तुम मुझे छुपा नहीं सकते—(अध्याय-15)
ओशो को संसार से छिपाए रखना उचित नहीं लग रहा था। एक हीरे के इन्द्रधनुष रंग प्रत्येक व्यक्ति पर प्रतिबिम्बित होने चाहिए ताकि वह चकाचौंध हो जाए। इसी कारण उन्होंने भारत छोड़ा था। हम ओशो के लिए विश्व में एक ऐसा स्थान ढूंढ़ रहे थे जहां वे अपने लोगों से जो कहना चाहते है कह सकें। उन्हें कुछ ज्यादा नहीं चाहिए था—बस इतना ही कि वे अपने अनुभव को दूसरों के साथ बांट सकें।
मैंने ये सप्ताह बिस्तर में ही बिताए, क्योंकि मेरे पैरों में एक विचित्र-सी सूजन आ गई थी। उसका कारण कभी ढूंढा न जा सका। परंतु एक विषैले मकड़े के काटने से लेकिन हड्डियों के किसी रोग तक कुछ भी हो सकता था। मैं सारा दिन अपने बिस्तर में पड़ी खिड़की के बाहर सोने की भांति चमकते पुष्पित अखरोट के वृक्ष देखती रहती। और चीड़ के शंकुओं को निरंतर तड़-तड़ की ध्वनियों सुनती रहती। जो सूर्य की गर्मी से फट जाते और अपने बीजों को धरती पर बिखेरते रहते।
यद्यपि उदासी एक अंतर धारा की भांति बढ़ती रहती परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि मैं पूरादिन उसमें डूबी रहती। अपने ग्रुप में हम बहुत प्रसन्न थे तथा प्रथम शरीर अर्थात भोजन रस में पूरी तरह निमग्न थे। हम इकट्ठे मिलकर दावतें करते। बालकनी में पड़े लकड़ी के लम्बी मेज पर बैठकर—जहां से एक और पहाड़ से लेकिन नीचे मैदान तक दिखाई देते और दूसरी ओर ऊपर महल दिखाई देता। या फिर हम बड़े से भोजन कक्ष में सेमल की लकड़ी के बने मेज के आसपास बैठते। मैं जंगल में कहीं भी निकल जाती और कभी ताल में तैरती जब वहां मुझे वापस बिस्तर पर जाने का आदेश देने वाला कोई न था। और इस तरह जीते हुए हम वहां चार सप्ताह रहे।
फिर एक दिन वहां पुलिस आई।
पुलिस के आठ लोगों को लिए दो कारें घुमावदार मार्ग से हमारे घर आई और पहले उन्होंने कहा कि वे रास्ता भूल गए है। यह सरासर झूठ था। और पाँव मिनट बाद ही वे बोले कि वे घर की तलाशी लेना चाहते है। उन्हें हम पर संदेह था क्योंकि हम घर छोड़कर कहीं नहीं जाते थे। और न ही अन्य सैलानियों कि भांति दर्शनीय स्थल देखने जाते थे। उन्होंने कहा कि पुर्तगाल में नशीले पदार्थों की तस्करी और आतंकवाद की बहुत समस्या थी।
जेल के लिए उपयुक्त कपड़े पहनने के लिए मैं अपने कमरे में गई। यद्यपि मेरे मन को यक स्पष्ट था परंतु मेरी टांगें जवाब दे गई। मुझे एक आघात सा लगा क्योंकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मैंने अपने शरीर में पहले कभी ऐसी नर्वसनैस अनुभव नहीं की थी। मैंने सोचा कि ऐसी नाटकीय घटनाओं की तो मैं आदी हो चुकी हूं। इस क्षण मुझे लगा कि मैं टूटने के समीप थी। तथा पिछले दस महीनों का तनाव अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया था।
में प्रवेश द्वार तक गई, वहां आनंदों पुलिस से बातचीत कर रही थी। वे चले गए परंतु अगले दिन फिर आए तथा दो व्यक्तियों को उनकी कार सहित हमारे ड्राइव वे में तैनात कर दिए ताकि चौबीस घंटे हम पर निगरानी रख सकें।
ओशो ने कहा कि वे भारत लौट जाना चाहते है। हमने इटली से नीलम को बुलाया ताकि वह ओशो के साथ यात्रा कर सके। और भारत में ओशो के लिए सारा प्रबंध कर सके। उन्होंने नीलम से कहा, मैं अपने शरीर का अधिक समय तक उपयोग नहीं कर सकता। शरीर में बने रहना बहुत पीड़ादायक हो गया है। परंतु मैं तुम सबको ऐसे भी नहीं छोड़ सकता। मेरा कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है।
