दूसरी विधि:
‘यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी के रूप में है। अन्य कुछ भी नहीं है।’
अतीत में वैज्ञानिक कहा करते थे कि केवल पदार्थ ही है और कुछ भी नहीं है। केवल पदार्थ के ही होने की धारणा पर बड़े-बड़े दर्शन के सिद्धांत पैदा हुए। लेकिन जिन लोगों की यह मान्यता थी कि केवल पदार्थ ही है वे भी सोचते थे कि चेतना जैसा भी कुछ है। तब वह क्या था? वे कहते थे कि चेतना पदार्थ का ही एक बाई-प्रोडेक्ट है, एक उप-उत्पाद है। वह परोक्ष रूप में,सूक्ष्म रूप में पदार्थ ही था।
लेकिन इस आधी सदी ने एक महान चमत्कार होते देखा है। वैज्ञानिकों ने यह जानने का बहुत प्रयास किया कि पदार्थ क्या है। लेकिन जितना उन्होंने प्रयास किया उतना ही उन्हें लगा कि पदार्थ जैसा तो कुछ भी नहीं है। पदार्थ का विश्लेषण किया गया और पाया कि वहां कुछ नहीं है।
अभी सौ वर्ष पूर्व नीत्शे ने कहा था कि परमात्मा मर गया है। परमात्मा के मरने के साथ ही चेतना भी बच नहीं सकती क्योंकि परमात्मा का अर्थ है समग्र-चेतना। लेकिन इन सौ सालों में ही पदार्थ मर गया। और पदार्थ इसलिए नहीं मरा क्योंकि धार्मिक लोग ऐसा सोचते है, बल्कि वैज्ञानिक एक बिलकुल दूसरे निष्कर्ष पर पहुंच गए है कि पदार्थ केवल आभास है। यह केवल ऐसा दिखाई पड़ता है क्योंकि हम बहुत गहरे नहीं देख सकते। यदि हम गहरे में देख सके तो पदार्थ समाप्त हो जाता है। बस ऊर्जा बच रहती है।
यह उर्जा, यह अभौतिक ऊर्जा-शक्ति संतों द्वारा पहले से ही जान ली गई है। वेदों में, बाइबिल में, कुरान में,उपनिषदों में—संसार भर में संतों ने जब भी अस्तित्व में गहरे प्रवेश किया है तो पाया है कि पदार्थ केवल भासता है;गहरे में कोई पदार्थ नहीं है केवल ऊर्जा है। अब इस बात से विज्ञान सहमत है। और संतों ने एक और भी बात कहीं है जिससे विज्ञान को अभी राज़ी होना है—एक दिन उसे राज़ी होना ही पड़ेगा—संत एक दूसरे निष्कर्ष पर भी पहुंचे है, वे कहते है कि जब तुम ऊर्जा में गहरे प्रवेश करते हो तो ऊर्जा भी समाप्ति हो जाती है और बस चेतना बचती है।
तो ये तीन पर्तें है। पदार्थ पहली पर्त है, परिधि है। परिधि के भीतर प्रवेश कर जाओ तो दूसरी पर्त दिखाई पड़ती है। फिर विज्ञान ने भीतर प्रवेश करने का प्रयास किया। और संतों की दूसरी पर्त की पुष्टि हो गई। पदार्थ केवल भासता है, गहरे में वह बस ऊर्जा है। और संतों का दूसरा दावा है: ऊर्जा में भी गहरे प्रवेश करो तो ऊर्जा भी समाप्त हो जाती है। बस चेतना बचती है। वह चेतना ही परमात्मा है, वह अंतरतम केंद्र है।
यदि तुम अपने शरीर में प्रवेश करो तो वहां भी ये तीन पर्तें है। केवल सतह पर तुम्हारा शरीर है। शरीर भौतिक दिखाई पड़ता है, पर उसके भीतर प्राण की, जीवंत ऊर्जा की धाराएं बहती है। उस जीवंत ऊर्जा के बिना तुम्हारा शरीर बस एक लाश रह जाएगा। इसके भीतर कुछ बह रहा है। उसके कारण ही यह जीवित है। वहीं ऊर्जा है। लेकिन गहरे और गहरे में तुम द्रृष्टा हो, साक्षी हो। तुम अपने शरीर और ऊर्जा दोनों को देख सकते हो। वह द्रष्टा ही तुम्हारी चेतना है।
