पोनी--(एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा) अध्‍याय—16

(मेरी पहली दीपावली) 
               
      वह मेरी पहली दीपावली थी। और आखरी भी। क्‍योंकि फिर इस घर में मैंने  कभी दीपावली मनाते नहीं देखी। आप सोचते होंगे ये भी कैसी पागल पन की बात, पर मैं जो कह रहा हूं उसे सुनने के बाद तब आप भी सोचने को मजबूर हो जायेगे की मैं अपनी जगह ठीक हूं। क्‍योंकि इस घर की पहली दीवाली ही मेरी दीवाली है। और ये दीवाली भी शायद बच्‍चों के लड़क पन के कारण मनाई गई। तब आप सोचोगे कि बच्‍चे एक ही साल में इतने बड़े और समझदार हो गये की दीपावली जैसा महत्‍वपूर्ण त्‍योहार भी उन्‍हें प्रभावित नहीं कर सका। पर शायद अगले वर्ष परिवार में किसी जवान चाचा की मृत्‍यु हो गई। ठीक दीवाली दो चार दिन पहले। और दीपावली का लाये हुए सब पटाखे धरे के धरे ही रह गये। दस दिन के राम लील उत्सव के ठीक इक्‍कीस दिन बाद दीवाली आती है। इसे पूरे हिन्‍दुस्‍तान में खुशी का पर्व माना जाता है। राम को रावण के हाथों से छुड़ा कर जब राम अपने घर की और चले पड़े थे। कहते है कि लंका से अयोध्‍या तक का यह सफर इक्‍कस दिन में पर्ण किया था। और ठीक उस अमावस की रात भगवान राम अपने घर पहुंचे। हिन्‍दुओं की गणना और इतिहास में आप गलती नहीं ढ़ूँढ़ पाओगे।

      मैं छत पर चढ़ कर बड़े ही अचरज से आस पास के घरों को देख रहा था। चारों और प्रकाश की जगमगाहट थी। इधर दीदी और वरूण भैया भी दीवारों पर मोमबत्‍ती जल कर प्रकाश कर रहे थे। मैं पास जाकर उसे सूंघने की कोशिश करने लगा। मुझे क्‍या पता था की वह गर्म है और मेरा नाक जल गया। में जलन के कारण तड़प गया और उसे भौंकने लगा कि यह कितनी खतरनाक वस्‍तु है। और दीदी-और वरूण भैया इन्‍हें हाथ में  लिए धूम रहे है। मुझे गुस्‍सा भी आया और इन लोगो के दिमाग पर हंसी भी आई की मनुष्‍य बनता तो इतना समझ दार है। पर समझ इसमें बिलकुल नहीं है। देखा आपने कुदरत का करिश्मा। जंगल में सांप की कांचली को देख कर में भय से कांप गया। जब की वो सांप भी नहीं था। और यहां जो आँखों के सामने आग जल  रही है। उसे नहीं पहचान सका की वह जला देगी। क्‍योंकि प्रत्‍येक पशु पक्षि मनुष्‍य का विकाश क्रमबद्ध से हुआ है। हमें ये संस्‍कार कुदरती तोर पर अपने पूर्वजों की दी हुई इनायत है जो उन्‍हें ने जाने कितनी मेहनत और प्राणी की बलि देकर प्राप्‍त हुआ। वे सब उसे अपनी अगली पीढ़ी को दान स्‍वरूप दे जाते है। जैसे हम गोली की आवाज से डरते है। तो पहले हमारा पूर्वज जो अंजान होगा गोली से और उससे जब वह मरा होगा, तब वह  उसका अनुभव बना होगा। इसी तरह एक-एक अनुभव फिर पीढ़ी दर पीढ़ी शरीर की संरचना में स्वयंमेव ही वह भय या अनुभव हमारी संरचना में समा जाते है। और वही अनुभव हमे जीने में और जानने में मदद करते है।
