प्रेम मुख विहीन आता है—(अध्याय—03)
लाओत्से हाउस (ओशो-गृह) एक महाराजा की सम्पति था। जिसका चुनाव इसके बीच खड़े बादाम के उस विशाल पेड़ के कारण किया गया था। जिसके रंग गिरगिट की भांति लाल से केसरी पीले फिर हरे रंग में बदल जाते है। इसके मौसम कुछ सप्ताह उपरान्त बदलते रहते है। और फिर भी मैंने इसकी शाखाओं को कभी पत्र-विहीन नहीं देखा। उधर एक पत्ता गिरा कि नया चमकीला हरा पत्ता उसका स्थान लेने को आतुर होता है। पेड़ के पत्तों की छाया के नीचे एक छोटा सा झरना है और एक रॉक गार्डन है। जिसका निर्माण एक सनकी दीवाने इटालियन ने किया था। जो उसके बाद कभी दिखाई नहीं दिया।
कुछ ही वर्षों में यह उद्यान ओशो के जादुई स्पर्श से एक जंगल बन गया है—यहां बांस के उपवन है, हंस-सरोवर है। एक श्वेत संगमरमर का जल प्रपात है जो रात्रि में नीले प्रकाश से जगमगा उठता है और जैसे ही जल छोटे-छोटे कुंडों में से गुजरता है, वे कुंड सुनहरे पीले प्रकाश से चमकने लगते है। राजस्थान की खदानों से लाई गई विशाल चट्टानें, लाइब्रेरी की ग्रेनाइट पत्थर से बनी काली दीवारों की पृष्ठभूमि में सुर्य की रोशनी में जगमगा उठती है। यहां एक जल मार्ग और जापानी ढंग का पूल है। एक गुलाब वाटिका है जहां(बिना मौसम के) गुलाब खिलते है। और रात्रि के समय इसमे रोशनी की जाती है ताकि विदूषक की भांति यथार्थ वादी चकाचौंध करने वाले रंगों को लिये ये गुलाब, जरा ठहरकर,खड़े होकर ओशो के भोजन कक्ष की और निहार सकें।
इस जंगल में से घूमकर जाती है एक शीशों से निर्मित,वातानुकूलित भ्रमण बीथी (वॉक-वे) जो विज्ञान कथा साहित्य के आश्चर्य की लगती है। इसका निर्माण इस उदेश्य से किया गया कि ओशो भारतीय जलवायु को उष्णता और आर्द्रता से प्रभावित हुए बिना उद्यान में टहल सकें। यह भ्रमण वीथि इस अनूठे उद्यान के रहस्य की और रहस्यमय बनाती है। यहां सफेद और नीले मोर अपने उच्छृंखल नृत्य से एक दूसरे से प्रणय निवेदन करते है; यहां शिष्यों द्वारा विमान में ‘हाथ के समान’ की तरह विश्व-भर से जाए गए हंस सुनहरी चेड़ (केजेंट) काकातुआ और चमकते पंखों वाले बर्ड ऑफ़ पैराडाइंज है। कल्पना कीजिए कि मुम्बई के कस्टम कार्यालय में एक पर्यटक के रूप में बैठे आप कह रहे हो: जी हां, मैं हमेशा अपने पालतू हंस को साथ लेकिर ही यात्रा करता हूं।
यहां अनेक भारतीय पक्षी आते है। और ओशो के भोजन कक्ष की खिड़की में अपना प्रतिबिम्ब देख अपनी चोंच से अपने पंख सँवारते है। इस बात से वे सर्वथा अनभिज्ञ है कि दूसरी और से एक बुद्ध पुरूष उन्हें निहार रहा है। ओशो का भोजन कक्ष एक साधारण सा कमरा है। जहां वे कांच की दीवार की और मुंह करके बैठ जाते है और वहां से उद्यान का दृश्य अवलोकन कर सकते है।
प्रात: सर्वप्रथम कायल कूकती है, फिर आधे घंटे के बाद शेष वाद्य वृन्द जाग उठता है। और अपने गान से भोर की उद्घोषणा करता है। सबसे बढ़िया बात तो यह है कि मुर्गे की रिकॉर्ड की गई बांग द्वार पर लगे लाउडस्पीकर में टंगी है और हर घंटे के बाद कुकडूँकूँ की ध्वनि करते हुए हम सबको जगाती है।
‘प्रत्येक को स्मरण दिलाने के लिए कि वे अब भी सो रहे है,’ ओशो ने कहा।
ओशो के मन में प्रत्येक प्राणी के लिए एक अद्भुत प्रेम व आदर है। एक भवन निर्माण के लिए कुछ पेड़ों को काटे जाने के सम्बन्ध में मैंने उन्हें कहते सुना था, ‘पेड़ जीवन्त है और भवन एक मृत ढांचा है। पेड़ो को प्राथमिकता दो और भवन का निर्माण इनके आसपास ही करो।’
उनके घर का अधिकत भाग पुस्तकालय है। संगमरमर के गलियारों की पूरी दीवारों पर शीशे वाले शैल्फ लगे है। जिनमे पुस्तकें रखी हे। मुझे याद है जि दिन मैंने यहां प्रवेश किया था। और मेरा सूटकेस इनसे टकरा गया था। चमत्कार था कि कुछ टूटा नहीं। आज भी जब कभी मैं गलियारे में उस स्थान से गुजरती हूं तो मुझे वह दिन याद आ जाता है। जब मैं यहां पहली बार आई थी। जग मैंने ओशो के कपड़े धोने शुरू किए....मैं बहुत घबराई थी। मैंने बहुत प्रतीक्षा की कि यह घबराहट मिट जाए....लेकिन ऐसा नहीं हुआ। धुलाई वाले कमरे में मैं ऊर्जा को इतने प्रबल रूप में अनुभव करती कि मुझे स्वयं से कहना पड़ता कि, ‘जो चाहो करो....आंखें बंद मत करना।’ मुझे लगता यदि मैंने आंखें बंद की तो मैं खत्म हो जाऊंगी।