ओशो के जाने का दिन निश्चित हुआ, 28 जुलाई। उस दिन हम एक छोटे से हॉल के रास्ते पर खड़े हो गए। ओशो सीढ़ियों से उतरे। मिलारेपा गिटार बजा रहा था। हमने गीतों में अपने ह्रदय उंडेल दिया। यदि हम उन्हें अंतिम बार मिल रहे है तो यह घड़ी अति सुंदर होनी ही चाहिए। मैं नहीं चाहती थी कि उनके सामने मैं अपना दुखी चेहरा लेकर जाऊं, मैं चाहती थी कि वे मुझे दिए गए अगणित उपहारों में से एक उपहार के साथ देखें—और वह था उत्सव। मेरी उदासी एक गहरे स्वीकार भाव में परिणत हो गई। और सच में एक रसायनिक परिवर्तन घटित हुआ और मैं ऐसे नाची कि पहले कभी न नाची थी। ऐसे क्षण मृत्यु के क्षणों के समान होते है। पिछले एक वर्ष से कितनी बार मैंने ऐसी घड़ियाँ देखी थी। मैं कितनी ही मौतों से गुजरी थी। हर बार हम सब बिछुड़ गए और कहीं अनजानी जगह में अकेले पड़ गए।
ओशो ने नीलम से कहा:
इन पेड़ों को देखो। जब तेज़ हवा चलती है तो वह विनाशकारी प्रतीत होती है। परंतु ऐसा नहीं है। पेड़-पौधों के लिए यह एक चुनौती कि भांति है यह देखने के लिए कि क्या उनमें विकसित होने की आकांक्षा है या नहीं। तेज़ हवाओं के थपेड़ों के बाद उनकी जड़ें धरती में और भी गहरे चली जाती है।
तुम सोचोगे, ‘ये पौधा नन्हा सा है तेज हवा उसे उखाड़ देगी।’ लेकिन नही, यदि पौधा स्वीकार कर ले कि जब तेज़ हवा चलेगी वह उसका साथ देगा तो वह जिएगा और केवल बचेगा ही नहीं अपितु और भी आश्वस्त हो जायेगा। कि ‘हां’ मैं जीना चाहता हूं। फिर वह तीव्र गति से विकसित होगा। क्योंकि हवाओं की चुनौती ने उसे बहुत बल दिया है।
यदि पेड़ या पौधा हवाओं के साथ नहीं होता, और नष्ट हो जाता है; तो उदास मत होना: उसे नष्ट होना ही था। हवा के कारण नहीं तो किसी दूसरे कारण से क्योंकि उसमें गहन जीवेषणा नहीं थी। और उसे अस्तित्व के इस नियम का पता नहीं—कि यदि तुम अस्तित्व के साथ लो तो यह तुम्हें बचाता है। यह तुम्हारा ही संघर्ष है जो तुम्हें नष्ट कर देता है।
ओशो हम सभी के साथ घर के भीतर से लेकर बाहर पोर्च तक और फिर कार के पास देर तक नाचते रहे; यहां तक कि राफिया जो तस्वीरें खींच रहा थ वह भी अपने कैमरों को आकाश में झुलाते हुए सदगुरू के नृत्य की लय में थिरकने लगा। केवल विवेक थी जो नाच नहीं पाई, वह रोते ओशो की बांहों में गिर पड़ी—वह उसका अपने ही ढंग का अनूठा नृत्य था।
हम ओशो की कार के पीछे-पीछे हवाई अड्डे तक गए। जहां पर टर्मिनस की छत पर खड़े उस विमान को देखते रहे थे, जो ओशो को दूर ले जाने वाला था।
जॉन ने मनीषा से अति सुंदर बात कहीं, जब अपनी पुस्तक के लिए उसका इंटरव्यू लिया था।
उसने कहा, उसकी दृष्टि में ‘इस विश्व यात्रा’ ने एक महत्वपूर्ण प्रसंग बिंदू प्रदान किया जहां से ओशो को विश्व के संदर्भ से देखा जा सकता है। इस अवधि में ओशो बिलकुल वैसे ही थे जैसा वे एक झेन गुरु का वर्णन करते है: सरल व साधारण।
जॉन को कैलिफ़ोर्निया के उन नए युग के तथाकथित नेताओं का ख्याल आया जो यही कहते फिरते थे कि ‘मैं बहुत महान हूं’ ‘क्या जीवन महान नहीं है।’ ‘मैं सरल जगत से जूड़ा हुआ हूं।’ यह सब बुद्धि के तल पर था वह ओशो के साथ जब उनके लिए ऐसी बातें करने के लिए कई अवसर आए थे। जब क्रीट में ओशो को बंदी बनाया गया तो उन्होंने जीसस की भांति यह नहीं कहा, ‘उन्हें क्षमा कर दो क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे है।’ जब वे इंग्लैंड में जेल में थे तो उन्होंने यह नहीं कहा, मैं स्वयं को समस्त जगत के साथ जुड़ा हुआ अनुभव करता हूं। अवांछित प्रसिद्धि के कारण जब उन्हें जमाइका छोड़ने पर विवश किया गया उन्होंने कुछ ऐसा नहीं कहा, मैं कितना महान हूं, ये लोग कितने नीचे है। उन्होंने केवल यही चाहा था, एक गिलास दूध या फिर नाश्ते में दिए जानेवाले किसी विशेष खाद्यान्न के नाम का अर्थ या समय क्या हुआ है।
