होंने ये शब्द कहे, उनके मुख पर अपरिचित सा विचित्र भाव था जैसे उनकी एक आँख कहीं दूर उड़ गई। ऐसा लगा जैसे वे अपने शरीर से अलग हो गए है। उनके लिए खड़े होना बहुत कष्टप्रद दिखाई दे रहा था। और चलने में उन्हें बहुत कठिनाई महसूस हो रही थी। जैसे ही वे बाहर कार के पास आए मैंने उनके चाहे पर एक अजीब सा भा देखा जैसे उन्हें ज्ञात न हो कि वे कहां है। वह तो मेरी अपनी व्याख्या थी, और वह मेरी समझ की कमी के कारण कहा था। कि मुझे ऐसे शब्दों का प्रयोग करना पडा। उस रात ओशो को क्या हुआ था मैं कभी समझ न पाई। कार में अपने घर की और लौटते हुए ओशो ले मुझसे कहां कि उनके साथ कुछ विचित्र घटित हुआ है। मैंने कहा, हां मेरा भी इस पर ध्यान गया था। बार में उन्होंने यह फिर दोहराया, वे भी उतने ही चकित थे जितनी कि मैं, लेकिन उन्होंने यह कभी स्पष्ट नहीं किया कि उन्हें क्या हुआ है। कई दिनों के बाद उन्होने कहा कि वे सोचते है अब फिर वे कभी प्रवचन नहीं दे पाएंगे।
इसके बाद कुछ महीनों तक ओशो इतने दुर्बल हो गए कि बुद्ध सभागार में नहीं आ पाए, और अपने कमरे में आराम करते रहे। ध्यान में डूबने के लिए उनकी शारीरिक उपस्थिति पर हमारी निर्भरता कम होने लगी। और जबकि कुछ वर्ष पहले जब ऐसी स्थिति होती हम व्याकुल हो जाते थे। चिंतित हो जाते थे। अब प्रतिदिन उन्हें देखे बिना भी हम जीना स्वीकार करने लगे।
पहली बार आश्रम में कलात्मक सृजन का विस्फोट हुआ। नृत्य, अभिनय, नाटक,संगीत, और जिन लोगों ने कभी चित्रकारी न की थी वे भी चित्र बनाने लगे। पिछले दो कम्यूनों में ऐसा वातावरण नहीं मिला था कि हम अपनी रचनात्मक क्षमता को खोज सकें। जब हम यहां पहुँचे थे, उद्यान उजड़े हुए थे। परंतु अब......आश्रम में चलते-फिरते मेरे कदम रूक जाते है; मेरी इन्द्रियां ‘मूक’ हो जाती है। जैसे कि मैं किसी और ही जगत में जल-प्रपात की कल-कल ध्वनि लम्बे-लम्बे पुष्पित वृक्षों की छतरी। चारों और शांत शीतलता और विश्रांति के अनुभव एक नये ही जगत में प्रवेश करा रहा था। यह शांति-श्मशान की शांति नहीं थी—यहां सैंकड़ों लोग है। हंसते-खेलते है। और मैं आश्रम से गुजरते हुए सोचती हूं, ‘हर कोई मुझे देखकर मुस्कुरा क्यों रहा है।’ तब कहीं जा कर मुझे पता चला ये लोग मुझे देख कर मुस्कुरा नहीं रहे। वे तो बस मुस्कुरा रह है। अपने अंदर कि मुस्कुराहट को लिए।
जब ओशो और भी दुर्बल हो गए तो आश्रम के कार्यों के बारे में अपनी सलाह के लिए जो नीलम से मिलते थे वह उन्होंने बंद कर दिया। अब वे केवल आनंदों से मिलते जिसे वे अपना समाचार-पत्र कहते। दोपहर व रात्रि भोजन के समय वे जयेश से मिलते। प्रतिदिन वे यह पूछते कि उनके बिना आश्रम ठीक से चल रहा है। पहली बार ऐसा लगा कि जैसे अब हम ‘समझ’ रहे थे। अब कोई सत्ता की लोलुपता नहीं थी। कोई पदानुक्रम नहीं था, लोग इसलिए कार्य कर रहे थे क्योंकि उन्हें काम करने से आनंद मिल रहा है। और वे किसी पुरस्कार के लिए काम नहीं कर रहे थे। ओशो यह भी जानना चाहते थे कि नए लोगों का ठीक से ध्यान रखा जा रहा है। या नहीं और नए और पुराने लोग परस्पर मिलकर रह रहे है या नहीं।
इसी बीच उन्होंने कहा कि आश्रम की सारी इमारतों पर काला रंग कर दिया जाए और खिड़कियों में नीलें रंग के शीशे लगा दिए जाये। उन्होंने कई इमारतों पर काले पिरामिड निर्मित करने को कहा—सफेद संगमरमर के रास्तों के किनारे छोटे-छोटे खम्भे नुमा हरे रंग की बत्तियां लगवाने को भी कहा। बग़ीचों में भी रात-भर बत्तियां जलाएं रखने को कहां। उनका ध्यान हमेशा इस और भी जाता कि एक बत्ती जल नहीं रही। हंसों के तालाब में भी बत्ती लगाने को कहां, ताकि वे अपने को अलग न समझें।