सब कपड़े हाथ में धोएं जाते और छत पर लगी रस्सी पर टाँग दिए जाते। मैं समुद्र किनारे खेलते हुए बच्चे की भांति पानी की इधर-उधर उछालती और सिर से पाव तक निचुड़ती हुई भीग जाती।
अनेक बार में संगमरमर के गीले फ़र्श पर धड़ाम से गिर जाती तथा एक शराबी की भांति बिना चोट खाए उछल कर खड़ी हो जाती। अपने काम में मैं मग्न रहती। कई बार ऐसा अनुभव होता कि ओशो कमरे में मौजूद है। एक बार उनका एक रोब इस्तिरी करते हुए अचानक मैं अभिभूत सी मेज़ पर सिर टिका के घुटनों केबल गर पड़ी और देखा ओशो मेरे सामने है—क़सम से।
समय बदला तथा अमेरिका जाने के समय, मैं कपड़ों की धुलाई मशीन में करती रही। मेरे हाथ शायद ही कभी गीले होते क्योंकि हाथ से कपड़े धोते समय भी मैं रबर के दस्ताने पहने रहती। काम के घंटों के अनुसार धुलाई की मात्रा भी आश्चर्यजनक रूप से बदलती रही। मैं कभी समझ ही न पाई कि एक व्यक्ति के कपड़े धोना पूरे दिन का काम कैसे हो सकता है। परन्तु ऐसा ही था। जब मेरी मा ने सुना कि मुझे ओशो के कपड़े धोने का महान कार्य करने के लिए भारत में रूकना पड़ेगा, तो उसने लिखा कि किसी के कपड़े धोने के लिए इतनी दूर जाने की क्या आवश्यकता थी?मेरे पिता जी ने कहलवाया है कि मैं घर लौट आऊं। वह इस बात को समझ नहीं पा रही कि किसी के कपड़े धोने के लिए इतनी दूर जाने की क्या आवश्यकता हे। मेरे पिता जी ने कहलवाया कि मैं घर वापस आ जाऊं और यदि चाहूं तो उनके कपड़ों की धुलाई कर सकती हूं। मैं केवल कपड़ों की धुलाई करने के लिए इतनी दूर भारत नहीं आई थी। अपितु इस काम के कारण मैं पूरे विश्व में धूमी। पूना की मेरे आदि कालीन अति अस्वास्थयकारी परिस्थितियों में परिवर्तन होता रहा। कभी न्यू जर्सी के महल का एक तहखाना तो कभी ऑरेगान मरुस्थल का ट्रेलर कभी उत्तर भारत के पत्थरों से बना कुटिया, जहां पानी के लिए बाल्टियों में बर्फ को पिघलाना पड़ा; कभी काठमांडू के होटल का तहखाना—जहां मुझे पचास नेपाली लोगो के साथ काम करना पड़ा। कभी क्रीट का स्नान गृह, कभी उरूग्वे में रूपान्तरित रसोईघर, फिर पुर्तगाल में जंगल के बीच एक घर का शयन कक्ष और अंत में पूना में वही स्थान जहां मैंने अपना कार्य प्रारम्भ किया था। धुलाई कक्ष मुझे गर्भ की भांति प्रतीत होता है। जो ओशो के कमरे के ठीक सामने था; और यह घर का वह भाग था जहां कभी कोई नहीं आता था। मैं निपट अकेली हो गई थी। कभी-कभार पूरे दिन में यदि मैं किसी को देख पाती तो वह थी विवेक। कई बार लोग मुझसे पूछते कि इतने वर्षों से वही काम करते-करते क्या मैं ऊब नहीं जाती? लेकिन मैंने कभी ऊब महसूस नहीं की। क्योंकि मेरा जीवन इतना सरल था कि मुझे उसके विषय में कुछ अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। विचार थे परंतु उन सुखी हड्डियों की तरह जिनके ऊपर मांस न हो। जब से मैं ओशो के साथ थी मेरा जीवन कुछ ऐसा बदल गया था जिसकी मैंने कभी कल्पना ही न की थी। मैं बहुत प्रसन्न और संतुष्ट थी कि ओशो के कपड़े धोने; अपने अहोभाव को प्रकट करने का ढंग था। और मज़े की बात यह थी कि जितना ध्यानपूर्वक और प्रेमपूर्वक में उनके कपड़े धोती मैं स्वयं को अधिक तृप्त पाती; अत: यह एक प्रकार का ऊर्जा-चक्र था जो लौटकर मेरी और आ जाता था। उन्होंने कभी कोई शिकायत नहीं की थी। और नह ही कभी कोई कपड़ा वापस भेजा था। प्रथम मानसून के दौरान मैंने सीलन की गंध से युक्त तौलिया ओशो को भेज दिए। नम कपड़ों का क्या हाल होता है यह जानने के लिए मानसून के दौरान भारत में होना आवश्यक है: इस्तेमाल किए बिना तौलिया की गंध का पता नहीं चलता। मैं इस बात से अनभिज्ञ थी। जब विवेक ने बताया कि तेलियों में सीलन की गंध आ रही थी। तो मैं हैरान हुई। परंतु जब उसने बताया कि वास्तव में ऐसी गंध एक सप्ताह से आ रही थी तो मुझे आघात पहुंचा। ओशो ने मुझे तुरंत क्यों नहीं बताया? मैंने पूछा। उन्होंने कुछ दिन प्रतीक्षा की कि शायद मैं स्वयं ही जान जाऊं या बिना उनके शिकायत किए यह गंध अपनेआप ही चली जाए।
