दूसरी विधि:
अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही जानो।
इस विधि के संबंध में मूल बात है ‘संपूर्ण चेतना’। यदि तुम किसी भी चीज पर अपनी संपूर्ण चेतना लगा दो तो वह एक रूपांतरणकारी शक्ति बन जाएगी। जब भी तुम संपूर्ण होते हो, किसी चीज में भी, तभी रूपांतरण होता है। लेकिन यह कठिन है। क्योंकि हम जहां भी है, बस आंशिक ही है। समग्रता में नहीं है।
यहां तुम मुझे सुन रहे हो। यह सुनना ही रूपांतरण हो सकता है। यदि तुम समग्रता से सुनो, इस क्षण में अभी और यहीं, यदि सुनना तुम्हारी समग्रता हो, तो वह सुनना एक ध्यान बन जाएगा। तुम आनंद के अलग ही आयाम में, एक दूसरी ही वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे।
लेकिन तुम समग्र नहीं हो। मनुष्य के मन के साथ यही मुश्किल है, वह सदैव आंशिक ही होता है। एक हिस्सा सुन रहा है। बाकी हिस्से शायद कहीं और हो, या शायद सोए ही हुए हों, या सोच रहे हो कि क्या कहा जा रहा है। या भीतर विवाद कर रहे हो। उसमें एक विभाजन पैदा होता है और विभाजन से ऊर्जा का अपव्यय होता है।
तो जब भी कुछ करो, उसमे अपने पूरे प्राण डाल दो। जब तुम कुछ भी नहीं बचाते, छोटा सा हिस्सा भी अलग नहीं रहता, जब तुम एक समग्र, संपूर्ण छलांग ले लेते हो। तुम्हारे पूरे प्राण उसमें लग जाते है। तभी कोई कृत्य ध्यान पूर्ण होता है।
कहते है एक बार रिंझाई अपने बग़ीचे में काम कर रहा था—रिंझाई एक झेन गुरु था—और कोई आया। वह आदमी कुछ दार्शनिक प्रश्न पूछने आया था। वह एक दार्शनिक खोजी था। उसे नहीं पता था कि जो आदमी बग़ीचे में काम कर रहा है वही रिंझाई है। उसने सोचा कि यह कोई माली है। कोई नौकर होगा। तो उसने पूछा, ‘रिंझाई कहां है?’रिंझाई ने कहां, ‘रिंझाई तो हमेशा यहीं है।’ स्वभावत: उस आदमी ने सोचा कि माली कुछ पागल लगता है। क्योंकि उसने कहा रिंझाई तो हमेशा यही है। तो उसने सोचा कि इस आदमी से और कुछ पूछना ठीक नहीं होगा। और वह किसी से पूछने के लिए जाने लगा। रिंझाई ने कहा, ‘कहीं मत जाओं क्योंकि तुम उसे कहीं भी नहीं पाओगे।’ लेकिन वह तो उस पागल आदमी से बच कर भाग गया।
फिर उसने औरों से पूछा तो वे बोले, ‘जिस पहले व्यक्ति से तुम मिले थे वहीं तो रिंझाई है।’ तो वह वापस आया और बोला, ‘मुझे क्षमा करे, बहुत खेद है मुझे, मैंने सोचा कि आप पागल है। मैं कुछ पूछने आया हूं। मैं जानता चाहता हूं कि सत्य क्या है। उसे जानने के लिए मैं क्या करूं?’ रिंझाई ने कहा, ‘तुम जो करना चाहो वहीं करो, लेकिन समग्रता में रहो1’
सवाल यही नहीं है कि तुम क्या करते हो। वह बात ही असंगत है। सवाल यह है कि तुम उसे समग्रता से करो।
‘उदाहरण के लिए’, रिंझाई बोला, जब मैं यह गड्ढा खोद रहा था। तो मेरी समग्रता गड्ढा खोदना हो गई थी। पीछे कोई रिंझाई नहीं था। पूरा का पूरा खोदने में लग गया है। असल में कोई खोदने वाला नहीं बचा। बस खोदने की क्रिया ही बची है। यदि खोदने वाला बचे तो तुम बंट गए।‘