आश्रम को सुंदर बनाने के लिए वे छोटी-से-छोटी बात को भी न चूकते थे। और बुद्ध सभागार के बाहर खड़े गार्डों पर भी उनकी नज़र रहती थी। वे चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध सभागार में आ पाए; अंत: जब वे एक ही व्यक्ति को अक्सर बाहर देखते तो कहते कि उन्हें बारी-बारी से भीतर आना चाहिए।
‘साउंड ऑफ दि रेनिंग वॉटर’ में ओशो का एक वक्तव्य है। जो उन्होंने 1978 में एक प्रश्न के उत्तर में दिया था। किसी ने उनसे पूछा था; आप स्वयं को भगवान क्यों कहते है ओशो! ने कहा था:
जब में देखूंगा कि मेरे लोग चेतना के एक विशेष तल पर पहुंच गए है तब भगवान नाम का त्याग कर दूंगा।
7 जनवरी, 1989 में ओशो ने अपने नाम से भगवान शब्द हटा दिया और केवल श्री रजनीश हो गए। उसी वर्ष कुछ समय उपरांत सितम्बर में उन्होंने रजनीश नाम का भी त्याग कर दिया। अब उनका कोई नाम नहीं था। हमने उनसे पूछा कि क्या हम उन्हें ओशो कहकर पुकार सकते है। ओशो कोई नाम नहीं है। यह झेन गुरूओं के लिए प्रयुक्त होने वाला एक सामान्य सम्बोधन है।
इससे कुछ महीने पहले ओशो ने आनंदों से कहा था वे चाहते है कि च्वांत्सु सभागृह को उनका नया बेडरूम बना दिया जाए। उसे इस कार्य को करने के लिए लोग मिल गए, विश्व भर से उनके लिए सामान मंगवाने के आदेश दे दिया और काम शुरू हो गया। ओशो जो चाहते थे। एक-एक करके बता रहे थे। और ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वे पहली बार अपना मनपसंद बैड रूम बनवा रहे है। कई बार वे स्वयं भी वहां जाते ओर आनंदों के साथ मिलकर छोटी-छोटी बात वे स्वयं बताते। उन्होंने पहले कभी ऐसा प्रकट नहीं किया था। कि उनका कमरा कैसा होना चाहिए। और हम यह जान कर प्रसन्न थे कि यह कमरा बन रहा है। वैसे भी जो अभी उनका कमरा था वह सीलन भरा था। क्योंकि वे अधिकतर समय अपने बिस्तर में ही रहते थे। यह कमरा अँधेरा था, एक गुफ़ा के समान था।
जैसे ही इटली का संगमरमर यथास्थान लग गया और गहरे नीलेरंग की कांच-पट्टियों में बीस फुट व्यास वाला स्फाटिक फानूस प्रतिबिम्बित हुआ बहुत से लोग को स्पष्ट हो गया कि बैड़रूप नहीं—एक मंदिर बन रहा है। एक समाधि है।(जो आज ओशो की समाधि है)
यद्यपि हम जान गए थे हमने इस विचार को झटक दिया। बात बिलकुल स्पष्ट थी। लेकिन हम स्वयं को ऐसा सोचने की अनुमति नहीं दे सकते थे कि ओशो अपनी समाधि बनवा रहे है।
जनवरी में ओशो पुन: प्रवचन के लिए आने लगे। तो उनके प्रवचन कई बार चार-चार घंटे तक चले। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। और अब मेरी समझ में आता है कि ओशो ने दीपक की लौ के सम्बंध में क्या कहा था: ‘जैसे ही दीपक बुझने को होता है, कुछ ही क्षण और होते है और बुझने से पहले अंतिम क्षण में एकाएक इसकी लौ अपनी पूरी शक्ति से प्रज्जवलित हो उठती है।’
ओशो ने वे सभी रंग और एयर ब्रश मुझे दे दिए जो उन्हें मिले थे। यद्यपि मैं ब्रश को इस्तेमाल करना भी नहीं जानती थी। उन्होंने मुझे पेंटिंग करने के लिए प्रोत्साहित किया और कहा कि मैं मीरा (एक स्वच्छन्द और सुंदर जापनी चित्रकार) से सींखू। जब अपने भोजन कक्ष की ओर जाते हुए वे कमरे से गुजरते तो मेरे पास आकर खड़े हो जाते और पूछते: कुछ बनाया। और मेज़ पर उन्हें कोई पेंटिंग मिल जाती तो उसे उठाकर ध्यानपूर्वक देखते, कभी-कभी और अच्छी तरह से देखने के लिए रोशनी में ले जाते। मेरे लिए यह प्रशंसा स्वीकार करना कठिन था क्योंकि मैं तो पेंटिंग करना जानती ही नहीं।
