पोनी एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा—(अध्‍याय—13)

जीवन की किरण उतरी
     जीवन संघर्ष के वो दिन जीवन में कुछ ऐसे आयाम दे गये जिन आयामों को मैं बिना उनके अंदर से गूजरें हुए उन्‍हें वैसे कभी नहीं जान सकता था। उन्‍हीं दिनों मैंने जाना मनुष्‍य की उपलब्धि को, उसके प्रेम को, उसकी बौद्धिकता को, उसका स्‍नेह को, उसका अपनापन और लगाव मेरे अंतस के गहरे तक उतर गया। कैसे वो सामर्थ है अपने संगी साथी के सहयोग में। हम दूसरे प्राणी इस विषय में सोच भी नहीं सकते। वो पहली रात मेरे तन मन पर बहुत भारी गुजरी। मेरे पूरे शरीर मैं इतनी बेचैनी की में एक जगह बैठ ही नहीं सकता था। लगता था यहां से उठ कर कही दूर चला जाऊं। कितनी बार उठ-उठ कर में कमरे से बहार गया। एक अजीब सी बेचैनी थी मेरे शरीर में। डा0 ने तो मुझे देख कर ही कह दिया था कोई उम्‍मीद नहीं है। फिर भी मनुष्‍य उम्‍मीद नहीं छोड़ता।  डा0 ने अपना जो अपना काम करना था वो कर दिया। शायद मेरे शरीर में पानी की कमी हो गई थी। ज्‍यादा उलटी और दस्‍त के कारण।
उसको दूर करने के लिए उसने ग्लूकोज चढ़ाया। क्‍योंकि मेरा मुहँ तो खुलना ही बंद हो गया था। प्रकृति अपना काम पक्‍का करती है। मरने से पहले आपके मुहँ को बंद कर देगी। आपके जबड़े सख्‍त हो जायेगे। जिससे आप ठोस भोजन मुंह में डाल कर चबा नहीं सकते। क्‍योंकि वह तंत्र एक दम से बेजान हो जायेगा। बस आपके मुहर को सीधा खोल सकते है। प्रकृति अपना काम बड़ी सहजता और सरलता से करती है। आपके शरीर को मिटना है, अब उसमें ठोस जाना बंद होगा। दो या तीन दिन तक आपके मुख में तरल भी जाना बंद हो जायेगा। उस समय पूरा मुख अकड़ कर बंद हो जायेगा। दाँत जबरदस्‍ती बंद हो  जायेगे उनके बीच से केवल आप पानी डाल सकते है। पानी शरीर उसे आखरी वक्‍त तक गृहण करता रहता है। मरने के कुछ क्षण तक भी आप मरीज को पानी पीला सकते हो जूस या दूसरा तरल नहीं। पर मेरा तो मुख ही सुख गया था। जो डा. ने दवाई दी थी वह भी पापा जी बड़े जतन और  जबरदस्‍ती से किसी ड्रोपर में डाल कर मुझे पीला रहे थे। आधी अधूरी ही अंदर जा पाती थी। मुख की अकड़न के कारण मैं उसे घूमा नहीं सकता था। में जानता था पापा जी जो कर रहे है, ये सब मेरी भलाई के लिए ही कर रहे है। पर मैं क्‍या करूं ये सब जो हो रहा था मेरा इस पर कोई जोर है। मेरी पूरे शरीर में एक छटपटाहट एक बेचैनी फेल गई थी। और मुझे कुछ भी अच्‍छा नहीं लग रहा था। ग्लूकोज चढ़ने के बाद मेरे शरीर में कुछ चेन मिला। थोड़ी देर की लिए ठंडक महसूस हुई। और मुझे नींद आने लगी। करीब दो घंटे तक मैं खुब सोया। तीसरे दिन फिर मुझे डा0के यहां जब ले जाया गया तब तक भी मेरी हालत वैसी ही थी। बस मेरे प्राण नहीं निकले थे। साँसे चल रही थी। डा0 को भी बड़ा अचरज हुआ की तीन दिन से मैं जीवन ओर मृत्‍यु से कैसे संघर्ष कर रहा हूं। इस बात का उसे यकीन नहीं हो रहा था। उनको शायद नहीं पता की मुझे मोत भी पापा जी के संग से नहीं छीन पा रही। पापा जी की सेवा और प्रेम मुझे मरने नहीं दे रहा था। वे घंटो मेरे शरीर को अपनी गोद में ले कर मुझे सहलाते रहते। शायद उनके संग ओर सेवा का ही फल था की मैं नहीं मरा। 