हर अस्तित्व की तीन पर्तें है। गहनत्म पर्त साक्षी चेतना की है, मध्य में जीवन ऊर्जा है और सतह पर पदार्थ है,भौतिक शरीर है।
यह विधि कहती है, यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी के रूप में है। अन्य कुछ भी नहीं है। हो तो अंतत: तुम इसी निष्कर्ष पर पहुंचोगे कि तुम चेतना हो। बाकी सब कुछ तुम्हारा हो सकता है। पर तुम वह नहीं हो। शरीर तुम्हारा है। पर तुम शरीर को देख सकते हो। और जो शरीर को देख रहा है वह पृथक हो जाता है। शरीर जानी जाने वाली वस्तु हो जाता है और तुम जानने वाले हो जाते हो। तुम अपने शरीर को जान सकते हो। न केवल तुम जान सकते हो,बल्कि अपने शरीर को आज्ञा दे सकते हो, उसे सक्रिय कर सकते हो। निष्क्रिय कर सकते हो। तुम पृथक हो। तुम अपने शरीर के साथ कुछ भी कर सकते हो।
और न केवल तुम अपना शरीर नहीं हो, बल्कि तुम अपना मन भी नहीं हो। यदि विचार आते है तो तुम उन्हें देख सकते हो। या, तुम कुछ कर सकते हो: तुम उन्हें बिलकुल मिटा सकते हो, तुम विचारशून्य हो सकते हो। या, तुम अपने मन को एक ही विचार पर एकाग्र कर सकते हो। तुम स्वयं को वहां केंद्रित कर सकते हो। या तुम विचारों को नदी की तरह प्रवाहित होने देते हो। तुम अपने विचारों के साथ कुछ भी कर सकते हो। तुम्हें पता चलेगा कि अब कोई विचार नहीं रहे, अंतस में एक खाली पन आ गया है। लेकिन तुम फिर भी होओगे और उस खालीपन को देखोगें।
केवल एक चीज जिसे तुम अपने से अलग नहीं कर सकते, वह तुम्हारा साक्षित्व है। इसका अर्थ है कि तुम वही हो। तुम स्वयं को उससे अलग नहीं कर सकते। तुम बाकी हर चीज को स्वयं से अलग कर सकते हो। तुम जान सकते हो कि तुम न शरीर हो, न मन हो, लेकिन तुम यह नहीं जान सकते कि तुम अपने साक्षी नहीं हो। क्योंकि तुम जो भी करोगे वह साक्षी ही होगा। तुम साक्षी से स्वयं को अलग नहीं कर सकते। वह साक्षी ही चेतना है। और जब तक तुम उस अवस्था पर न पहुंच जाओ जहां से अब और पीछे जाना असंभव हो, तब तक तुम स्वयं तक नहीं पहुंचे।
तो ऐसे उपाय है जिनसे साधक संबंध काटता चला जाता है—पहले शरीर, फिर मन और फिर वह उस बिंदु पर पहुंचता है जहां नहीं छोड़ा जा सकता है। उपनिषदों में वे कहते है, नेति-नेति। यह बड़ी गहरी विधि है। न यह , न वह। तो साधक कहता चला जाता है, ‘यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं’ जब तक कि वह ऐसी जगह न पहुंच जाए जहां यह न कहा जा सके कि ‘यह मैं नहीं हूं’। केवल एक साक्षी बचता है। शुद्ध चेतना बचती है। यह शुद्ध चेतना ही प्रत्येक प्राणी है।
अस्तित्व में जो कुछ भी है इस चेतना का ही प्रतिफलन है, इसी की एक लहर, इसी का एक सधन रूप है। और कुछ भी नहीं है। लेकिन इसे अनुभव करना है। विश्लेषण सहयोगी हो सकता है। बौद्धिक समझ सहयोगी हो सकती है। लेकिन इसे अनुभव करना है कि और कुछ भी नहीं है। बस चेतना है। फिर व्यवहार भी ऐसा करो कि बस चेतना ही है।