      मेरे नाक के जल जाने से दीदी हंस रही थी और वरूण भैया उसे सहलाने के लिए पास आये। पर में डर के मारे दूर भाग गया। क्‍योंकि उसके हाथ में मोमबत्‍ती थी। में बार-बार अपनी नाक को चाट कर उसकी जलन कम करने की कोशिश कर रहा था। और पछता भी रहा था कि मैंने क्‍या आफत ले ली। और दीदी को देखो मुझ पर हंस रही है। भला ये भी कोई बात हुई। की किसी को चोट लग जाये और वह रो रहा हो आप हंसे। यह तो असभ्‍यता वाली बात हुई। मुझे दीदी पर क्रोध आ रहा था। और में बार-बार उसे भौंक रहा था। पर इस अनुभव से में ये जान गया की ये जलने वाली चीज खतरनाक बहुत है। चारों और से पटाखों की आवाज आ रही थी। पर उस समय में जवान था। डर नहीं लगता था। आपने अंतिम दिनों में ढोल की आवाज सुन कर कांप जाता था। की ढोल के बाद पटाखे जरूर चलेंगें। आकाश में अचानक प्रकाश फैल जाता और रंग बिखर जाते। और बहुत जोर से आवाज होती। देखने में वह नजारा बहुत ही सुंदर लगता पर डर भी लगता की ये इतनी बड़ी जलती चीज सर पर न आन गिरे। पूरा घर मोमबत्‍तियों के प्रकाश से नाह रहा था। में बहुत खुश हो कर कभी छत पर जाता कभी ममि जी के पास रसोई में जहां वह न जाने क्‍या खाने के लिए बना रही थी। क्‍योंकि में जानता था। ममि ही सब को खाना बना कर खिलाती थी। और कितने प्रकार के, नये-नये व्‍यंजन बनाती है। और कितने सुस्‍वाद। उनकी खुशबु भर से मेरे मुहँ से तो पानी टपकने लग जाता था। मैं मम्‍मी जी के पास खड़ा हो जानने की कोशिश कर रहा कि आज जब घर इतना सज़ा है। तो खाने को भी जरूर कोई बहुत निराली चीज बनी होगी। क्‍योंकि जब भी घर में कुछ अधिक लोग ध्‍यान करने कि लिए आ जाते। तब मैं समझ जाता की आज खाना विशेष तरह का होगा। और ऐसा ही होता। खीर पूरी और सब्‍जी। तब मैं बहुत खुश होता। और लगता ये लोग रोज क्‍यों नहीं आते। मुझे भी कुछ अच्‍छा और ज्‍यादा खाने को मिलेगा। क्‍योंकि सब एक-एक टुकड़ा भी दे तो दस टुकड़े खाने को मिल जाते। और मेरे हिस्‍से को तो मुझे मिल ही जाता। उस दिन में इतना खा जाता की चलना भी दूभर हो जाता। ये हमारी आदत और नीयत की बात है। वरना क्‍या कभी मैं जब से इस घर में आया हूं कभी भूखा सोया हूं। भूख क्‍या है। वह तो मैने सच में कभी जानी ही नहीं। फिर भी अंदर से लगता की अब जो मिल जाये खा लूं फिर मिले न मिले।
      मम्‍मी ने मेरी और देखा और हंसने लगी। और कहने लगी पोनी आज तुझे में बहुत बढियां और मजेदार चीज खिलाऊगी। में भी जब पहली बार इस घर में आई तो मैंने इसे खाया तो हैरान रह गई थी। तू भी देखना हैरानी के साथ खुश भी होगा। सजाने का काम खत्‍म कर बच्‍चे आपने-अपने पटाखे ले कर बैठ गये। हिमांशु भैया अभी छोटा था पटाखों से मेरी ही तरह बहुत डरता था। उसे जो पटाखे मिले थे उसने सब दीदी और वरूण को बांट दिये। पर दीदी भी पटाखों से डरती थी। वरूण भैया इसमें कुछ ज्‍यादा ही दिलेर थे। पर डर वो भी रहे थे। वरूण भैया भी पटाखे में आग लगा कर भाग कानों में अंगुलि डाल कर खड़े हो जाते। उसके बाद आसमान में रंगीन प्रकाश फैलता जाता। और जोर का धमाका होता। दिल कांप जाती। मुझे इतना डर लगता की अभी मरा। और मुझे अचरज भी होता की ये मनुष्‍य कितना मुर्ख है। क्‍यों इस तरह की चीजें चलाता हो, जो