      चौथे दिन श्‍याम को अचानक मैं देख रहा हूं मेरा शरीर उस दवाई को अपने अंदर सहजता से जाने दे रहा है। शायद मौत भी पापा जी के प्रेम के आगे हार गयी। और मुझे अपने संग नहीं ले जा सकी। पापा जी दवाई दे रहे है में उन्‍हें डूबती आंखों से देख रहा हूं,  जैसे ही मेंने दवाई को चाटा, पापा जी की आंखों में प्रेम और करूण आंसू बन बहने लगी।  पर उस समय  भी मैं होश में  नहीं था एक नशा और एक मादकता ने मुझे घेर रखा था। लगता था बस आँख बंद कर के सो जाऊं। एक सुखद गहरी नींद। कोई मुझे छेड़े ना। क्‍या मोत में इतना सुख और आनंद है। फिर क्‍यों हम इससे डरते है। शायद किसी अंजान भय के कारण ही हमें पीड़ा होती है। ग्लूकोज का पानी मेरे मुहँ में डाला। मैं पी गया। उन्‍हें कुछ उम्‍मीद दिखलाई दी। क्‍यों डा0 ने तो पहले कह दिया था कि अभी कोई उम्‍मीद नहीं है। क्‍योंकि मेरा मुंह अकड़ कर एक दम से बंद हो गया था। आंखे भी वह बहुत गहरे में चली गई थी। पर इतना भर था कि मेरी श्‍वास चल रही थी। पर ग्लूकोज का पानी मेरे मुख में अंदर जाने से एक उम्‍मीद की किरण जगी। कुछ घंटो बाद पापा जी मेरे लिए आइस क्रीम लेकर आये। उन्‍होंने जबरदस्‍ती मुख खोल कर मेरे मुख में चम्मच से उसे डाली। मैं खाना नहीं चाहता था। कुछ तो बहार गिर गई। कुछ जो  मुख में रह गई। उस के कारण मैने धीरे-धीरे अपने मुख को हिलाया। अभी भी मुख काफी अकड़ा हुआ था। पर अंदर का हिस्‍सा कुछ मुलायम हो गया था। मैने जीभ से आस पास लगी आइसक्रीम को चाटनें की कोशिश की। शायद यह चार पाँच दिन बाद मेरे शरीर ने कोई खाद्य पदार्थ ग्रहण किया था। उसके बाद में थोड़ा चला। शरीर एक दम सुख कर पंजर हो गया था। चलने में भी मुझे चक्‍कर आ रहे थे। मैं अपने आप को किसी ऊँचाई पर चलता हुआ महसूस कर रहा था। जैसे की अभी गरी और तभी गिरा। सारी चीजें हिलती डुलती नजर आ रहा था। पर अंदर से लगता था दो कदम चलू। चार पाँच कदम के बाद में रूक कर इधर उधर देखने लगा। एक दो गहरी सांस ली। पापा जी ने मेरे सर और पूरे शरीर पर प्रेम से हाथ फेरा। मेरे अंदर एक नई उर्जा का संचार हुआ और में बहार दस-पंदरह कदम चल कर वापस आकर बिस्‍तरे पर लेटे गया। इतना चलने पर ही मैं थक गया। और मैंने आंखे बंद कर ली। कुछ देर इस तरह आँख बंद किये लेटे रहना अच्‍छा लग रहा था। लेटे रहने और दवाई के कारण मेरे शरीर में कुछ जीवंतता सी महसूस हुई।