ऐसी भी घड़िया आती जब मैं काम बंद कर शांत होकर बैठ जाती और प्रेम की एक अनुभूति से अभिभूत हो जाती। यह अनुभूति बड़ी अद्भुत थी बिना किसी के बारे में सोचे, बिना किसी के चेहरे की तस्वीर मन में बुलाए यह प्रकट होती। इसके पहले मेरे मन में प्रेम भाव तभी उठता था जब इसे जगाने के लिए कोई मेरे निकट होता। और तब भी वह इतना प्रबल न होता। मुझे ऐसा लगता जैसे मैं नशे में हूं हालांकि वह बहुत सूक्ष्म वह विशुद्ध नशा था। मैंने इसके बारे में एक कविता लिखी—
स्मृति तुम्हारा चेहरा
मनस-पटल पर उतार नहीं पाती
बस प्रेम आता है बिना चेहरे के
अपरिचित है मेरा वह अंश
जो तुम्हें प्रेम करता है।
वह अनाम है
आता है और चला जाता है।
जब चला जाता है
मैं पोंछ लेती हूं
अश्रु-लिप्त चेहरे को
ताकि यह रहस्य
रहस्य ही बना रहे।
ओशो ने उत्तर दिया:
‘प्रेम एक रहस्य है—परम रहस्य। इसे जीया जा सकता है। जाना नहीं जा सकता। इसका आस्वादन किया जा सकता है। इसे अनुभव किया जा सकता है। परंतु समझा नहीं जा सकता। यह कुछ ऐसा है जो समझ की सारी सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है। इसलिए बुद्धि इसे पकड़ नहीं पाती। यह कभी स्मृति नहीं बनता—स्मृति और कुछ नहीं केवल बुद्धि द्वारा पकड़े गए कुछ विवरण, स्मृति-अंकित चिह्न है। मन पर छूटे कुछ पद चिन्ह। प्रेम का कोई शरीर नहीं होता, यह अशरीरी है। यह पीछे कोई पदचिह्न नहीं छोड़ता।’
उन्होंने स्पष्ट किया कि जब प्रेम का अनुभव किसी रूप के आकार से असंस्पर्शित प्रार्थना के रूप में होता है,तब यह परम चैतन्य का अनुभव होता है। इसलिए जिस ढंग से मैं प्रेम का अनुभव कर रही थी, वह अनजाना था। उस समय मुझे अपनी परम चेतना का कोई बोध न था। और इतने वर्षों से ओशो ने जो बोला है वह मेरी समझ से परे की बात थी। लेकिन स्वयं को अधिकाधिक अनुभव करते हुए धीरे-धीरे मेरी समझ में आने लगी थी। ‘मन की तीन अवस्थाएं है। अचेतन,चेतन और परम चेतन। ज्यों-ज्यों तुम्हारा प्रेम बढ़ेगा तुम्हें अपने अंतरतम में बहुत सी बातें समझ में आनी शुरू होंगी। जिनसे तुम अभी एक अंजान थे। प्रेम तुम्हारे भीतर उच्चतर लोको के द्वार खोलेगा और तुम स्वयं को विचित्र सा अनुभव करोगे। तुम्हारा प्रेम प्रार्थना के जगत में प्रवेश कर रहा है। यह अति महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रार्थना के पार तो केवल परमात्मा है। प्रार्थना प्रेम की सीढ़ी का अंतिम सोपान है। उसके पार है, निर्वाण, मुक्ति।’
ओशो को चेतना के तलों, सम्बोधि आदि के सम्बंध में बोलते सुनना मुझे चमत्कार जैसा लगाता था। मैं इतना उत्प्रेरित, इतना आह्लादित और इतना उत्साहित अनुभव करती कि कभी-कभी मेरा चिल्लाने को मन होता। एक बार मैंने उन्हें बताया कि उनका प्रवचन इतना उत्तेजित करने वाला था कि मैं चिल्लाना चाहती थी। ‘चिल्लाना?’ ओशो ने आश्चर्य से पूछा,जब मैं बोल रहा था?
ओशो की सन्निधि में काम करना एक वरदान है। चाहे वह व्यक्ति ओशो के कपड़े सिल रहा हो या उनके एअर-कंडीशनर में से शुद्ध हवा गुजार रहा हो, चाहे पूरी रात प्लम्बिंग का काम कर रहा हो ताकि वे प्रात: बर्फ जैसे ठंडे पानी से स्नान कर सकें। या अन्य हजारों छोटे-छोटे काम जिन्हें उनके शिष्य प्रेमपूर्वक करना चाहते है।
यह वरदान अपने ही बोध और प्रेम के कारण उपलब्ध होता है। यह बात उन लोगों के लिए समझना कठिन है जो धन के लिए जीवित है और उनके ही लिए काम करते है, और फिर भी संतुष्ट नहीं है। उनका दिन दो भोगो में विभाजित है—एक वह समय, जिस पर उनकी कम्पनी या उनके बॉस का अधिकार है या दूसरा वह समय जो ‘खाली’ है। आश्रम में पूरादिन खाली समय है। मैं अपना खाली समय कैसे बिताती हूं यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह मेरी लिए कितना पुष्टि दायक है। जब भी मैं ओशो के लिए कुछ करती हूं तो मुझे शक्ति मिलती है। और जीवित होने का एक एहसास मिलता है।
उनकी सजगता मेरी सजगता को प्रज्वलित करती है। होश पूर्वक और बोधपूर्वक किया गया कोई भी कार्य आनन्ददायी होता है।
ओशो के आसपास काम करनेवालों का ढंग मेरे ह्रदय को छू जाता है। यद्यपि मैं समझ सकती हूं कि क्यों वे इतनी प्रसन्नता से काम करते है। अगर कोई पूरी रात ओशो के लिए कुछ बनाने के लिए काम करता है तो उसका काम करेने का ढंग उसका भाव मन को एक सुखद अनुभूति से भर जाता है। यह अनुभूति ही अपने आप में एक पुरस्कार है। और जब तुम कसी ऐसे व्यक्त के समीप हो जो तुम्हें आनंद की अनुभूति देता है उसे तुम धन्यवाद देने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकते हो।
