स्‍वर्णिम बचपन--(सत्र- 12 ) जीवक और देव गीत

बुद्ध का वैद्य, जीवक, सम्राट बिंब सार ने बुद्ध को दिया था। एक और बात है कि बिंब सार बुद्ध का संन्‍यासी नहीं था, वह केवल उनका हितैषी था, शुभ चिंतक था। उसने बुद्ध को जीवक क्‍यों दिया? जीवक बिंब सार का निजी वैद्य था, उस समय  का सबसे प्रसिद्ध, क्‍योंकि एक दूसरे राजा से उसकी प्रतियोगिता चल रही थी, जिसका नाम प्रेसनजित था। प्रसेनजित ले बुद्ध से कहा था, आपको जब‍ भी आवश्‍यकता हो, मेरा वैद्य आपकी सेवा में उपस्थित हो जाएगा।
      यह बिंबसार के लिए बहुत बड़ी बात थी। अगर प्रसेनजित यह कर सकता है, तो‍ बिंबसार उसे दिखएगा कि वह बुद्ध को अपना सबसे प्रिय निजी वैद्य भेंट कर सकता है। इसलिए यद्यपि बुद्ध जहां-जहां गए जीवक उनके साथ-साथ गया, लेकिन याद रखना, वह उनका शिष्‍य नहीं था। वह हिंदू ब्राह्मण ही बना रहा था। 
      अजीब बात थी—बुद्ध का वैद्य, जो निरंतर उनके साथ दिन-रात उनकी छाया की तरह रहता था, वह ब्राह्मण ही बना रहा। लेकिन इस तथ्‍य से यह सिद्ध होता है कि जीवक को राजा से  वेतन मिलता था। वह राजा की नौकरी करता था। अगर राजा चाहता था कि वह बुद्ध के साथ रहे, तो ठीक था। एक नौकर को अपने स्‍वामी की आज्ञा माननी ही पड़ती है और बुद्ध के पास भी वह कभी-कभार ही रहता था, क्‍योंकि बिंबसार बूढ़ा था और उसकेा बार-बार अपने वैद्य की जरूरत पड़ती थी, इसलिए वह जीवक को प्राय: राजधानी में बुलाता रहता था।
      देवराज, तुमने तो इस बारे में सोचा भी न होगा, लेकिन मुझे अफसोस हुआ की मैं तुमसे कुछ ज्‍यादती कर बैठा। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। तुम ऐसे अनूठे हो जैसा कोई हो नहीं सकता। जहां तक किसी बुद्ध के वैद्य होने का सवाल है किसी की भी तुलना तुम्‍हारे साथ नहीं की जा सकती, न अतीत में न भविष्‍य में। क्‍योंकि ऐसा आदमी कभी नहीं होगा जो इतना सरल और इतना पागल हो कि अपने आप को जो़रबा दि बुद्ध कहता हो।
      पर अजीब बात है कि होश उस चीज से और भी स्‍पष्‍ट हो जाता है जो शरीर को गायब करने में सहायक हो। में इस कुर्सी को सिर्फ इसलिए पकड़े हुए हूं ताकि मुझे याद रहे कि शरीर अभी है। ऐसा नहीं की मैं उसे बनाए रखना चाहता हूं। लेकिन सिर्फ इसलिए कि कहीं तुम लोग पागल न हो जाओ। इस कमरे में तो इतनी जगह नहीं है कि चार पागल आदमी उसमें समा सकें। हां, अपने भीतर के पागलपन के लिए कोई  सीमा नहीं होती।
      वाराणसी में कृष्‍णमूर्ति जिन मित्र के यहां ठहरते थे। उन्‍होंने भी यही बात पूछी। दिल्‍ली के मित्रों ने भी यहीं पूछा। इसलिए यह गलत नहीं हो सकता। अलग-अलग स्‍थानों के अलग-अलग लोग बार-बार एक ही प्रश्‍न पूछते हे। बहुत लोगों ने उन्‍हें हवाई जहाज की यात्रा करते समय भी उन्‍हें जासूसी उपन्‍यास पढ़ते देखा है। सच तो यह है कि बंबई से दिल्‍ली की हवाई जहाज से यात्रा करते समय मैंने भी उन्‍हें जासूसी उपन्‍यास पढ़ते देखा है। संयोगवश हम दोनों एक ही हवाई जहाज से यात्रा कर रहे थे। इसलिए मैं अधिकारपूर्वक कह सकता हूं कि वे जासूसी उपन्‍यास पढ़ते है। मुझे किसी गवाह की जरूरत नहीं है। मैं खुद इसका गवाह हूं। क्‍योंकि मैं बंबई में जिस घर में ठहरा था वे भी वहीं ठहरते थे। हमारे मेजबान, उस घर के मालकि‍न न मुझसे पूछा: ‘मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं कि मैंने आपकेा कभी जासूसी उपन्‍यास पढ़ते नहीं देखा, क्‍या बात हैउसने कहा: मैं समझती थी कि सभी संबुद्ध लोगों को जासूसी उपन्‍यास पढ़ना चाहिए।