      कुछ देर बाद जब मेंने आंखे खोली तो मेरी पेट की आंतें कुछ काम करने लगी। इतने दिन से तो पेट का कुछ पता ही नहीं था। अब लगा शरीर ने काम करना शुरू कर दिया। दो-तीन मिनट में इधर उधर देखता रहा। कि मैं कहां पर हूं। सामने ग्लूकोज का पानी भरा था मुझे अंदर से प्‍यास लगी थी।  मैं उठ और उठ कर अपने आप ही उस कटोरे से पानी पीने लगा। पानी मैंने गले से होकर पेट तक जा रहा था। इससे पहले ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ था। कितनी ही बार मैंने पानी पिया था। मैंने जी भर कर पानी पिया। उस का स्‍वाद कुछ अकबका सा था। पानी पीने के बाद में फिर बहार चला गया। लगा शु-शु कर लू। कुछ ही बुंदे सूसू की टपकी शायद सारे शरीर का पानी उलटी और दस्‍त के सहारे बह गया था।। मैं वापस आकर बिस्‍तरे पर बैठ गया। पाप जी वो आइसक्रीम का कप ले कर आये और मुझे चटाने लगे। मुझे वह ठंडी और मीठी बहुत अच्‍छी लग रही थी। में पापा के चेहरे पर उतरती तृप्ति को देख रहा था। कि मुझे खाता देख कर उनकी आँखो में एक खास तरह की खुशी है। जो हम पशु कभी महसूस कर सकते। शायद हम बंधे है किसी पास में। और मनुष्‍य मुक्‍त हो गया। हम केवल अपने पेट के लिए जीते है। और मनुष्‍य प्रेम और तृप्‍ति के सहारे उसके पार चला गया है।
      अगले दिन फिर मुझे डा0 के यहां ले जाया गया। और जब मुझे सुई लगाई गई तो में बहुत डर गया और लगा छटपटाने। आज मुझे पहली बार वहां पर लेटना अच्‍छा नहीं लग रहा था लग रहा था कि किसी कैद में फंस गया हूं। काफी देर तक मुझे जबरदस्‍ती वहां पर लिटा दिया गया। मैने बार-बार अपने को छुड़ाने की कोशिश की। पर मेरा मुंह एक पटी से बाँध रखा था और मुझे चारों और से पकड़ रखा उस समय मुझे बहुत भय लग रहा था। अब मेरी समझ आया की न जाने ये लोग मेरा क्‍या करने वाले हे। कोई प्राणी कभी किसी पर भरोसा नहीं करता। न जानें वो खुद को सबसे ज्‍यादा समझ दार समझता है। काफी देर तक उस पर लेटे रहने से मैं बेचैन हो गया। जब छोड़ा गया तो चेन की सांस ली और जब मेरा मुख से पट्टी खोल दि गई तब मैं सब को भौंकने लगा। की तुम ने मुझे क्‍यों बाँध दिया, तुम सब बेकार हो...मुझे सता रहे हो....इत्‍यादि—इत्‍यादि।
      मेरी इस हरकत पर सब लोग बड़ी जोर से हंसने लगे। तब मुझे और भी अजीब लगा की मैं तो गुस्‍सा कर रहा हूं और ये सब हंस रहे है। तब पापा जी ने वहां से एक बिस्कुट का एक बड़ा डिब्‍बा लिया और मेरे लिए एक लाल रंग का बजने वालो खिलौना। जो मेरे पास करीब दो साल तक रहा। मैं बहुत बड़ा होकर भी उस खिलौने से खेलता था। उसे कोई भी उठा लेता तो मैं परेशान हो जाता। सब परिवार के लोग मेरी इस हरकत पर हंसते की बूढ़ा लोग हो गया अब
भी खिलौनों से खेलता है। एक तो वो एक्‍टोपस और एक जिराफ़ मुझे अंत तक बहुत प्‍यारे रहे। मैं बड़ा होने के बाद भी जब उन खिलौनों  से खलता तो मुझे अपने बचपन की याद ही नहीं आती में वहां खुद चला ही जाता। मेरा बचपन मेरे अंदर से निकल कर बहार आ कर मेरे साथ खेलने लग जाता था।