तुम्‍हें डराये। तुम्‍हारे मन मष्‍तिक को भय से भर दे। पर ये बात उस समय मेरी समझ में नहीं आती थी। की ये सब विकास के क्रम में उस का नियम है। मनुष्‍य ने जितना विकास किया है। उतना ही सुरक्षित हो गया है। जंगल में रहता था। चौबीस घंटे मृत्‍यु का भय सताता था। जरा आँख लगी नहीं कोई जगंली जानवर मार देगा। या कोई जहरीला प्राणी आपने दंश से खत्‍म कर देगा। उसे बहुत सतर्क जीवन जीना होता था। जो बहुत होश और ताकत वाला था वही जी पाता था। पर विकास ने उसे आराम परस्‍त बना दिया। क्‍योंकि में जब घर में रहता हूं या सोता हूं तो मुझे चारों ओर कोई भय नहीं लगता। फिर भी पिछली संरचना के कारण जरा सी आवाज के कारण चोंक कर उठ जाता हूं और भोंकने लगता हूं। और इस मनुष्‍य को कोई फर्क ही पड़ता। शायद जीवन में जितना सुख और सुरक्षा आयेगी। हमारी तमस उतनी ही अधिक होगी, और इसके साथ-साथ हमारा सम्‍मोहन बढ़ता चला जायेगा।
      उधर हम सब बड़ी बेसब्री से इंतजार करते थे। कि कब पापा जी कब दुकान से आये सब का इंतजार करने का ढंग अगल-अलग था। पर  बच्‍चों को तो कल सुबह स्‍कूल भी जाना था। सो उन्‍हें तो जल्‍दी से सो जाना चाहिए था। लेकिन जिस दिन छुट्टी होती उस रात सब पापा जी का इंतजार करते थे। क्‍योंकि आज पापा जी का कहानी सुनाने का दिन होता था।  रात के समय सब पापा जी का इंतजार करते। और पापा के आने के बाद सब की खुश का क्‍या कहना पर सबसे ज्‍यादा खुशी का इजहार में ही पूछ हिला कर करता था। बच्‍चे तो कभी-कभार ताली बजा कर करते थे। सब पापा जी को घेर कर बैठ जाते और कहानी सुनाने की जीद्द करते। पापा जी रात को कम ही खाना खाते थे, शायद मेरी याद में मैनें कम ही देखा था। केवल एक गिलास दूध पीते थे। इस दृश्‍य का में भी एक साक्षी होता। चाहे मुझे कुछ समझ में न आता हो परंतु उन सब के साथ बैठना मुझे अच्छा लगता। इस सभा का मैं भी जरूर सदृश्य बनता। और सब एक बार मेरी और जरूर अजीब नजरों से देखते थे। एक अचरज और विषमय भरी नजर से जैस कि ये सब जो मैं कर रहा हूं मुझे नहीं करना चाहिए। पर मैं करता था और मुझे वहाँ बैठना बहुत अच्‍छा लगता था। जब पापा जी कहानी सूना रहे होते तो मैं केवल उनकी ध्‍वनि को सुनता था। वो शब्‍द शायद ही मेरी समझ में कुछ  आते होगें, परंतु वहां शब्दों के परा भी कुछ बह रहा होता और मैं आंखे बद कर उस में बहने की कोशिश करता। शब्‍द तो हमारी समझ में आ भी जाते है तो कुछ क्षण में लुप्‍त हो जाते है, धाराप्रवाह अनवरत बहने वाला प्रसाद अनमोल होता, वहाँ का माहोल, वहां की शांति मेरे गहरे में उतरती चली जाती। वो क्षण मेरे जीवन के अनमोल क्षणों में एक होता था। बच्‍चे एक दो कहानी सुनने के बाद और कहानी की ज़िद्द करते पर पापा जी अगले दिन के लिए कह कर उन्‍हें सुला देते। पर आज तो मुझसे ज्‍यादा बच्‍चे इंतजार कर रहे थे। क्‍योंकि जो बड़े-बड़े पटाखे आदि आये हुऐ थे। उन्‍हें तो वह चला नहीं सकते थे। छोटे मोटे पटाखे और फुलझड़ियां चल कर अपना समय काट रहे थे। पर उन्‍हें खुद