      मैंने आश्‍चर्य से उसे कहा: ‘तुम्‍हारे दिमाग में ऐसा मूर्खतापूर्ण विचार कहां से आया?
      उसने कहा: ‘कृष्‍णमूर्ति से। वे भी यहां ठहरते हैं, मेरे पति उनके अनुयायी है। मैं भी उनसे बहुत प्रेम करती हूं। उनको मानती हूं, मैंने उन्‍हें घटि‍या जासूसी उपन्‍यास पढ़ते देखा है। मैंने सोचा, शायद आप भी जासूसी उपन्‍यास छुपा कर पढ़ते होगें।
      आज सुबह मैं उस समय की बात कर रहा था जब भोपाल की बेगम हमारे गांव आई जो उनकी रियासत में ही था। और उसने हमें वार्षिकोत्‍सव पर अपना मेहमान बनने के लिए आमंत्रित किया। जब वह हमारे गांव में ठहरी हुई थी तो उस समय उसने नानी से पूछा कि आप इस लड़के को राजा क्‍यों कहते है?
      उस रियासत में राजा की उपाधि तो केवल उस रियासत के मलिक के लिए ही आरक्षित थी। बेगम के पति को भी राजा नहीं कहा जाता था। उसे केवल राजकुमार ही कहा जाता था। ठीक जिस प्रकार इग्लैंड में बेचारे फिलिप को सम्राट न कह कर प्रिंस फिलिप ही कहा जाता है। और मजेदार बात तो यह है कि केवल प्रिंस फिलिप ही राजा जैसा दिखाई देता है। न तो इग्लैंड की महारानी जैसी दिखाई देती है। जो व्‍यक्ति सचमुच राजा जैसा दिखाई देता है उसे
ये लोग राजा नहीं कहते, वह सिर्फ प्रिंस फिलिप कहलाता है।
      मुझे उसके लिए बहुत अफसोस होता है। इसका कारण है कि उसका इस परिवार से खूनका रिश्‍ता नहीं है और इनके मूढ़ संसार में केवल खून को ही महत्‍व दिया जाता है। लेकिनप्रयोगशाला में तो राजा या रानी के खून में कोई अलग विशेषता नहीं होती। 
      इसी प्रकार उस समय छोटी सी उस रियासत की मालकिन वह औरत थी और इसलिए उसे रानी या बेगम कहा जाता था। लेकिन कोई राजा नहीं था। उसके पति को केवल राजकुमार कहा जाता था। इसलिए स्‍वभावत: उसने मेरी नानी से पूछा कि आप अपने इस बेटे को राजा क्‍यों कहते है। तुमको यह जान कर आश्‍चर्य होगा कि उस रियासत में किसी का राजा नाम रखना गैर-कानूनी था। मेरी नानी ने हंस कर कहा: ‘वह मेरे ह्रदय का राजा है और जहां तक कानून का सवाल है, हम जल्‍दी ही इस रियासत को छोड़ देंगे। लेकिन में इसका नाम नहीं बदल सकती।’
      मैं भी यह सुन कर बहुत हैरान हुआ कि हम जल्‍दी ही रियासत को छोड़ देंगे—केवल मेरे नाम को बचाने के लिए। मैंने नानी से उस रात कहा: ‘नाना, क्‍या आप पागल हो गई है, केवल इस नाम को बचाने कि लिए, अरे किसी भी नाम से काम चल सकता है। हमें यहां से चले जाने की कोई जरूरत नहीं है। और निजी तौर से आप मुझे राजा ही कहती रहिए।’
      नानी ने कहां: ‘मुझे भीतर से ऐसा लगता है, कि हमें जल्‍दी ही इस रियासत को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए मैंने यह खतरा उठाया है।’
      और यही हुआ। यह प्रसंग उस समय का है जब मैं आठ साल का था और ठीक एक साल बाद हमने उस रियासत को सदा-सदा के लिए दिया। लेकिन उन्‍होंने मुझे राजा कहना कभी बंद नहीं किया। बाद में मैंने अपना नाम बदल लिया, सिर्फ इसलिए क्‍योंकि राजा नाम बहुत ही वाहियात लगता था। और मैं नहीं चाहता था कि इस नाम से स्‍कूल में मेरा मजाक उड़ाए जाए। और उससे अधिक मैंने कभी नहीं चाहा कि कोई और मुझे राजा पुकारें, सिवाय मेरी नानी के। वह हमारा निजी मामला था।
      लेकिन बेगम को यह नाम अच्‍छा नहीं लगा, वह बुरा मान गई। बेचारे राजा-रानी, राष्‍ट्रपति, प्रधानमंत्री कितने गरीब है। कितने खोखले है, और फिर भी ये शक्तिशाली है। इनकी मूढता का कोई अंत नहीं, साथ ही इनकी शक्ति का भी कोई अंत नहीं, बड़ी अजीब दुनिया है यह।