विमान, विमान पट्टी की और मुड़ा और अंतिम उड़ान लेने से पहले धरती पर घूमा और हम सभी ने एक साथ सब देखा जैसे एक मौन शिलाखंड की भांति। विमान ने गति पकड़ी और मैं खिड़की में से उनका हिलता हुआ हाथ देख पा रही थी। और अब वे आकाश में थे। मेरे मुख से दो शब्द निकले.....खाली नाव।
मैं एक विशाल सागर में थी, एक खाली नाव में।
ओशो को हरे रंग की पुदीने वाली क्रीम ‘मिला मुरसी’ भी बहुत पसंद आई और फिर कुछ ही दिनों मे एक शीशी खत्म हो जाती। क्रीम लॉस एंजेलिस की उस छोटी सी दूकान से मिलती थी जो कुछ ही दिनों बंद हो जानेवाली थी। ओशो उस दूकान के मालकिन के सबसे अच्छे ग्राहक थे अत: हम उसका सारा संचित माल खरीदने के लिए मोल-तोल कर रहे थे। और साथ ही उसे बनाने की विधि भी जानने का प्रयत्न कर रहे थे। ताकि बाद में हम उसे स्वयं तैयार कर सकें।
पूरे विश्व में ओशो के लिए खरीदारी करना उनके संन्यासियों के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य था। जब तक हमें वह वस्तु उपल्बध न हो जाती तब तक हम उन्हें यह न बताते कि उसे प्राप्तकरना कितना कठिन था। हम जानते थे कि वे यह कहेंगे कि वे किसी को कष्ट नहीं देना चाहते। वैसे वे इस पूरे ग्रह को झकझोर रहे थे। लेकिन वह दूसरी बात थी।
रिट्ज़ में कुछ दिन रूकने पर यह ख्याल आया कि यदि लिस्बन में कोई व्यक्ति ओशो को ढूंढना चाहेगा तो रिट्ज़ तक पहुंचना आसान है। समीप के एक कस्बे इस्टोरिल में आनंदों ने एक होटल देखा जो बहुत सुंदर था और खाली पडा था। (एकबार हम सब ऑफ सीजन हो गये।) योजना बनाई गई कि रातों रात रिट्ज़ को छोड़ दिया जाये। और मुख्य स्वागत कक्ष से न लाकर ओशो को गैरेज की और से छुपकर ले जाया जाए। आनंदों हास्या और मुक्ति और मुझे ओशो के कमरे से बाहर देखना था फिर बैटिंग लिफ्ट में से बाहर ले आना था। तथा होटल के कर्मचारी तथा ठहरे हुए अन्य व्यक्तियों को पता न चले समय से पहले ही जब हमने उन्हें सफेद नाइटी पहने तथा लम्बी झूलती दाढ़ी के साथ बरामदे में अपने सामने पाया तो आनंदों ने मज़ाकिया ढंग से उन्हें उपर उठे हुए कॉलर वाला ट्रेंच कोट और नीचे की झुकी हुई ब्रिमवाल हैट पहनने का अनुरोध किया।
तम मुझे छिपा नहीं सकते। उन्होंने कहा।
फिर विवेक ने भी उन्हें मनाने की चेष्टा की परंतु वे बोले, नहीं, नहीं वे मुझे मेरी टोपी के बिना नहीं पहचानेगें।
मैंने पहली कार से प्रस्थान किया और ओशो बाद में गैरेज में खड़ी मरसीडीज़ में आनेवाले थे। हमें आशंका थी की अमरीकन एजेंट या पत्रकार ओशो को ढूंढ रह होंगे। अंत: हम बंद गलियों के चक्कर काटते हुए तंग और घुमावदार रास्तों पर नए-नए तरीकों से अपना पीछा करनेवालों (जो पीछे थे भी नहीं) को चकमा देते हुए कार भगा रहे थे।
बाद में आनंदों ने मुझे बताया कि हमारी चिंताओं और भयो के विपरीत ओशो पूर्णतया शांत थे। उन्हें उस मन का कोई बोझ नहीं था जो उन सभी सम्भव विपतियों की कल्पना करता है जो घटित हो सकती है।
जैसे ही वे गैरेज में प्रविष्ट हुए वे गैरेज के परिचारकों को देखकर मुस्कुराए और उन्हें नमस्कार किया। वे अवाक उन्हें देखते ही रह गए।
हास्या व आनंदों ओशो काक कार की और ले जाने का प्रयत्न कर रही थी। वे रूक गए। हास्या की और देखते हुए वे कहने लगे कि होटल में उनके बाथरुम की मैट कितनी सुंदर थी। जब वे नंगे पाँव उस पर खड़े होते तो कितनी आरामदेह प्रतीत होती थी।
‘भगवान, कृपया कार में बैठ जाइए।’ हास्या ने विनती की।
वे कुछ कदम और चले, हां वह विशिष्ट स्नान मैट सचमुच शानदार थी। अगले स्थान पर वैसी मैट का होना वह पसंद करेंगे।
दो घंटो की ड्राइव के पश्चात हम होटल पहुंचे और धीरे-से एक लम्बी सीढ़ी चढ़ते हुए अपने कमरों में पहुंचे। मैंने तुरंत अपना सामान खोलना प्रारम्भ कर दिया। जो कि मेरी गलती थी क्योंकि ओशो जिस कमरे में थे वहां पर किसी सड़े से इत्र की गंध आ रही थी। जिसकी और हमारा ध्यान ही नहीं गया था। उन्हें अस्थमा का दौरा पड़ गया।