ओशो को प्रेम करना बहुत सरल-सुगम है क्योंकि उनका प्रेम बेशर्त है। उनकी कोई अपेक्षा नहीं है। और मैंने अपने अनुभव से जाना है कि उनकी दृष्टि में मैं गलत कर ही नहीं सकती। मैं बेहोशी में गलतियां कर सकती हूं और अपनी इस बेहोशी के कारण सदा दुःख पाती हूं। वे इसे जानते है और उनकी करूणा और भी अधिक हो जाती है। वे हमें ध्यान करने के लिए और अपनी गलतियों से सीखने के लिए कहते है।
मैंने ओशो को सदा परमानंद की अवस्था में देखा है, मैंने ऐसा कभी कुछ घटते नहीं देखा जो उनको किसी भाव दशा में ले जाए या उनकी शांति, ‘स्थितप्रज्ञ की अवस्था को बदल दे। उनकी कोई वासना नही, कोई महत्वाकांक्षा नहीं किसी से कोई अपेक्षा नहीं। इसी कारण उनके शोषण का कोई प्रश्न नहीं उठता। उन्होंने मुझे कभी नहीं कहा कि मुझे क्या करना चाहिए,कैसे करना चाहिए। कैसे करना चाहिए। अपनी किसी समस्या के बारे में पूछने पर वे अधिक से अधिक कोई सुझाव दे देते है। तब यह मुझ पर निर्भर करता है कि मैं उनके सुझाव को स्वीकार करूं या न करूं। कई बार मैंने उनकी बात नहीं मानी। कई बार मैं अपने ही ढंग से कुछ करना चाहती, लेकिन उन्होंने कभी इसकी आलोचना नहीं की। वे इस बात से सहमत होते कि मैंने सीखने के लिए उसी मार्ग को चुनाव किया—कठिन मार्ग। क्योंकि हमेशा ही ऐसा हुआ—वे सही सिद्ध हुए। यह मुझे स्पष्ट से स्पष्ट तर होने लगा कि उनके यहां होने का मात्र एक ही उद्देश्य है की कैसे वे हमें और अधिक होश पूर्ण होने में और अपनी निजता खोजने में सहायक हो सकें। जैसा कि मैंने पहले कहा, ध्यान करने से पूर्व मैं सोचता करती थी कि मैं मन हूं। मैं केवल उन विचारों से परिचित थी जो निरंतर मेरे मस्तिष्क में दौड़ते थे। अब मुझे समझ में आता है कि मेरे मनोभाव भी मेरे है। लेकिन मेरी भावात्मक प्रतिक्रियाएँ उन संस्कारों से उठती है जो मेरे व्यक्तित्व का निर्माण करते है। सदगुरू का कोई अहंकार नहीं होता। कोई व्यक्तित्व नहीं होता। उसे आत्म-ज्ञान हो गया है और उस ज्ञानोपलब्धि में व्यक्तित्व खो जाता है। अहं और व्यक्तित्व हमें समाज की देन है। और उन लोगों की देन है जिन्होंने बचपन में हमारे ऊपर अपने प्रभाव छोड़े थे। जब कभी किसी परिस्थिति में मेरी ‘ईसाई’ प्रतिक्रिया होती है, तो मैं इसे अपने भीतर देख पाती हूं। विचित्र बात तो यह है कि मेरा पालन-पोषण ईसाई ढंग से नहीं हुआ। कम-से कम मैं चर्च नहीं गई। और नहीं ही हमारे घर में बाइबल थी। मुझे अपने ईसाई संस्कारों के प्रत्येक अनुभव पर हैरानगी हुई है और मैं केवल इतना अनुमान लगा सकती हूं कि ये संस्कार उस हवा में ही होते है जिसमे हम सांस लेते है। ईसाइयत सब जगह फैली है। जिस ढंग से लोग सोचते है और व्यवहार करते है। देखकर ही लगता है ये किस तरह का धर्म है। अब केवल बचे है—नैतिक आदर्श और घिसे -पीटे सिद्धांत जिनका अनुसरण कोई मेरे जैसा करने लगता है। किसी के लिए भी यह देख पाना कितना आसान है कि कैसे विभिन्न देशों के लोगों के विभिन्न आचार-व्यवहार होते है। जब मैं यह देखती हूं कि हम सब प्राणी एक ही हाड़-मांस से बने है तब यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कार हमारा अनिवार्य हिस्सा नहीं है। ध्यान मुझे अपने संस्कारों के प्रति जागरूक करने का महान कार्य करता है। क्योंकि ध्यान में मैं एक अपरिवर्तनशील शांत उपस्थिति मात्र होती हूं।’
मैं अपने कमरे में लाती हान का अभ्यास किया करती थी। लाती हान एक ध्यान-विधि है। जिसका प्रयोग‘सुबुद्ध’ में किया जाता था। इसमे साधक शांत खड़ा हो जाता है। और स्वयं को अस्तित्व के प्रति ‘खोल देता है’ उर्जा व्यक्ति के भीतर बहने लगती है। और कोई भी रूप ले सकती है। नृत्य का। गीत का, रूदन का, हंसी का—कुछ भी घट सकता है। और यह बोध बना रहता है कि तुम नहीं कर रहे हो।
मुझे यह अनुभव बहुत अच्छा लगा। यह स्वयं में खो जाने जैसी अनुभूति थी और इसने मुझे बहुत आनंद दिया। मैं प्रतिदिन उसी स्थान पर आकर खड़ी हो ही जाती। (जैसे की कोई हर श्याम मदिरापान करता है। या उस समय की प्रतीक्षा करता है।) मुझे अपने लातिहान ध्यान के समय की प्रतीक्षा रहती और यदि मैं उसे कर नहीं पाती तो उसका अभाव महसूस होता।