मैंने एक झेन गुरु लिंची के बारे में सुना है। एक दिन वह अपनी झोपड़ी में बैठा था कि कोई उससे मिलने आया। जो आदमी मिलने आया था वह बहुत गुस्से में था—हो सकता है उसका अपनी पत्नी से, या अपने मालिक से,या किसी और से झगड़ा हुआ हो—पर वह बहुत गुस्से में था। उसने गुस्से से दरवाजा खोला, गुस्से से अपने जूते उतार कर फेंके और भीतर आकर बड़े आदर से वह लिंची के सामने झुका।
लिंची ने कहा, ‘पहले जाओ और जाकर दरवाजे से तथा जूतों से क्षमा मांगो।’
उस आदमी ने बड़ी हैरानी से लिंची की और देखा। वहां दूसरे लोग भी बैठे थे, वे भी सभी हंसने लगे।
लिंची बोला, ‘चुप रहो।’ और उस आदमी से बोला, अगर तुम क्षमा नहीं मांगना चाहते हो तो यहां से चले जाओ। मुझे तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है। वह आदमी बोला, ‘दरवाजे और जूतों से माफी मांगना तो बड़ा विचित्र लगता है।’लिंची ने कहा, ‘जब तुम उन पर गुस्सा निकाल रहे थे तब विचित्र नहीं लग रहा था। अब तुम्हें क्यों विचित्र लग रहा है। हर चीज में एक चेतना है। तो तुम जाओ और जब तक दरवाजा तुम्हें माफ न कर दे, मैं तुम्हें भीतर नहीं आने दूँगा।’
उस आदमी को बड़ा अजीब लगा, पर उसे जाना पडा। बाद में वह भी एक फकीर बन गया। और ज्ञान को उपलब्ध हो गया। जब वह ज्ञान को उपलब्ध हुआ तो उसने सारी कहानी सुनाई, ‘जब मैं दरवाजे के सामने खड़ा होकर माफी मांग रहा था तो मुझे बड़ा विचित्र लग रहा था। लेकिन फिर मैंने सोचा कि अगर लिंची ऐसा कहता है तो इसमें जरूर कोई बात होगी। मुझे लिंची में भरोसा था। तो मैंने सोचा चाहे यह पागलपन ही क्यों न हो इसे कर ही डालों। पहले-पहले तो जो मैं दरवाजे से कह रहा था, वह झूठ था। दिखावटी था। लेकिन धीरे-धीरे मैं भाव से भर गया। मैं भूल ही गया कि बहुत से लोग मुझे देख रहे है। मैं लिंची के बारे में भी भूल गया। और मेरा भाव वास्तविक हो गया। सच्चा हो गया। मुझे लगने लगा कि दरवाजा और जूता अपनी मनोदशा बदल रहे है। और जिस क्षण मुझे लगा कि दरवाजा और जूता अब खुश है, लिंची ने उसी समय आवाज दी कि अब मैं भीतर आ सकता हूं। मुझे माफ कर दिया गया है।’
यह विधि कहती है, ‘चेतना ही प्रत्येक प्राणी के रूप में है। अन्य कुछ भी नहीं है।’
इस भाव के साथ जीओं। इसके प्रति संवेदनशील होओ। और जहां भी तुम जाओ। इसी मन और ह्रदय के साथ जाओ। कि सब कुछ चेतना है। और कुछ भी नहीं है। देर अबेर संसार अपना चेहरा बदल लेगा। देर अबेर पदार्थ मिट जायेगा। और प्राणी नजर आने लगेगा। असंवेदनशीलता के कारण मुर्दा पदार्थ के संसार में रह रहे थे। वरना तो सब कुछ जीवंत है, न केवल जीवंत है, बल्कि चेतना है।