      मैंने अपनी नानी से कहा: ’जहां तक मैं समझता हूं वह सिर्फ मेरे नाम से ही नाराज नहीं हुई है, उसे आपसे बहुत ईर्ष्‍या भी हो गई है। मैं इतना स्‍पष्‍ट देख सकता था कि संदेह का कोई प्रश्‍न ही न था। और मैंने उनसे कहा: मैं आपसे यह नहीं पूछ रहा कि मैं गलत हूं या सही हूं।’
      सच तो यह है कि मेरी इस बात ने ही मेरे समस्‍त जीवन के ढंग को निश्चित कर दिया। मैंने कभी किसी से नहीं पूछा कि मैं गलत हूं या सही। गलत या सही, अगर मैं कुछ करना चाहता हूं तो करना चाहता हूं और मैं उसे सही कर देता हूं। अगर वह गलत है तो मैं उसे सही कर देता हूं, लेकिन मैंने कभी किसी को अपने काम में दखल देने का अधिकार नहीं दिया। आज जो कुछ भी मेरे पास है, इसी कारण है। इस दुनिया की धन-दौलत नहीं, लेकिन जो सच मैं मूल्‍यवान है वह सब मेरे पास है—सौंदर्य, प्रेम, सत्‍य और शाश्वत का रसा स्वाद।
      संक्षिप्‍त में स्‍व का आस्‍वाद, आनंद।
      मैं कह रहा था कि एक साल बाद हमने उस गांव को और रियासत को छोड़ दिया। मैं पहले ही तुम्‍हें यह बता चुका हूं कि रास्‍ते में ही मेरे नाना की मृत्‍यु हो गई थी। मृतयु के साथ वह मेरा पहला साक्षात्‍कार था। और वह सामना बहुत सुदंर था। वह किसी भी प्रकार से कुरूप नहीं था। जैसा कि कम या ज्‍यादा इस दुनिया के हर बच्‍चे के लिए यह सामना बहुत डरावना होता है। मेरे नाना की मृत्‍यु धीरे-धीरे हुई और सौभाग्‍य से मैं उस समय उनके साथ कई घंटे तक रहा। मैं महसूस कर सका की धीरे-धीरे मृत्‍यु घट रही है। और मैं मृत्‍यु के महा मौन को देख सका।
      यह भी मेरा सौभाग्य था कि उस समय मेरी नानी मेरे पास थीं। शायद उनके बिना मैं मृत्‍यु के सौंदर्य को न देख सकता। क्‍योंकि प्रेम और मृत्‍यु बहुत समान है, शायद दोनों एक है। नानी मुझसे प्रेम करती थी। उन्‍होंने अपना प्रेम मेरे ऊपर बरसाया और मृत्‍यु धीर-धीरे घट रही थी। एक बैलगाड़ी.....मैं अभी भी उसकी आवाज सुन सकता हूं—कंकड़ों पा उसके पहियों का खड़खड़ाना—भूरा का बार-बार बैलों पर चिल्‍लाना, उनको चाबुक से मारने की आवाज—अभी भी मैं सब सुन सकता हूं। यह सब मेरे अनुभव में इतना गहरा अंकित हो गया है कि मैं सब सुन सकता हूं। यह सब मेरे अनुभव में इतना गहरा अंकित हो गया है कि मैं नहीं सोचता कि मेरी मृत्‍यु भी इसे मिटा सकती है। मरते समय भी शायद मैं फिर उस बैलगाड़ी की आवाज को सुनुगां।
      मेरी नानी ने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था और मैं बिलकुल हक्‍का-बक्‍का सा बैठा था—समझ में नहीं आ रहा था कि क्‍या हो रहा है—मैं उस क्षण में पूरी तरह से उपस्थि‍त था। मेरे नाना का सिर मेरी गोद में था। मेरे हाथ उनकी छाती पा थे और धीरे-धीरे उनकी श्‍वास बंद हो गई। जब मुझे लगा कि अब वह श्वास नहीं ले रहे, तो मैंने अपनी नानी से कहा, ‘नानी, मुझे दुःख है, पर ऐसा लगता है कि अब वे श्‍वास नहीं ले रहे है।‘
      उन्‍होंने कहा: ‘यह बिलकुल ठीक है। तुम चिंता मत करो। वे काफी जी लिए, इससे अधिक मांगने की जरूरत नहीं है। उन्‍होंने मुझसे यह भी कहा, ‘याद रखना, क्‍योंकि ये क्षण भूलने के क्षण नहीं हैं। अधिक की मांग मत करो। जो है वह काफी है।‘
      यह सब काफी है? 

--ओशो

No comments:

Post a Comment

Must Comment

Related Post

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...