ऐसा कई सप्ताह तक चलता रहा। फिर एक दिन आया। जब मुझे लगा कि मैं बीमार हो रही हूं। मुझे कोई विशिष्ट रोग तो नहीं था लेकिन शक्ति बहुत क्षीण हो रही थी। और मैं शीध्र ही रो पड़ती। मैं चिंचित थी कि शायद मैं बार-बार अपने को ‘आविष्ट’ होने देती हूं। और इसी कारण मैं बीमार हो रही हूं,एक दिन जब मैं रो रही थी तो विवेक ने देख लिया और पूछा कि मुझे क्या हो रहा है। मैंने बताया कि शायद मैं आवश्यकता से अधिक लातिहान कर रही हूं। और इस कारण बीमार हो गई हूं। उसने ओशो को बताया और उनका उत्तर आया कि मैं अपना लातिहान लेकर दर्शन में आऊं।
मैं दर्शन में गई और ओशो ने मुझे अपनी कुर्सी के समीप घुटनों के बल बैठने का संकेत किया और कहा कि मैं लातिहान को घटित होने दूं। मैंने आंखें बंद की और वह अनुभूति जो मुझे होती थी, हुई, लेकिन वह इतनी तीव्र नहीं थी। ऐसा लगा जैसे मेरे पीछे कोई खड़ा है। कोई बहुत लम्बा और ऊँचा आकार। जो मेरे भीतर प्रविष्ट हो गया है। मुझे लगा कि मैं फैल गई हूं। और स्वयं को पूरे सभागार में फैले देखा और महसूस किया। कुछ क्षणों के बाद ओशो ने मुझे पुकारा और कहा की सब ठीक है। उस दर्शन के बाद फिर उस स्थान पर जाकर आविष्ट होने की इच्छा क्षीण हो गई। और फिर इस विषय में मैंने कभी नहीं सोचा। बाद में यह कमरा ओशो का दंत चिकित्सा कक्ष बन गया। और सात वर्ष उपरांत भिन्न परिस्थितियों में एक बार फिर मैं उस स्थान पर आविष्ट हो गई थी।
पिछले सात वर्षों से विवेक ओशो की देखभाल कर रही थी। ओशो के साथ उसका संबंध पूर्व जन्म का है। ऐसा ओशो ने अपने प्रवचनों में बताया है—और विवेक को भी उनका स्मरण है। बड़ी-बड़ी नीली आंखों वाली, वरूण के सब गुणों से युक्त मीन राशि वाली यह एक रहस्यमयी बच्ची। महिला थी अब तक वह एक दिन के लिए भी ओशो से अलग नहीं हुई थी। उसने जब यह घोषणा की कि वह कुछ सप्ताहों के लिए इंग्लैंड जा रही है। और क्या मैं ओशो की देखभाल कर सकूंगी।
मैं किंकर्ततव्यविमूढ़ सी खड़ी रही। मेरा सिर चकराने लगा। स्वयं को संभालते हुए मैंने अपने-आप से कहा, ‘कुछ नहीं हो रहा है, सचमुच कुछ नहीं हो रहा है। बस शांत हो जाओ।’
मैं इतनी स्वच्छ कैसे हो पाऊंगी कि ओशो के कमरे में जाने योग्य हो सकूं? मैं तो दर्शन में जाने की तैयारी के लिए पूरा दिन फ़व्वारे के नीचे स्नान करती रहती थी। और करीब-करीब अपनी त्वचा तक छील डालती थी।
प्रथम कार्य जो मैंने ओशो के लिए किया वह था ओशो को एक कप चाय देने का। एक ठंडी चाय का कप। मैंने उनके लिए चाय बनाई और पूर्व इसके कि वे उसे पीने के लिए तैयार हों। उनके कमरे में ले गई। वे अभी अपने स्नान गृह में थे, स्नान कर रह थे। मैं ठंडे फर्श पर बैठी चाय की ट्रे को देखती रही। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं? अगर में दूसरा कप चाय का बनाने जाती हूं तो कहीं ऐसा न हो की ओशो उसी क्षण स्नान गृह से बाहर आ जाये। और हैरान हो की उनकी चाय अभी तक क्यों नहीं आई। इसलिए मैं प्रतीक्षा करती रही। ओशो के कमरे में बहुत ठंड होती है। पिछले कुछ वर्षों से ओशो अपने कमरे का तापमान 12 डिग्री सैलिशयस पसंद करते है। जहां-जहां ओशो जाते कपूर या मिंट (पुदीने) की भिनी सुगंध को पहचान लेती हूं। उस दिन भी उनके कमरे में वह सुगंध मौजूद थी।
अचानक ओशो वहां थे। कमरे के भीतर चलकर अपनी कुर्सी की और जाते हुए वे मुस्कुराए और मुझे ‘हेलो’कहा। उस क्षण मैं बिल्कुल भूल गई कि चाय ठंडी है और वैसा ही कप उन्हें पकड़ा दिया। उन्होंने उसे ऐसे पिया जैसे वह सर्वोतम चाय का कप हो जो उन्होंने अब तक कभी नहीं पिया था। वे कुछ नहीं बोले। बहुत बाद में केवल इतना ही ध्यान दिलाया कि अगली बार मैं उनके स्नान गृह से बाहर आ जाने के बाद ही चाय कप में उड़ेलूं पहले नहीं।
उनकी विनम्रता मुझे भीतर मर्म तक छू गई। वे बड़े आराम से मुझे कह सकत थे, अरे चाय ठंडी है। मुझे दूसरा कप ला दो। कोई और होता तो ऐसा ही करता। लेकिन उन्होंने इस ढंग से कहा कि मैं लज्जित भी न हुई। सच पूछो तो बहुत देर तक मुझे यह भी समझ में न आया कि हुआ क्या था।
प्यारे सद्गुरू,
ज़ेन व्यक्ति चाय कैसे पीता है?