      इस बीच मुझे नींद बहुत आती थी। मैं थोड़ी देर खेलता और थक कर सो जाता। शायद ये शरीर की अपनी प्रकिया है। वो नींद में अपना इलाज करता है। और नींद में अपना विकास करता है। पर मुझे ठीक होने मैं ज्‍यादा दिन नहीं लगे। दस-बारह दिन में काफी ठीक हो गया। इतना की मैं दौड़ कर जंगल जाने के लिए भी तैयार था। अब जैसे-जैसे मेरे शरीर में ताकत आ रही थी, तब  मुझे लगता की मैं भागू-दौडू और खेलूँ। मेरा बहुत मन करता की मैं जंगल में जाऊँ और उस नरम मुलायम रेत में दौड़ लगाऊं। आखिर मेरे मन की बात पापा जी ने सुन ही और एक सुबह जंगल जाने की तैयारी करने लगे। क्‍योंकि जंगल जाने के लिए पापा जी दूसरे जूते पहनते, हाथ में डंडा लेते। मेरी चेन उनके हाथ में होती। तब में एक दम से समझ जाता की अब मजा आयेगा। मैं और पापा जी कभी-कभी अकेले भी जंगल चले जाते थे। क्‍योंकि बच्‍चों को तो स्‍कूल जाना होता था। इस लिए वह तो छुट्टी के दिन ही जा सकते थे। पापा जी ने मुझे अपनी गोद में उठा लिया। और मैं इधर-उधर चारों और देखता हुआ गोद में बैठा बड़ा गर्व महसूस कर रहा था। हमारी दूकान रास्‍ते में ही पड़ती थी। जब हम दुकान पर पहुँचे तब मेंने देखा वहाँ पर ममि जी थी। ममि जी ने मुझे अपनी गोद में लेना चाहा पर। मैं पापा जी से चिपट गया। मुझे लगा की ममि जी मुझे अपने पास रख लेगी और मेरा जंगल जाना टल जायेगा। मेरी इस हरकत पर ममि-पापा जोर से हंसे की देखो कितना बेईमान है। जब खाना लेना होता तो कैसे ममि के पीछे-पीछे दौड़ता है। और अब ऐसा करता है। जैसे ममि को जानता ही नहीं। हम हंसी खुशी जंगल की और चल दिये।
      गांव की सीमा खत्‍म होने के बाद पाप जी ने मुझे जमीन पर उतार दिया। कच्‍ची मिट्टी ने जैसे ही मेरे पैरो को छुआ। मेरे मन को पंख लग गये। में बेतहाशा दौड़ा। पापा जी भी मेरे साथ-साथ दौड़ें और मुझसे आगे निकल गये। मेरे छोटे-छोटे पेर और पापा जी के इतने बड़े पैरो और कदम कहां था हमारा मुकाबला और मैं कैसे कर सकते है। पर हार जीत की परवाह किसे थे। और किसे मेड़ल चाहिए था। यहां तो केवल दौड़ना भर और आनंद था। पाप जी दो पैरो से खड़ा होकर दौड़ते थे जबकि मैं चार पैरों से दौड़ लगा रहा था। मुझे नहीं पता था कि जब में बड़ा हो जाऊँगा तो पापा जी को पीछे छोड़ दूँगा। इस बात की तो मैं कभी कलपना ही नहीं था। एक दिन जंगल जाते हुए जब मैंने वरूण भैया को पीछे छोड़ा तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ। फिर तो में पल में वरूण दीदी, हिमांशु भैया को भी पीछे छोडने लगा। हाँ पापा को पीछे छोड़ने के लिए मुझे काफी समय लगा। पर जब एक बार मुझे भरोसा हो गया कि में सब को पीछे छोड़ सकता हूं। तब तो मेरे अंहकार के कहना ही क्‍या था। उस मुलायम रेत पर पैर रखते ही मानों मुझे पंख लग जाते थे। बस फिर कोई पकड़ता या गोद में उठाता तो मुझे अच्‍छा नहीं लगता था। पर थोड़ी ही दूर दौड़ने के कारण मेरी साँसे फूल गई। मेरा सारा शरीर पसीना-पसीना हो गया। अंदर से जी मिचलाने लगा। और मुझे चक्र आने लगे। में वहीं बैठ कर पापा जी का इंतजार करने लगा। कुछ ही देर में पापा जी आते दिखाई दिये। पर ये क्‍या मुझे पूरी पृथ्‍वी घूमती हुई नजर आ रही थी। में समझ गया था कि अभी में ठीक नहीं हुआ हूं। पापा जी ने पास आ कर मुझे गोद में उठाया। मेरे बदन को सहलाया। मुझे कुछ आराम मिला। मैंने आंखे बद कर ली। थोड़ी ही देर में मुझे लगा की मैं फिर नीचे उतरू जाऊं, और में कुं...कुं...कुं.. कर के रोने लगा और नीचे उतरने कि ज़िद करने लगा। पापा जी ने मुझे फिर से नीचे उतार दीया।