देवराज ने ओशो को दवा दी परंतु उपाय एक ही था कि होटल की छोड़ दिया जाए और वापस रिट्ज़ लौटा जाए। रात के दो बजे थे। विवेक ने हास्या व जयेश के फोन किया कि वे आकर ओशो को ले जाए। हम चुपके से सीढ़ियों से उतरे और होटल के अधिकारियों के पास से गुजर गए जो बंद पड़े टेलिविजन के सामने सोए पड़े थे। उनका दरवाजा हॉल में खुलता था। हम उनके सिर के पीछे से चुपचाप सरक आए और बाहर खड़ी कार में आ बैठे। मैं दूसरे दिन प्रात: होटल का हिसाब चुकाने और अपने विचित्र व्यवहार को स्पष्ट करने के लिए कोई उपयुक्त कहानी गढ़ने के लिए उस रात वही रूक गई।
रिट्ज़ में कुछ दिन और रूकने के बाद ओशो के लिए एक घर ढूंढ लिया गया। वह एक पहाड़ी पर स्थित था,सुनहरी गुम्बदनुमा शिखर वाला वह अकेला महल क्षितिज में सीमा-चिन्ह सा लग रहा था। तथा उसे नीचे था जंगल चीड़ का जंगल वह घर चीड़ के जंगल के मध्य में था। अंतत: हम ओशो को चीड़ बन देने में समर्थ हो सके। जिसका वादा हम रजनीशपुरम में चार वर्ष से कर रहे थे। वह चीड़ वन तो केवल रजनीशपुरम में सड़क का अंतिम छोर था परंतु यह चीड़ बन विश्व यात्रा के मार्ग का अंतिम छोर होनेवाला था।
हमने ओशो के कमरों के लिए नया फर्नीचर खरीदा और पुराने फर्नीचर का घर के दूसरे भाग में रखवा दिया। हमने उनके कमरे साफ़ किए और यथा सम्भव उन्हें झेन शैली में तैयार कर दिया। स्नान गृह में रिट्ज़ होटल के स्नानगृह जैसी मैट बिछा दी। उनका शयन कक्ष एक बालकनी में खुलता था। जो जंगल का ही एक भाग दिखाई देता था। वे अपना दोपहर का और रात्रि का भोजन बालकनी में ही करते थे। और आनंदों के साथ वही काम करते। सरोवर की और संकेत करते हुए उन्होंने हंस रखने की सलाह दी। फिर शेष सभी लोग भी जमाइका से आ गए। ऊपर-ऊपर से तो हम सब फिर से स्थापित होने के लिए तैयार थे। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ।
मुझे कोई आशा न थी यद्यपि हमने बहुत बड़े बड़ घर व महल देखे जो बिकाऊ थे और वीजा भी मिलने वाले थे। परंतु.......मैं थक गई थी।
हमने एक कमरा तैयार किया जहां वे प्रवचन देना आरम्भ कर सकते थे। लेकिन वे अपनी बालकानी में चीड़ वन की और मुख किए बैठे रहते। लगभग दस दिनों के बाद मौसम बदल गया तथा पहाड़ी पर कोहरा सरक आया। और पूरे जंगल पर छा गया। ओशो ने आनंदों को अपने कमरे में बुलाया और कहा: देखो एक बादल मेरे कमरे में आ गया है।
कोहरा ओशो के स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक था और उनका श्वास रोग बढ़ रहा था, अत: वे बालकानी में बैठ नहीं सकते थे। वे अपने कमरे में ही बैठे रहते ।इसके बाद जब तक हम पुर्तगाल में रहे ओशो कभी अपने कमरे से बाहर नहीं आए।
मैंने सूना कि बहुत समय के बाद उन्होंने नीलम से कहा कि वे इस बात बहुत निराश हुए थे कि पुर्तगाल की तरंगें बड़ी विचित्र थी कि वहां ध्यान की तो सम्भावना ही नहीं थी।
हम उस जंगल में ओशो के साथ एक महीने से अधिक समय तक रहे परंतु छिपकर ताकि आवश्यकता प्रवासीय कागज़ात फाइल करवा सकें इससे पहले कि समाचारपत्र, ‘सेक्स गुरू’ के आगमन की घोषणा करके सबको भड़का दें।
हमारे पास न तो कोई विमान था और न ही कोई ऐसा देश जहां हम जा सकें। और जमाइका में रह नहीं सकत थे क्योंकि हम ओशो की सुरक्षा के लिए भयभीत थे।
अधिकतर चार्टर कंम्पनियों ने इनकार कर दिया जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि उनका यात्री कौन है। और इस तथ्य को छुपा कर रखना इतना सरल नहीं था। यह भी पता न हो कि आपको जाना कहां है। तो विमान किराए पर लेने के लिए बड़ी कठिनाई होती है। किसी भी यात्रा की उड़ान योजना पहले ही तैयार होनी चाहिए। तथा पायलेटों और जिस देश में जाना है उन दोनों में सहमति अनिवार्य है।