ज़ेन व्यक्ति के लिए सब कुछ पावन है। पुण्य है। वज्र जो भी करता है ऐसे करता है मानों किसी धार्मिक स्थान में हो।
ओशो प्रवचन के लिए सूत्र या प्रश्न प्रात: 7:45 पर लेते थे। वे प्रात: 8बजे प्रवचन देते थे। मैं उनके सामने प्रश्न पढ़ती, वे कुछ प्रश्न तथा उनसे सम्बन्धित कुछ चुटकुले चुन लेते। प्रश्नों और सूत्रों को पढ़ते समय मैं कई बार इतनी भावुक हो जाती कि रोने लगती। मुझे स्मरण है एक बार मेरी आंखों से अश्रुधारा बह रही थी और मैं कुछ बोल नहीं पा रही थी। मैं उनके चरणों में बैठी उनको निहार रही थी। और वे प्रतीक्षा कर रहे थे कि मैं फिर कब बोलना जारी करूंगी। उन्होंने जानबूझकर अपना चेहरा मेरी और से हटा लिया और उनकी आंखों से अपनी नज़र हटाकर मैं स्वयं को संभालने में सक्षम हो गई। मैं यह तो जान पा रही थी कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं विचार नहीं हूं, लेकिन यह समझ पाना कठिन था कि मैं मनोभाव नहीं हूं। जब आंसू आते मैं उन्हें चेहरे पर ढलकते अनुभव करती और कई बार स्वयं को पृथक कर उन्हें देख तो पाती लेकिन कुछ कर पाने में स्वयं को असहाय पाती। यह मेरे लिए एक कठिन परीक्षा थी। ऐसी अवस्था को बनाए रखने के लिए मेरे मनोवेग बाधा बन जाते। एक बार उन्होंने मेरे बारे में कहा था कि मैं रोने-धोने वाले लोगों का एक सही नमूना हूं।
कई बार ऐसे अवसर आते कि मनीषा-जो प्रवचन के पहल ओशो के लिए सूत्र और प्रश्न पढ़ती है—बीमार हो गई और तब विमल भी—जो मनीषा की अनुपस्थिति में प्रश्न पढ़ता है। वह भी अस्वस्थ हो जाता और यह समझ न आता कि अब कौन प्रश्न पढ़ेगा। (ओशो सूत्र पढ़ने के लिए हमेशा इंग्लिश आवाज पसंद करते थे। ओशो कहते थे, न, चेतना नहीं, और न विवेक भी। नहीं, ये दोनों हमेशा रोती रहती हे।
यह जानते हुए कि वर्षों से विवेक ओशो के इतने करीब थी, मुझे अचम्भा हुआ। यह देखकर कि उनके जाने से ओशो में कोई अंतर नहीं आया। उनका व्यवहार ऐसा था मानों कुछ हुआ ही नहीं। मैंने कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा था जिसमे परिस्थितियों के बदलने पर कोई परिवर्तन न आया हो। उनमें एक ऐसी जीवन्तता, एक ऐसी अपजंसपजल है जो कभी नहीं बदलती। वहां बदलती भाव दशाएं नहीं है। बस प्राण उर्जा ही सतत बहती है। एक नदी के बहाव की तरह। मैंने कई लोगों के साथ ऐसा घटित होते देखा है। इसलिए मैं जानती हूं कि यह मेरे साथ ही नहीं कि ओशो के सामने कुछ भी करते हुए व्यक्ति इतना आत्म संकोच से भर आत्म सजग हो जाता है। कि उसके लिए चल पाना भी मुश्किल हो जाता है। वे इतनी शांत गरिमापूर्ण और वर्तमान में स्थित है कि वे एक दर्पण की कार्य करते है। अगर मुझे दरवाजा भी खोलना होता तो अचानक मुझे कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता—किस समय दरवाजा खोलना है, कहीं उनके मुहं पर चोट न कर बैठूं, किस और खोलना है। दाएं या बाएं। जब वे दरवाजे के समीप पहुंचते तो उनके सामने झूकूं या नहीं। लेकिन उस समय इनके कारण कोई तनाव पैदा नहीं होता क्योंकि ओशो इतने शांत है कि तुम्हें अपने प्रति सचेत होने का और पहली बार कुछ होश पूर्वक करने का अवसर मिलता है। जब मैंने पहली बार प्रत्येक कार्य होश पूर्वक करना प्रारम्भ किया तो मुझे इसकी आदत एक सहज प्रक्रिया लगती है। ओशो को पानी का गिलास भी देना हो तो आप पूर्णतया सजग होते और ओशो के समीप होने का यही एक अनुपम उपहार है। भले ही यह कोई विशेष बात न लगे लेकिन होश पूर्वक जीने की यह शुरू आता मेरे लिए जीवन की सबसे मूल्यवान भेंट है जो मुझे आज तक प्राप्त हुई है।
जिस दिन विवेक ने फोन किया कि वह आ रही है लक्ष्मी यह खुशखबरी सुनाने के लिए ओशो के भोजन कक्ष में दौड़ी आई। ओशो भोजन कर रहे थे। उस समय वे मुझसे बातें कर रहे थे। वे घूमे संदेश के लिए, लक्ष्मी का धन्यवाद किया और फिर बिना पल खोए मुझसे पुन: बातें करने लगे। मैं विस्मित थी भावुकता का कोई चिन्ह नहीं। आंखों में कोई चमक नहीं। वे उन बातों का जीवन्त उदाहरण थे, जिनकी वे हमसे चर्चा करते थे। अनासक्त प्रेम वर्तमान में जीना।
एक सदगुरू जब हमारी और देखता है, तब कहां तक हमारे भीतर झांक सकता है। क्या वह हमारे आभामंडल को देखता है। क्या वह हमारे बन को पढ़ता है। क्या वह हमारे मन को पढ़ना चाहेगा। मुझे लगता की नहीं। लेकिन निश्चित ही वह उन चीजों को देख सकता है। जो मुझे दिखाई नहीं पड़ती।