      अब की बार मैं तेज नहीं दौड़ा। अब अपनी कानूनी करवाई। करता हुआ चला। एक झाड़ी से मुझे कुछ जानी पहचानी सी खुशबु आई। मैं गर्दन डाल कर सूँघने लगा। इतनी देर में दो तीतर निकल कर फुर्र....से उड़ गये। मैंने भी डर के मारे पा यूं....की आवाज की और पीछे की और भागा। बाद मैं मैने देखा अरे ये तो तीतर थे जो मुझे से डर कर उड़ गये थे। इतनी देर में आगे खाली चोंडा मैदान आ गया। सामने ही तीन चार गाय की तरह से दिखने वाले कुछ पशु चर रहे थे। पापा जी कुछ पीछे थे। में उस खुले मैदान में नरम घास में उछल-उछल कर उन की और दौड़ने लगा। क्‍योंकि न तो वह गाय लग रही थी। और ने ही घोड़ा। उनके पैरो के निशान को सूंघकर भी मेरी समझ में नही आ रहा था कि ये कौन सा जानवर हे। अब भला आप भी कहेंगे। नाहक परेशानी अपने सर मोल ले रहा हूं। मुझे क्‍या लेना देना। शायद इसी बात के कारण मनुष्‍य गहरी तमस में चला गय। वह आस पास की हर वस्‍तु को जो उसके काम की न हो उसे छोड़ता चला जाता है। पर हम तो नहीं छोड़ सकते हम जीवित कैसे रहेगें। आस पास के खतरे का जब तक हमे भान न हो। अब उन के पैरों के निशान घोड़ की तरह थे। गाये, बकरी, भेस...आदि के पैर आगे से दो हिस्‍सों में बटे होते है। जिसके कारण ही शायद वह घोड़ और खच्‍चर के कारण तेज नहीं दौड़ पाती है। क्‍योंकि उनके पैरो की दो फाड़ उनकी आधी उर्जा को दो हिस्‍सों में बांट देती है। और उनकी चौडाई जमीन को छू कर अधिक हो जाती है। जबकि घोड़े के पैर नीचे से छोटे होते है। इसी कारण वह कम जमीन को घेरते है। और गुरूत्व शक्ति को जल्‍दी तोड़ कर उठ जाते है। पर इनके पैर भी गाय तरह से न हो कर घोड़ों की तरह से थे।
      उन गाये जैसे दिखने वाले जानवरों का मेरी और अधिक ध्‍यान नहीं गया। एक तो शायद में छोटा था दूसरा में घास में छुप-छुप कर जा रहा था। मैं बिलकुल उनके नजदीक पहुंच गया। तब उनमें से एक ने मुझे देखा। और अपनी पूछ खड़ी कर ली। और मुझे गोर से देखने लगी। तब जाकर मुझे एहसास हुआ की में खतरे में हूं। क्‍यों कि अगर ये मुझे पर हमला कर देती तो मैं भाग भी नहीं सकता था। बीमारी के कारण मैं कमजोर था। दूसरा घास में इतना तेज दोड ही नहीं सकता था। अब वह गाये जैसी दिखने वाला पशु मेरी और बढ़ा। मैं वही पर कान बोच कर बैठ गया। वह मेरी और अपने पैने सींग कर आगे बढ़ी। इतनी देर में सब पशुओं का ध्‍यान मेरी और हुआ। अब तो में समझ गया मैंने अपनी शामत नाहक ही बुलवाई। पर अचानक सब के कान खड़ हुए और फुर....मय..मय..कर के इतनी तेज गति से छोड़ी की मैं देखता ही रह गया। इतनी तेज दौड़ना वाला पशु मैंने अभी तक जीवन में नहीं देखा था। इतना बड़ा घास का वह मैदान वह पलक झपकते ही पार कर पेड़ो के झुरमुट में गायब हो गई। तब मेरी समझ में आया की अचानक क्‍या हुआ था। उन्‍होंने पापा जी को आते देख लिया था। और मानव से सभी पशु-पक्षी डरते है। पापा जी को में जब तक दिखाई नहीं दिया था। वह जोर-जोर से मुझे आवाज मार-मार कर बुला रहे थे। पोनी.....