पुर्तगाल में हास्या व जयेश ओशो के लिए आवासीय वीजा का प्रबंध करने में जुटे हुए थे। परंतु उन्होंने बताया कि अभी तक उन्हें उसकी अनुमति नहीं मिली है। शेष यूरोप का तो प्रश्न ही न था। देवराज को क्यूबा का विचार आया था। लेकिन ओशो ने कुछ सप्ताह पहले ही हास्या से कहा था : ‘नहीं, कास्ट रो मार्क्स वादी है।’
उरूग्वे में बाल-बाल बचना और अब यह सब—विवेक तंग आ चुकी थी। उसने कहा कि अब मेरा किसी भी बात से कोई सरोकार नहीं है। वह क्रोध में थी और ग्रुप को छोड़ देना चाहती थी। मैं इस बात से घबरा गई। जब भी वह इस प्रकार की विषादपूर्ण दिशा से गुजरती, मैं घबरा जाती।
मैंने सुना उस प्रात: ओशो जल्दी उठ गए और पूरे घर को देखा। वे उद्यान में और स्विमिंग पूल के पास घूमने गए। वहां के माली की दृष्टि उन पर पड़ी और वह ओशो को देख इतना भाव विह्वल हुआ कि उस दिन घर ही वापस चला गया और बोला, ‘यह व्यक्ति निश्चित ही कुछ विशिष्ट है। मैंने ऐसा व्यक्ति पहले कभी नहीं देखा।’
ओशो बैठक में एयरकंडीशनर लगाने की योजना बना रहे थे। ताकि वे प्रवचन देना प्रारम्भ कर सकें। लेकिन अब वे अपने कमरे में मौन बैठे थे और मैं उन्हें यह बताने गई थी कि हम क्या योजनाएं बना रहे है।
मैं भयभीत थी। मैं सोच रही थी कि किसी भी क्षण पुलिस वाले (क्या सचमुच वे पुलिस के आदमी थे। मैंने पूछ:‘मुझे तो यह भी नहीं पता कि जमाइका की पुलिस का आदमी कैसा दिखाई देता है। वे लोग तो मुझे हट्टे कट्ठे ठग लग रहे थे।’ फिर आ धम्मकेंगे और हम सबकी मौत के घाट उतार देंगे और हम ‘न्यज़वीक या टाइम्स मैगज़ीन’ के किसी विशिष्ट चित्र की भांति दिखाई देंगे। और विश्व में कौन इसकी परवाह करेगा।
दोपहर से पहले-पहले ही क्लिक ने विमान का प्रबंध कर लिया था जो कोलोरेडो से उड़कर हमें ले जानेवाला था और हमें केवल प्रतीक्षा करनी थी। विमान का समय सायं सात बजे था। अत: छह बजे के करीब क्लिप, देवराज तथा राफिया सामान लेकर हवाई अड्डे की और रवाना हो गये।
जैसे ही वे लोग विमान में सामान रख हमें फोन करेंगे और हम सीधे हवाई अड्डे पर पहुंच जाएंगे।
इस तरह केवल आनंदों विवेक मनीषा तथा मैं ओशो के साथ पीछे रूक गए तथ उस देहाती प्रदेश का यक घर अकेला पड़ गया। सात बजने के बाद हर पल एक युग के समान प्रतीत होने लगा....आरे तभी सब बत्तियां बुझ गई। बिजली काट दी गई। घना अँधेरा हो गया। मैंने सोचा, वही हुआ।
मैंने एक मोमबत्ती को ढूँढी और गिलास में रखा ओर अंधेरे में से टटोलती हुई ओशो के कमरे में पहुंची। वे बंद एयरकंडीशनर के पास एक कुर्सी पर बैठे थे। और कमरा तपने लगा था। वे पूर्णतया शांत बैठे थे। उन्होंने मुझसे एयरकंडीशनर के बारे में पूछा, क्योंकि हमारे पार अकसर जेनरेटर रहता है। ताकि एयरकंडीशनर बंद न हो। परंतु उन्हें इस बात का पता नहीं था। मैंने मोमबत्ती वहां रखी और वापस बैठक में चली गई। मैं वहां टेलीफोन की घंटी बजने की प्रतीक्षा कर रही थी।
आठ बज चुके थे और एयर पोर्ट से अभी तक कोई फोन नहीं आया था। मैं ओशो के कमरे में यह देखने गई कि वे कैसे हे। लेकिन वे अपनी कुर्सी में नहीं थे। कमरे मे अँधेरा था। मैंने उन्हें पुकारा भी परंतु कोई उत्तर नहीं मिला। मैं कुछ देर वहां खड़ी रही और घबराहट में चीख निकलने वाली ही थी कि स्नानगृह का दरवाजा खुला। उनके हाथ में एक कामचलाऊ मोमबत्ती थी। जिसे वह इस तरह से पकड़े हुए थे कि उनकी उंगलियां न जले। वे बड़ी सावधानी से मेरी और बढ़े। उन्हें देख कर मुझे राहत मिली। मैं बहुत प्रसन्न हुई। उनके चेहरे पर आनंद झलक रहा था। परमानंद। वे इस तरह मुस्कुरा रहे थे जैसे कोई बच्चा खेल-खेल रहा हो। मैंने उन्हें दिखाया कि मैं बेहतर मोमबत्ती दान लाई हूं। परंतु उन्होंने कहा नहीं ये अच्छा है। मैंने कहा की नहीं इस से उंगलियां जल जायेगी। परंतु उन्हें वही पसंद था। उसे ही पकड़े हुए वे कुर्सी तक पहुँचे और उसमें बैठ गये। और मैंने मोमबत्ती को नीचे रख दिया। उन्हें दो जलती हुई मोमबत्ती के पास छोड़ कर दूसरे लोगों के पास आ गई।
