चौथी विधि
‘सत्य में रूप अविभक्त है। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो।’
‘सत्य में रूप अविभक्त है।’
वे विभक्ति दिखाई पड़ते है, लेकिन हर रूप दूसरे रूपों के साथ संबंधित है। वह दूसरों के साथ अस्तित्व में है—बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि वह दूसरे रूपों के साथ सह-अस्तित्व में है—बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि वह दूसरे रूपों के साथ सह-अस्तित्व में है। हमारी वास्तविकता एक सह सही अस्तित्व है। वास्तव में यह एक पारस्परिक वास्तविकता है। पारस्परिक आत्मीय ता है। उदाहरण के लिए, जरा सोचो कि तुम इस पृथ्वी पर अकेले हो। तुम क्या होओगे? पूरी मनुष्यता समाप्त हो गई हो, तीसरे विश्वयुद्ध के बाद तुम्हीं अकेले बचे हो—संसार में अकेले, इस विशाल पृथ्वी पर अकेले। तुम कौन होओगे?
पहली बात तो यह है कि अपने अकेले होने की कल्पना करना ही असंभव है। मैं कहता हूं, अपने अकेले होने की कल्पना करना ही असंभव है। तुम बार-बार कोशिश करोगे और पाओगे कि कोई साथ ही खड़ा है—तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे, तुम्हारे मित्र—क्योंकि तुम कल्पना में भी अकेले नहीं रह सकते। तुम दूसरों के साथ ही हो। वे तुम्हें अस्तित्व देते है। वे तुम्हें सहयोग देते है। तुम उन्हें सहयोग देते हो और वे तुम्हें सहयोग देते है।
तुम कौन होओगे। तुम अच्छे आदमी होओगे या बुरे आदमी होओगे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अच्छाई और बुराई सापेक्ष होती है। तुम सुंदर होओगे। कि कुरूप होओगे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तुम पुरूष होओगे या स्त्री होओगे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तुम जो भी हो, दूसरे के संबंध में हो। तुम बुद्धिमान होओगे या मूढ़?
धीरे-धीरे तुम पाओगे कि सब रूप समाप्त हो गए। और उन रूपों के समाप्त होने के साथ तुम्हारे भीतर के भी सब रूप समाप्त हो गए है। न तुम मूर्ख हो न बुद्धिमान, न अच्छे न बुरे, न कुरूप न सुंदर, न पुरूष न स्त्री। फिर तुम क्या होओगे। यदि तुम सब रूपों को हटाते चलो तो जल्दी ही तुम पाओगे कि कुछ भी नहीं बचा। हम रूपों को अलग-अलग देखते है। लेकिन वे अलग है नहीं, हर रूप दूसरों के साथ जुड़ा है। रूप एक श्रंखला में होते है।
यह सूत्र कहता है: ‘सत्य में रूप अविभक्त है। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है।’
तुम्हारा रूप और संपूर्ण अस्तित्व का रूप भी अविभक्त है। तुम उसके साथ एक हो। तुम उसके बिना नहीं हो सकते। और दूसरी बात भी सच है, लेकिन उसे समझना थोड़ा कठिन है: जगत भी तुम्हारे बिना नहीं हो सकता। जगत तुम्हारे बिना नहीं हो सकता। जैसे की तुम जगत के बिना नहीं हो सकते। तुम अलग-अलग रूपों में सदैव रहे हो और अलग-अलग रूपों में सदैव रहोगे। लेकिन तुम रहोगे ही। तुम इस जगत के एक अभिन्न अंग हो। तुम बाहरी नहीं हो,कोई अजनबी नहीं हो, कोई परदेशी नहीं हो। तुम एक अंतरंग, अभिन्न अंग हो। और जगत तुम्हें खो नहीं सकता। क्योंकि यदि वह तुम्हें खोता है तो स्वयं भी खो देगा। रूप विभक्त नहीं है। अविभक्त है। वे एक है। केवल आभास ही सीमाएं और परिधियां खड़ी करते है।
यदि तुम इस पर मनन करो। इसमें प्रवेश करो, तो यह एक अनुभूति बन सकती है। यह एक अनुभूति बन जाती है। कोई सिद्धांत नहीं, कोई विचार नहीं, बल्कि एक अनुभूति है, हां, मैं जगत के साथ एक हूं और जगत मेरे साथ एक है।
यही जीसस यहूदियों से कह रहे थे। लेकिन वह नाराज हुए,क्योंकि जीसस ने कहा, ‘मैं और स्वर्ग में मेरे पिता एक ही है।’ यहूदी नजारा हुए। जीसस क्या दावा कर रहे थे? क्या वह यह दावा कर रहे थे कि वह और परमात्मा एक ही है? यह तो ईश्वर विरोधी बात हो गई। उन्हें दंड मिलना चाहिए। लेकिन वह तो मात्र एक विधि दे रहे थे। और कुछ भी नहीं। वह मात्र यह विधि दे रहे थे कि यह विभक्त नहीं है, कि तुम और पूर्ण एक ही हो--'मैं और स्वर्ग में मेरे पिता एक ही है।' लेकिन यह कोई दावा नहीं था, यह मात्र एक विधि थी।