पोनी.......पोनी... अब ये शब्‍द तो मेरी समझ में नहीं आते थे। के मैं आपने नाम के पुकारने को पहचान सकूँ। पर उन शब्दों से जो ध्वनि बनती थी। मैं उस से पहचान करता था। जैसे, पानी, पोनी,  खाना, दूध....धीरे धीरे मेरे मस्‍तिष्‍क  में और–और शब्‍दों पहचाने की शमता बढ़ती जा रही थी। और ये कार्य पूरे जीवन भर चलता रहा। मैं अपने डर को भूल कर पापा जी आवाज की और तेज गति से दौड़ा। पर चार कदम दौड़ा ही था कि लगा मैं मरा। मेरा पूरा शरीर मोत की लहर सी दौड़ गई, पूरा शरीर पसीन से तर बतर हो गया।  मैं और जितनी तेज गति से उछल सकता था उतना ही उछला। मेरे मुख से प्याऊ की भी आवाज नहीं निकली। एक सांप के आकार की उसकी केंचुली फैली हुई थी। जल्‍द बाजी और डर के कारण मैंने उसे सांप समझ लिया। सांप की केंचुली को देख कर मैं इतना क्‍यों डर गया। अब ये सब हमारे अचेतन में कहीं बसा होगा। वरना तो इस जन्‍म में मैंने अभी तक सांप क्‍या होता वह तो कभी जाना ही नहीं था। और नहीं ये विकास मुझे पीढ़ी दर पीढ़ी ही मिला क्‍यों मैं अपनी मां के साथ एक महीने भर भी नहीं रह सका। इस छोटी सी उम्र में कितना सीख पाया होऊंगा। पर ये प्रकृति का विशाल खेल है। मनुष्‍य ने तो जो जाना है। वह अपनी अगली पीढ़ी को सिखाता है बताता है।
      खैर वहां से हम गहरे नाले की और चल दिये। पानी और पेड़ो की अधिकता के कारण वहां पर हवा में कुछ अधिक ठंडक थी। मेरे शरीर में इतने पसीने आने के बावजूद भी मुझे वह ठड़ का अहसास हुआ। नाले के आस पास उगी डाब बहुत ही उँची थी उसकी कोमल मुलायम पत्तों को देख कर मेरा खाने को मन हुआ। पर वह मेरी पकड़ के बहार थे। क्‍यों अंदर पेट में कुछ अजीब सी बेचैनी हो रही थी। लगता था। कुछ बहार निकलना चाहता है। मैंने वहां खड़ा हो कर उस घास को सूंघा और अगले पैरो पर खड़े हो कर तोड़ने की कोशिश की। ये सब पापा जी देख रहे थे। वह समझ गये की मेरा क्‍या मन कर रहा है। वह हंसे और घास की मुलायम पत्‍तियां तोड़ कर मुझे खिलाने लगे। मैंने पूछ हिला कर उन्‍हें चबा कर अंदर करने लगा। पर ज्‍यादा पत्‍ते अंदर नहीं ले जा पाया। पेट ने जवाब दे दिया। अब में नीचे की और भागा। नरम मुलायम ठंडी रेत में घसीटता चला गया। नाला बहुत ही गहरा था। उसके अंदर की शांति बड़ी अजीब थी। बरसात के दिनों में जब यह भर कर चलता था तो इसे पार करना मौत को दावत देने जैसे है। इसका बहाव बहुत ही तेज और खतरनाक होता है। पूरी जंगली पहाड़ी का पानी इतनी बेग से बहता है की जंगल को यह नाला दो हिस्सों में बांट देता है। जो उधर रह गया। उसे घंटो इंतजार करना होता है। पानी के कम होने का। कितनी ही गर्मी हो इसमें आपको हमेशा सीतल जल मिलेगा ही। मैं भी भाग कर नीचे उतरा एक बार पीछे मुड़ कर देख भी लेता था कि पापा जी आ रहे है या नहीं। क्‍यों सच बताऊ इस नाले की शांति और गहराई के कारण मुझे बहुत ही डर लगता है। लगता है को आस