अगस्त के महीने में जब मानसून समाप्त होने वाली थी। ओशो हमारे बीच मौन में बैठने के लिए आने लगे। आश्रम में उत्सव का सा वातावरण था।
ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ओशो के साथ हम नई स्थिति में प्रवेश कर रहे है। उन्होंने आनंदों के हाथ हम सब के लिए जो संदेश भेजा उससे उनके दर्शन कर पाने का आनंद कम नहीं पडा। उनका संदेश था: ‘बहुत कम लोग मेरे शब्दों को समझ पाए है।’ जैसे ही वह हॉल में प्रविष्ट होते अपने हाथों को हिलाते हुए सबके नाचने के लिए उत्साहित करते और सभागार संगीत और हर्ष ध्वनियों से गूंज उठता। फिर दस मिनट हम उनकी संगति में बैठते और उन दस मिनटों में मैं ध्यान की उन ऊंचाइयों पर पहुंच जाती जिन तक पहुंचने के लिए पहले मुझे एक घंटा लगता था। घर की और लौटते हुए कार में ओशो मेरी और उन्मुख हो पूछते, ‘सब ठीक था न।’ ठीक, वह तो अपूर्व था, विलक्षण था। हर रात वे यह प्रश्न ऐसे ही भोलेपन से पूछते जैसे इस विस्फोट को करनेवाले वह खुद न होकर कोई और हो। वे अक्सर पूछते कि उनके न बोलने से लोगों को कुछ कमी तो महसूस नहीं हो रही। मैं उन्हें कहती कि उन्हें देख पाना ही हम सके लिए बहुत आनंद कि बात है। किसी ने भी ऐसा नहीं कहा कि वे प्रवचन के आभाव को अनुभव कर रहे है।
इसी महीने के अंत में उनके कान में पीड़ा शुरू हुई। जिसके परिणामस्वरूप उनकी अक्ल दाढ़ निकालनी पड़ी और घाव को ठीक होने में बहुत देर लगी। उनके दांतों की चिकित्सा के कई सैशन हुए और हर सैशन के समय ओशो कहते कि उनका शरीर दुर्बल होता जा रहा है। और धरती से उनकी जड़ें प्रात: टूट चुकी है।
20 अगस्त ‘ओम का चिह्न नीले रंग में निरंतर मेरी आंखों के सामने बना रहता है। मुझ वह सैशन अच्छी तरह से स्मरण है। ओशो हमें ऐसा कह रहे है कि उनकी मृत्यु निकट है। यह मैं कैसे स्वीकार कर सकती थी ? ‘नहीं’मैंने सोचा,हमें जगाने की उनकी कोई विधि होगी।’
ओशो बुद्ध सभागार में हमारे साथ बैठने के लिए आते और मौन से अलंकृत संगीत बजता। ओशो इन्हें मीटिंग कहते थे। और इनसे प्रसन्न थे। उन्होंने इस दौरान कई बार कहा कि उन्हें अपने लोग मिल गये है। और इस समय जो लोग यहां है वह बहुत अच्छे है।
‘मिटिंग बहुत अच्छी थी। लोगों की प्रतिसंवेदना बहुत अच्छी थी। किसी ने कभी इतने लोगो पर इस तल पर काम करने का प्रयास नहीं किया; संगीत अब बिलकुल वहां पहुंच गया था जहां मैं चाहता था। अब तो मुझे केवल थोड़े से दिन और चाहिए—सप्ताह भी नहीं, और तुम सबको मेरा साथ देना होगा ताकि मैं शरीर में रह सकूं।’ ऐसा उन्होंने एक डेंटल सैशन में कहा था।
एक वर्ष के भरसक प्रयास और च्वांगत्सु को जल्दी तैयार करने के लिए ओशो का आनंदों को यह कहकर कि,‘यदि मेरा कमरा शीध्र तैयार नही हुआ तो यह मेरी समाधि होने वाली हे। उनकी अत्यावश्यकता की बात मन में बिठाना, दोनों ही बातों के फलस्वरूप च्वांग्त्सु ओशो के रहने के लिए तैयार हो गया। 31 अगस्त को हम सब बहुत प्रसन्न थे कि वे पहली बार अपने शीतल स्फटिक तथा संगमरमर वाले कक्ष में सोएंगे।’