दरवाज़े पर एक दस्तक और मेरे प्राण ही निकल गये। परंतु वह और कोई नहीं हमार टेनिस-स्टार ही था। वह देखने आया था कि उस अंधकार में हम ठीक-ठाक है। वह अपनी पत्नी और बच्चो को भी लाया था। मैंने स्वयं को तर्क दिया कि यदि कोई आदमी अपने परिवार को लेकिर ओशो से मिलने आ सकता है तो कोई चिंता की बात नहीं है।
टेलीफोन बजा। विमान आ चुका था हमने जल्दी से कुछ आखिरी सामान इक्ट्ठा किया ओर जैसे ही ओशो काम की ओर बढ़े, मुस्कुराया और सबको नमस्कार किया।
मैं ओशो और अरूप के साथ हवाई अड्डे पर पहुंची। पुर्तगाल जाने का निर्णय लिया गया था।
अरूप की मां गीता, जो एक संन्यासिन है—का घर पुर्तगाल में था। यद्यपि ओशो के लिए वह घर छोटा था। परंतु वह कम से कम गृह स्वामी को तो जानते थे।
पुर्तगाल हमारी यात्रा के अंतिम छोर जैसा ही था, ओशो के निवास के लिए किसी देख में स्थान ढूंढने की अंतिम आशा जैसा प्रतीत हो रहा था। पूरा समय हमे यही भय था कि ओशो को भारत लौटना पड़ेगा तथा भारत में पिछले अनुभवों को देखते हुए ऐसा लग रहा थ कि शायद वह सबसे बुरी बात होगी। हमने सोचा कि पाश्चात्य शिष्यों को ओशो से मिलने नहीं दिया जायेगा।
हमने पुर्तगाल के लिए उड़ान भरी और स्पेन में उतरे। उड़ान योजना में कोई ग़लतफ़हमी हो गई थी। परंतु इससे कोई नुकसान नहीं हुआ। बस जरा सी गड़बड़ हो गई। मैड्रिड में एक घंटा प्रतीक्षा करनी पड़ी। जब हमने विमान में इंधन डलवाया। वास्तव में यह अच्छा ही हुआ, क्योंकि जब ओशो लिस्बन हवाई अड्डे पर उतरे और हास्य वे जयेश से मिले तो उन्हें बिना किसी कठिनाई के आप्रवासी बीजा मिल गया। यदि हमारी उड़ान योजनाओं पर नज़र रखी जा रही थी। तो केवल हम ही नहीं थे जो उलझन में पड़े थे। छह सप्ताह के लिए ओशो दृष्टि से ओझल हो गए।
लिस्बन में हम सीधे रिट्ज़ होटल में पहुंचे। हम ओशो को छुपा कर पिछली लिफ्ट से ले आये। तथा उनका नाम भी रजिस्टर में नहीं लिखवाया क्योंकि हम प्रकाश में नहीं आना चाहत थे। उनके लिए कमरों के एक सेट का प्रबंध किया जिसके साथ जुड़ा हुआ एक बेडरूम और एक बाथरुम था। जहां विवेक को तथा मुझे ठहरना था।
वह हवाई यात्रा मेरे लिए कठिन रही थी। कुछ तनाव के कारण और कुछ विवेक के कारण, जो सोच रही थी कि वह ग्रुप को छोड़कर चली जाए या नहीं। सदा की भांति ओशो विमान में लेट गए और केवल भोजन या टायलेट के लिए ही उठे। उन्होंने मुझसे डायट-कोक मांगा और जब विवेक ने सुना तो मुझसे कहा, उन्हें डायट-कोक मत देना। ये उनके लिए अच्छा नहीं है। उन्हें कह दो की समाप्त हो गया है। मैंने ओशो को कभी किसी चीज के लिए मना नहीं किया। परंतु उधर से विवेक मुझे देख रही थी। मैंने बड़ी हिम्मत जुटाकर ओशो से कहा,आपने अंतिम डायट कोक पी लिया था।
क्या? विस्मय से आंखें फैलाए, ऊपर देखते हुए वे बोले मुझे ऐसे लगा जैसे मैं शेर की मांद मे घुस गई हो उँ। जमाइका की पुलिस भी इसके सामने कुछ नहीं थी।
‘और.....डायट कोक बिलकुल नहीं है।’
अं....., वे समाप्त हो गई है। मन ही मन यह कामना कर रही थी कि जब मैं झूठ बोल रह होऊं तो वे उन आंखों से मुझे देखें नहीं। सौभाग्य से यह बात सच निकली। परंतु उन्होंने आग्रह किया कि जैसे ही हम धरती पर उतरें,डायट कोक का प्रबंध कर ले। मजे की बात है कि आनेवाले तीन वर्षों में उन्होंने डायट कोक के सिवाय कुछ और नहीं लिया। यह एक संयोग था या कुछ और मैं नहीं जानती।