पास की झाड़ियों से निकलेगा और मुझे दबोच लगा। मैंने घुटनों तक पानी में घुस कर खुब पानी पिया। पेट एक दम टिड्डा हो गया। और मैं दौड़ता हुआ उस पानी को पार कर गया। और भाग कर उपर की और चढ़ने लगा। नाले के आस पास उगे उचे वृक्षों के और गहराई के कारण वहां दिन में भी बहुत कम धूप आती थी। सूरज की रोशनी उपर की फुनंगियों पर ही अटक कर रह जाती था। उपर चढ़ते ही मेरे पेट में उमड़-घुमड़ हुई और मुझे जोर से उलटी आ गई। पर यह पहले जैसी उलटी नहीं थी। इसमें मेरी खाई हुई घास के साथ पीत का  पीला पानी था। इससे मुझे बहुत ही अच्‍छा लगा। कुछ देर तो सर और आंखे भारी हुई पर थोड़ी ही देर में मैं ठीक महसूस करने लगा। जंगल में आना मेरे लिए वरदान जैसा ही था। क्‍योंकि मां के पास मैं क्‍या कुछ सीख पाया। जंगल में प्रकृति का विकास बहुत सरलता और सहजता से होता है। मनुष्‍य के साथ रह कर मुझे वो सब सीखना पड़ रहा है जिस की हम कल्‍पना भी नहीं कर सकते। उसके शब्‍द तो मेरी पहचान में नहीं आते पर बार-बार उच्‍चारण करने के कारण उनकी ध्वनि मैं समझने लगा था। अब मैंने रहना मनुष्‍य के संग साथ  है। उसके आदर्श उसकी नैतिकता के बिना वहां पर रहना ना मुमकिन ही समझो। अब सामने खाने की कोई वस्‍तु रखी है। हमें अपने स्‍वभाव को दबा कर उसे नहीं खाना। कितनी मुश्‍किल से ये आदत मैने सीखी है। सामने खाना हो और उसे छोड़ दिया जाये तो आप बच लिए। पर मनुष्‍य के संग ऐसा नहीं है। सामने खाना हो आप ने खा लिया तो आपकी शामत आई। बहुत कुछ वह मैंने और मेरी जाति के अनेक साथियों ने ये सब सिखा है। और इस सब के कारण हम मनुष्‍य के ह्रदय के अंदर तक आ बसे है। जंगल में जा कर मैं स्‍वछंद हो जाता था। वहां सूंघकर देखता और हर चीज को समझने की कोशिश करता। कभी किसी तितली के पीछे भागता। कभी किसी खरगोश के पीछे, कभी कसी जंगली मुर्गी-या तीतर को पकड़ने की नाकाम कोशिश करता। मैं सोच रहा था की अगर मुझे यहां पर जीना होता तो मैं कैसे जीता। कौन मुझे भोजन देता। बहुत जीवट परिवर्ती के ही प्राणी जंगल में जीवित रह सकते है। कुदरत हमारे साथ ही नहीं सभी प्राणियों के साथ कुरूर है। और दूसरी तरफ से देखे तो करूणा वान भी क्‍योंकि हमारे प्रकृतिक विकास में बहुत जल्‍दी करती है। वरना अगर मेरी कुदरती विकास प्रकृति ने मेरे अचेतन में न संजोया होता तो। कितनी गड़बड़ हो जाती। मनुष्‍य को ही देखिये इसकी प्रौढ़ता कितनी देर में आती है। हमारी प्रौढ़ता की तरह से अगर इसे छोड़ दिया जाये तो इसका जीना मुश्किल ही नहीं असंभव है।
      अब एक चीज और समझने की है। हजारों पशु पक्षियों में क्‍यों हम मनुष्‍य के इतने करीब आ गये। कि डाइनिंग रूम ही नहीं हम किचन और बेड़ रूम में भी उसके साथ। सोने लगे। अगर दूसरे प्राणी ये देखे तो यकीन नहीं होगा। पर उसके लिए हमने आने स्‍वभाव में अनगिनत  बदलाव करने पड़े। मनुष्‍य के अनुरूप ढालना पडा। खोया भी बहुत पर उसके बदले पाया भी बहुत। पर जंगल में आकर में अपने छूटे स्‍वभाव के करीब आ कर उसे