ओशो के दांतों में इतनी पीड़ा थी कि उनके दंत चिकित्सक गीत ने पूछा कि क्या हम डॉक्टर मोदी, एक स्थानीय दंत चिकित्सक को सहायता के लिए बुला ले। यद्यपि ओशो हमेशा यही चाहते थे कि उनके अपने लोग ही उनकी चिकित्सीय आवश्यकताओं को देखें क्योंकि उनका प्रेम ही स्वयं में चिकित्सा–शक्ति है, फिर भी वे दूसरी रास लेने के लिए डॉक्टर मोदी को बुलाने के लिए राज़ी हो गए। जब डॉक्टर मोदी उन्हें देखने आए तो बड़ी मज़ेदार बात हुई। ओशो ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘तुम समझते हो कि तुम मुझे पर काम करने आए हो। लेकिन मैं तुम पर काम कर रहा हूं।’
ओशो ने प्रत्येक अवसर का उपयोग हमें जगाने के लिए किया। दांतों के सैशन बहुत दिनों तक चलते रहे। यद्यपि वे अत्यंत कष्ट में थे। परंतु उन्हें हमारी चिंता थी। वे मुझे कहते कि मेरी मूर्च्छा उन्हें तंग कर रही है। और अपनी मांग के कारण मैं उनके लिए एक खतरा हूं। उन्होंने बहुत सुंदर व प्रिय बातें भी कहीं, लेकिन तब मैं उन्हीं बातों को ग्रहण न कर सकी। उन्होने मेरी मांग के संबंध में कहा। मेरे लिए तुम बहुत अर्थ रखती हो। तुम मुझे समझ न पाओगे जब तक मैं शरीर नहीं त्याग देता। यह सच है क्योंकि उस समय मेरे लिए वह बहुत कठिन था और मेरी समझ से परे था। उन्होंने कहा, ‘शुन्यों, तुम बहुत प्रेमपूर्ण हो। तुम जहां भी होओगी मेरे साथ होओगी।’ परंतु साथ ही मुझे दंत कक्ष से बाहर जाने का आदेश देते।
एक दिन उन्होंने मुझ वहां से चले जाने को कहा क्योंकि यह जीवन और मृत्यु का प्रश्न था। मैं अपने कमरे में जाकर बैठ गई। और समझने का प्रयत्न करने लगी कि वे क्या कह रहे थे; क्या वे जन्म व मृत्यु की बात मेरे लिए कह रहे थे। या अपने लिए। शायद वे कह रहे थे कि यदि मुझे समझ में नहीं आ रहा यदि मैं अपने अचेतन में पड़े संस्कारों को न देख सकी तो ये निश्चित ही मेरे लिए बाधा बन जाएंगे। हो सकता है उन्होंने इस दृष्टि से जीवन या मृत्यु की बात की हो; क्योंकि मैं यह कल्पना भी न कर सकती थी कि उनका अभिप्राय अपनी मृत्यु या जीवन से था।
जब सैशन समाप्त हुआ तो मुझे बताया गया कि वे अब तक कह रहे थे कि उन्हें निरंतर मेरी मांग सुनाई दे रही है। मैं उलझन में थी क्योंकि मैं सोच रही थी कि मैं तो मौन बैठी थी।
आविर्भावा जिसे हम विश्व–यात्रा के दौरान क्रीट में मिले थे—कुछ सैशनों में उपस्थित थी: वह ओशो के पाँव पकड़कर बैठती थी। ओशो उसके सम्बंध में कहते थे कि उनके लिए उसका प्रेम बड़ा शुद्ध तथा निर्दोष था। कभी-कभी निर्वाणों वहां उपस्थित रहती; आनंदों ओशो के दाईं और बैठती और नोटस लेती। जब वे उसके ह्रदय चक्र को थपथपाते तो कहते कि वे उसके ह्रदय पर नोटस लिख रहे है। अमृतो हमेशा वहां होता और ओशो उसे खड़ा होने को कहते और फिर बैठ जाने को कहते। फिर गीत, आशु और नित्यामो भी वहां होते। नित्यामो दाँत की नर्स थी। मैनचेस्टर की किशोरी थी। जिसकी चुप्पी में उसके भीतर की शक्ति छिपी रहती।
ओशो अधिकतर समय अपने नए कमरे में रहत। वे बहुत बीमार हो गए थे। उनके शरीर में कोई भी गड़बड़ हो जाती तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती थी, क्योंकि किसी एक रोग को ठीक करने के लिए दवा दी जाती तो प्रतिक्रिया-स्वरूप समस्याओं का एक सिलसिला आरम्भ हो जाता। एक से बढ़कर दूसरी समस्या खड़ी हो जाती। उनके शरीर को बड़ी कुशलता से संतुलित रखना पड़ता। उनके भोजन ओर औषधियों को उनके अनुसार निर्धारित करना पड़ता। थोड़ा-सा परिवर्तन....कितना थोड़ा, हमारी कल्पना से पार था—समस्या उत्पन्न कर देता।