एक प्रात: मैं ओशो के साथ प्रवचन में गई; आठ बजे मैंने उन्हें उनके कमरे से लिया गलियारे में उनके पीछे चलती च्वांगत्सु सभागार तक गई और फिर वहां बैठ गई। वे एक घंटा प्रवचन देते रहे। मुझे ज्ञात था कि उस प्रात: मैं गहन ध्यान में डूब गई थी। एक घंटा दो मिनट की तरह बीत गया था। और मैंने अनुभव किया था कि आज कुछ विशेष घटना घट गई थी। वापस लौटते हुए मैं गलियारे में उनसे आगे चल रही थी। जैसे ही मैंने दरवाजा खोला और वे अपने कमरे में प्रवेश करने के लिए मेरी और बढ़े उनहोंने कहा, तुम कहां थी चेतना।
मैंने सोचा, ‘वाह, वे शायद भूल गए कि मैं उन्हें प्रवचन के लिए लेकर गई थी। वे अवश्य ही कही खो गए होंगे।’मैंने उत्तर दिया, ‘मैं प्रवचन में गई थी।’
उस घड़ी वे मेरे समीप से गुजर रहे थे और वे मुस्कुरा दिए।
जैसे ही वे हंसे, मैं भी हंस दी। मुझे स्मरण हो आया कि मैं कहा थी।
ओशो जब प्रवचन देते उनके रूप में एक चुम्बकीय आकर्षण होता, वे एक करिश्मा प्रतीत होते। उनकी आंखें आग सी चमकती और मुद्राएं(वन बिलाव सी) गरिमापूर्ण दिखाई देती।
पूना के उन वर्षों में उनकी दिनचर्या बड़ी व्यस्त थी। वे एक सप्ताह एक सौ पुस्तकें पढ़ते; अपनी सचिव लक्ष्मी के साथ कार्य करते ओर प्रात: आठ बजे प्रवचन के अतिरिक्त सायं सात बजे दर्शन भी होता था। वे कभी बीमार नहीं हुए और पूना के उन वर्षों के दौरान वे सूफीवाद, ताओवाद, हसीबावाद, योग ज़ेन,जीसस, लाओत्सु, च्वांगत्सु, हिन्दू संतों,जीसस, महावीर और बुद्ध पर बोले। वे बुद्ध के प्रत्येक सूत्र पर बोले। डायमंड सूत्र पर उनकी एक टिप्पणी इस प्रकार थी, ‘डायमंड सूत्र अपने में बहुतों को असंगत लगेगा, एक पागलपन लगेगा। यह तर्क हीन है पर तर्क विरोधी नहीं है। यह कुछ ऐसा है जो तर्कातीत है, यहीं कारण है कि इसे शब्दों में व्यक्त कर पाना कठिन है।’( हुई नैंग एंड डायमंड सूत्र)
ओशो पाँच वर्षों तक बुद्ध के समस्त सूत्रों पर बोले। बीच-बीच में सूफियों पर बोलते रहे और शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर भी देते रहे। कुछ सप्ताह के लिए वे बिल्कुल बाहर नहीं आए। क्योंकि चेचक का रोग फैल गया था और उन्हें बाहर आने देने का खतरा नहीं उठाया जा सकता था। यह बुद्ध पूर्णिमा (मई महीने की पूर्णिमा) का दिन था जब बुद्ध का अन्तिम सूत्र पढ़ा गया; ओशो ने कहां बुद्ध का जन्म बुद्धत्व की उपलब्धि और निर्वाण प्राप्ति एक ही दिन हुए। और संयोगवश आज भी वहीं दिन है। ओशो का समय निर्धारण हमेशा से और आज भी रहस्यम है।
दो वर्षों तक मैं शायद ही कभी घर के बाहर गई होऊं। कपड़ों की धुलाई सुबह के प्रवचन मुझे इतना भर देते कि मैं छलक-छलक जाती। क
भी-कभी ओशो मुझे दर्शन में आने के लिए कहते क्योंकि दर्शन में अब वे कम-से कम बोलते और धीरे-धीरे ‘ऊर्जा दर्शन’अधिक होते जा रहे थे। जब ओशो दर्शन देते तो वे किसी की भी समस्या का समाधान कर देते। वे बैठ जाते और उनके सामने बैठा जो भी व्यक्ति उनके लिए सब कुछ हो और लम्बे समय तक उसकी समस्या को सुलझाने के लिए उससे बातें करते थे। जब हजारों लोग अपनी समस्या के बारे में बात कर चुके हों तो आपको लगता है कि कोई समस्या है ही नहीं या फिर समस्याएं बहुत थोड़ी सी ही बार-बार दोहराई जाती है। सच्चाई यही है कि मन ही एक मात्र समस्या है अत: कितने वर्षों तक कोई व्यक्ति उसी बात को बार-बार सुनता रह सकता है। हमारे प्रति ओशो की करूणा आरे धैर्य ने मुझे हमेशा चकित किया। मेरा अन्तिम ‘मुखर-दर्शन’ मुझे पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ गया। इतने वर्षों के बाद, जब भी मैं उस अनुभूति में जो मुझे उस समय हुई थी—पुन: डूब जाती हूं तो मैं एक ताजगी एक परितृप्त अनुभव करती हूं।
मैंने ओशो को उस नाटक के बारे में लिखा जो उस समय मेरे साथ घट रहा था। मुझे स्मरण है कि मैंने पत्र को इन शब्दों के साथ समाप्त किया था कि—मैं सहायता के लिए ‘पुकार’ रही हूं। मुझ उत्तर मिला। ‘दर्शन में आ जाना।’
मैं उनके सामने बैठ गई। उन्होंने मेरी और देखा और सब कुछ तिरोहित हो गया।
मैंने कहा, ‘कुछ भी नहीं, हंसी और उनके पाँव छू लिए। वे मुस्कुराये और बोले, ‘शुभ है।’