लिस्बन में हमारी पहली सुबह—मैं ओशो की आवाज़ से जागी....’चेतना, चेतना।’ मैं उसे कभी नहीं भूल पाऊंगी। नींद से बाहर आना और ओशो ने मेरा नाम लेकर पुकारना। वे साथ ही जुड़े हुए कमरे से होते हुए हमारे कमरे में आ गए थे। उन्हें भूख लगी थी। शीध्रता से उन बर्तनों की और बढ़े जिन्हें मैने रात की थकावट के कारण दरवाज़े के बाहर नहीं रखा था। नहीं ओशो यह कल रात का भोजन है। और मुक्ति को देखने के लिए चली गई। वह हमेशा अपने साथ रखने वाला इग्लू बैग्ज़, जिनमें सामान रखा रहता था। मैं से कुछ लेकर आ जाए। निजी यात्रा विमान में यात्रा के दौरान ओशो ने उन विभिन्न प्रकार के व्यंजनों का स्वाद आजमाया था जो छोटी रसोई या फ्रीज में रखे रहते थे। उन्हें ऐसे बिस्कुट मिले जो उन्हें बहुत भाये। अब ठीक वही बिस्कुट ढूंढने के कार्य में आनंद लेने का जिम्मा हमारा था। एक बार मैक्लैनबर्ग की काऊटीं जेल में योगर्ट-योप्लेट( एक विशेष प्रकार का दही) दिया गया। उन्हें वह इतना पसंद आया कि इसके बाद कई वर्ष तक हमने अमरीका में उसे हर कहीं जहां भी ओशो होते उसे पहुंचाने का प्रबंध कर रखा था।
प्रत्येक हवाई यात्रा के दौरान ओशो अपना बहुत सा समय स्नानगृह में व्यतीत करते थे। वहां विभिन्न प्रकार के साबुन क्रीम आज़माते। उन्हें ‘इवीयन’ नाम का एक aerosol सप्रे मिला,वह एक चश्मे का पानी था जो मुंह पर छिड़कने पर ठंडक देता है। वर्षों तक ओशो उसका प्रयोग करते रहे। उनमें उन वस्तुओं को पसंद करने की अद्भुत दक्षता थी जो बाजार में उपलब्ध न हों या उनकी कंम्पनियों का दिवाला निकल गया हो।
जब वे किसी वस्तु को पसंद करते तो वास्तव में उसे पसंद करते। एक दिन ऑरेगान के छोटे से कस्बे में खरीद-फरोख्त करते समय हमें , कूल मिंट, नामक एक हेअर कंडीशनर मिला जो उन्हें बहुत पसंद आया। कुछ ही दिनों में उन्होंने उसकी एक बोतल इस्तेमाल कर ली। लेकिन जब हमने ओर मांगवाने का प्रयत्न किया तो पता चला कि जो कम्पनी उसको बनाती थी वह कनाडा में थी तथा ऑरेगान के बेंड कस्बे से बाहर कहीं और उसका ग्राहक नहीं था। हमने कंम्पनियों के साथ विशेष प्रबंध करके ‘कुल मिंट’ के डिब्बे जर्मनी मगंवाए तथा जर्मनी के संन्यासी उन्हें विश्व भर में वहां-वहां भेजते रहे जहां-जहां भी ओशो गए।
राफिया और मैं मॉन्टेगी (खाड़ी) जमाइका में ओशो के विमान के बाद पहुँचे क्योंकि हम मियामी मे रूक गये थे। वहाँ की गर्मी से मैं बेहोश हुई जा रही थी। और एक दिन पहले दंत चिकित्सक से जो रूट कनॉलिंग करवाई थी उससे इतनी पीड़ा हो रही थी कि मेरा मन जोर-जोर से चिल्लाने का हो रहा था।
हवाई अड्डे से हमे उस घर मेले जाया गया जो अरूप ने ओशो के लिए ढूंढा था। स्थिर चित व गुरु भक्त अरूप निरंकुश शासक करने वाली महिलाओं—लक्ष्मी व शीला। के साथ काम करते हुए भी स्वयं को बचा पाई थी। और मुस्कराते हुए उसमे सक गुजर गई थी। पुर्तगाल में हास्या व जयेश से सम्पर्क बनाए रखने के कारण उसे पता चला कि उरूग्वे में ओशो का रहना कितना भयप्रद हो गया था। अत: वह तुरंत जमाइका पहुंची और शरण लेने के लिए जगह ढूँढी। वह घर टेनिस के किसी विख्यात खिलाड़ी का था। वह घर अपने मैदानों में अव्यवस्थित रूप से फैल हुआ था,उसमे एक स्विमिंग पूल भी था और वहां से द्वीप का सुंदर दृश्य दिखाई देता था।
हमारे ग्रुप के अधिकतर लोग घर का हिसाब चुकाने और यह देखने के लिए कि आगे क्या होगा पीछे उरूग्वे में ही रूक गये थे।
उरूग्वे के वे लोग जिनसे हम मिले थे, प्रशासन के विरूद्ध अदालती कार्रवाई शुरू करनेवाले थे क्योंकि केवल ओशो के आवासीय वीजा की अस्वीकृति ही अवैध न थी बल्कि उरूग्वे के लोगों का यह भ्रम भी टूट गया था कि वे एक स्वतंत्र दो के वासी है। उन्हें ये देखकर दुःख हुआ कि वे उत्तर के लोगों के अधीन थे—अमरीकन लोगों को वे यही कहकर पुकारते थे।