ओशो को सदा मालूम होता कि उनके शरीर के लिए क्या ठीक है और डॉक्टरों को हमेशा उनकी सुननी पड़ती। कई सप्ताह तक उन्होंने ठीक से खाना नहीं खाया और कई दिन केवल पानी ही पीते रहे।
और फिर वह खुशियां से भरा दिन आया जब उनकी कुछ खाने की इच्छा हुई। उसी दिन जापान से लाख से बने कटोरों का एक नया सैट आया था जिसे वहां के संन्यासियों ने जापान के एक छोटे से गांव में विशेष रूप से बनवाया था। प्याले काले रंग के थे और उन पर उड़ते हंसों की नक्काशी चाँदी से की गई थी। उनके साथ मेल खाती हुई ट्रे भी थी। मैंने ओशो को भोजन परोसा और जब वे खा रहे थे, मैं और आविर्भावा उनके चरणों में बैठी थी। वह क्षण मेरे हीरक क्षणों में एक था। मैंने सोचा कि अब सबठीक हो जाएगा वे अच्छे हो जाएंगे वे सदा-सदा हमारे साथ रहेंगे।
यह क्षण सांकेतिक रूप से मेरे लिए बहुत कुछ कह रहा था और कभी न समाप्त होने वाले आनंद के कारण मेरी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी।
कुछ चिकित्सक जो संन्यासी नहीं थे उनसे भी परामर्श लिया गया। उन्हें ओशो के जबड़े का एक्स-रे दिखाया गया ओर उन्होंने भी यह स्वीकार किया कि हड्डियों और दांतों के ह्रास का कारण रेडिएशन का प्रभाव हो सकता है। यह तब हुआ था जब ओशो अमरीका की जेल में थे।
मुझे ओशो से संदेश मिला कि अब मैं उनकी देखभाल का कार्य नहीं करूंगी; वे चाहते है कि मैं उनके वस्त्रों की धुलाई करूं। अमृतो ने मुझसे कहा। इस बात ने मेरे ह्रदय को गहरे में छू लिया। क्योंकि ओशो ने वास्तव में आज तक कभी यह नहीं कहा था कि वे चाहते है मैं यह करूं। वे हमेशा पूछते कि मैं अमुक काम करना पसंद करूंगी। अब मैं दंत सैशन के समय वहां नहीं जाती थी। लेकिन ओशो ने आनंदों से कहा; शून्यो चली गई है, तुमने आरम्भ कर दिया। वह भी अपनी बेहोशी में उन्हें तंग कर रही थी।
अब जब मैं लिख रही हूं तो यह मेरे लिए कल्पनातीत है कि मैं जान न पाई कि उस समय ओशो मुझ पर क्या कार्य कर रहे थे। मुझे याद है कि मेरी क्या प्रतिक्रिया थी, जैसे कि यह स्वप्न हो, और मैं चकित हूं कि मैं बात समझ न पाई। वे तुझे भीतर, भीतर और भीतर देखने के लिए कह रहे थे। वे मुझे अपने अचेतन में छिपे संस्कारों को देखने के लिए कह रहे थे। मैंने उन्हें कहते सुना है कि कई बार हम आत्म बोध के किनारे पहुंच जाते है—परंतु फिर लोट पड़ते है। इस समयावधि में मैं एक अंधे व्यक्ति की भांति खुले दरवाज़े के पास जाकर वापस आ जाती हूं। कई बार मेरी आस्तीन दरवाज़े की चौखट को भी छू लेती है। मैं दंत सैशन के समय वहां उपस्थित न रहूं, इतना ही पर्याप्त नहीं था,ओशो चाहते थे कि दंत चिकित्सा का सैशन चल रहा हो मैं आश्रम से बाहर चली जाऊं। आनंदों भी मेरे साथ जाए। पहली सुबह दंत सैशन की समाप्ति तक हमें आश्रम से बाहर जाने के लिए कहा गया; आनंदों और मैं एक मित्र के घर चली गई। जो नदी के किनारे था। मैंने सोचा कि मैं इस समय उचित उपयोग करूंगी,अंत: मैं धूप स्नान के लिए टैन-लोशन ले गई। और छत पर जाकर धूप में लेट गई। आश्रम लौटते समय मैं कह रही थी। आनंदों सुबह का आनंद लेने का कितना सुंदर अवसर था। मेरा ख्याल है मैं प्रतिदिन ऐसा ही करूंगी। यह अति सुंदर है।