उस दिन से जब भी मैं किसी बात से दुःखी हाथी हूं तो एक क्षण रुककर स्वयं से पूछती हूं, वास्तव में क्या हो रहा है, यह क्या है? उस घड़ी कुछ—भी नहीं घट रहा होता, बिलकुल भी कुछ नहीं। निश्चित ही, यह बात हमेशा स्मरण नहीं रहती। मन की आदत है और समस्याएँ पैदा करने की इसका क्षमता बहुत गहरी है। यह मेरे लिए हमेशा एक समस्या है। कि कितनी बार हम इस तथ्य को समझते है और फिर भूल जाते है। कभी मैं उतनी ही मुक्त होती हूं जितना कोई बुद्ध और फिर उसी ढर्रे पर लौट आती हूं। और अपने मन को अपनी स्वामी हो जाने की अनुमति दे देती हूं।
लगभग दो वर्ष बीत गए। मुझे पुरूषों में कोई रस नहीं रहा था। ये मेरे जीवन के सबसे अधिक सुखपूर्ण और प्रसन्नता के वर्ष थे। कोई समस्या न थी। मैं अकेले में प्रसन्न थी। कई बार अपने कमरे की और जाते हुए मुझे कुछ ऐसा एहसास होता जैसे मेरे साथ कुछ घटनेवाला है। मैं सोचती, ‘क्या हो सकता है?’ क्या मैं एक रोचक उपन्यास के मध्य में थी जिसे मैं पून: पढ़ना प्रारम्भ करने जा रही हूं। लेकिन ऐसा कुछ भी न था। मैं केवल अकेले हो जाने की प्रतीक्षा कर रही थी। मैं पूर्णतया तृप्त थी।
प्रवचन में बैठे में एक बार हैरान रह गर्इ ओशो मेरे बारे में इस सन्दर्भ में बोल रहे थे कि साधक किस मार्ग पर है, खोजना पड़ता है।
‘पहली बात, यह निश्चित करना है कि क्या तुम अकेले में आनंद का अनुभव करते हो। उदाहरण के लिए, चेतना बैठी है। विवेक मुझसे हमेशा पूछती है, ‘चेतना अकेली रहती है’ और यह बहुत प्रसन्न दिखती है। रहस्य क्या है? विवेक यह समझने में असमर्थ है कि व्यक्ति नितांत अकेला रह सकता है। अब चेतना का पूरा काम मेरे कपड़े धोना है; यही उसका ध्यान है। वह कभी बाहर नहीं जाती,कैनटीन में भोजन करने भी नहीं जाती। वह अपना भोजन ले आती है। मानो किसी में भी उसकी कोई रुचि नहीं है।’
अगर तुम अकेलेपन का आनंद ले सकते हो तो तुम्हारा मार्ग ध्यान है। लेकिन अगर तुम्हें लगता है कि जब भी तुम लोगों से सम्बंध बनाते हो,जब तुम लोगों के साथ होते हो; तुम्हें प्रसन्नता होती है। तुम आह्लादित होते हो; मन झूम उठता है; तुम अधिक जीवन्त अनुभव करते हो तो निश्चित रूप से प्रेम तुम्हारा मार्ग है।’
‘सदगुरू का काम केवल इतना है कि वह तुम्हें यह जानने में सहायता करे कि तुम्हारा वास्तविक कार्य क्या है। तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो।’ (द धम्मपद)
इस प्रवचन के बाद कुछ सप्ताह बाद पूना में चेचक रोग की महामारी फैल गई। ओशो का बाहर आकर प्रवचन देना एक बहुत बड़ा जोखिम उठाने वाली बात थी।
इतने वर्षों में प्रथम बार मैं ओशो से दूर हुई थी। मैं उनके अभाव को बहुत महसूस कर रही थी। मैंने उस प्रवचन की टेप को सुना जिसमे मुझे स्पष्ट रूप से कहा गया था कि मेरा मार्ग ध्यान का है और अकेलेपन का है। उनहोंने जो मेरे बारे में कहा था मैं उसका परीक्षण करना चाहती थी। कि क्या वास्तव में मैं अपने अकेलेपन में उतनी केन्द्रित थी। जैसे ही मैं द्वार से बाहर आई एक पुरूष जिसे मैंने पहले भी देखा था और आशिक मिजाजी के लिए बदनाम था। मुझे देखकर चिल्लाया, ‘क्यों डेट’ के बारे में क्या विचार है? और मैंने हां कह दी। उसका नाम था तथागत। मुझ वह योद्धा की तरह लगता था। हष्ट-पुष्ट पट्ठे पीठ के माध्य तक लटकते काले लम्बे बाल। मैं उसे प्रेम में पड़ गई। और उसने उन सब भावा वेगो के लिए द्वार खोल दिए जो मैंने वर्षों से अनुभव नहीं किए थे। और मान लिया था कि वे समाप्त हो गए है।
ईर्ष्या-क्रोध—आप इन्हें ये नाम दे सकत है—मुझमें थे। मैं एक बार फिर ‘मेरी-गो-राउंड’ गोल-झूल पर सवार हो गई थी।
‘संसार में रहो, लेकिन इसके होकर नहीं, ‘मैंने ओशो को बहुत बार कहते सूना था।’ यह मेरे लिए एक और अवसर था इसे परखने का। पिछले दो वर्षों से मैं सचमुच एक साध्वी ब्रह्मचारिणी का सा जीवन जी रही थी। मैं आनंदित थी। लेकिन एक प्रकार से बहुत सुरक्षित, बहुत सुगम, बिना किसी कठिनाई के। अब मैं फिर पुराने नाटकों से गुजरने की कोशिश करना चाहती थी लेकिन इस बार रंगमंच के पाश्र्व भाग से देखते हुए।’
मां प्रेम शुन्यों
(माई डायमंड डे विद ओशो) हीरा पायो गांठ गठियायो)
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