ज्योंही हम वहां पहुंचे हमें शुभ समाचार मिला कि ओशो को जमाइका के किंग्सटन हवाई अड्डे पर बिना किसी कठिनाई के टूरिस्ट वीजा मिल गया है। परंतु तभी एक बुरी खबर भी मिली कि ओशो के विमान उतरने के दस मिनट बाद ही एक अमरीकन नेवी जैट वहां आ पहुंचा। यह संदेहात्मक बात थी। आनंदों ने उसे उतरते देखा था और दो सिविल अफसर उस जेट में से उतरे तथा सड़क पार कर टर्मिनस की और बढ़े। आनंदों ने जल्दी से ओशो तथा अन्य लोगों को विश्राम कक्ष में ले जाकर टैक्सी में बिठा दिया। हम जानते थे क उरूग्वे में हमारे फोन टेप कर लिए गए थे और इस सम्बंध में आनंदों ने ओशो से प्रश्न भी पूछा था:
लोग हमारे फोन टेप क्यों करते है। क्या वे आध्यात्मिक मार्ग दर्शन सस्ते मे प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे है।
पाँच मिनट की गपशप के बाद मैं अपने कमरे में लौट गई जहां मुझे आनंदों के साथ रहना था। कमरा छोटा था परंतु वातानुकूलित और ठंडा था। मैंने अलमारियां को खोलकर देखा और असमंजस में थी कि सामान खोलना उचित होगा या नहीं। फिर मैंने दांत के लिए दवाई ली और चौदह घंटे सोई।
अगली सुबह जब मैं नाश्ता ले रही थी दरवाज़े पर जोर-जोर से दस्तक हुई।
मैंने खिड़की में से देख कि छाह लम्बे उचे काले आदमी खाकी निकरें पहने हाथ में लाठियाँ लिये खड़े थे। उन्होंने कहा कि वे पुलिस के आदमी है। आनंदों उनके साथ बात करने के लिए बाहर गई। उनकी आवाज से लग रहा था कि वे गुस्से में है। उन्होंने पूछा कि जो लोग भी एकदिन पहले जमाइका में प्रविष्ट हुए है वे अपना पासपोर्ट लेकिर बाहर आ जाएं। उसने उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की कि हम सब पास प्रवेश के वैध वीज़े है। और उसने पूछा कि उनकी समस्या क्या है। वे बोले कि हमे यह द्वीप छोड़ना होगा अभी।
जब वे चले गये तो आनंदों ने अरूप को फोन किया जो पास के होटल में रुकी हुई थी। अरूप ने हमारे विषयात टेनिस खिलाड़ी से सम्पर्क स्थापित किया जो कुछ सरकारी अधिकारियों को जानता था। उसे विश्वास था कि सब ठीक हो जायेगा। हमें भी ऐसा ही लगा रहा था। की कहीं जरूर कुछ गलत फहमी होगी। अगले कुछ घंटों में हमने उन लोगों को बहुत फोन किए।
जो टेनिस खिलाड़ी के मित्र थे और जिनसे हमें आशा थी कि वे हमारी सहायता कर सकते है। बडी हैरानी की बात है, हमारे मित्र ने कहां,मैं जब भी पूछता हूं कौन बोल रहा है तो उत्तर मिलता है कि अमुक व्यक्ति आज कार्यालय में नहीं है। लगता है आज कोई भी अपने दफ्तर या घर में नहीं है। मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नही मिल रहा जो हमारी सहायता कर सके।
दो घंटे बाद पुलिस फिर आई इस बार मेरा दिल ही बैठ गया। उन्होंने हमारे पासपोर्ट ले लिए और हमारे वीजा रद कर दिया। सौभाग्य से हम ओशो को उनकी दृष्टि से दूर रखने में सफल रहे। अत: उन्हें झुलसा देने वाली गर्मी में पोर्च में रूकना नहीं पडा। वे लोग बड़े आक्रामक थे तथा वही जाना पहचाना भय वहाँ व्याप्त था। क्या वे भी ऐसा ही सोच रहे थे। कि वे भयानक आतंकवादियों का सामना कर रहे है जैसा कि अमरीका, भारत और क्रीट की पुलिस सोचती थी।
जब आनंदों ने उनसे पूछा कि हमे देश से बाहर निकालने के आदेश क्यों दिये गये। तो उनका साधारण सा उत्तर था ‘आदेश’। जब उसने ओर अधिकारी जानकारी के लिए जोर डाला तो उन्होंने बताया कि ये आदेश राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत दिए गए है। सूर्यास्त से पहले ओशो को यह देश छोड़ना होगा।
मां प्रेम शुन्यों
(माई डायमंड डे विद ओशो) हीरा पायो गांठ गठियायो)
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