मुझे बहुधा आश्रम छोड़ने को कहा जाता और कभी-कभी तो मेरे पास जाने के लिए कोई जगह भी न होती। एक दिन तो मैं पाँच घंटे आश्रम के पीछे के एक रास्ते पर जिसके दोनों किनारों पर बरगद के पेड़ है, मैं एक पत्थर की दीवार पर बैठी रही। सुबह धूप में बैठने का मज़ा खत्म हो गया। हिमालय की और पलायन का विचार बार-बार मन में उठने लगा। मैं अपने अचेतन की उस आवाज को जो बार-बार भिखारी की तरह मांग करती थी। खोजने में असमर्थ थी। मैं और गहरे में नहीं जा सकती थी। मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी और फिर भी मैं जानती थी कि ओशो बिना किसी ठोस कारण के कुछ भी नहीं करते। वे एक भी ऐसा शब्द नहीं बोलते थे जो उनके विवेक से न आया हो और हमें जगाने के प्रयास के लिए न हो।
ओशो के घर में होते हुए तथा यह जानते हुए कि अनजाने में किसी भी समय मैं उन्हें परेशान कर सकती हूं मेरे लिए यह बात वर्तमान में स्थित रहने की प्ररेणा बन गई। यदि मैं होशपूर्ण और वर्तमान के क्षण में रह सकती तो निस्सन्देह मेरा अचेतन कभी शोर नहीं मचा सकता था।
धुलाई वाले कमरे में मैं बहुत सजग रहती थी कही किसी दिवास्वप्न में न खो जाऊं,क्योंकि मैं जानती थी कि वे घड़ियां ऐसी होती है जब अचेतन अपना काम करता है। मैं सतत उन घड़ियों को देख पाने की चेष्टा करती। अचेतन मेरे बिना जाने अपना काम कर सकता है।
एक दिन दोपहर के भोजन से लौटते समय मैंने देखा अमृतो लाओत्सु द्वार पर खड़ा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। उसने कहा कि ओशो ने संदेश भेजा था कि आनंदों और मैं शीध्र घर छोड़ दें। पिछले कुछ दिनों से मैं अनुगृहित अनुभव कर रही थी, मुझे लग रहा था कि मुझे अपने भीतर जाने के लिए धक्का दिया जा रहा है। जब मैं दिन का अधिकांश समय अपनी अंत यात्रा के मार्ग के प्रति बोधपूर्ण होने में बिताती हूं तो मुझे बड़ा अच्छा लगता है।
मैंने अहोभाव प्रकट किया और सामान बांधने के लिए चली गई। बड़ी विचित्र बात थी कि मुझे मितली होने लगी।
मित्र-सामान बांधने में मेरी सहायता के लिए आ गए। मितली बढ़ने लगी। चक्कर सा आने लगा तो बंधे हुए अस्त-व्यस्त सामान के बीच लड़खड़ाते हुए मैंने कहा कि यदि मैंने अधिक तेल वाला भारतीय भोजन न खाया होता तो यह सब कितना अच्छा लगता।
‘निस्सन्देह’ मैंने कहा; यह भावुकता नहीं है, यह चिकनाई से युक्त भोजन है।
मेरा सामान वहां से हटा दिया गया और एक स्वामी मेरे कमरे में आने की तैयारी कर रहा था। जब मैं लाओत्सु द्वार से संगमरमरी पथ से होकर अपने कमरे में जा रही थी तो रास्ते के दूसरी और तक फैले हुए पलाश के पेड़ की और देखा। हर रात जब ओशो बुद्ध सभागार की और जाते है, यह पेड़ रास्ते पर केसरी फूल बरसाता है। सात बजे से पहले इस मार्ग को धो-पोंछकर स्वच्छ कर दिया जाता है। और एक भी आवारा पत्ता दिखाई नहीं देता। लेकिन फिर ओशो के आने से पहले पेड़ रास्ते को फूलों से भर देता था। अब जब ओशो की कार केसरी फूलों के ऊपर से गुजरी तो ऐसा दिखाई देता है जैसे कि ये फूल देवताओं को चढ़ाए गए है।
जब मैं पलाश के पेड़ के पास से गुजरी। तो इस तरह गुरु-गृह छोड़ते समय मैं उदास हो गई। क्योंकि कौन जाने कि कहीं आश्रम में पूरे फेर बदल की शुरूआत ही न हो। हो सकता है अब पुरूष ही सब कुछ करेंगे। हो सकता है अन्य स्त्रियों को भी शीध्र छोड़ना पड़े। ओशो पहले ऐसे बुद्ध पुरूष है जिन्होंने स्त्रियों को अवसर दिया है परंतु सम्भवत: स्त्रियों के संस्कार बहुत गहरे है। कौन जानता है यह स्त्रियों के लिए अंत हो। मैं अपने स्नान गृह में गई और वमन कर दिया। आनंदों और मैं सड़क के दूसरी और मिरदाद भवन के कमरों में चली गई। अभी मैंने सारा सामान भीतर रखा ही था। कि अमृतो का फोन आया। उसने कहा कि उसने अभी ओशो को बताया था कि आनन्दो और मैं उनके घर से चली गई है और ओशो ने कहा, ‘उन्हें कहो कि वे फिर वापस आ सकती है।’