चला कर उन्‍हें आनंद भी आ रहा था। आज किसी को खाने की भी सुध नहीं थी। पर मैं तो ममि जी के पास चला गया जहां पर वह चूरमा बना रही थी। अब वह भी मुझे आया देख कर खुश हुई की चलो कोई तो मेरे आया। वरना ममि जी कब से खाना बना कर आवाज लगा रही थी। पर कोई आने को तैयार ही नहीं था। ममि जी मुझे दाल-चूरमा दिया। वां क्‍या लजीज मुलायम ओर स्‍वादिष्‍ट था। एक तरफ तो नमकीन दाल और दुसरी तरफ मीठा चूरमा। सच इतना स्‍वाद भोजन मेंने कभी नहीं खाया।
      पापा जी के आने के बाद सब बच्‍चो ने उन्‍हें घेर लिया। और अपने-अपने पटाखे दिखाने लगे। मैं भी उस जमात में खड़ा हो गया एक मूक दर्शक की तरह। क्‍योंकि में तो एक नकलची था, जो बच्चे करते मैं तो उनकी देखा देखी करने की कोशिश करता चाहे वो मेरी समझ में आये या न आये। और देखो बच्‍चें भी अपने उन्‍माद में या भाव प्रवाह में ऐसे बह गये की वो सब भूल गये की ये पटाखे उनके लिए पापा जी ही तो खरीद कर लाये थे। पर उन्होंने सब के पटाखे बारी-बारी से पापा जी को दिखलाये की देखो मेरे पास कितने खतरनाक पटाखा है। जो कोई भी चलायेगा तो डर जाये। और उन पटाखों को ले कर हम सब छत की और चल दिये। उधर मम्‍मी  जी को अपने खाने की फिकर थी। पर आज मेरे अलावा कोई खाना खाने को तैयार नहीं था। सब अपने-अपने खेल तमाशों में उलझे हुए थे। चारों और बम्‍ब-पटाखों की आवाज से गांव गुंज रहा था। मानों ख़ुशियों की फुलझड़ियां चारो और फैल रही है। पापा जी ने मम्‍मी जी को आवाज लगाई की पहले बच्‍चों के साथ पटाखे चला लेते है फिर उसके बाद सब मिल झूल कर भोजन करेंगे। सौ ममि बेचारी को आखिर हार मान कर हमारे साथ छत पा आकर बैठना ही पड़ा। हिमांशु भैया भाग कर ममि जी को गोद में छुप गया। पीछे बड़ा कमरा था। जिस में रात को पापा जी सोते थे। और दिन में वहां सब ध्‍यान करते थे। पर उसके बाद भी छत काफी बड़ी थी। चारों और इँट की जाली बनी थी। पापा जी एक शीशे की बोतल उठाई और छत के बीचों बीच रख दी। में बड़े गोर से देख रहा था और सूंघ कर समझने की कोशिश भी कर रहा था। कि ये सब क्‍या माजरा है। सब लोग इस बात के कारण मेरा मजाक बनाते थे। कि मैं अपने को बहुत ज्ञानी समझता हूं। पर ये मेरी परम्‍परा से मिली आदत थी। जो मेरे रोंए रेशे में समाई थी। पापा जी ने दीदी से एक पटाखा जो देखने में काफी लंबा था उसे अपने हाथ में लिया।  उसे उन्‍होंने उस बोतल में खड़ा कर दिया। फिर एक मोमबत्‍ती हाथ में ले कर दीदी को आपने पास बुलाया दीदी थोड़ी सी डर रही थी। पर इतने लोगो में यही तो वह क्षण था अपनी वीरता दिखाने का परम सौभाग्‍य मिल रहा हो। फिर चाहे आप कितना ही डर रहे हो। आप उसे मोंके को हाथ से नहीं जाने देंगे। फिर इसी साहस के दम पर वह साल भर हम पर बहादुरी की धौंस जमा सकती थी। इस लिए डरने के कारण वह रुकी नहीं क्‍योंकि उसे बहादुरी का मैडल मिल रहा था। और दूसरा पापा जी के साथ होने से शायद उसे थोड़ी हिम्‍मत भी आई होगी। अपने हाथ की जलती मोमबत्‍ती को पापा जी ने  दीदी के हाथ में थमाते हुए कहां।  