तुम मुझे सून रहे हो, यदि सुनने वाला बचे तो तुम समग्र नहीं हुए। यदि केवल सुनना ही हो और पीछे कोई सुनने वाला न बचे तो तुम समग्र हो गए। अभी और यही। फिर यह क्षण ही ध्यान बन जाता है।
इस सूत्र में शिव कहते है, ‘अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही जानो।’
यदि तुम्हारे भीतर कोई कामना उठे तो तंत्र उससे लड़ने को नहीं कहता। वह व्यर्थ है। कामना से कोई भी नहीं लड़ सकता। वह मूर्खता भी है, क्योंकि जब भी अपने भीतर तुम किसी चीज से लड़ने लगते हो तो तुम स्वयं से ही लड़ रहे हो। तुम विक्षिप्त हो जाओगे, तुम्हारा व्यक्तित्व खंडित हो जाएगा।
और इन सारे तथाकथित धर्मों ने मनुष्यता को धीरे-धीरे विक्षिप्त होने में सहयोग दिया है। हर कोई बंटा हुआ है। हर कोई खंडित है और स्वयं से लड़ रहा है। क्योंकि तथाकथित धर्मों ने तुम्हें बताया है। कि यह बुरा है, यह मत करो। लेकिन यदि कामना उठती है तो तुम क्या कर रहे हो। तुम कामना से लड़ रहे हो। तंत्र कहता है कि कामना से मत लड़ो।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम उसके शिकार हो जाओ। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम उसमें लिप्त हो जाओ। तंत्र तुम्हें बड़ी सूक्ष्म विधि देता है1 जब कामना उठे तो आरंभ में ही अपनी समग्रता से जागरूक हो जाओ। अपनी समग्रता से उसको देखो। बस दृष्टि बन जाओ। द्रष्टा को पीछे मत छोड़ो। अपनी समग्रता से उसका देखो। बस दृष्टि बन जाओ। द्रष्टा को पीछे मत छोड़ो। अपनी पूरी चेतना को इस उठती हुई कामना पर लगा दो। यह बड़ा सूक्ष्म उपाय है। लेकिन बहुत अद्भुत है। इसके प्रभाव चमत्कारिक है।
तीन बातें समझने जैसी है। पहली, जब कामना उठ ही रही है तो कुछ तुम कर नहीं सकते। तब वह अपना रास्ता पूरा करेगी। अपना वर्तुल पूरा करेगी। और तुम कुछ भी नहीं कर सकते। आरंभ में ही कुछ किया जा सकता है। बीज को तभी और वही जला देना चाहिए। एक बार बीज अंकुरित हो जाए और वृक्ष विकसित होने लगे तो कुछ करना कठिन होगा, लगभग असंभव ही होगा। तुम जो भी करोगे उससे और संताप ही पैदा होगा। ऊर्जा ही नष्ट होगी। विक्षिप्तता, निर्बलता ही पैदा होगी। तो जब कामना उठे आरंभ ही हो। पहली झलक में ही पहले आभास में ही कि कामना उठ रही है। अपनी संपूर्ण चेतना को, अपने प्राणों की समग्रता को उसे देखने में लगा दो। कुछ भी मत करो। और कुछ करने की जरूरत भी नहीं। समग्र प्राणों से देखने पर दृष्टि इतनी आग्नेय हो जाती है कि बिना किसी संघर्ष के, बिना किसी विवाद के, बिना किसी विरोध के, बीज जल जाता है। समग्र प्राणों से गहरे देखने की बात है। और उठती हुई कामना पूरी तरह दग्ध हो जाती है।