सब कुछ गहरे में चेतना ही है। लेकिन यदि तुम एक सिद्धांत की तरह ही इसमें विश्वास करते हो तो कुछ भी नहीं होगा। तुम्हें इसे जीवन की एक शैली बनाना पड़ेगा। जीवन का ढंग बनाना पड़ेगा। ऐसे व्यवहार करना पड़ेगा जैसे कि सब कुछ चेतन है। शुरू में तो यह ‘जैसे कि’ ही होगा। और तुम्हें पागलपन लगेगा। लेकिन अगर तुम अपने पागलपन पर डटे ही रहो और यदि तुम पागल होने को साहस कर सको तो जल्दी ही संसार अपने रहस्य प्रकट करने लगेगा।
इस अस्तित्व के रहस्यों में प्रवेश करने का एकमात्र उपाय विज्ञान ही नहीं है। वास्तव में तो यह सबसे अपरिष्कृत ढंग है। सबसे धीमी विधि है। संत तो एक क्षण के भीतर अस्तित्व में प्रवेश कर सकता है। विज्ञान तो उतना भीतर उतरने में लाखों वर्ष लगाएगा। उपनिषद कहते है कि संसार माया है। कि पदार्थ केवल भासता है। लेकिन विज्ञान पाँच हजार साल बाद कह सकता कि पदार्थ झूठ है। उपनिषद कहते है वह ऊर्जा चेतना है। विज्ञान को अभी पाँच हजार साल लगेंगे। धर्म एक छलांग है। विज्ञान बहुत धीमी प्रक्रिया है। बुद्धि छलांग नहीं ले सकती है। उसे तर्क से चलना पड़ता है—हर तथ्य पर तर्क देना पड़ता है। सिद्ध करना पड़ता है। प्रयोग करना पड़ता है। लेकिन ह्रदय छलांग ले सकता है।
याद रखो, बुद्धि के लिए एक प्रक्रिया जरूरी है। फिर निष्कर्ष निकलता है—पहले प्रक्रिया, फिर तर्कपूर्ण निष्पति। ह्रदय के लिए निष्कर्ष पहले आता है। फिर प्रक्रिया आती है। यह बिलकुल विपरीत है। यही कारण है कि संत कुछ सिद्ध नहीं कर सकते। उनके पास निष्कर्ष है, पर प्रक्रिया नहीं है।
शायद तुम्हें पता न हो, शायद तुमने ध्यान न दिया हो। कि संत सदा निष्कर्षों की बात करते हो। यदि तुम उपनिषाद पढ़ो तो तुम्हें निष्कर्ष ही मिलेंगे। जब पहली बार उपनिषदों को पश्चिमी भाषाओं में अनुवादित किया गया। तो पश्चिमी दार्शनिक समझ ही नहीं पाए, क्योंकि उनके पीछे कोई तर्क नहीं था। उपनिषाद कहते है। ‘’ब्रह्म है’’ और इसके लिए कोई तर्क नहीं देते। कि तुम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कैसे। क्या प्रमाण है? किसी आधार पर तुम घोषणा करते हो कि ब्रह्म है? नहीं, उपनिषाद कुछ नहीं कहते, बस निष्कर्ष देते है।
ह्रदय तत्क्षण निष्कर्ष पर पहुंच जाता है। और जब निष्कर्ष आ जाए तो तुम प्रक्रिया शुरू कर सकते हो। दर्शन का यही अर्थ है।
संत निष्कर्ष देते है। और दार्शनिक उसकी प्रक्रिया बनाते है। जीसस निष्कर्ष पर पहुंचे और फिर संत अगस्तीन,थाम अकीनस ने प्रक्रिया पैदा की। वह बाद की बात है। निष्कर्ष पहले आ गया, अब तुम्हें प्रमाण जुटाने होगे। प्रमाण संत के जीवन में है। वह इसके लिए विवाद नहीं कर सकता। वह स्वयं ही प्रमाण है। यदि तुम उसे देख सको। यदि तुम देख न सक, तब तो कोई प्रमाण नहीं है। तब धर्म व्यर्थ है।
तो इन विधियों को सिद्धांत मत बनाओ। ये तो छलाँगें है—अनुभव में, निष्कर्ष में।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,
प्रवचन-77
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