लो इस की बत्‍ती में आग लगाओ। दीदी ने कांपते हाथों से उस पकड़ा। तब पापा जी ने दीदी के हाथ को अपने हाथ से पकड़ कर आगे बढ़ा दिया और उस पटाखे की बत्‍ती में मोमबत्‍ती से आग लगा दी। दीदी ने डर के मारे अपना मुख फैर लिया। सब डर रहे थे पर मुझे उन दिनों जार भी डर नहीं लगता था। शायद में भय से अंजान था। इसलिए। कुछ देर सु...सु....सु...की आवाज और प्रकाश हुआ उसके बाद। तेज अंगारे छोड़ती कोई चीज आसमान कि और उड़ चली। इतनी देर में मैने गर्दन उपर की और की वह उपर और उपर जा रही थी। काले आसमान की और मैने पहली बार देखा, कितना सुंदर लगता है। आसमान को हम कहा देख पाते है हमारा जीवन तो जमीन पर देखते ही खत्‍म हो जाता है। और मेरी जाती के कितने ही पूरा दिन पेट की आग के कारण सारा दिन दूनिया के लात-घूसे खाते फिरते है। झूठ-खूटा खा कर जीवन यापन करते है। और एक दिन निसार जीवन के बोझ तले दब कर मर जाते है। एक बुरी मौत, वरना तो कोई क्‍यों बदनाम करेगा की कुत्‍ते की मोत मरोगे। खेर ये सब तो जीवन का हिस्‍सा है। आज खुशी में इसे ना याद किया जाये तो बेहतर होगा।  फिर अचानक एक जोर का प्रकाश चारो और फैल गया। जैसे कि अचानक सारा आकाश जो अभी तक रंग हीन काला था। वो अंनत रंगों के प्रकाश में नाह गया। चारो तरफ तेज प्रकाश जिसके कारण आँखें चुंदियाँ कर बंद हो गई। कुछ देर बाद जब मेंने फिर आसमान की और देखा तो मैं बस देखता ही रह गया।  रंगों की एक छतरी आसमान पर बन गई। मानो आसमान पर किसी ने सुंदर चित्रकारी कर दी हो। कुछ क्षण बाद एक बहुत जोर की आवाज हुई। बच्‍चों ने तालियाँ बजा कर उस सब का स्‍वागत किया। में भी खुशी के मारे पागल हो गया। और बारी-बारी से सब के पास जा कर अपनी खुशी दिखाने की कोशिश कर रहा था। इस बीच मेरी दूम जोर-जोर से गोल आकार में घूम रही थी। क्‍योंकि मैं हाथ से ताली बजा अपने मनों भावों को प्रकट नहीं कर सकता था। मेरी पूछ ही मेरी सहयोगी थी। जो मेरी चापलूस में या खुशी में मेरे भाव को दूसरों तक पहुंचा सकती थी। इसी लिए तो लोग कुत्‍ते की पूछ का मुहावरा दोहराते रहते है।
      पर इस माहोल में भी कुछ ऐसा था जो मेरी समझ के परे था। मैं ये समझने की कोशिश कर रहा था कि ये लोग अपने सब सामान को क्‍यों बरबाद कर रहे थे। मुझे तो घर का कुड़ा ले जाने वाली पर भी बहुत खुंदक आती थी। हाला कि मैं उसे कुछ कह नहीं पाता था। क्‍योंकि वही लोग तो मुझे जंगल से लेकर आये थे। भला इस बात को मैं कैसे भूल सकता था। इस सब के कारण उनके प्रति मेरे मन में कुछ दिन के लिए जो घृणा और क्रोध था। अब वह तिरोहित हो कर प्‍यार और एहसान में बदल गया था। अब जब भी उस आकाश तूली को छोड़ा जाता में उस को पकड़ने की नाकामयाब कोशिश करता। मेरे इस व्यवहार को देख कर सब ताली बजाते। मैं बार-बार उसकी गति के करण हार जाता था। और दूसरी और हिमांशु भैया और मम्‍मी जी कानों में उँगली डाले दूर बैठे डर रहे थे। मेरे डर के उपर अब साहस न कब्‍जा जमा लिया था। इसी लिए मैं बार-बार उनके पास जाकर भोंक कर उन्‍हें जताने की कोशिश कर रहा था भला इस में भी डरने की क्‍या बात है।