मैं कमरे की दहलीज पर बैठ गई और रोने लगी।
उसी दिन ओशो अपने नए कमरे से बाहर आ गए। वे वहां केवल दो सप्ताह ही रहे थे। और उन्होंने कहा कि यह अद्भुत, अद्वितीय ओर वास्तव में कैलिफ़ोर्निया जैसा है। उन्होंने अमृतो से पूछा कि उनका पुराना कमरा अभी है या नहीं।(ओशो ने इसे अतिथि-कक्ष बनाने को कहा था) अभी अमृतो अपना सिर हिला ही रहा था कि ओशो बिस्तर से उठे और कैलिफ़ोर्निया से बाहर चले गए। और सीधा अपने पुराने कमरे में पहुंच गए। उन्होंने कभी बताया नहीं ‘क्यों’ और किसी ने पूछा भी नहीं।
ओशो के दस दाँत निकाल दिए गए थे परंतु एक सप्ताह आराम करने के पश्चात उन्होंने कहा कि वे बुद्ध सभागार में आकर हमारे साथ मौन में बैठेंगे। उन्होंने कहा कि मैं उनके साथ मीटिंग में चल सकती हूं। जब मैंने उन्हें देखा तो मैं हैरान रह गई कि उनमें कितना परिवर्तन आ गया था। अब वे अलग ही ढंग से चल रहे थे। पहले से धीरे,फिर भी बच्चे की भांति। वे हलके, बहुत ही नाज़ुक और असहाय से लग रहे थे। विचित्र बात यह थी वे और अधिक सम्बुद्ध लग रहे थे। अधिक सम्बुद्ध कसे कोई अर्थ तो नहीं निकलता और जो मैंने देखा था उनसे कहा और वे केवल मुस्कुरा दिए।
यद्यपि इन दिनों मैं बहुत गहनता से अपने अचेतन के संस्कारों को खोजने की चेष्टा कर रही थी परंतु मैं इन्हें देखने में सफल न हो पाई थी। मैंने बहुत सा समय बिलकुल मौन व शांत रहकर यह अनुभव करने में व्यतीत किया था कि जिस दुर्गम पथ पर मैं चल रही हूं,वह बहुत ही संकीर्ण और खतरनाक है। मुझे अपने संस्कारों का कहीं कोई चिह्न दिखाई नहीं दिया परंतु एक दिन अचानक मुझे ओशो की उपस्थिति में इसका अनुभव हुआ। मेरा ओशो से बातचीत करने का ढंग मेरे चलने का ढंग मुझे मेरे भीतर की स्त्री की मांग का बोध करा रहा था। मैंने इसे अपनी आंखों से बाहर आते अनुभव किया। मेरा प्रत्येक हाव-भाव कह रहा था, ‘क्या आप मुझे प्रेम करते है, क्या आपको मेरी आवश्यकता है?’ मेरा पूरा शरीर इस प्रश्न को अभिव्यक्त कर रहा था। मुझे आघात-सा लगा, मैं बहुत लज्जित थी कि इतने लम्बे समय के बाद जब वे मुझे सब दे चुके थे, मेरी मांग वैसी ही थी। तब मुझे अनुभव हुआ कि यह सदा से ही थी। और पहली बार मुझे इसका बोध हुआ था।
तब मैंने स्वयं से पूछा, ‘क्यों यह मांग क्यों है?’ ऐसे लगता है कि यह इसलिए है क्योंकि मैं अपने ‘स्व’ से अभी तक परिचित नहीं हुई हूं। मुझे अभी तक यह बोध नहीं हुआ कि मेरा होना ही पर्याप्त है। मैं अभी संसार में ‘स्त्री’ के नाते से ही जुड़ी हूं, मैं ‘स्व’ के माध्यम से सम्बंध नहीं बनाती, मैं नहीं जानती कि मैं ही पर्याप्त हूं, क्योंकि मैं अब भी‘स्त्री’ हूं। स्त्री की आवश्यकता नहीं है। ‘होना’ ही पर्याप्त है।
अब पूरा समय अमृतो उनकी देखभाल कर रहा था और सांय छह बजे मैं उनको जगाने जाती थी। मुझे उन्हें जगाने के लिए कहना जो मुझे जगाने का प्रयास कर रहे थे, बड़ा विचित्र लगता था।