और जब जीसस ने कहा कि 'मैं और मेरे पिता एक ही है, तो उनका यह अर्थ नहीं था। कि तुम और पिता परमात्मा अलग-अलग हो। जब उन्होंने कहा, 'मैं तो उसमें हर 'मैं' आ गया। जहां भी 'मैं' है वह उस मैं और परमात्मा एक है। लेकिन इसे गलत समझा गया। और यहूदी तथा ईसाइयों, दोनों ने ही इसे गलत समझा। ईसाइयों ने भी गलत समझा। क्योंकि वे कहते है कि जीसस परमात्मा के इकलौते बेटे है। परमात्मा के इकलौते बेटे ताकि कोई और यह दावा न कर सके कि वह भी परमात्मा का बेटा है।'
मैं एक बड़ी मजेदार पुस्तक पढ़ रहा था। उसका शीर्षक है, ''तीन क्राइस्ट।'' एक पागलख़ाने में तीन आदमी थे और तीनों ही यह दावा करते थे कि वे क्राइस्ट है। यह एक सच्ची घटना है। कोई कहानी नहीं है। तो एक मनोविश्लेषक ने तीनों को अध्ययन किया। फिर उसके मन में एक विचार आया कि यह उन तीनों को आपस में मिलवाया जाए तो देखें क्या होता है। बड़ी दिल्लगी रहेगी। वे एक दूसरे को कैसे परिचय देंगे और क्या उनकी प्रतिक्रिया होगी। तो उसने उन तीनों को इकट्ठा किया और आपस में परिचय करने के लिए एक कमरे में छोड़ दिया।
पहला बोला, ''मैं इकलौता बेटा हूं, जीसस क्राइस्ट।''
दूसरा हंसा और उसने अपने मन में सोचा कि यह जरूर कोई पागल होगा। वह बोला: ''तुम कैसे हो सकते हो। मेरी और देखो। परमात्मा का बेटा यहां है।''
तीसरे ने सोचा कि दोनों मूर्ख है। कि दोनों पागल हो गए है। उसने कहा, ''तुम क्या बात करते हो। मेरी और देखो। परमात्मा का बेटा यहां है।''
फिर उस मनोविश्लेषक ने उनसे अलग-अलग पूछा। ''तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या है।''
उन तीनों ने कहा, ''बाकी दोनों पागल हो गये है।''
और ऐसा केवल पागलों के साथ ही नहीं है। यदि तुम ईसाइयों से पूछो कि वे कृष्ण के विषय में क्या सोचते है तो वे उसे परमात्मा समझते है। तो वे कहेंगे कि उस पार से केवल एक ही आगमन हुआ है। वे है जीसस क्राइस्ट। इतिहास में केवल एक ही बार परमात्मा संसार में उतरा है। और जीसस क्राइस्ट के रूप में। कृष्ण भले है, महान है,लेकिन परमात्मा नहीं है।
यदि तुम हिंदुओं से पूछो, वे जीसस पर हंसेंगे। वही पागलपन चलता है। और वास्तविकता यह है कि सब परमात्मा के बेटे है--सब। इससे अन्यथा संभव ही नहीं है। तुम एक ही स्त्रोत से आते हो। चाहे तुम जीसस हो, कि कृष्ण हो, कि अ, ब, स कुछ भी हो, या कुछ भी नहीं हो, तुम एक ही स्त्रोत से आते हो। और हर ''मैं'' हर चेतना, हर क्षण दिव्य से संबंधित है। जीसस केवल एक विधि दे रहे थे। वह गलत समझे गए।
यह विधि वही है: ''सत्य में रूप अविभक्त है। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो।''
न केवल यह अनुभव करो कि तुम इस चेतना से बने हो। बल्कि अपने आस-पास की हर चीज को इसी चेतना से निर्मित जानो। क्योंकि यह अनुभव करना तो बड़ा सरल है कि तुम इस चेतना से बने हो। इससे तुम्हें बड़े अंहकार का भाव हो सकता है। अहंकार को इससे बड़ी तृप्ति मिल सकती है। लेकिन अनुभव करो कि दूसरा भी इसी चेतना से बना है। फिर यह एक विनम्रता बन जाती है।
जब सब कुछ दिव्य है तो तुम्हारा मन अहंकारी नहीं हो सकता। जब सब कुछ दिव्य है तो तुम विनम्र हो जाते हो। फिर तुम्हारे कुछ होने का कुछ श्रेष्ठ होने का प्रश्न नहीं रह जाता, फिर पूरा अस्तित्व दिव्य हो जाता है। और जहां भी तुम देखते हो, दिव्य को ही देखते हो। देखने वाला दृष्टा और देखा गया दृश्य दोनों दिव्य है। क्योंकि रूप विभक्त नहीं है। सब रूपों के पीछे अरूप छिपा हुआ है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,
No comments:
Post a Comment
Must Comment