      पर एक बात मेरी समझ के परे थी कि ये मनुष्‍य भी कैसा है, अपने ही हाथों अपने ही घर के सामान को घर के बहार आग लगा कर फेंक रहा है। ये तो वही बात हो गई की घर फूंक तमाश देखना। इस बात पर मुझे इसके दिमाग पर दया भी आ रही थी और क्रोध भी आ रहा था। इस लिए कभी में मम्‍मी जी के पास जा कर कुं....कुं....कुं कर या भोंक कर उन्‍हें समझाने की कोशिश‍ कर रह था कभी उनका हाथ चाट कर कह रहा था कि ये सब रोकों पर मेरी बात किसी ने भी नहीं सूनी। आप समझ सकते है मेरी मजबूरी। एक तो में ऐसे प्राणियों के साथ जी रहा था। जिसकी भाषा, सोच सब मेरी समझ के पार के थे। फिर सबसे तनाव वहां पर आता था। जब आप उन्हें कुछ कहना चाहते है। और वो आपको किसी भी राय के काबिल नहीं समझते। फिर वहीं बातें हमे तनाव देती रहती है। इस सब बातों को कम करने के लिए हमे कई बार बहुत जोर का क्रोध करना पड़ता है।  मुझे इस मनुष्‍य की बुद्धि पर तरस भी आता और अपनी बुद्धि को रोकना भी होता। एक ही हाथ से दोनों चीजों को सम्‍हालना। बहुत मुश्किल है, जब आप दो घोड़ों पर सवारी कर रहे होते हो। तब आपको बीच से चिल्‍लाना पड़ेगा या धूल धमास होकर नीचे जमीन पर गिरना होगा।
      दीवाली का उत्सव पूरी रात चला। मम्‍मी-पापा और बच्‍चें तो अपने बम्‍ब पटाखे चला कर सो गये। पर दूर दराज पूरी रात में उनकी आवाज सुनता रहा। मेरे लिए ये नई बात थी। हां इस आवाज से अंदर एक डर था जो जाना पहचाना सा महसूस होता था। पर ये बात पक्‍की थी इस से पहले इस जन्‍म में इस आवाज से मैं परिचित नहीं था। फिर ये डर क्‍यों? जो मेरे प्राणों को अंदर से कांपा रहा था। जिसे में बहुत गहरे से महसूस कर रहा था। और खास कर अब जब मैं अकेला रह गया था। क्‍या ये सब मेरे पीछे से मुझे मेरे वंश वाद की ही देन है। या कोई और बात। जैसे हमे मरने का अनुभव एक बार ही होता है। और इसे अनुभव भी नहीं कहना चाहिए। क्‍योंकि अनुभव तो वह होता है जिस जान कर आप उसके पार खड़े होकर आप उसे महसूस कर सके। और मृत्‍यु तो सब मिटा देती है। फिर भी अंदर एक डर है। जैसे इसे लाखों-करोड़ो बार जाना है। ये एक चिरर्थात सत्‍य है। अब कोई इसे कबूल करे या नहीं ये उसका भ्रम मात्र है।
      वाकई एक बात तो है। आज घर में रात के वक्‍त इतनी चहल पहल पहली बार हुई और ये मेरी लिए एक नई बात थी। इससे पहले तो पापा जी दुकान से जब घर आते तो बच्‍चे सो चूके होते या कभी रात में बिस्‍तरे में लेटे-लेटे उनका इंतजार कर रहे होते की पापा जी अब  कहानी  सुनाईये। पर आज तो घर पर एक उत्‍सव था एक मेला था। एक अपूर आनंद बरसा और यहीं है मनुष्‍य की महिमा की वो पेट के अलावा भी किसी और आयाम में भी जीता है। जो पृथ्‍वी को कोई और प्राणी नहीं जानता। न समझता और न ही चाह कर भी उस में जी सकता है.......
क्रमश: अगले अंक में.........
स्‍वामी आनंद प्रसाद ’’मनसा’’

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