और जब कामना बिना किसी संघर्ष के समाप्त हो जाती है तो वह तुम्हें इतना शक्ति शाली कर जाती है। इतनी उर्जा से, इतने गहन होश से भर देती है कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। यदि तुम लड़ोगे तो हारोगे। यदि तुम न भी हारों ओर कामना ही हार जाए तब भी बात वही होगी। कोई ऊर्जा नहीं बचेगी। चाहे तुम जीतों चाहे हारों। तुम थके हारे ही अनुभव करोगे। दोनों ही बातों में तुम अंत में कमजोर रहो जाओगे। क्योंकि कामना तुम्हारी उर्जा से लड़ रही थी। और तुम भी उसी ऊर्जा से लड़ रहे थे। ऊर्जा एक ही स्त्रोत से आ रही थी। तुम एक ही स्त्रोत से उलीच रहे थे। तो कुछ भी परिणाम हो, स्त्रोत निर्बल ही होगा।
लेकिन यदि कामना आरंभ में ही समाप्त हो जाए, बिना विरोध के—याद रखो,यह मूल बात है—बिना किसी संघर्ष के,बस देखने भर से विरोध भरी दृष्टि से नहीं,नष्ट करने वाले मन से नहीं। शत्रुता से नहीं। बस देखने भर से: उस समग्र दृष्टि की सघनता से ही बीज जल जाता है। और जब कामना उठती हुई कामना, आकाश में धुएँ की तरह विलीन हो जाती है तो तुम एक अद्भुत ऊर्जा से भर जाते हो। वह ऊर्जा ही आनंद है। वह तुम्हें एक सौंदर्य,एक गरिमा देगी।
तथाकथित संत जो अपनी कामनाओं से लड़ रहे है, कुरूप है। जब मैं कहता हूं कुरूप तो मेरा अर्थ है वे सदैव क्षुद्र से उलझे है, संघर्ष कर रहे है। उनका पूरा व्यक्तित्व गरिमाहीन हो जाता है। ओर वे हमेशा कमजोर होते है। हमेशा ऊर्जा की कमी होती है। क्योंकि उनकी सारी ऊर्जा अंतर्युद्ध में नष्ट हो जाती है।
बुद्ध पुरूष बिलकुल भिन्न होता है। और बुद्ध के व्यक्तित्व में जो गरिमा प्रकट हूं कुरूप तो मेरा अर्थ है वे सदैव क्षुद्र से उलझे है, संघर्ष या युद्ध के, बिना किसी अंतर्हिंसा के नष्ट हो गई कामनाओं के कारण है।
‘अपनी संपूर्ण चेतना से कामना है, जानने के आरंभ में ही जानो।’
उसी क्षण में बस जानो, अवलोकन करो, देखो। कुछ भी मत करो। और कुछ भी नहीं चाहिए। बस इतना ही चाहिए कि तुम्हारे समग्र प्राण वहां उपस्थित हो। तुम्हारी पूर्ण उपस्थिति चाहिए। बिना किसी हिंसा के परम बुद्धत्व उपलब्ध करने का यक एक राज है।
और याद रखो, परमात्मा के राज्य में तुम हिंसा से प्रवेश नहीं कर सकते। नहीं,वे द्वार तुम्हारे लिए कभी नहीं खुलेंगे, भले तुम कितनी ही दस्तक दो। खटखटाओं और खटखटाते ही जाओ। तुम अपना सिर फोड़ ले सकते हो लेकिन वे द्वार कभी नहीं खुलेंगे। लेकिन जो भीतर गहरे में अहिंसक है और किसी चीज से नहीं लड़ रहे। उनके लिए वे द्वार सदा खुले है, कभी बंद ही नहीं थे।
जीसस कहते है, दस्तक दो और तुम्हारे लिए द्वार खुल जाएंगे। मैं तुमसे कहता हूं कि दस्तक देने की भी जरूरत नहीं है। देखो द्वार खुले ही हुए है। वे सदा से ही खुले हुए है। वे कभी बंद नहीं थे। बस एक गहन समग्र संपूर्ण,अखंड दृष्टि से देखो।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,
No comments:
Post a Comment
Must Comment