उठकर वे नहाते, बुद्ध सभागार में आते और पौने आठ बजे वे पुन: बिस्तर में होते। उनके पास जितनी भी ऊर्जा थी वे सायंकाल अपने लोगों से मिलने के लिए बचा रहे थे। पोडियम पर वे धीरे-धीरे चलते। हमारे साथ नाचना अब उनके लिए संभव नहीं था। वे पूछते, ‘तुम्हें मेरे नृत्य का आभाव महसूस होता है?’ और एक बार मैंने उत्तर में कहा, ‘हम सदा उत्सव के लिए आप पर आश्रित नहीं रहेंगे। हमें अपने उत्सव का स्त्रोत स्वयं ही खोजना है।’जब मैंने यह कहा तो मुझे बड़ा अजीब लगा। क्योंकि वह भावशून्य लगा लेकिन वह सच था। वे हमें नाचता, गाता देखकर आनंदित होते थे और वे एक-एक को देखते थे। उन्होंने कहा नीलम बहुत शांत व प्रसन्न दिखाई दे रही थी।
हमारे ध्यान में जो मौन गहरा रहा था उससे भी वे बहुत प्रसन्न थे और उन्होंने बहुत बार कहा कि अब बात लोगों को समझ आने लगी है। मौन इतना सधन होता जा रहा है कि तुम लगभग उसे छू सकते हो।
अब वे कभी-कभार काम करते या किसी से बात करते। यदि कोई बहुत महत्व पूर्ण काम होता तो आनंदों से कहते। जब उन्होंने पूछा कि जयेश ने तो उनसे मिलने के लिए नहीं कहा, मेरे न कहने पर उन्होंने कहा, ‘मेरे लोग कितने प्यारे ओर संवेदन शील है, उनकी मुझसे कोई मांग नहीं है।’
इस समय मैं बहुत प्रसन्न थी क्योंकि मुझे लग रहा था कि ओशो अभी कई वर्षों तक हमारे साथ रहेंगे। जब अंतिम बार मैंने उन्हें अकेले में देखा तो उन्होंने मुझसे पूछा कि वे कैसे दिख रहे है:
‘मैं कमज़ोर तो नहीं लग रहा न।’
‘नहीं, ओशो मैंने उत्तर दिया, आप तो हमेशा अच्छे दिखते है। इतने अच्छे कि लोगों को विश्वास नहीं होता कि आप बीमार है।’
अगले दिन मैं बीमार पड़ गये। हर तीन चार महीनों के बाद मुझे सर्दी पकड़ लेती। मुझे संदेह था कि इसका कारण मनोवैज्ञानिक है लेकिन मैं कभी समझ नपाई कि ऐसा क्यों होता है। बहुत वर्ष पूर्व मेरे किसी प्रश्न के उत्तर में उन्होंने एक प्रवचन में कहा था।
‘कभी-कभी तुम मेरे बहुत निकट आ जाओगे और प्रकाश से भर जाओगे—यही शून्यो के साथ घट रहा है। मैं उसे कई बार अपने बहुत समीप आते देखता हूं; तब वह प्रकाश से भर जाएगी। परंतु शीध्र ही वह फिर अंधकार की कामना शुरू कर देगी; तब उसे मुझसे दूर जाना पड़ेगा।’
‘और यह यहां सबके साथ हो रहा है। तुम झूलते हुए मेरी आते हो और दूर चले जाते हो। तुम एक पैंडुलम की भांति हो: कभी तुम समीप आते हो, कभी दूर चले जाते हो लेकिन यह अनिवार्य है। तुम अभी मुझे पूरा आत्मसात नहीं कर सकते। तुम्हें सीखना होगा। तुम्हें उसको जो मृत्यु जैसा प्रतीत होता है, आत्मसात करना सीखना होगा। अंत: कई बार मुझसे दूर जाना तुम्हारे लिए आवश्यक होता है।‘
(द विज़डम ऑफ सैंड)
शरीर त्याग से पहले तीन महीने तक मैंने ओशो को केवल बुद्ध सभागार में ही देखा था। आनन्दो उन्हें बुद्ध सभागार उत्सव के लिए जगाने जाती थी। और अमृतो दिन रात उनके पास रहता था।
निर्वाणो पिछले अठारह महीनों से जयेश और चिंतन के साथ काम कर रही थी। और सप्ताह में एक दो दिनों के लिए मुम्बई जाती थी। उसने मुझे बताया था कि उसे अपना काम बहुत अच्छा लग रहा था। काम बहुत ही उत्साहपूर्ण था।
वह कभी-कभी संध्याकालिन ध्यान के लिए आती थी और उसका उत्सव मनाना अन्य सब को फीका कर जाता। और कभी वह आती ही नहीं थी।
कुछ सप्ताहों से वह उदास थी परंतु एक दिन वह नाचती हुए मिलारेपा व राफिया के साथ बाहर निकली और एक सप्ताह के लिए उनके साथ चली गई।
9 दिसम्बर को जब मैं लांड्री रूम में थी, आनन्दो आई और उसने बताया कि नींद की गोलियां आवश्यकता से अधिक मात्रा में लेने के कारण निर्वाणों की आकस्मिक मृत्यु हो गई है।
माई डायमंड डे विद ओशो—मां प्रेम शुन्यों
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