जी लेता था। उससे अचेतन में एक खास किस्म की तृप्‍ति महसूस होती थी। लेकिन देखना आज नहीं कल जंगली जानवरों का आस्‍तित्‍व ही खतरे में नहीं है। हमारा भी आस्‍तित्‍व खतरे में है। शायद जंगली जानवर तो एक प्रतिशत बच भी जाये पर हमें सबसे पहले विलुप्‍त होना होगा। बढ़ते शहरी करण और गाड़ियों की तादाद से न हमारी जाती के लिए रहने की जगह नहीं बची। और ही प्रजनन के लिए कोई स्‍थान बचा। अगर सौ पैदा होते है तो मेरे हिसाब से केवल दस ही बच पाते है। कब तक ढो सकेंगे इस अनुपात को। सड़क पर आते जाते वाहनों को पार करना, एक पूरे जीवन का सबक है। अगर आप बच गये तो नया अनुभव देखने को मिलेगा। वरना तो सब पहले ही अनुभव मे खत्‍म। जीवन बहुत कठिन होता जा रहा है। फिर कुदरती ही मार ही नहीं, मनुष्‍य भी बदल रहा है। उसकी संवेदनशीलता कम होने से हमारा पुश्तैनी राज सिंहासन भैरव के गण वाली बात लोप होती जा रही है। लोगो के मन में दया कम हो गई, पेट भरना दूबर होता जा रहा है। पर हम पालतू के लिए ये सब सोचने की जरूरत नहीं है। क्‍योंकि कोई भी दयावान ही हम अपने घर में स्‍थान देगा। और रही कंजूसियत की बात तो लाख टके की बात ही इसे समझो की अगर कोई कंजूस है तो वह अगर अपनी कंजूसी तोड़ना चाहता है। तो वह एक कुत्‍ता पाल ले। बस टूट गई पल में। पर कंजूस आदमी हमें पालते ही नहीं। वही लोग हमें पालते है। जिनके ह्रदय में प्रेम और दया है। और एक राज की बात आज आप से कह रहा हूं इसे मेरा अंहकार मत समझना। आप मेरी हर बात को जीवन का एक नीचोड़ ही समझों। अगर आपके घर में प्रेम नहीं है तो आप एक कुत्‍ते को पाल लो। वह कदम-कदम आपके घर में प्रेम फैला देगा। और दूसरी बात कहीं भी कोई पागल बच्‍चा हो या बुढ़ा, वह जब भी हम कुत्‍तो को देखेगा तो लगेगा मारने। जो हमे मार रहा हो...उसे मारता देख कर ही आप समझ सकते है। या तो वह पागल है, या आने वाले किसी जन्‍म में पागल पन की और बढ़ रहा है। मैं तो इतना दावे के साथ कहता हूं कि किसी पागल को अगर हमारे साथ रख दिया जाये तो चंद दिनों में स्‍वास्‍थ हो जायेगा। हम उसके पागल पन का हरण कर लेगे। पर ऐसा हो नहीं सकता। क्‍योंकि पागल आदमी हमारे पास आयेगा ही नहीं....फिर कौन सड़क के आवारा और असहायों पर ही दया करेगा। जिन से हमें कोई डर नहीं। हर पल गलियों में किसी की लात....किसी कि घुडक खाकर जीते जो रहे है। देखो कब तक....
      आप भी सोचते होगें। में बहुत चिंतन मनन करता हूं। पर क्‍या करूं संग साथ का प्रभाव तो होता ही है। दूसरे कुत्तों की बनस्‍पत मेरा मस्‍तिष्‍क कुछ अलग तरह से काम कर रहा हे। खाली उर्जा दर्शन शास्त्र ही बन जाती है। भोग से ही कविता का जन्‍म होता है। मजदूरी में कहीं कविता फूटती देखी है।
स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’
(पोनी एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा)

No comments:

Post a Comment

Must Comment

Related Post

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...